Maharana Sanga - 2 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 2

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महाराणा सांगा - भाग 2

ईर्ष्या की आग 

समया संकट सरोवर के जल में तैरते असंख्य दीपों के सामूहिक झिलमिल प्रकाश से आसपास का वातावरण आलोकित हो रहा था और उस प्रकाश में चित्तौड़ की रमणियाँ बड़ा ही लुभावना नृत्य कर रही थीं। वाद्ययंत्रों से निकलते सुमधुर स्वर उस आनंदोत्सव को और भी मोहक बना रहे थे। महाराणा रायमल अपनी सभी रानियों और परिजनों सहित इस उत्सव का आनंद ले रहे थे। मेवाड़ में विजयोत्सव पर दीपदान की परंपरा बहुत पुरानी रही है। इस अवसर पर प्रजा को भोजन और दान दिया जाता था। प्रजाजनों के लिए ऐसे अवसर धनवर्षा योग जैसे होते थे। 

युवराज पृथ्वीराज अपने हमउम्र साथियों में आज के अभियान का वर्णन कर रहे थे तो कुँवर संग्राम सिंह अपने पिता और माताओं का दुलार लेने में व्यस्त थे। इन दोनों के विपरीत राजकुमार जयमल एक कोने में निराश खड़े अपने भाइयों को हँसते-खिलखिलाते हुए देखकर ईर्ष्या की आग में जल रहे थे। आज आखेट के समय संग्राम सिंह ने व्यंग्य भरी बातें तो कही ही थीं, उस पर उन दोनों भाइयों की सामूहिक एकता ने और भी ईर्ष्या पैदा कर दी थी। उसके बाद रही-सही कसर लुटेरों से टकराव होने पर उन दोनों के पराक्रम ने पूरी कर दी, जब वे दोनों भाई एक-दूसरे को उत्साहित करते हुए लुटेरों पर टूट पड़े थे। यद्यपि जयमल ने भी अपनी तलवार से दर्जनों लुटेरों को यमलोक पहुँचाया था, परंतु अधिक शिकार संग्राम सिंह की तलवार से ही हुए थे। विजयोन्माद में लौटते हुए पृथ्वी ने इस बात पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर दी थी। 

‘‘अनुज जयमल,’’ पृथ्वीराज ने कहा था, ‘‘तुमने तो नाहक ही तलवार को म्यान से बाहर निकालने का कष्ट किया। तनिक देख तो लो कि उस पर शत्रु के रक्त की कोई बूँद लगी भी है या नहीं।’’ 

‘‘राजपूती तलवार म्यान से निकालकर बिना रक्तपान कराए म्यान में नहीं रखी जाती भ्राताश्री!’’ जयमल ने तिलमिलाकर कहा,‘‘यह तो पहला ही अवसर था। अभी तो आगे बहुत से ऐसे अवसर आएँगे।’’ 

इस बात पर संग्राम सिंह खिलखिलाकर हँस दिया था और जयमल को खून का घूँट पीकर रह जाना पड़ा था। इन बातों का स्मरण करके उस उत्सव में भी उसका मन उद्वेलित हो रहा था। क्या वह वीर नहीं था? क्या प्रशंसा और सम्मान के लिए पटरानी के गर्भ से ही जन्म लेना अनिवार्य? 

इन सब प्रश्नों ने जयमल के किशोर मस्तिष्क को मथ दिया था। 

सूरजमल के लिए उसकी मनोस्थिति ताड़ना कोई कठिन काम नहीं था और ऐसे अवसर से चूकना तो उसने सीखा ही नहीं था। ‘‘क्या बात है कुमार? इस आनंद के अवसर पर ऐसी उदासी क्यों? यह उत्सव तो तुम्हारी विजय के उपलक्ष्य में मनाया गया है।’’ सूरजमल ने जयमल के पास आते हुए गंभीर स्वर में कहा,‘‘इस नैराश्य से बाहर आओ और उधर देखो, कितना सुंदर नृत्य हो रहा है!’’

