कंचन अम्मा
किसने बनायी चले जाने की रीत रे....दुःख चले साथ साथ सुख चले पीछे रे....गीत के कितने गहरे अर्थ है. जीवन के गूण रहस्य छिपे है इस गीत में, जीवन से कब, कौन, कैसे, चला जायेगा यह कोई नहीं जानता. पीछे छूट जाता है उस व्यक्ति से जुड़ा आपका लगाव जो रह रहकर आपको उसकी याद दिलाता है. कोई कितनी भी कोशिश कर ले उस व्यक्ति की अच्छी यादों को याद करने की लेकिन याद उससे जुड़ी केवल दुःख की बातें ही आती है. उसका दुःख, उसकी तकलीफ, ही याद आती है जो आपको भी हमेशा दुःख ही पहुँचाती है क्यूंकि दुःख और तकलीफ ज़िन्दगी के वह अनुभव होते है जो भुलाये नहीं भूलते. कभी किसी को खुशी का पल एक बार को याद रहे ना रहे मगर कभी कोई अपना दुःख नहीं भूलता शायद इसलिए ही यह पंक्ति लिखी गयी होगी कि दुःख चले साथ साथ सुख चले पीछे रे.
बनारस के मणिकर्निका घाट पर बैठी एक युवान स्त्री अपने पति की जलती हुई चिता को एकटक, अपलक देख रही थी. आस पास के परिजन रो रो के उसे यह एहसास दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि उसके पति की मृत्यु हो गयी है और उसे इस बात के रोना चाहिए क्यूंकि उसके जीवन में अब कोई उदेश्य नहीं रह गया है, जीने के लिए. किसी सुंदर सी नव विवाहिता के साथ ऐसा कुछ हो जाना आज भी समाज के लिए एक बड़े दुःख का घटित हो जाना माना जाता है. क्यूंकि आज भी समाज पितृ सत्ता से उबर नहीं पाया है. उपर से पुराने रीती रिवाजों को मानने वाला अशिक्षित परिवार हो तो स्त्री का जीवन वाकई में खत्म ही हो जाता है.
खैर चिता जल जाने के बाद सभी वहां से लौट जाते है. लेकिन वह स्त्री वहां से नहीं जाती. नाते रिश्तेदारों के बहुत समझाने और कहने के बाद भी उसका मन वहां से हिलना नहीं चाहता. वह वहीं बैठी बाकी आती जाती लाशों का दाह संस्कार भी वैसे ही अपलक देखती रहती है, जैसे उसने अपने पति का देखा था. वह अपने मन में यह सोच रही है कि वह किस चीज का शौक मनाये, किस के लिए मनाये जिस व्यक्ति के साथ वह ब्याही गयी थी, उसे तो वह जानती तक नहीं थी ना पहले कभी मिली, ना उनके बीच अभी इतना संवाद ही हुआ था कि वह उस व्यक्ति से कोई जुड़ाव महसूस कर पाती उसके पहले ही उस व्यक्ति ने संसार त्याग दिया था.
तभी वहां एक अन्य स्त्री आकर उसके सर पर बड़े प्यार से हाथ रखती है. उसकी आँखों में आँखें डाल बिना कुछ कहे ही आँखों से ही यह सवाल करती है कि आगे क्या करना है...?? पहले तो वह सुंदर स्त्री उसे कुछ नहीं कहती. लेकिन अगले ही पल वह उस अंजान स्त्री से लिपट कर फूट फुटकर रोने लगती है और बार बार यही कहती है,
“मुझे वहां नहीं जाना, मुझे वहां नहीं जाना...”
तो वह अंजान स्त्री उससे कहती है “तो अपने घर चली जा.”
“घर..? कौन सा घर...? कैसा घर...? मेरे घर में माँ बाप नहीं है. भाई भोजाई ने मेरा ब्याह किया था और अब वो मुझे अपनाने को राजी नहीं है. फिर किस मुंह से जाऊं में वहां...?”
“अरे फिर अकेली स्त्री के लिए तो यह दुनिया जंगल के सामान है बहन, यहाँ हर कोई आदमी बस एक भूखा जानवर है जो अपनी भूख मिटाने के लिए घात लगाए बैठा है. उपर से तुम इतनी सुन्दर हो कि तुम पर तो ना जाने कितने गिद्ध अपनी आँखें गड़ाये बैठे होंगे... तुम्हारे पास वहां रहने के अलावा अब और कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है.”
