वो सफेद सलवार-कमीज़ पहने, तेज़-तेज़ कदमों से चलते हुए कॉलेज के मुख्य भवन की ओर बढ़ रही थी। उसकी चाल में गुस्सा था — लेकिन वो गुस्सा भी जैसे किसी नन्हीं बच्ची की तरह मासूम था, जो खिलौना छिन जाने पर तुनक जाए।
उसका नाम था राधिका।
एक छोटी-सी मुस्कान, बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें ग़ुस्से की लपटें कम और बचपन की जिद ज्यादा झलकती थीं। उसकी आँखों में काजल हल्का-सा फैला हुआ था — शायद भागते वक़्त लगा लिया गया होगा।
उसके लंबे, काले बाल हवा में यूँ लहरा रहे थे जैसे कोई छेड़खानी कर रहा हो उनसे। माथे पर झुकी कुछ लटें बार-बार उसकी आँखों के सामने आ रही थीं, पर उसने उन्हें हटाया नहीं — जैसे उसे आदत थी चीज़ों को वैसे ही रहने देने की।
उम्र — बाईस साल।
लेकिन ज़िंदगी की सीढ़ी पर कहीं अब भी वो नौ-दस साल वाली सीढ़ी पर ही रुकी हुई थी।
राधिका, अपने पिता की इकलौती संतान, उनकी "गुड़िया", उनका स्वाभिमान थी।
उसके पापा — बनारस के एक सम्मानित साहित्यकार — हर दिन अपने लेखन से समाज को कुछ न कुछ देते रहते थे, लेकिन अपनी बेटी के आगे वो बस एक "पापा" थे — जो उसकी हर जिद मान लेते थे, जो उसकी हर नाराज़गी पर मुस्कुरा देते थे।
राधिका को ये नहीं पता था कि उसका आज का एक थप्पड़, किसी की ज़िंदगी की कहानी की शुरुआत बन जाएगा।
वो जब कॉलेज के बरामदे से होते हुए अपनी क्लास की ओर जा रही थी, तब भी वो पीछे मुड़कर एक बार देखना चाहती थी —
वो लड़का अब तक वहीं खड़ा था या चला गया?
पर खुद को रोक लिया।
शायद उसे डर था कि अगर वो पलटी, तो उस मासूमियत भरे थप्पड़ की सच्चाई उसकी आँखों में तैरती नज़र आ जाएगी।
और उसकी आँखों में वो कशिश थी — जो किसी को भी अंदर तक चुपचाप हिला दे।
राधिका की मासूमियत और दिल की साफ़गोई उसकी हर बात में झलकती थी।
वो जितनी तेज़-तर्रार और जिद्दी लगती थी, उतनी ही सच्चाई और सरलता उसके अंदर छुपी थी। उसका दिल एक काँच की तरह साफ़ था — बिना किसी ढक-छुपाव के।
राधिका कभी भी किसी को ठेस पहुँचाना नहीं चाहती थी, लेकिन उसके भीतर एक जोश और आत्मसम्मान था जो उसे हर हाल में अपनी बात पर कायम रखता था।
उसके पिता अमीर थे — एक बड़े और समाज में प्रतिष्ठित इंसान।
वे सिर्फ संपन्न ही नहीं, बल्कि नेकदिल और दयालु भी थे। अपने साहित्यिक काम से वे समाज की भलाई के लिए प्रयासरत रहते थे।
उनकी सबसे बड़ी खुशी थी अपनी बेटी राधिका की मुस्कान और उसकी बेझिझक बातें।
राधिका जानती थी कि उसके पिता की आँखों में उसके लिए एक अलग ही प्यार था — वह प्यार जो हर पिता अपने बच्चे के लिए महसूस करता है।
उनके लिए राधिका सिर्फ बेटी नहीं, बल्कि एक संपूर्ण दुनिया थी।
और इसी प्यार की वजह से, राधिका अब भी कहीं न कहीं बचपन की प्यारी सी दुनिया में जी रही थी — बिना किसी डर के, बिना किसी झूठ के, सिर्फ अपने सच और सादगी के साथ।
लेकिन बनारस की गलियों में कभी-कभी सच की सच्चाई और ज़िंदगी की कठोरताएं इस मासूमियत को आजमाने आती हैं।
और इसी जद्दोजहद में, राधिका और प्रकाश की कहानी आगे बढ़ने वाली थी…
आइए अब चलते हैं कहानी की ओर...
प्रकाश कुछ क्षणों तक वहीं खड़ा रहा।
गाल पर अब भी हल्की जलन थी,
पर मन में… न कोई शिकायत, न कोई घाव।
उसने एक बार फिर आसमान की ओर देखा,
उस शांत नीले आकाश की ओर,
जो गंगा के किनारे बचपन से उसकी हर प्रार्थना सुनता आया था।
“बोलिए भोलेनाथ... ये कैसा स्वागत किया आपने?”