 ‘‘काका! यह उत्सव तो युवराज पृथ्वी और राजकुमार संग्राम की विजय के उपलक्ष्य में आयोजित हुआ है।’’ जयमल ईर्ष्या की आग में जलते हुए बोला, ‘‘हम तो इनकी प्रजा हैं, सहायक भी मान लिया जाए तो बड़ी बात है।’’ 

‘‘ऐसा क्यों सोचते हो कुमार? राजपुत्र सदैव राजपुत्र रहते हैं। दुभार्ग्य ही हो तो अलग बात है। मुझे ही देखो, क्या मैं राजपुत्र नहीं हूँ? क्या मेरी वीरता पर संदेह किया जा सकता है? मैं फिर भी शरणागत ही तो हूँ। क्या महाराणा कुंभा के विशाल साम्राज्य में हमारा इतना भी अधिकार नहीं था, परंतु इस दुर्भाग्य से कौन जीते!’’

 ‘‘मेरे साथ भी यही होगा।’’ जयमल ने जैसे स्वतः भाषण किया।

 ‘‘इतनी निराशावादी सोच क्यों रखते हो? तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए कोई छोटी-मोटी रियासत अवश्य ही देंगे, ताकि तुम किसी के शरणागत न रहो।’’

 ‘‘मुझे कोई रियासत नहीं, मेवाड़ चाहिए।’’ जयमल ने दृढ स्वर में कहा।

 ‘‘यह कैसे संभव है? युवराज तो पृथ्वीराज हैं। वे भी न हों तो पराक्रमी संग्राम सिंह हैं।’’ सूरजमल ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘यह असंभव है कुमार!’’ 

‘‘मैं असंभव को संभव कर सकता हूँ। मैं उन राजपूतों में से नहीं हूँ, जो अपने अधिकार छिन जाने पर दुर्भाग्य का रोना रोते हैं।’’ जयमल ने दृढ़ता से कहा, ‘‘सिंहासन पर उसका अधिकार होता है, जिसकी भुजाओं में बल और दिमाग में बुद्धि होती है। मेरे पास भुजबल अवश्य कम हो सकता है, परंतु बुद्धि तो है और यदि आप मेरा साथ दें तो...।’’ 

‘‘कुमार जयमल! तुम्हारे इन कुविचारों का मैं समर्थन नहीं कर सकता।’’ जयमल के मन की थाह लेने की कोशिश करता हुआ सूरजमल बोला, ‘‘मेवाड़ राजवंश में इस प्रकार के षड्यंत्रों ने सदैव से ही पारिवारिक क्लेश को बढ़ाया है।’’ 

‘‘और इस अन्याय ने शरणागतों को!’’

 ‘‘कुमार! तुम्हारा अभिप्राय मैं समझ रहा हूँ।’’ सूरजमल मन-ही-मन मुदित होते हुए बोला, ‘‘निश्चय ही इस राजवंश में स्थापित सत्ता प्रणाली अनुचित है, जिसमें अधिकारों का हनन होता है। जो योग्य होते हैं, उन्हें इस पद्धति ने वंचितों की श्रेणी में ला दिया है, परंतु...।’’ 

‘‘काका, अपने मन की पीड़ा को इस प्रकार दबाना उचित नहीं है।’’ जयमल ने कहा, ‘‘आप बुद्धिमान हैं और आपको राजनीति का भी अच्छा ज्ञान है। अपने ज्ञान से अपना भविष्य सँवारने का सभी को मानवीय अधिकार होता है। क्या आप स्वयं सदैव शरणागत रहने की इच्छा मन में पाले बैठे हैं और क्या यही आप सब मेरे लिए सोच रहे हैं? क्या आपने राम-लक्ष्मण का दृष्टांत अकारण दिया था?”

 ‘‘कुमार, मुझे गलत न समझना। अधिकारों के प्रति सभी सजीव प्राणी सजग रहते हैं और महत्त्वाकांक्षा सभी पालते हैं। मैं भी इन भावों से विलग नहीं हूँ, परंतु ऐसी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति बिना राजाश्रय के नहीं होती। मैं शरणार्थी हूँ और अपनी क्षमता से अधिक पैर फैलाकर आत्मघाती कदम उठाने में मैं स्वयं को असमर्थ समझता हूँ। हाँ, यदि तुम मेरी सुरक्षा का आश्वासन दो तो मैं जोखिम उठाने का साहस कर सकता हूँ।’’ 