तभी रोती हुई उस सुंदर स्त्री ने उस अंजान स्त्री की बांहों में खुद को कस्ते हुए पूछा
“क्या मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती...??”
तभी उस अंजान स्त्री के मन में आया कि हाँ बात तो सही है. मैं भी अकेली ही रहती हूँ तो फिर यदि यह भी मेरे ही साथ रहने लगे तो इसमें कोई बुराई नहीं है. मुझे भी एक सहेली मिल जाएगी. लेकिन फिर उसे अचानक ही अपनी जाती का भान हो आया और उसने उस सुन्दर सी स्त्री को अपने आप से एकदम से अलग कर दिया और बोली
“नहीं नहीं तुम मेरे साथ नहीं रह सकती...!”
“नहीं रह सकती, पर क्यों...? क्या तुम्हारे घरवाले माना कर देंगे इसलिए...?”
“नहीं... मेरा भी तुम्हारी तरह इस दुनिया में कोई नहीं है.”
“तो फिर, समस्या क्या है...? क्या मैं एक हाल की विधवा हूँ इसलिए तुम भी मुझे अपने साथ नहीं रखना चाहती...?”
“नहीं...! वो बात नहीं है, मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.”
“तो फिर...?”
“वो... वो...! बात ऐसी है ना की...अंजान स्त्री कहने में हिचक रही है.
“क्या वो वो, किए जा रही हो सच सच कहो ना क्या बात है.”
“वो मैं... हरिजन हूँ.. और मुक्तिधाम में मेला साफ करने का काम करती हूँ...!” कहते हुए अंजान स्त्री की आँखों से आंसू की बूंदें टपक पड़ी.
“बस इतनी सी बात...! मैं इन सब बातों में विश्वास नहीं करती.”
“लेकिन तुम तो एकदम ऊँचे कुल की लगती हो, किसी को पता चल गया तो लोग जान ले लेंगे तुम्हारी.”
यह सुनकर सुन्दर स्त्री के होंठों पर एकदम फीकी सी मुस्कान उभर आयी और उसने कहा
“कौन से लोग...? वह जिन्हें अब मेरे होने या ना होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. जिनके लिए में अब एकदम अपशघूनी से अधिक और कुछ भी नहीं...?”
“हाँ लेकिन तुम एक स्त्री तो हो और एक स्त्री की आज़ादी, उसकी उन्मुक्तता इस समाज के शास्त्रियों से देखी नहीं जाती.”
“तो इसका यह अर्थ हुआ कि अब इस संसार में मेरे लिए कोई स्थान नहीं बचा है..?”
“नहीं मेरे कहने का वो मतलब नहीं था.”
“तो फिर, क्या तुम मुझे अपने साथ रखने को तैयार हो...?”
“नहीं, मैं तुम्हें अपने साथ रखकर तुम्हारी जान के दुश्मन नहीं बनाने दे सकती. लेकिन हाँ एक जगह है जहाँ तुम रह सकती हो. क्या तुम थोड़ा बहुत पढ़ी लिखी हो...?”
“हाँ, पर ज्यादा नहीं..”.
“कित्ता..? गीता, रामायण तो पड़ सकती होगी ना...?”
“हाँ उतना तो पढ़ लेती हूँ.”
“बस तो फिर तुम्हारे काम की व्यवस्था हो गयी समझो...! पर ज्यादा पैसा नहीं मिलेगा. पंडो की नगरी है ना...! लेकिन तुम चिंता ना करो यह मेरे बाबा अर्थात महादेव की नगरी है. यहाँ कभी कोई भूखा नहीं सोता. तुम चलो मेरे साथ.”
दोनों स्त्रियां एक दूजे का हाथ थामे घाट से लौट गयी. जाते जाते भी उस सुन्दर स्त्री ने एक बार अपने पति की ठंडी पड़ चली चिता की और देखा और मन ही मन कहा
“बस यहीं तक साथ था हमारा अब तुम जाओ अपनी नयी यात्रा की ओर मैं जा रही हूँ अपने नये गंतव्य की ओर...”.