एक हल्की मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गई।
“पहले ही दिन एक तमाचा... और वो भी बिना वजह...”
पर अगले ही क्षण उसकी आँखों में फिर से वही स्थिरता लौट आई।
“शायद आप मुझे बताना चाहते हैं कि जीवन की राह सीधी नहीं होती...
और ये विश्वविद्यालय, सिर्फ ज्ञान का नहीं, अनुभवों का भी घर है।”
कंधे पर झोला ठीक करते हुए उसने एक लंबी साँस ली।
“चलिए... आपकी दी हुई परीक्षा में पास होने की कोशिश करता हूँ।”
भीड़ से थोड़ा हटकर वह धीरे-धीरे क्लासरूम की ओर बढ़ चला।
हर कदम के साथ उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो रही थीं।
यह सिर्फ किसी नए कॉलेज का पहला दिन नहीं था...
बल्कि एक ऐसे सपने की पहली सीढ़ी,
जिसे उसके पिता ने देखा था, और माँ ने सींचा था।
छोटी-छोटी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह कॉलेज भवन के लंबे गलियारे में पहुँचा।
दीवारों पर टंगे नोटिस, फर्श पर पड़ी धूप की लकीरें, और यहाँ-वहाँ से आती छात्रों की हँसी की गूँज...
सारी चीज़ें उसे एक नए संसार का परिचय दे रही थीं।
जैसे ही उसने अपनी क्लास का दरवाज़ा खोला,
एक नई दुनिया उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।
अंदर कई चेहरे थे — कुछ अनजान, कुछ डरपोक, कुछ तेज़-तर्रार।
पर उन सब में एक समान बात थी —
सपने।
प्रकाश धीरे से एक कोने की सीट पर बैठ गया।
क्लासरूम में अब शिक्षक ने पढ़ाना शुरू कर दिया था।
उनकी आवाज़ में गंभीरता थी, और उनकी बातें ज्ञान की गहराई समेटे हुईं थीं।
प्रकाश ने ध्यान लगाकर शिक्षक की हर बात को समझने की कोशिश की।
किताबों की पन्नों पर उसकी नज़र दौड़ रही थी,
लेकिन मन कहीं और कुछ सोच रहा था — उस थप्पड़ वाली घटना और राधिका के बारे में।
इसी बीच, क्लास के बाहर दरवाज़ा धीरे से खुला,
और राधिका प्रार्थना-सी मुद्रा लिए, हल्की हिचकिचाहट के साथ अंदर आई।
शिक्षक ने उसे थोड़ा अजीब नज़र से देखा,
जैसे वह निश्चय नहीं कर पा रहे हों कि राधिका को क्लास में आने देना चाहिए या नहीं।
पर फिर उन्होंने एक मृदु मुस्कान के साथ कहा,
“आइए, अंदर आइए। बैठ जाइए।”
राधिका ने धन्यवाद कहा और ज़्यादा जगह न होने के कारण,
प्रकाश के बगल में आकर बैठ गई।
प्रकाश थोड़ा स्तब्ध था,
क्योंकि उसने वही लड़की को थप्पड़ मारा था।
राधिका जैसे ही बगल में बैठी, एक क्षण को उसकी नज़र प्रकाश पर पड़ी।
उसकी आँखें — जो अभी कुछ मिनट पहले ग़ुस्से से लाल थीं — अब ज़रा शांत थीं।
उसने प्रकाश की ओर देखा...
उसके गाल पर अब भी थप्पड़ का हल्का गुलाबी निशान था —
और वो निशान राधिका की नज़र से छिपा नहीं रह सका।
एक पल को वो चौंकी,
फिर उसकी आँखों में हल्की शरारत उभर आई।
होंठों पर एक धीमी, दबाई हुई मुस्कान तैर गई —
जैसे किसी मासूम गलती पर खुद ही को हँसी आ गई हो।
उसने सिर झुका लिया,
पर उसकी आँखों के कोनों में वो हँसी अब भी झलक रही थी।
प्रकाश ने यह सब महसूस किया,
पर उसकी नज़र अब भी अपनी किताब पर थी।
उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी —
ना गुस्सा, ना मुस्कान...