‘‘मैं आश्वासन नहीं वचन देता हूँ कि किसी विपरीत परिस्थिति में भले ही मेरे प्राण चले जाएँ, फिर भी मैं आप पर आँच नहीं आने दूँगा। यह एक राजपूत का वचन है काका!’’ जयमल ने खुलकर अपनी ईर्ष्या का प्रदर्शन किया, ‘‘वह देखिए, पृथ्वी और साँगा को! प्रजाजन और परिजन उनके सामने किस प्रकार बिछे जा रहे हैं, जैसे आज की विजय केवल इन्हीं के पराक्रम से हुई है। क्या मैं उस अभियान का हिस्सा नहीं हूँ? एक बार भी किसी ने मेरी प्रशंसा में एक शब्द तक नहीं कहा। हाँ, सामूहिक स्वागत में अवश्य विजयमाला पड़ी थी।’’

 ‘‘यही राजपूती परंपराएँ तो हमें भी पसंद नहीं हैं कुमार! हम राज्य की रक्षा में रक्त बहाने से कभी पीछे नहीं रहते, परंतु हमें राजपरिवार का सदस्य नहीं माना जाता। हम केवल सैनिक की भाँति प्रयोग में लाए जाते हैं।’’

 ‘‘फिर भी आप मौन रहकर शरणागत बने हुए हैं।’’

 ‘‘असमर्थ और असहाय को परिस्थितियों से समझौता करना ही पड़ता है। जब तक बलवान् का आश्रय न हो, महत्त्वाकांक्षाएँ दबाए रखने में ही भलाई है, अन्यथा मृतकों की सूची में नाम लिख दिया जाता है।’’

 ‘‘काका! अभी हमारे शत्रु भी इतने बलवान् नहीं हैं कि सुदृढ योजना बनाकर उन्हें अपने मार्ग से न हटाया जा सके। कोई तो ऐसी योजना होगी, जिससे हमारा मनोरथ सिद्ध हो सके?’’ जयमल ने कहा। 

‘‘अब तो मुझे तुम्हारा आश्रय प्राप्त हो गया है। अतः शीघ्र ही मैं कोई ऐसी योजना सोचता हूँ कि मेवाड़ के सिंहासन पर तुम्हारा अधिकार निष्कंटक हो जाए, परंतु स्मरण रहे कि हमारे उद्देश्य की भनक किसी को न लगे। इस राजनीति की पहली शर्त यही होती है कि इसमें गोपनीयता रहनी चाहिए।’’ 

‘‘मैं इस बात को भली-भाँति जानता हूँ।’’

 ‘‘तो जाओ और प्रसन्नता से कुँवर संग्राम सिंह की प्रशंसा में गुणगान करो।’’ 

जयमल ने सहमति में सिर हिला दिया। 

**********

सूरजमल की कुटिल चाल 
दीपदान के उत्सव में रात भर नृत्य-गान होता रहा और उसी अनुपात में कुँवर संग्राम सिंह की प्रशंसा होती रही। कुछ समय पश्चात् संग्राम सिंह भी आश्चर्यचकित हो गए कि उन्होंने ऐसा कौन सा काम कर दिया है, जो इतनी प्रशंसा केवल उन्हें ही मिल रही है। इस गुणगान ने कुँवर पृथ्वीराज को भी असहज कर दिया था।

आज के विजय अभियान में पृथ्वीराज ने संग्राम सिंह से अधिक नहीं तो कम भी योगदान नहीं किया था, फिर भी उपस्थित जन-समुदाय क्यों संग्राम सिंह की ही प्रशंसा में मग्न था और महाराणा भी बार-बार संग्राम सिंह को अपने हृदय से लगाकर क्या सिद्ध कर रहे थे? यह देखकर अब युवराज पृथ्वी को बार-बार यह आशंका होने लगी थी कि कहीं उसका राज्याधिकार संकट में तो नहीं है? पृथ्वीराज ने जैसे-तैसे करके वह रात बिताई और प्रातः होते ही वह आशंकित हृदय के साथ सूरजमल के पास ही जा पहुँचा। 

