Jo kahi nahi Gaya - 2 in Hindi Love Stories by W.Brajendra books and stories PDF | जो कहा नहीं गया - 2

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जो कहा नहीं गया - 2

जो कहा नहीं गया – भाग 2

(एक मौन… जो छाया बनकर चलता रहा)

सन्नाटे में गूंजता नाम
समय की रेत बहुत कुछ बहा ले गई थी।

अब राजा विष्णु का तेज़ शांत पड़ चुका था, शरीर वृद्ध हो गया था, लेकिन मन की लौ अब भी धधक रही थी 

किसी एक स्मृति में, जो शब्दों से नहीं… मौन से जुड़ी थी।

हर पूर्णिमा को, वे एक थाली सजाते — उसमें चंपा के फूल, एक दीपक, और एक पुरानी चिट्ठी रखते।
चिट्ठी अब पीली पड़ चुकी थी, किनारे घिस चुके थे…
लेकिन हर बार जब वे उसे पढ़ते, ऐसा लगता मानो पहली बार पढ़ रहे हों।

वो चिट्ठी राध्या की थी।
जिसे शायद कभी उसने कहा नहीं — बस लिखा था, और वो भी तब… जब जाने का समय था।


कुटिया में वो कौन थी…?
वर्षों बाद, किसी अमावस्या को, एक वृद्ध स्त्री उनकी कुटिया में आई थी।
उसकी आँखों में गंगा-सी शांति थी, और हाथों में काँपती माला।

शिष्य पूछते, “गुरुदेव, वो वृद्ध स्त्री कौन थी?”

विष्णु मुस्कुराते —
“कभी-कभी आत्माएँ सिर्फ दर्शन देने लौटती हैं।
वे कुछ नहीं कहतीं…
क्योंकि उन्हें सब कुछ मौन में पहले ही कह दिया गया होता है।”

पर एक शिष्य था — अंशु।
उसका हृदय जिज्ञासु था।

एक रात, उसने आश्रम के पुराने ग्रंथों को उलट-पलट कर पढ़ा, और पाया —
वह स्त्री, जिसने चिट्ठी दी थी, दस वर्षों से लापता मानी जाती थी।


एक गुप्त खोज
अंशु को आश्रम की एक गुफा में, एक माला मिली।
उसके मोतियों पर बहुत बारीक अक्षर खुदे थे:

"विष्णु" 
"राध्या"

वो काँप उठा।

क्या राध्या सच में फिर लौटी थी?
या किसी अन्य रूप में अब भी… इस संसार में थी?


विष्णु अब गहन ध्यान में जाने लगे थे।
कभी-कभी उनके होंठ हिलते थे — पर कोई शब्द नहीं निकलते।

शिष्य पूछते, “गुरुदेव, आप किससे संवाद करते हैं?”

कोई उत्तर नहीं मिलता।

लेकिन एक दिन, उन्होंने मिट्टी की थाली में फूल सजाए और धीमे स्वर में कहा:

“प्रेम की कुछ पुकारें ऐसी होती हैं —
जो जन्म से नहीं… आत्मा से जुड़ी होती हैं।”



अमावस्या की रात
एक रात, जब चंद्रमा छुपा हुआ था,
विष्णु समाधि में चले गए।

उस रात… कुटिया के पास किसी स्त्री की परछाईं देखी गई।
सुबह वहाँ कोई नहीं था।

बस एक चूड़ी पड़ी थी — और मिट्टी में एक पंक्ति उकेरी गई थी:

 “अब अगली पूर्णिमा पर, मैं फिर लौटूंगी —
मगर इस बार… नए रूप में।”


अंतिम संस्कार नहीं… अगली यात्रा
महीनों बाद, विष्णु ने अपने संन्यास की अंतिम विधियाँ पूरी कीं।

शिष्य सोच रहे थे कि अब गुरुदेव समाधि लेंगे।

लेकिन उन्होंने बस इतना कहा:

 “मैं जा नहीं रहा…
मैं बस आगे बढ़ रहा हूँ।
अब मेरा मिलन उसी से होगा —
जो मुझसे जन्मों तक मौन में जुड़ी रही।”



और वे हिमालय की ओर निकल पड़े — एक नई यात्रा पर।


शांत हिमालय की ओर जाते हुए, उनकी पीठ पीछे एक हल्की हवा चली।
किसी ने नहीं देखा…
पर कुछ लोगों ने सुना — जैसे किसी ने धीमे से कहा हो:

 "कुछ मौन इतनी गहराई से जीते जाते हैं,
कि पुनर्जन्म में भी उनके स्वर लौट आते हैं।

अगली पूर्णिमा… शायद वो फिर मिलें —
पर इस बार… नाम नहीं, सिर्फ मौन में।”




क्या वो वृद्धा सच में राध्या थी?
क्या माला में खुदे अक्षर उनकी आत्मिक गाँठ की निशानी थे?

या यह प्रेम अभी भी कहीं मौन में चल रहा है… अगली पूर्णिमा की प्रतीक्षा करता हुआ?



कहानी अभी भी बाकी है दोस्तों कहानी अच्छी लगे तो प्रतिक्रिया जरूर दें 
                     धन्यवाद