एक दिन जब कॉलेज की क्लास खत्म हुई,
और सारे विद्यार्थी अपने-अपने रास्ते निकलने लगे,
तो राधिका और प्रकाश भी कॉलेज के गेट के पास मिले।
राधिका ने आज कुछ अलग अंदाज़ में बात की।
थोड़ी सी शरारत,
थोड़ी सी शिकायत,
और थोड़ी सी मासूमियत उसकी आँखों में थी।
वो बोली —
"प्रकाश, एक बात कहूँ?"
प्रकाश ने मुस्कराते हुए कहा —
"हाँ-हाँ कहो महारानी, आज कौन सा हुक्म चलने वाला है?"
राधिका ने हल्की सी भौंहे चढ़ाकर कहा —
"हुक्म नहीं है... शिक़ायत है!"
प्रकाश थोड़ा हैरान हुआ —
"शिक़ायत? वो भी तुमसे? अब क्या कर दिया मैंने?"
राधिका ने नज़रे नीचे करते हुए कहा —
"तुम कभी मुझे अपने घर क्यों नहीं ले जाते?
क्या मेरा इतना भी हक़ नहीं?"
ये कहते हुए उसकी आवाज़ में
थोड़ी सी संजीदगी थी,
और एक मासूम-सा अपनापन।
प्रकाश कुछ पल उसे देखता रहा,
फिर हँसते हुए बोला —
"चल पगली...
इतनी बड़ी बात बनाकर रख दी,
आज ही चलते हैं!"
राधिका का चेहरा खिल गया।
वो मुस्कराई — और बोली —
"सच?"
प्रकाश ने सिर हिलाया —
"सच में... आज तुम मेरी माँ से मिलोगी,
जिससे मैं हर बात करता हूँ... आज तुम भी उसका हिस्सा बनोगी।"
राधिका की आँखों में एक चमक थी —
एक ख़ुशी,
एक अपनापन,
जो शब्दों में नहीं कहे जाते।
और दोनों पैदल ही चल पड़े —
एक सच्चे, सरल रिश्ते की ओर,
जहाँ कोई दिखावा नहीं था,
सिर्फ़ अपनापन था।
राधिका जब पहली बार प्रकाश के घर पहुँची,
तो उसका मन कहीं भीतर से हल्का डर और संकोच से भरा था।
वो एक बड़े, संपन्न घर की बेटी थी —
जहाँ नौकर-चाकर, सुविधाएँ और चमक-दमक थी,
लेकिन यहाँ सब कुछ सादा था,
सीमित था — पर आत्मीय था।
दरवाज़ा खोला —
प्रकाश की माँ ने स्नेह से मुस्कराकर कहा —
"आओ बेटी, अंदर आओ..."
उनकी आवाज़ में न कोई बनावट थी,
न कोई औपचारिकता —
बस एक माँ की सी आत्मीयता थी।
राधिका धीरे से मुस्कराते हुए अंदर आई।
प्रकाश ने कहा —
"माँ, ये राधिका है... मेरी दोस्त।"
माँ ने राधिका का हाथ अपने हाथों में लिया,
और कहा —
"दोस्त नहीं... अब तो मेरी भी बेटी है।"
इतना कहकर उन्होंने राधिका को अपने पास बिठा लिया।
फिर उसके लिए अपने हाथों से
सादा पर प्रेम से भरा खाना परोसा —
गरम रोटी, दाल, आलू की सब्ज़ी, और खीर।
राधिका ने इतना प्रेम,
इतना अपनापन शायद ही कभी महसूस किया था।
प्रकाश की माँ ने उसका सिर सहलाया —
"बेटी, खा लो... आज पहली बार आई हो,
फिर तो तुम आना-जाना करती रहोगी।"
राधिका की आँखें भर आईं।
उसने अपनी थाली एक तरफ रखी,
और चुपचाप माँ की गोदी में सिर रख दिया।
कहने को बहुत कुछ था,
पर उस मौन में सब कुछ कह दिया गया था।
प्रकाश दूर खड़ा था —
पर ये दृश्य उसके जीवन के सबसे कोमल पलों में से एक बन गया।
जब राधिका ने माँ की गोद में सिर रखा,
तो माँ ने उसके बालों को सहलाते हुए पूछा —
"बेटी, तुम्हारी माँ नहीं आई साथ?"
यह सुनकर राधिका की पलकें भारी हो गईं।
कुछ देर चुप रही...
फिर बमुश्किल खुद को सँभालते हुए धीमे स्वर में बोली —
"माँ नहीं हैं...
सात साल पहले... एक लंबी बीमारी के बाद वो हमें छोड़ गईं।
मैं बहुत छोटी थी तब..."
यह कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्राने लगी।
प्रकाश भी चुपचाप खड़ा रह गया —
उसे कभी राधिका की इस गहराई का अंदाज़ा नहीं था।
प्रकाश की माँ ने बिना एक पल गंवाए
राधिका को अपने सीने से लगा लिया।
"अरे नहीं बेटी, अब से मैं ही तुम्हारी माँ हूँ।
तुम जब चाहे इस घर में आ सकती हो,
ये घर तुम्हारा है।"
उनकी आवाज़ में माँ का वही पुराना,
निस्वार्थ, गहराई से भरा प्रेम था।
राधिका की आँखों से आँसू बह निकले,
पर इन आँसुओं में अब अकेलापन नहीं था —
बल्कि अपनापन था।
प्रकाश ने ये सब देखकर एक लंबी साँस ली,
और उसकी आँखों में भी एक चमक थी —
सुकून की, संतोष की,
कि जिन दो औरतों से वह सबसे ज़्यादा जुड़ा था,
अब वे दोनों एक-दूसरे से भी जुड़ गई थीं।
उस दिन,
उस छोटे से घर में,
एक माँ को फिर से बेटी मिल गई,
और एक बेटी को फिर से माँ का आँचल…