सूरजमल पृथ्वीराज का मलिन मुख देखकर तुरंत ताड़ गया कि उसकी चाल सफल रही।

 ‘‘काका! मुझे विचित्र आभास हो रहा है।’’ पृथ्वी ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘प्रतीत होता है कि संग्राम सिंह का मोह महाराणा को सत्ता-परंपरा बदल देने को प्रेरित कर रहा है। उन्हें मेवाड़ के भावी शासक की छवि संभवतः संग्राम सिंह में ही दिखाई देने लगी है, क्योंकि जन-साधारण उसी की प्रशंसा के गीत गा रहा है।’’ 

‘‘कुमार, ऐसा संदेह क्यों?’’ सूरजमल ने कृत्रिम आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘तुम मेवाड़ के युवराज हो और सिंहासन के अधिकारी हो। महाराणा ऐसा कैसे कर सकते हैं? कल जितना प्रशंसनीय कार्य संग्राम ने किया, वैसा ही तुमने भी किया। तुम सबका सामूहिक स्वागत तो समान रूप से हुआ है।’’ 

 ‘‘फिर रात के उत्सव में प्रजाजनों द्वारा संग्राम की प्रशंसा में अधिकता क्यों?’’

 ‘‘प्रजा तो भोली होती है। उसे लालच देकर मैं भी अपनी प्रशंसा करा सकता हूँ। किसी की प्रशंसा करना पाप अथवा अपराध की श्रेणी में नहीं आता। यदि उस पर भी एक-दो स्वर्ण मुद्रा मिल जाएँ तो कौन प्रजाजन प्रशंसा करने से पीछे रहेगा?’’ 

‘‘अर्थात्...अर्थात् संग्राम अपनी प्रशंसा धन देकर करा रहा है।’’ पृथ्वीराज ने आश्चर्य से कहा, ‘‘इसका अर्थ तो यह भी हुआ कि वह राजसिंहासन पाने के लिए वातावरण तैयार कर रहा है?’’

 ‘‘ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। कुछ लोग प्रशंसा के भूखे होते हैं, पद के नहीं। इस विषय में तो संग्राम ही कुछ बता सकता है।’’

 ‘‘वह क्यों बताने लगा? यदि उसके मन में कुछ ऐसी बात है तो वह अपने कुटिल षड्यंत्र को कदापि प्रकट नहीं होने देगा।’’ पृथ्वी के स्वर में गहन गंभीरता थी। 

‘‘पूछने की कला हो तो गुप्त रहस्य भी उगलवाए जा सकते हैं।’’ ‘‘यह कला मुझमें कहाँ है, काका?’’ 

‘‘तुम्हारे काका में तो है।’’ सूरजमल अपनी कुटिलता पर सरलता का आवरण डालते हुए बोला, ‘‘कुमार! जब सहोदर भाइयों में सत्ता को लेकर द्वेष, वैमनस्य और स्पर्धा उत्पन्न हो जाए तो राज्य के लिए घातक सिद्ध होती है। जो ऊर्जा राज्य के विकास में लगे, उसे पारस्परिक क्लेश में लगाना उचित नहीं है। कुमार संग्राम यदि ऐसा कर रहे हैं तो यह अनुचित है और अनुचित का साथ कम-से-कम मैं नहीं दे सकता। मैं अवश्य इस बात को स्पष्ट करना चाहूँगा कि कुमार संग्राम के हृदय में क्या है? मैं सदैव अधिकारों के हनन और अतिक्रमण का विरोधी रहा हूँ।’’ 

‘‘और यदि संग्राम के हृदय में यही हुआ?’’ 

‘‘तो इसका भी निराकरण किया जाएगा। कुमार संग्राम की इस कुटिलता से महाराणा को ही नहीं, प्रजा को भी अवगत कराया जाएगा।’’ 

‘‘और यदि इससे भी मेरे अधिकार की रक्षा न हुई?’’ 

‘‘कुमार! इतने निराशावादी मत बनो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।’’

 पृथ्वीराज के निराश मुख पर आशा की किरण झलक उठी। ‘‘कुमार! इस कार्य में विलंब करना उचित नहीं है, क्योंकि राजनीति में प्रचार से जनमत बनता है और इससे जनशक्ति मिलती है। मेरे विचार से आज ही इस विषय में संतुष्ट होना अधिक उचित रहेगा।’’ 

‘‘आप जैसा भी उचित समझें, काका!’’