आगे वह अंजान स्त्री उस सुंदर स्त्री को लेकर (कंचन) अम्मा के द्वारा पर ले गयी. कंचन अम्मा बहुत सालों से श्मशान में अकेले काम कर रही थी उनका अनुभव और चेहरे की झुर्रियां और सख्त जुबान उनके जीवन के एकल संघर्ष को बयां कर रही थी. बूढ़ी हड्डियों के बावजूद उनके व्यक्तित्व में एक अजीब सी आभा थी जो लोगों को अपनी और आकर्षित करती थी. उस सुंदर स्त्री को देखकर कंचन अम्मा ने अपनी बुलंद आवाज में पूछा,
"हाल की विधवा हो....? यहाँ रह सकोगी डर तो नहीं लगेगा...? मुर्दों के बीच रहना भी आसान नहीं होता.. लेकिन जिंदा रहने के लिए काम तो करना ही पड़ता है वरना इन मुर्दों में और हम में फर्क ही क्या रह जायेगा... मैं तो तुम्हें बस यही काम दे सकती हूँ. कर सको तो ठीक वरना दुनिया खुली है... जो मर्जी हो करो. आखिर अब तेरा अपना जीवन है और उसे अपने ढंग से जीने के लिए तू अब पूरी तरह स्वतंत्र है.? यही तो एक मात्र सुख है, एक विधवा के जीवन का जिसे कोई पूछने वाला नहीं होता कहते हुए अम्मा जोर जोर से हँसने लगी हा..!हा...!हा...!
कहने को वो एक ठहाके था लेकिन उसमें भी एक गहरी टीस छिपी थी.
कंचन अम्मा की रोबीली आवाज और रहन सहन देखते हुए पहले तो वह सुन्दर स्त्री थोड़ा डर सी गयी. पर उसने सोचा अब उसके पास और कोई दूजा विकल्प भी तो नहीं यहाँ कम से कम सर छिपाने को छत तो है और दो वक्त की रोटी भी, काम भी मरे हुए लोगों का ही करना है तो कुछ कहने वाला भी नहीं इसलिए उसने हाँ कह तो दिया...
लेकिन शुरुआत में ही कुछ शत-विषत शरीरों को देख उसकी रूह काँप गयी. वहां के माहौल में जहाँ उसे दिन रात सिर्फ लाशें ही दिखायी देती थी से ऐसा लगने लगा था कि मुर्दों के बीच काम करते करते अब वह खुद भी ज़िंदा नहीं है अर्थात पत्थरा सी गयी है भावना शून्य काम भी ऐसा था कि मरने की फुर्सत नहीं मिलती थी. एक गया नहीं कि दूसरा हाजिर है. अजीब सा माहौल चिताओ कि गर्मी और आगे की लपलपाती लपटों से बनती विभिन्न आकृतियाँ मन में वहम पैदा कर देती. कई बार लगता मानो कोई आत्मा उससे संपर्क साधना चाहती है. महीनों वो लड़की सो नहीं पाती, उसका कोमल शरीर चिताओं से उठ रही आगे की तपिश को सहने के लिए नहीं बना था. लेकिन फिर भी कई बार उसका डर पसीना और घबराहट को देखते हुए कंचन अम्मा उसके माथे पर उसी लाश की भस्म उसके माथे पे यूँ लगा दिया करती कि उसकी अंदर की सांस अंदर ही अटक के रह जाती. लेकिन वह कुछ कह ना पाती. एक दिन फिर किसी का दाह संस्कार करने के बाद वह नहा धोकर उस अंजान स्त्री से मिली और कहने लगी
“बहन मुझे अब और अधिक यह काम ना हो पायेगा, मुझे रातों को बहुत डर लगता है. मुझे ऐसा लगता है की अब तक जितनी भी लाशों का मैंने दहा संस्कार किया है वह सभी लोग रातों को मुझे घेर कर मेरे चारों और खड़े दिखायी देते है. मुझे बहुत डर लगता है बहन, तुम मुझे अपने साथ रख लो ना मैं भी वही काम कर लूंगी या फिर घर संभाल लुंगी पर मुझे यहाँ से निकला लो.”
कहते हुए वह सुंदर स्त्री ज़ोर ज़ोर से रोने लगी तो अंजान स्त्री ने कहा...
“हाँ तो कंचन अम्मा ने तो पहले ही कहा है ना कि वहां कोई बाध्यता नहीं है, तुम जब चाहो यह काम छोड़ सकती हो.”
