📖 दृश्य 4:
⏳ समय: दोपहर की बेला
📍 स्थान: गाँव का मुख्य चौराहा – मंदिर मार्ग
🌦️ माहौल: सजी हुई गलियाँ, भीड़ की उत्तेजना और एक रहस्यमयी शांति
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[EXT. गाँव – दोपहर का समय]
सूरज सिर पर था, फिर भी एक अजीब-सी रोशनी आकाश से धीरे-धीरे उतर रही थी।
वो रोशनी इतनी चमकीली थी कि उसकी सफ़ेदी में सूरज की गर्मी तक मद्धम पड़ गई।
उस रोशनी में तीन पालकियाँ ज़मीन पर उतरीं।
हर पालकी में एक दिव्य आकृति विराजमान थी — इंसानों जैसी, मगर कुछ और ही थीं।
उनके चेहरे पर ऐसी सुंदरता, जैसे समय ने भी रुककर उन्हें तराशा हो।
एक हल्की सी मुस्कान — इतनी कोमल कि देख भर लेने से दुःख पिघल जाए।
भीड़ में फुसफुसाहटें उठीं:
> "देखो... हमारे भगवान आ गए..."
"इतनी रोशनी... मेरी तो आँखें भर आईं..."
चार-चार गाँव के सशक्त लोग उन पालकियों को उठाए चल रहे थे — गर्व से, मगर सिर झुकाए।
चारों ओर रक्षक — भाले, तलवारें, ढाल लिए — एक जीवित कवच की तरह चल रहे थे।
कोई भी आम व्यक्ति इन भगवानों के पास पहुँच न पाए — यही उनका धर्म था।
भीड़ में दूर-दराज़ से आए लोग — कुछ घुटनों पर, कुछ आँसुओं में हाथ जोड़े।
एक ही अभिलाषा — एक दृष्टि, एक छूआ, एक कृपा।
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तभी...
तीनों में से एक भगवान ने हाथ उठाया।
शोर थम गया। भीड़, पत्तियाँ, हवा — सब रुक गया।
एक ऐसा सन्नाटा, जैसे समय खुद सुनना चाहता हो।
उनकी दृष्टि भीड़ में किसी पर रुकी।
एक कांपता ग्रामीण — काँधे पर बेहोश बच्चा।
> ग्रामीण (काँपते हुए, टूटी आवाज़ में):
"हे भगवान... मेरा इकलौता बेटा है... बहुत बीमार है... खून की उल्टी करता है... वैद्य ने कह दिया है – महीने भर से ज़्यादा नहीं बचेगा।
मैं इसे बहुत दूर से लाया हूँ...
आपकी एक कृपा… मेरी जान ले लो, बस इसे बचा लो..."
वो ज़मीन पर सिर पटकता है — खून बहने लगता है।
भगवान धीरे से मुस्कुराते हैं।
अपने हाथ से एक फूल निकालते हैं — और बच्चे की ओर फेंकते हैं।
फूल छूते ही बच्चा हड़बड़ा कर उठ बैठता है — बिल्कुल ठीक, बिल्कुल सहज।
भीड़ एक स्वर में चिल्ला उठती है:
> "जय हो!
जय महापालकी के देवों की!"
"भगवान ने चमत्कार कर दिया!"
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[CAMERA SLOW ZOOM – Amrita का चेहरा]
वो शांत खड़ी है। उसकी आँखों में विस्मय नहीं — बस एक ठहरी हुई समझ।
मानो ये सब उसने पहले देखा हो।
मानो ये चमत्कार… अब चौंकाते नहीं।
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तभी…
आसमान बदलने लगता है।
नीला रंग स्याह होता है। हवाएँ गरजने लगती हैं। पेड़ झुकते हैं।
रक्षक चिल्लाते हैं:
> "दानव आ रहे हैं!"
"भगवान की पालकी को गाँव से बाहर ले चलो!"
Amrita चुप नहीं रहती —
> Amrita (स्पष्ट):
"पहले गाँववालों की रक्षा करो।
भगवान बाद में भी निकल सकते हैं।"
हड़कंप मचता है। लोग एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते भागते हैं।
और तभी...
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भीड़ को चीरता हुआ एक युवक आता है।
उसकी आँखें लाल हैं — हाथ में तलवार।
वो Amar है।
Amrita फटी आँखों से देखती है —
> "Amar…?"
गाँववाले चीखते हैं:
> "तुझे मना किया था आने से!"
"जा वरना निकाल देंगे तुझे इस गाँव से!"
> Amar (गंभीर और स्थिर):
"हटो मेरे रास्ते से... नहीं तो मार दूँगा।"
Amrita चिल्लाती है —
> "वो मेरा पति है!
मुझे जाने दो!"