 ‘‘यह भी अत्यंत आवश्यक है कि ऐसी वार्त्ता पूर्णतया गुप्त रहे। हमें ऐसे स्थान पर वार्त्ता करनी होगी, जहाँ पूर्णतया एकांत हो। मेरे विचार से नागर मगरे का चारण मंदिर इस वार्त्ता के लिए उपयुक्त होगा।’’ 

‘‘यह उचित स्थान है और प्रायः वहाँ सन्नाटा ही रहता है।’’ 

‘‘मेरे विचार से कुमार जयमल को भी वहाँ नहीं होना चाहिए। अतः यही उचित रहेगा, उसे भी अभी कुछ पता न चले। तुम दोनों एक ही माता की संतान हो। वह तुम्हारा भाई अवश्य है, परंतु इस स्थिति का लाभ उठाने के विषय में सोच सकता है। यह ठीक वैसी स्थिति बन जाएगी, जैसे एक रोटी के लिए लड़ती दो बिल्लियों का पंच एक बंदर बन बैठा हो।’’

 ‘‘मैं आपकी बात भली-भाँति समझ रहा हूँ।’’ 

‘‘ठीक है, तुम वहाँ पहुँचो। कुमार जयमल को भनक दिए बिना मैं किसी भी प्रकार कुमार संग्राम को वहाँ लेकर आता हूँ।’’ 

कुमार पृथ्वीराज ने सहमति में सिर हिलाया और वहाँ से चल पड़ा। मार्ग में उसे यह प्रश्न कचोटता रहा कि यदि संग्राम सिंह वास्तव में सिंहासन के लिए ऐसा कर रहा है तो वह क्या करे? कैसे अपने अधिकार को सुरक्षित रखे? उसने सगे भाई से ऐसी आशा कभी न की थी। इन्हीं विचारों में डूबा पृथ्वीराज नागर मगरे स्थित चारणी माता के मंदिर के समीप वाले उद्यान में जा पहुँचा और एक शिला पर बैठकर विचारमग्न हो गया। काफी देर की प्रतीक्षा के पश्चात् उसे काका सूरजमल के साथ संग्राम सिंह आता दिखाई दिया। जयमल उनके साथ नहीं था। ऐसा कम ही होता था कि भ्रमण, विहार और आखेट पर जयमल उनके साथ न हो। वास्तव में आज काका ने बड़ी दूरदर्शिता का परिचय दिया था। 

‘‘अरे भ्राताश्री, आप यहाँ हैं? जयमल वीरजी कहाँ हैं?’’ संग्राम सिंह आश्चर्य से बोला, ‘‘काका! आपने भी नहीं बताया कि हम यहाँ आ रहे हैं।’’ 

‘‘अनुज, कुछ बातें बिना बताए भी संकेत करने लगती हैं।’’ कुँवर पृथ्वीराज भावहीन स्वर में बोले, ‘‘बस उनकी संतुष्टि हो जाना शेष रह जाता है।’’

 ‘‘मैं आपका अभिप्राय नहीं समझ पाया।’’ 

‘‘मैं समझाता हूँ कुमार!’’ सूरजमल गंभीर होने का अभिनय करते हुए बोला, ‘‘वास्तव में कुमार पृथ्वी यह आभास कर रहे हैं कि मेवाड़ की प्रजा और पूज्य महाराणा की दृष्टि में तुम ही मेवाड़ के भावी शासक हो।’’

 ‘‘मैंऽऽऽ!’’ संग्राम का आश्चर्य और बढ़ गया, ‘‘काका, प्रजा और पिताश्री क्या दृष्टिकोण रखते हैं, यह मुझे ज्ञात नहीं, परंतु भ्राताश्री का यह संदेह निराधार है। मेवाड़ के भावी शासक तो ‘ये’ ही हैं।’’

 ‘‘यदि पूज्य महाराणा और प्रजा की इच्छा तुम्हें सिंहासन पर बिठाने की हो तो तुम क्या करोगे? क्या महाराणा की इच्छा और जनमत का आग्रह ठुकारा दोगे?’’

 ‘‘यह...यह तो मुझसे संभव नहीं होगा, परंतु आप ऐसा दुविधायुक्त प्रश्न मेरे सामने क्यों रख रहे हैं?’’ संग्राम सिंह असमंजसता से बोले, ‘‘यह विचार ही कहाँ प्रकट हुआ है?’’ 

