मित्रों!
स्नेहिल नमस्कार
हम सब सहयात्री हैं। अंतर केवल इतना है कि किसी का मार्ग कुछ है तो किसी का कुछ, कोई लंबा रास्ता पकड़ता है तो कोई शॉर्टकट से जाना पसंद करता है किंतु लक्ष्य सबका एक ही है, आनंदानुभूति !!
"कर्म प्रधान विश्व करि राखा"
हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि इस सृष्टि का आधार ही कर्म है। मनुष्य इस धरती पर जन्म लेता है, उसके अनुसार कर्मों को निश्चित करके उसे धरती पर उतारा जाता है। उसे अपने वे कर्म करने ही होते हैं जो उसके हिस्से में आते हैं। उसके कर्मों से ही उसे ही सुख या दुःख प्राप्त होता है!किसी के कुछ कारण हैं तो किसी दूसरे के कुछ कारण हैं.।अपने कर्मों के अनुसार ही हम जीवन के अनजाने मार्गों पर चलकर जीवन के निश्चित किनारे पर पहुँचते हैं ।
हम मनुष्यों में बहुत कुछ है। प्रेम, आदर, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार ---सब कुछ ही तो हमारे भीतर है ।
हम इन सबसे इतर नहीं जा सकते क्योंकि हमें उपरोक्त सभी चीज़ों से सजाकर धरती पर भेज गया है ।
कठिनाई यह है कि हम सब, सब कुछ जानते-समझते हैं लेकिन व्यवहार में उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते ।
यदि कुछ अच्छा होता है तो उसका मुकुट हम अपने सिर पर चढ़ा लेते हैं और अहं से झूमने लगते हैं। यदि हम कुछ गलत करते हैं तो उसका टोकरा हम दूसरों के सिर पर रख देते हैं।
हम मनुष्य हैं,दिन में अनजाने में ही सही न जाने हमसे कितनी गलतियाँ हो जाती हैं। चलिए,कोई बात नहीं, लेकिन जब हमें अपनी गलती समझ में आ जाती है तो हम उसे स्वीकार करने के लिए तैयार क्यों नहीं होते ?
कई बार हम जानते, समझते हैं लेकिन स्वीकार नहीं कर पाते । इससे होता यह है कि हम अपने अहं के कारण प्रेम, स्नेह, ईमानदारी से दूर होते चले जाते हैं और मन में बिना बात ही कुढ़ते रहते हैं।
हम अपने मन की अस्वस्थता को बाहर ही खोजते रह जाते हैं, कुछ समझ में नहीं आता तो किसी के भी माथे मढ़ देते हैं।
इसी कारण से हम प्रेम और सहयोग से और भी दूर चले जाते हैं। समझदार व्यक्ति जिन्हें हम ज्ञानी-महात्मा कहते हैं, किसी को भी दोषी नहीं मानते हैं।
जो सुख-दुःख का कारण अपने अंदर ही खोजे वही संत है। ज्ञानी पुरुष सुख-दुःख का कारण बाहर नहीं खोजते, अपने भीतर झाँककर देखते हैं और खोज लाते हैं सच्चा मोती ।
मनुष्य के सुख-दुःख का दाता बाहर जगत में कोई नहीं है। यह कल्पना ही भ्रामक है कि मुझे कोई सुख-दुःख दे रहा है। ऐसी कल्पना अन्य के प्रति वैर भाव जगाती है । वस्तुतः सुख या दुःख कोई दे ही नहीं सकता है।
यह मन की कल्पना मात्र है। सुख-दुःख तो कर्म का फल है।
हमें सदा, सर्वदा मन में झाँककर उसे समझाना है कि हमें जो सुख-दुःख हो रहा है वह हमारे ही कर्मो का फल है।
कैकेयी ने राम को वनवास दिया। कौशल्या माता को अति दुःख हुआ। पर रामजी कहते है कि -
"यह मेरे कर्मों का फल है। पूर्वजन्म में मैंने कैकयी को (रेणुका को) दुःख दिया था,उसका ही फल है।
हर मनुष्य का स्वभाव अलग होता है। स्व का अर्थ है स्वयं ओर भाव का सम्बंध हमारी आंतरिक स्थिति से है। हमारी दृष्टि बाहर की ओर अधिक रहती है इसलिए अपने भीतर के दोष नहीं दिखाई देते हैं। जबकि हमारे अंदर जितनी अधिक पवित्रता होती है उतने ही भाव शुद्ध होते हैं। अपवित्रता के प्रवेश करते ही हम मानसिक रूप से अशांत और असन्तुलित हो जाते हैं। इसलिए आत्मनिरीक्षण, अंतर्दृष्टि और दृढ़ इच्छाशक्ति से हमें जरिए अपने भीतर के गुण दोष को जानना है, पहचानना है पहचानिए ओर उनको दूर करने का प्रयास करना है। । तब हमारा मन एकाग्र, शांत होकर हमारे वश में रह पाएगा। फिर इसको हम जहां चाहे, जितने समय तक चाहे लगा सकते हैं। यहां से हमारी सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। इसीलिए बेहतरी इसीमें है कि हम अपने भीतर झाँकें, अच्छाई, बुराई को तोलें और अपने मन के अनुसार अपना मार्ग बताएं ।
मित्रों!, सोचते हैं इस विषय पर और फिर चलते हैं किसी दूसरे चिंतन की ओर!
सबको स्नेह
आप सड़की मित्र
डॉ. प्रणव भारती