कोई नहीं सुनता।
रक्षक तलवारें उठाते हैं — तभी भगवान हाथ उठाकर रोकते हैं।
> भगवान:
"रहने दो। आने दो उसे।"
Amar उनके सामने आता है।
> भगवान:
"कहो Amar… क्या चाहते हो?"
Amar कुछ नहीं कहता।
बस तलवार उठाता है — और भगवान के पेट में घुसा देता है।
भीड़ एक साथ चिल्ला उठती है।
> Amrita (भागते हुए):
"Amar!!"
वो उसे खींचती है — लेकिन देर हो चुकी है।
> भीड़ (क्रोधित):
"भगवान को मार दिया!"
"ये पापी अब बचेगा नहीं!"
भगवानों के चेहरे पर मुस्कान लौटती है।
एक साथ तीनों तेज़ चमक के साथ बोलते हैं —
> "मूर्ख… तू हमें मार सकता है?"
"हम भगवान हैं — तू तो अभी भी अंधा है!"
और फिर —
वो तीनों तेज़ रोशनी में गायब हो जाते हैं।
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बारिश शुरू हो जाती है।
Amrita भीड़ से घिरी खड़ी है — Amar के पास, जो अब कांप रहा है।
> Amrita (गाँववालों से):
"ये इसका पागलपन था… इसे माफ कर दो…
ये गाँव छोड़ देगा।"
भीड़ गालियाँ देती है।
> Amrita (Amar से):
"माफ़ी माँगो... कुछ तो बोलो…"
Amar की आँखों में आँसू हैं — पर होठ बंद।
Amrita उसके पास बैठती है, उसका चेहरा पकड़ती है।
> Amrita (धीरे):
"Amar… कुछ तो कहो…"
Amar की आँखें अमृता में डूबती हैं।
डबडबाई हुईं, चुप मगर भारी।
> Amar (धीरे मुस्कुराकर):
"...सच... देखूँ?"
और ठीक उसी क्षण…
छपाक!
एक तलवार पीछे से आती है —
रक्षक ने ईश्वर की “मर्यादा की रक्षा” में वार किया है।
अमar की गर्दन कट जाती है।
उसका सिर — अमृता के हाथों में।
उसका शरीर — मिट्टी पर।
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उस पल तेज़ बारिश शुरू हो जाती है।
जैसे आसमान भी शोक मना रहा हो।
लोग इधर-उधर भागते हैं — डर, अफरातफरी, बारिश।
पर उस बीच…
अमृता बिल्कुल स्थिर खड़ी है।
उसके हाथों में अमन का सिर है।
उसका चेहरा — शांत। उसकी मुस्कान — अधूरी।
उसकी आँखें — अब भी कुछ कहने की कोशिश करती हुईं।
अमृता उसे देखती रहती है।
ना आँसू, ना चिल्लाहट — बस एक गहरा सन्नाटा।
जैसे उसके भीतर का शोर अब हमेशा के लिए थम गया हो।
अमar का रक्त मिट्टी में घुल रहा है —
जैसे धरती खुद उसकी आख़िरी कथा सुन रही हो।
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बैकग्राउंड:
बिजली गरजती है।
कहीं कोई औरत चिल्ला रही है, कोई मंदिर की ओर भाग रहा है।
कोई अमृता की ओर नहीं आता।
बच्चे सहमे हुए अपनी माँओं की गोद में छुप गए हैं।
और कहीं दूर —
मंदिर का घंटा धीमे-धीमे बज रहा है…
जैसे अमन की आत्मा को अंतिम विदाई दे रहा हो।
📖 दृश्य 4 (भाग 2): राख और सवाल – विश्वास की राख में सुलगते सच
📍स्थान: महापालकी का स्थान → भगवान-स्थान → श्मशान
🕰️ समय: सुबह की धुंध भरी बेला
🌧️ मौसम: बारिश थम चुकी है, पर मिट्टी अब भी नम है। हवा में राख और धुएँ की महक है।
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[EXT. महापालकी का स्थान – सुबह के सन्नाटे में डूबा हुआ]
अमृता अब भी वहीं बैठी है...
अपने पति अमर का सिर अपनी गोद में रखे, पत्थर बनी...
आसमान अब साफ है, पर उसके भीतर तूफ़ान अब भी ज़िंदा है।
उसकी आँखें बंद हैं, पर अंदर पुरानी यादें तेज़ी से तैर रही हैं।
🌀 फ्लैशबैक:
अमर: (मुस्कराता हुआ)
"तुम क्या मेरी भी रक्षक बनोगी अमृता? जैसे गाँववालों और भगवान की बनती हो?"
अमृता: (हँसती है, शरमाकर)
"अगर तुम कभी मुसीबत में आओगे तो सबसे पहले मैं ही सामने खड़ी मिलूँगी।"
दोनों हँसते हैं... उनके बीच खिलखिलाता अरु आता है...