“हाँ लेकिन वहां मुझे दुनिया से अधिक सुरक्षित भी महसूस होता है. कई बार कंचन अम्मा मुझे बहुत डरावनी भी लगती है तो कभी अपनी माँ जैसी भी लगती है. समझ नही आता मुझे मति भ्रम हो गया है या यही सच्चाई है, या फिर मेरा उनसे पिछले जन्म का कोई नाता है.? ”
अंजान स्त्री ने कहा “कंचन अम्मा ऐसी ही है...! उनके रहते उनके आस पास रहने वाली हर स्त्री अपने आपको बहुत सुरक्षित महसूस करती है. अरे मैं भी तो इसलिए यहाँ आती जाती बनी रहती हूँ ताकि दुनिया वालों को इस बात का एहसास हमेशा बना रहे कि मैं इस दुनिया में अकेली नहीं हूँ. मेरे सर पर कंचन अम्मा का हाथ है.”
“तो क्या तुमने भी वही अनुभव किया है, जो मैंने.... कहते हुए सुंदर स्त्री चुप हो गयी.”
लेकिन उसकी आँखों में एक सवाल था उस अंजान स्त्री के लिए जिसे पढ़कर उसने कहा
“अरे यह कोई नयी बात नहीं है बहन, जब लोगों ने मुझे जैसी एकदम साधारण दिखने वाली हरिजन मेला उठाने वाली स्त्री को लोगों ने नहीं छोड़ा, तो तुम तो बहुत ही सुन्दर पढ़ी लिखी ऊँचे कुल की लगती हो तो तुम्हें भला लोग कैसे छोड़ते. लेकिन चूंकि तुम कंचन अम्मा के यहाँ रहती हो इसलिए लोग सिर्फ तुम्हें ताड़कर ही अपने अंदर जाग रहे जानवर को शांत कर लिया करते है.”
लेकिन मुझे तो इनकी आँखें भी शूल के समान चुभती है. ऐसा लगता है कि आँखें वस्त्रों के अंदर तक झाँक लेती है और ऐसा लगता है....ऐसा लगता है,
“जैसे वह इंसान के भेस में भेड़िये है और आँखों से ही बलात्कार कर लेंगे है ना...??” अंजान स्त्री ने आँखों में ज्वाला लिए सुंदर स्त्री का वाक्य पूरा कर दिया.
फिर अचानक ही उसने उसका हाथ पकड़ा और उसे उठाकर मुक्तिधाम के पास में बने एक बड़े मंदिर में ले गयी. वह तो अंदर जा नहीं सकती थी इसलिए उसने मंदिर के बाहर खड़े होकर ही पंडित जी के बाहर आने का इंतजार करना उचित समझा और जब वो बाहर आये तो उनसे कहा
“कि यह मेरी सहेली है, गीता, रामायण, आदि पढ़ना जानती है और यह ऊँचे कुल से भी है इसलिए इसे यहाँ मुक्तिधाम में मोक्ष पाने आये लोगों के लिए रख लो ताकि यह उन्हें गीता, रामायण, आदि का पाठ सुनाया करेगी. बदले में आप इसे कुछ पैसे और यहाँ रहने की अनुमति प्रदान कर दो.”
पंडित जी ने हल्का गुस्सा करते हुए कहा “तुम निवेदन कर रही हो या आदेश दे रही हो मुझे ?”
“मैं भला आपको आदेश कैसे दे सकती हूँ आप तो मेरे पिता तुल्य है मैं तो केवल आप से निवेदन ही कर सकती हूँ और मैं वही कर रही थी”
“देख मैं तुझे लंबे समय से जानता हूँ इसलिए कुछ कह नहीं रहा हूँ लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि तू मुझे आदेश के स्वर में मुझसे बात करे.”
“ना ना पनधित जी कदापि नहीं” अंजान स्त्री ने हाथ जोड़ते हुए विनती के भाव में पंडित जी से कहा.
पंडित ने एक नजर उस सुंदर स्त्री को उसने उपर से नीचे तक देखा फिर कुछ सोचा और कहा
“ठीक है, यह यहाँ रह सकती है. लेकिन जो कुछ भी यहाँ इससे करने को कहा जायेगा इसे करना होगा.”
“जो कुछ भी से क्या तात्पर्य है आपका...?”