‘‘अब स्थिति कुछ स्पष्ट हुई है।’’ सूरजमल ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘निश्चय ही उत्तराधिकार का यह प्रश्न भविष्य में मेवाड़ में कलह की स्थिति उत्पन्न करेगा। अतः मेरा विचार है कि इस प्रश्न को यहीं समाप्त कर दिया जाए। चारणी माता की शरण में जाकर भविष्य की स्थिति स्पष्ट कर लेनी चाहिए। माता जिसे मेवाड़ का भावी शासक कहेंगी, वही मेवाड़-नरेश बनेगा। जाओ, दोनों भाई प्रेमपूर्वक माता के सामने श्रद्धा से ध्यान लगाकर अपना प्रश्न रखो, जिससे कलह की बात शेष ही न रहे।’’ 

कुँवर संग्राम सिंह अभी तक कुछ समझ नहीं पा रहे थे, परंतु अपने अग्रज को मंदिर की ओर बढ़ते देखकर वह भी उस ओर चल पड़े। 

**********

चारणी माता की भविष्यवाणी 
नागर मगरे की चारणी माता मेवाड़ में इष्ट देवी के रूप में मानी जाती थीं। राजघराने में उनकी कुछ अधिक ही मान्यता थी। आम धारणा थी कि चारणी माता अपनी पुजारिन के माध्यम से सच्ची भविष्यवाणी करती हैं। नवरात्रों में माता का आशीर्वाद और भविष्य जान लेने की इच्छा से हजारों भक्त जुट जाते थे। 

राजपरिवार से संबंधित भविष्यवाणी करने के लिए माता चारणी हर समय उपस्थित हो जाती थीं, जबकि जन-साधारण को विशेष अवसरों पर ही यह शुभ लाभ प्राप्त होता था। उनके द्वारा वर्षा, कृषि और भावी संकट पर की गई भविष्यवाणियाँ प्रायः सत्य सिद्ध हुई थीं। 

कुँवर पृथ्वीराज और संग्राम सिंह चूँकि राजकुमार थे तो मंदिर की पुजारिन ने जैसे ही उन्हें आते देखा, तत्परता से मंदिर का द्वार खोल दिया। दोनों राजकुमारों ने श्रद्धा से सिर झुकाया और कुछ क्षण माता की स्तुति करके वे मंदिर में प्रवेश कर गए। वहाँ चारणी माता की एक मूर्ति स्थापित थी और सामने हवनकुंड था। बीच में एक आसन बिछा हुआ था, जिस पर पुजारिन बैठती थी। अन्य तीन दिशाओं में भी आसन थे, जिन पर प्रश्नकर्ता बैठते थे, दोनों भाई एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गए। कुछ क्षण बाद पुजारिन आई और अपने आसन पर बैठ गई। पुजारिन ने नेत्र बंद करके कुछ बड़बड़ाना आरंभ किया और धीरे-धीरे उसका शरीर झूमने लगा। यह संकेत था कि चारणी माता ने उसके शरीर में प्रवेश कर लिया है। दोनों राजकुमारों ने नत-मस्तक होकर चरण स्पर्श किए। 

‘‘कुमारो, चिंता त्याग दो, तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। न कोई ग्रह न कोई नक्षत्र, न उल्का, न पिंड और न शत्रु, न मित्र, इस राजकुमार का कोई अनिष्ट नहीं कर सकते। मेरी कृपा तुम पर सदैव बनी रहेगी।’’ पुजारिन के मुख से कृपालु स्वर निकले, ‘‘उन्नति और विस्तार ही इसका भविष्य है।’’

 ‘‘माता!’’ कुँवर पृथ्वीराज ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा, ‘‘आपकी कृपा से मेवाड़ का ऐसा ही सुखद भविष्य रहेगा, यह हमारा विश्वास है, परंतु इस समय हमारा प्रश्न मेवाड़ के भावी महाराणा के विषय में जानने का है। हम दोनों भाई इस प्रश्न में उलझ गए हैं कि हममें से कौन मेवाड़ का शासक बनेगा! पारंपरिक अधिकारी अथवा जनप्रिय राजकुमार?’’