बस वही गहरी शांति और संयम,
जो शायद जीवन ने उसे पहले ही सिखा दिया था।
शब्दों की जगह अब मौन बोल रहा था।
शिक्षक ने बोर्ड पर आख़िरी पंक्ति लिखते हुए कहा —
“अभी के लिए इतना ही, बाकी कल से नियमित कक्षाएँ प्रारंभ होंगी। तब तक पुस्तक की यह भूमिका अच्छे से पढ़िएगा।”
फिर उन्होंने अपनी किताब समेटी और धीमे कदमों से क्लास से बाहर चले गए।
क्लास के बाहर हलचल शुरू हो चुकी थी। कुछ छात्र अपनी सीटों से उठने लगे, कुछ आपस में बातें करने लगे। लेकिन प्रकाश अब भी शांत बैठा था — जैसे वो किसी गहरी सोच में डूबा हो।
राधिका अब तक अपनी हँसी किसी तरह रोककर बैठी थी।
पर अब... जब क्लास का शोर बढ़ा, माहौल हल्का हुआ —
वो अपनी मुस्कान को और ज़्यादा नहीं रोक सकी।
उसने प्रकाश की ओर देखा —
वही शांत चेहरा, गाल पर अब भी थप्पड़ का हल्का गुलाबी निशान।
और फिर...
एक मासूम, खुली हँसी उसके चेहरे पर बिखर गई।
एकदम बेपरवाह, जैसे कोई बच्ची पहली बार किसी तितली को पकड़ लेने पर हँस दे।
प्रकाश ने उसकी तरफ़ देखा।
एक पल को उसकी भौहें हल्की सी उठीं,
लेकिन चेहरा अब भी वैसा ही — शांत और संयमित।
राधिका ने हँसी रोकते हुए कहा —
“वैसे... थप्पड़ का निशान अभी भी साफ़ दिख रहा है।”
प्रकाश ने हल्की मुस्कान के साथ कहा —
“मैं भूल गया था… धन्यवाद याद दिलाने के लिए।”
उसकी आवाज़ में कोई व्यंग्य नहीं था, कोई शिकायत नहीं।
बस एक सौम्यता थी — जैसे कोई बहुत पुरानी आत्मा बोल रही हो, जो हर चोट को बस एक अनुभव मानती है।
राधिका कुछ क्षणों तक उसे देखती रही।
उसके मन में एक अजीब-सा खिंचाव हुआ।
ये वो प्रतिक्रिया नहीं थी जिसकी वो अपेक्षा कर रही थी।
उसने तो सोचा था कि या तो लड़का शर्मिंदा होगा, या गुस्से में बोलेगा...
पर ये क्या?
वो तो जैसे उस थप्पड़ को भी एक मज़ाक की तरह सह गया।
उसकी आँखों में अब कोई उलझन नहीं थी — बस समझ थी।
राधिका के मन में कुछ हलचल हुई।
शब्द उसकी ज़ुबान तक आकर रुक गए।
उसने चाहा कि कुछ कहे... शायद "सॉरी", शायद "मैंने ग़लत समझा"...
पर वो कुछ भी नहीं कह सकी।
बस उसकी मुस्कान फीकी पड़ गई,
और वो धीरे-धीरे उठी, बैग उठाया,
फिर एक बार प्रकाश की ओर देखा...
प्रकाश अब भी उसी शांत मुद्रा में बैठा था।
ना कोई सवाल, ना कोई उम्मीद।
राधिका मुड़ी और क्लास से बाहर निकल गई,
पर इस बार उसके कदम उतने तेज़ नहीं थे —
जितने सुबह गुस्से में थे।
जैसे उसके भीतर अब कुछ बदल रहा था,
पर वो खुद भी समझ नहीं पा रही थी — क्या।
क्लास के बाद कॉलेज से बाहर निकलते वक़्त,
प्रकाश ने गंगा की तरफ़ एक नज़र डाली —
सूरज अब ढल रहा था,
और नदी पर सुनहरे से नारंगी रंग की परछाइयाँ लहरों के साथ हिल रही थीं।
अपने साधारण कपड़े, वही झोला, और थकी-सी चाल के साथ
वो अपने छोटे-से किराए के घर पहुँचा —
जहाँ दरवाज़े पर ही माँ इंतज़ार कर रही थीं।
“आ गए बाबू?” माँ ने मुस्कुराते हुए कहा,
और माथे पर हल्का-सा हाथ फेरा।
“हाँ माँ… पहला दिन था न… थोड़ा थक गया हूँ।”
माँ ने तुरंत तवे पर रोटी डाली,
और बोले —
“बैठ जा... बताता हूँ अब तू... कितना बड़ा प्रोफेसर बन गया आज!”
प्रकाश हँस पड़ा,
“माँ... अभी तो बस स्टूडेंट ही बना हूँ...”