“मेरे कहने का अर्थ है भगवान की सेवा मंदिर की साफ सफाई निर्माल्य आदि बटोरने का कार्य आदि और भला मंदिर जैसी पावन जगह में और क्या ही काम हो सकता है करने के लिए”. कहते हुए पंडित जी वहां से निकल गए.
अंजान स्त्री ने कहा “ले बहन यहाँ भी तेरा काम हो गया. अब तू यहाँ शांति से यहाँ रह सकती है.”
सुंदर स्त्री ने कुछ नहीं कहा उसके मन में यह उलझन अब भी चल रही है कि उसका यह निर्णय उचित है या अनुचित कहीं कंचन अम्मा को छोड़कर उसने कोई गलती तो नहीं कर दी उसके सुंदर से चेहरे पर उसके मन के भावों को आसानी से पढ़ा जा सकता है कि इस वक्त वो किस ओह पोह और असमंजस से गुजर रही है.
इधर कंचन अम्मा को पता लग गया कि उसने घाट छोड़कर मंदिर की शरण लेली है. जब वह अपना थोड़ा सा समान लेने आयी तो कंचन अम्मा ने अपनी रोबीली आवाज में उससे कहा...
“आखिर तुझे भी सच को छोड़कर झूठ ही पसंद आया.. खैर जा तेरे जैसे ना समझो के लिए यह जगह नहीं है क्यूंकि यह जगह संसार का आखिर सच है और जिस संसार को तूने चुना है वह एक छल है दिखावा है वहां रहने वालों को भी एक दिन यही आना है.... हा हा हा.....! जा चली जा यहाँ से... जा....!”
कंचन अम्मा के इस संवाद ने उस सुंदर स्त्री के मन की उलझन को और अधिक बढ़ा दिया. उनकी कही यह बात बहुत दिनों तक उसके मन में गूंजती रही. पहले कुछ दिन तो मंदिर में शांति से बीते ऐसा लगा मन को असीम शांति का अनुभव हुआ है ईश्वर की सेवा से अधिक उत्तम और कोई दूसरा कार्य हो ही नहीं सकता. यही वो मार्ग है जो इंसान को मोक्ष की ओर लेजा सकता है. जहाँ महादेव का वास हो और उनकी सेवा करने का माध्यम मिल गया हो, इसे बड़ी जीवन की सार्थकता और भला क्या ही हो सकती है. यदि वहां भी इंसान को मोक्ष प्राप्त ना हुआ तो फिर क्या ही प्राप्त हुआ..
ऐसा सब अपने मन को, अपने आपको समझाने के बावजूद जब भी कभी वह सुंदर स्त्री पाठ के दौरान उन बूढ़े बुज़ुर्गों के भाव शून्य चेहरे को देखती तो उसे समझ नहीं आता कि वह सही कर रही है या गलत. मरने कि कगार पर दुःख, तकलीफ, मानसिक अस्थिरता को सहते हुए यह घरों से बहिष्क्रित किए हुए वृद्ध जो सिर्फ और सिर्फ मोक्ष पाने की चाह में मृत्यु की बाट जो रहे होते है. हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी वृद्धजन परिवार से बहिष्कृत ही होते है. कुछ ऐसे भी है, जो अपनी अंतिम इच्छा के नाम पर अपने परिवार के किसी सदस्य द्वारा यहाँ लाये गए हैं. ताकि उन्हें मोक्ष कि प्राप्ति हो सके यूं भी “मुक्तिधाम” में किसी को पंद्रह दिन से अधिक रुकने कि अनुमति नहीं होती. ऐसा क्यूँ है...?
उन वृद्धजनों को देखकर अक्सर उसके मन में कंचन अम्मा की कही बातें गूंजने लगती. उसे वहां लायी गयी लाशों के चेहरे दिखने लगते, लेकिन उन मृत शरीरों के भाव शून्य चेहरों में और इन जीवित भाव शून्य चेहरों में कितना बड़ा अंतर है. एक ऐसा अंतर जिसे देखने बाद और महसूस करने के बाद उस सुंदर स्त्री को कंचन अम्मा के पास वापस लौट जाना ही अर्थपूर्ण लगने था. लेकिन कुछ रास्ते ऐसे होते हैं जो एक बार छूट जाये तो फिर उन पर दुबारा लौटा नहीं जा सकता.