 ‘‘पुत्रो, शासन का प्राण तो जन ही होता है। जन जिसे प्रिय कहे, वही उनका शासक हो तो प्रजा में खुशहाली और राज्य की उन्नति होती है।’’

 ‘‘माता, हमें स्पष्ट भविष्य जानने की इच्छा है।’’ कुँवर पृथ्वीराज व्यग्रता से बोले। 

‘‘मेवाड़ का भावी शासक...।’’ पुजारिन के वरद हस्त कुँवर संग्राम सिंह के सिर पर टिके तो कुँवर पृथ्वी सन्नाटे में आ गए। 

कुँवर संग्राम का हृदय प्रफुल्लित हो उठा, परंतु मन में शंका के बादल घुमड़ आए।

 ‘‘माता, यह कैसे हो सकता है?’’ कुँवर संग्राम सिंह ने अविश्वास से कहा, ‘‘मेरे अग्रज, राज्य के युवराज इस सिंहासन के अधिकारी हैं।’’

 ‘‘पुत्रो, भविष्य में क्या होगा, यह मैं ही तो जानती हूँ। भविष्य वह अंधकूप है, जिसमें ध्वस्त परंपराएँ सिसकती रहती हैं। वास्तव में भाग्य की प्रबलता राजा को रंक और रंक को राजा बना देती है।’’ 

पृथ्वीराज ने आवेश में आकर आसन छोड़ दिया और क्रोध से काँपने लगे। दूसरी ओर संग्राम भावी अनिष्ट की आशंका से लरज उठा। 

‘‘मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मैं भाग्य को अधिकार पर अतिक्रमण नहीं करने दूँगा। मेवाड़ का राजसिंहासन मेरा है और इसे मैं किसी अन्य को नहीं हथियाने दूँगा, भले ही वह मेरा सहोदर ही क्यों न हो। मैं इस भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध नहीं होने दूँगा।’’ कुँवर पृथ्वी क्रोध के अतिरेक से गरज उठे, ‘‘अपने प्रतिद्वंद्वी के रक्त से प्रथम राज्याभिषेक यहीं होगा।’’

 ‘‘हा...हा...हा...।’’ पुजारिन जोर से हँसने लगी,‘‘कंस ने भी यही कहा था, परंतु क्या हुआ?’’ 

कुँवर पृथ्वीराज ने क्रोध में तमतमाकर म्यान से तलवार निकाल ली। संग्राम सिंह सतर्क हो गए। उन्हें कुछ ऐसी ही आशंका थी। वे अपने अग्रज से लड़ना नहीं चाहते थे, परंतु इस स्थिति में आत्मरक्षा आवश्यक थी। 

‘‘संग्राम!’’ कुमार पृथ्वी रक्तिम नेत्रों और विष बुझे स्वर में गरज उठे, ‘‘मैं अपने अधिकार की सुरक्षा आज ही करूँगा। मेरी यह तलवार चारणी माता के चरणों में मेरे भविष्य को सुरक्षित कर देगी।’’ यह कहते हुए पृथ्वी ने संग्राम पर तलवार चला दी। 

संग्राम सिंह सचेत और सजग थे। स्वयं को भूमि पर गिराकर उन्होंने प्रहार बचा लिया और अपनी तलवार निकालकर वीर मुद्रा में आ गए। 

‘‘भ्राता श्री, यदि मेवाड़ के सिंहासन पर मेरा आसीन होना चारणी माता ने आशीर्वाद स्वरूप कहा है तो मैं इस आशीर्वाद को असत्य न होने दूँगा।’’ 

दोनों भाइयों की तलवारें एक-दूसरे से टकराईं तो बिजली सी कड़कने लगी। दोनों ही वीर राजपुत्र थे, रणकुशल थे और एक ही गुरु के शिष्य थे। तलवार के प्रहार और बचाव की हर विधा में दोनों ही पारंगत थे। मेवाड़ का भविष्य तलवार की धार तय करने वाली थी। परस्पर पैंतरों को काटते हुए दोनों मंदिर से बाहर आ गए और खुले में उनका युद्ध-कौशल देख सामने खड़ा सूरजमल भी सन्नाटे में आ गया था। यह तो वह जानता था कि मेवाड़ का राजपूती रक्त सदैव से ही उग्रतर रहा है, परंतु इस प्रकर का रणकौशल तो उसने कभी नहीं देखा था। दोनों ही जिस चपलता और दक्षता से एक-दूसरे पर प्रहार कर रहे थे, उसमें शीघ्र ही निर्णय की कोई संभावना न थी और यह सूरजमल की योजना के विपरीत था। 

