"काश तुम बनारस होती"
बनारस की गलियों से शुरू हुई दास्तां
सुबह के साढ़े सात बजे बनारस की गलियों में वही रोज़ का शोर था — दूध वाले की आवाज़, मंदिर की घंटियां, और मोहल्ले की औरतों की बातचीत। लेकिन उस रोज़ शिवम का मन शांत नहीं था।
शिवम, एक सीधा-साधा बनारसी लड़का, अस्सी घाट के पास एक छोटा सा फोटो स्टूडियो चलाता था। जिंदगी का बड़ा हिस्सा वहीं बीता था — वही गलियां, वही चाय की दुकान, वही घाट की सीढ़ियां।
न कोई बड़ा सपना, न कोई लंबी प्लानिंग। वो मानता था कि “ज़िंदगी सादी हो तो ही सुकून मिलता है।” लेकिन उस सुकून में कुछ हलचल सी आई थी, जब एक लड़की पहली बार उसके स्टूडियो में आई।
पहली बार जब ‘वो’ आई
नाम था — नेहा।
दिल्ली से आई थी गर्मी की छुट्टियों में अपनी मौसी के घर। स्टूडियो आई थी पासपोर्ट फोटो खिंचवाने।
नेहा का अंदाज़ अलग था — खुले बाल, आंखों में तेज़ी, और बोलचाल में शहर वाला कॉन्फिडेंस।
शिवम ने जब कैमरा उठाया तो कहा, “थोड़ी सी मुस्कान दीजिए।”
नेहा हँसी और बोली — “मुस्कान फोटो के लिए चाहिए या बनारसी लड़के इम्प्रेस करने के लिए?”
शिवम थोड़ी देर चुप रहा, फिर धीमे से मुस्कराया।
बस, वहीं से एक अजीब-सी जान-पहचान शुरू हो गई।
चाय और घाट की मोहब्बत
नेहा अगले कुछ दिन बनारस घूमती रही, लेकिन हर शाम शिवम के स्टूडियो के पास आ ही जाती। कभी कुछ फोटो की बहाने, कभी घाट घूमने की ज़िद।
शिवम चाय की दुकान पर उसे लेकर बैठता, और दोनों घंटों बातें करते।
नेहा बोलती रहती — कॉलेज, दिल्ली की भाग-दौड़, वहां के रिश्ते — और शिवम बस सुनता रहता।
वो ज्यादा बोलता नहीं था, पर उसके अंदर बहुत कुछ था।
कभी नेहा को देखकर हल्के से मुस्कुराता, कभी चुपचाप गंगा की तरफ देखता।
नेहा ने एक दिन पूछा, “तुम इतने शांत क्यों रहते हो?”
शिवम ने कहा, “बनारस वालों की मोहब्बत आवाज़ से नहीं, नजरों से चलती है।”
सवाल जो अधूरे रह गए
दो हफ्ते बीत गए थे। नेहा को दिल्ली वापस जाना था।
आखिरी शाम वो घाट पर बैठी थी।
शिवम पास आया और बोला, “सुना है वापसी कल है?”
नेहा ने सिर हिलाया।
थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहे। फिर नेहा ने कहा,
“अगर मैं यहीं बनारस में रहूं तो?”
शिवम ने उसकी तरफ देखा, पर कुछ नहीं कहा।
नेहा ने फिर पूछा, “क्या तुम मुझे रोकना नहीं चाहोगे?”
शिवम ने सिर्फ इतना कहा,
“अगर रुकना होता, तो पूछना नहीं पड़ता। बनारस में लोग लौटते नहीं, बस याद बन जाते हैं।”
और फिर वो चली गई…
नेहा दिल्ली लौट गई।
शिवम की जिंदगी वैसे ही चलती रही — सुबह फोटो खींचना, दिन में बच्चों की आईडी निकालना, शाम को घाट पर बैठकर चाय पीना।
पर अब हर तस्वीर में, हर चाय की चुस्की में, नेहा का चेहरा दिखता।
कभी कोई लड़की स्टूडियो आती, तो लगता शायद वो लौट आई है।
पर फिर सच्चाई आंखों में उतर आती।
बिना मैसेज, बिना कॉल…
ना नेहा ने कोई मैसेज किया, न कोई फोन आया।
और ना ही शिवम ने कुछ भेजा।
शायद दोनों जानते थे —
कुछ रिश्ते होते हैं, जो साथ नहीं होते… लेकिन खत्म भी नहीं होते।
एक साल बाद
एक दिन अचानक स्टूडियो के बाहर एक स्कूटी रुकी।
नेहा थी।
वही हँसी, वही आंखें — पर अब थोड़ी थकी हुई।
शिवम ने कुछ नहीं पूछा, बस स्टूल खींच दिया और बोला — “चाय पियोगी?”
नेहा बोली, “अब भी वही कुल्हड़ वाली?”
शिवम मुस्कराया — “बनारस बदला नहीं। और मैं भी नहीं।”
नेहा ने धीरे से कहा — “काश मैं बनारस होती… तो शायद तुम मुझे कभी जाने ही नहीं देते।”
शिवम ने जवाब नहीं दिया।
कभी-कभी खामोशी ही सबसे गहरी बात होती है।
❤️ कहानी का सार:
ये कहानी उस इश्क़ की है जो शोर नहीं करता।
जो किसी इंस्टाग्राम पोस्ट पर नहीं होता,
ना ही किसी रोमांटिक लाइन में बंधता है।
ये कहानी उन लोगों की है
जो किसी से दिल से जुड़ जाते हैं,
पर कभी ज़ुबान से कह नहीं पाते।
क्योंकि वो जानते हैं —
जो मोहब्बत असली होती है, वो चुपचाप बहती है… बनारस की गंगा की तरह।