अरु:
"तुम दोनों मुझे बहुत अच्छे लगते हो... मुझे कभी मत छोड़ना, प्लीज़।"
कट टू वर्तमान:
अमृता की आँखें भीगी हुई हैं... उसके मन में वही तीन चेहरों की मुस्कुराहट गूंज रही है।
तभी पीछे से एक औरत आती है —
करीब 25-30 की उम्र, आँखों में कुछ ऐसा भाव जैसे वो सब जानती हो... सब देख चुकी हो।
औरत (गंभीर आवाज़ में):
"तुम उससे बहुत प्यार करती थी... लेकिन कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि ये सब कितना बड़ा खेल था। अब यह गाँव... ये सब कुछ... समाप्ति के बहुत करीब है।"
अमृता कुछ नहीं कहती।
वो औरत बस हवा की तरह आती है, अपने शब्द गिराकर चली जाती है।
बारिश रुक चुकी है... लेकिन अमृता के लिए समय थम गया है।
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[EXT. भगवान-स्थान का श्मशान – कुछ देर बाद]
धुआँ उठ रहा है...
चिता जल रही है...
और उसके बीच — अमर का शव।
लोग दूर खड़े हैं, चुपचाप। कुछ कानाफूसी हो रही है...
गाँव की एक औरत:
"कहते हैं उसने खुद तलवार चलाई थी उन भगवानों पर..."
एक बूढ़ा आदमी:
"पर अमर तो हमारा हीरो था... कैसे कर सकता है वो ऐसा?"
इन फुसफुसाहटों से बेख़बर,
अमृता वहीं बैठी है — चिता के सामने — जैसे उसकी आत्मा भी वहीं राख हो गई हो।
अमृता (मन में):
"मैं उसे नहीं बचा पाई... मैं उसकी रक्षक बनने के लायक नहीं थी।
मेरी शक्ति किस काम की थी, जब मैं अपने पति को ही नहीं बचा पाई?"
तभी पीछे से एक आवाज़ आती है।
भाई (झकझोरता है):
"दीदी! ये क्या हो गया? अमर ने ऐसा कैसे कर दिया? वो तो हमेशा हम सबका सबसे समझदार था!
क्या सच में उसने भगवान पर हमला किया? लोग तो यही कह रहे हैं..."
अमृता (चौंककर उसे देखती है):
उसके चेहरे पर ग़ुस्सा नहीं, उलझन है।
भाई (धीरे से):
"मुझे नहीं लगता दीदी... अमर ऐसा कर सकता है। तुम उसे सबसे ज़्यादा जानती थीं... क्या तुम भी मानती हो कि उसने सच में ऐसा किया?"
(पिन ड्रॉप साइलेंस)
एक सेकंड को जैसे सब कुछ रुक जाता है...
फिर... अमृता की आँखें फैलने लगती हैं।
वो सोचने लगती है...
अमर... ऐसा कैसे कर सकता है...?
उसके दिमाग में एक झटका आता है...
वो आवाज़... जो मरते वक़्त अमर ने दोहराई थी...
धीरे-धीरे उसके कानों में गूंजने लगती है...
🎵 "अमृता... सच देखो..."
🎵 "अमृता... सच देखो..."
वही शब्द... वही ध्वनि... वही कंपन...
अमृता अपनी जगह से खड़ी होती है।
उसके चेहरे पर अब एक हल्की सी चमक है... जैसे कुछ समझ में आ रहा हो।
अमृता (धीरे से बुदबुदाती है):
"अमर... तुमने कुछ कहना चाहा था... तुम... निर्दोष थे?"
📖 दृश्य 5: आईना – जो बस सुंदरता नहीं, सच भी दिखाता है
📍स्थान: भगवान-स्थान के भीतर अमर का पुराना घर
🕰️ समय: देर दोपहर की निस्तेज रोशनी
🌫️ माहौल: सूनी हवाओं के बीच बीते वक्त की खामोशी
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[INT. भगवान-स्थान – अमर का पुराना कमरा – धूल भरा, सन्नाटा पसरा हुआ]
अमृता धीरे-धीरे उस पुराने कमरे में कदम रखती है।
यही घर था, जहाँ सादी से पहले अमर रहा करता था...
कमरे में पुरानी लकड़ी की अलमारी, एक टूटी हुई चौकी, और कोनों में जमी धूल है।
कभी इस घर में आवाज़ें गूंजती थीं — अब बस सन्नाटा है।
अमृता (खुद से):
"अगर कोई जवाब है... तो यहीं होगा। अमर... आखिर तुम क्या कहना चाहते थे?"