एकाएक सूरजमल लगभग चीखता हुआ उन दोनों के बीच कूद पड़ा। ‘‘कुमारो!’’ सूरजमल ने दोनों हाथ ऊपर उठाए, ‘‘ठहरो, रुको और यह मूर्खता बंद करो।’’ 

‘‘काका, आप बीच में न आएँ।’’ पृथ्वी के स्वर में तीव्र आवेश था, ‘‘आज मेवाड़ के राजसिंहासन के उत्तराधिकारी का निर्णय हो जाने दें।

 ‘‘यह निर्णय यदि रक्त बहाकर होना है तो अपनी दोनों तलवारों से मेरे शरीर पर पूरे वेग से प्रहार करो। कम-से-कम मैं तो मेवाड़ के ऋण को चुका दूँ।’’ 

‘‘काका!’’ संग्राम सिंह ने कहा, ‘‘मैं युद्ध नहीं करना चाहता। मैं इतना कुलघाती नहीं हूँ कि सत्ता के लिए अपने सगे भाई का रक्त बहाऊँ। मेरे ऊपर पहला प्रहार इन्होंने किया है।’’ 

‘‘कुमार पृथ्वी, यह कैसा पागलपन है? मैंने तुम्हें चारणी माता का निर्णय सुनने की राय दी थी।’’ सूरजमल रुष्टता का प्रदर्शन करते हुए बोला, ‘‘और तुम युद्ध के लिए उन्मत्त हो गए।’’ 

‘‘मुझे चारणी माता का निर्णय स्वीकार नहीं। मैं उनकी भविष्यवाणी को मिथ्या सिद्ध कर दूँगा। जिसमें उन्होंने मेरे अधिकार को इसे देने की बात कही है।’’ पृथ्वी ने आग्नेय नेत्रों से संग्राम की ओर देखा, ‘‘मेरी तलवार इस शत्रु को जीवित नहीं रहने देगी।’’ 

‘‘मूर्ख मत बनो कुमार!’’ सूरजमल ने गंभीरता से कहा, ‘‘तुम्हारा यह विचार और कृत्य अनुचित है। अभी मेवाड़ के राजसिंहासन पर महाराणा रायमल विराजमान हैं और उनका निर्णय ही सर्वमान्य है। वे जैसा निर्णय लेंगे, वैसा ही होगा।’’ 

‘‘काका, मैं फिर कहता हूँ कि मुझे राजसिंहासन का कोई लालच नहीं है।’’ संग्राम सिंह ने पूछा, ‘‘चारणी माता ने भविष्यवाणी अवश्य कर दी है, परंतु मैं अपने अग्रज का अधिकार छीनने के पक्ष में नहीं हूँ।’’ 

‘‘देखा कुमार पृथ्वी, कुँवर संग्राम ने क्या कहा? अब तुम भी हृदय से द्वेष दूर करके तलवार को म्यान में रख लो। कुछ निर्णय समय स्वयं करता है और समय आने पर ही उचित-अनुचित पर विचार करना राजपूत की शान होती है। निर्णय को मान्य अथवा अमान्य करना उचित समय पर ही शोभा देता है। वैसे भी राजसिंहासन को योग्यता और पराक्रम की आवश्यकता होती है। इसे तुम दोनों में से कौन प्राप्त करता है, इसके लिए पर्याप्त समय है।’’ सूरजमल ने दोनों को समझाते हुए कहा, ‘‘जो अपने कृत और बुद्धि से महाराणा का हृदय जीत लेगा, वही मेवाड़ का भावी महाराणा होगा।’’ 

‘‘सूर्य पश्चिम से निकले तो निकले, भूमि और आकाश मिले तो मिले, परंतु मेवाड़ का सिंहासन मेरा है और मेरा ही रहेगा।’’ कुमार पृथ्वी ने अटल प्रतिज्ञा की।

 ‘‘जब संकल्प और अधिकार तुम्हारे हैं तो तुम्हारा प्रण सत्य होगा।’’ कुँवर संग्राम सिंह ने इस विषय में कुछ भी कहना उचित न समझा।