फिर दोनों बैठ गए — माँ रसोई में, प्रकाश पास की चौकी पर।
प्रकाश ने उत्साह से बताया —
क्लासरूम कैसा था, कितने सारे छात्र थे,
कितनी बड़ी लाइब्रेरी है, और शिक्षक कितने विद्वान हैं।
पर उस सुबह की एक बात —
जिसमें राधिका का थप्पड़ शामिल था —
उसने नहीं बताई।
माँ ने पूछा भी,
“सब ठीक तो रहा न बेटा? कोई दिक्कत तो नहीं हुई?”
प्रकाश ने हल्की मुस्कान दी,
“सब अच्छा था माँ... बहुत अच्छा...”
माँ ने रोटी उसकी थाली में रखी और बोली,
“भगवान करे हर दिन ऐसा ही बीते तेरा।”
प्रकाश ने माँ की बात पर सिर हिलाया,
लेकिन जब खाने में नमक ज़्यादा पड़ा,
तो भी उसने कुछ नहीं कहा —
क्योंकि उस दिन वो बस माँ की सूरत देखना चाहता था, शिकायत नहीं।
वहीं दूसरी ओर…
राधिका जब घर पहुँची,
तो विशाल हवेली के अंदर उसकी साइकिल की आवाज़ भी गूँज गई।
पिता, जो अपने कमरे में किताबों के बीच बैठे कुछ लिख रहे थे,
उन्होंने आवाज़ सुनते ही चश्मा हटाया और बोले —
“गुड़िया आ गई?”
“हाँ पापा...” राधिका ने धीरे से कहा।
“पहला दिन कैसा रहा?”
पिता ने प्यार से पूछा।
राधिका एक पल को ठिठकी,
फिर कहा —
“अच्छा था... कुछ नया सा लगा...”
उन्होंने कुछ और नहीं पूछा —
बस उसकी पसंदीदा गर्म चाय मंगवाई
और कहा,
“तू थक गई होगी, थोड़ा आराम कर ले... फिर मेरे पास आकर बैठना।”
राधिका अपने कमरे में चली गई,
कपड़े बदले, बाल खोले,
और आईने में खुद को देखा।
एक पल को उसे अपना ही चेहरा अजनबी लगा —
क्योंकि उसके चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था...
सिर्फ हल्का-सा अपराधबोध और उलझन।
उसने खुद से कहा —
“मैंने ऐसा क्यों किया?
वो तो कुछ बोला भी नहीं...”
पर फिर भी, उसने भी कुछ नहीं कहा पापा से।
कभी-कभी कुछ बातें शब्दों से नहीं कही जातीं...
वो बस आँखों में रुक जाती हैं।
रात गहरा चुकी थी।
हवाओं में हल्की ठंडक थी और राधिका अपने कमरे की खिड़की के पास बैठी थी,
जहाँ से दूर मंदिर की आरती की धीमी-धीमी ध्वनि आ रही थी।
उसने अपने बाल खोल रखे थे,
सामने खुली किताब रखी थी — लेकिन नज़रें शब्दों पर नहीं थीं।
उसका मन अब भी कॉलेज की उसी क्लास में अटका हुआ था,
जहाँ उसने एक अनजान, शांत लड़के को थप्पड़ मार दिया था।
“मैंने ऐसा क्यों किया?”
उसने खुद से फुसफुसाते हुए पूछा।
“वो तो कुछ बोला भी नहीं... ना गुस्सा किया, ना शिकायत... उल्टा मुस्कराकर कह गया — 'धन्यवाद याद दिलाने के लिए।'”
उसकी आँखों में हल्की नमी तैर गई।
“काश वो पल मैं रोक सकती...”
राधिका को लगा जैसे उसकी मासूम जिद ने
किसी बहुत सच्चे और सीधे इंसान के साथ अन्याय कर दिया हो।
उसका मन उस थप्पड़ से ज़्यादा,
प्रकाश की मुस्कुराहट और नम्रता को याद कर रहा था।
उसने धीरे से अपनी हथेली को देखा —
जिससे उसने सुबह वह तमाचा जड़ा था।
फिर वही हाथ उसने अपने गाल पर रख दिया —
जैसे खुद को समझा रही हो कि जिसे चोट दी, वो तो मुस्कुरा गया… पर मैं क्यों बेचैन हूँ?
“काश मैं माफ़ी माँग सकती… पर कैसे? और क्यों वो कुछ बोल नहीं रहा?”
उसकी उलझन अब पछतावे की आग में बदल रही थी।
पिता के कमरे से आवाज़ आई —
“गुड़िया… सो नहीं रही क्या?”
राधिका ने फटाफट कहा —
“सोने ही जा रही हूँ पापा।”
राधिका इतनी मासूम लड़की थी कि छोटी छोटी बाते उसकी दिल में बैठ जाती थी वह बहुत ही नेकदिल और चंचल लड़की थी।