वो हर अलमारी खोलती है, हर कोना देखती है... पर सब सूना।
थककर बैठ जाती है ज़मीन पर, मिट्टी से सनी साड़ी संभालती है...
अमृता (आँखें भीगती हैं):
"कुछ तो बोलो अमर... मैं क्या करूँ?
किससे मदद माँगूँ? कौन मेरी बात मानेगा?
तुमने ऐसा क्यों किया...? या किया भी था?"
उसके आँसू ज़मीन पर गिरते हैं।
तभी — उसकी निगाह एक पुराने, लकड़ी के बक्से पर जाती है...
धूल साफ करती है... बक्सा चरमराकर खुलता है।
उसमें एक छोटी सी चीज़ चमकती है...
🪞एक आयताकार शीशा – बहुत साधारण सा, पर भीतर कोई अलग सी चमक।
वो उसे हाथ में उठाती है... और देखते ही ठिठक जाती है।
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🌀 फ्लैशबैक: अमर और अमृता – एक दोपहर, उसी कमरे में
[INT. अमर का कमरा – कुछ वर्ष पहले]
अमृता गुस्से में ज़मीन पर बैठी है, होंठ फुलाए हुए।
अमर उसके सामने बैठा है, मुस्कराते हुए।
अमृता (गुस्से में):
"तुम्हें सुंदर लड़कियाँ पसंद हैं ना? मैं नहीं हूँ तुम्हारे लायक..."
अमर (हँसते हुए):
"क्या बकवास है ये? तुम बहुत सुंदर हो, अमृता।"
अमृता:
"नहीं! मैं नहीं हूँ। वो औरत... गाँव में सब उसकी तारीफ़ करते हैं।
तुम भी उसे बहुत सुंदर मानते हो ना?"
अमर (थोड़ा संजीदा होकर):
"तुम पागल हो गई हो क्या? सुनो..."
वो पास रखे बक्से से कुछ निकालता है — एक शीशा (आइना)।
वो उसे अमृता के हाथ में पकड़ाता है।
अमृता (चौंकती है):
"ये कौन लड़की है इसमें? ये अजीब सी चीज़ क्या है?"
अमर (हँसते हुए):
"अरे पगली... वो तुम ही हो। इसे 'आईना' कहते हैं। इसमें सिर्फ सुंदर लोग ही दिखते हैं!"
अमृता (मासूमियत से):
"क्या ये कोई जादुई चीज़ है?"
अमर:
"हाँ, इस गाँव के लिए तो है। हर घर में ऐसा एक आईना मिलता है, पर मैं इसे बाहर से लाया हूँ।"
अमृता:
"क्या ये सच में सिर्फ सुंदर लोगों को दिखाता है?"
अमर (मुस्कराते हुए, प्यार से उसे देखता है):
"हाँ... और इसमें झूठ नहीं चलता।"
अमृता अपनी छवि देखती है... कुछ पल देखती रहती है... फिर धीमे से मुस्कराती है।
अमृता (धीरे से):
"मैं... ठीक लग रही हूँ शायद..."
अमर (मुस्कराहट दबाते हुए):
"ठीक? तुम बहुत प्यारी लग रही हो। पर हाँ, अगर फिर भी शक है तो देखो इस आईने में — तुम्हारी मुस्कान सब कह रही है।"
अमर धीरे से अमृता को खींचकर अपनी गोद में बिठा लेता है।
अमृता शरमा जाती है, हँसी रोकती है।
दोनों आईने में एक साथ देखते हैं।
अमर:
"देखो, हम दोनों कितने अच्छे लगते हैं साथ में..."
अमृता (धीरे से):
"हूँ..."
अमर:
"तुम मुझसे प्यार करती हो न?"
अमृता:
_"नहीं..." (पर उसके चेहरे पर मुस्कान है)
अमर (आईने की ओर इशारा करते हुए):
"ये आईना झूठ नहीं देखता। देखो, तुम्हारी मुस्कान ही सब कह रही है..."
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[कट टू वर्तमान – अमृता वही आईना हाथ में लिए बैठी है, आँखों से बहते आँसू — पर होंठों पर हल्की मुस्कान।]
अमृता (धीरे से):
"ये आईना... सिर्फ सुंदरता नहीं, सच भी दिखाता है...
अमर, तुम शायद यही दिखाना चाहते थे..."
अब वो आईने को फिर से देखती है —
पर इस बार जैसे कोई और परत खुलने वाली हो...
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🎬 दृश्य ने आपको छू लिया?
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🎬 दर्शकों से एक विनती:
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नोट: इस कहानी में मुख्य पात्र का नाम अमर (Amar) है। कुछ जगहों पर टाइपिंग गलती से उसे अमन (Aman) लिखा गया है, कृपया उसे भी अमर ही समझें। धन्यवाद! ❤️