कश्मीर भारत का एक अटूट हिस्सा–2
भाग 1 को आगे बढ़ाते हुए कहानी बारामुला में घुसपैठियों के प्रवेश तक पहुंची थी। यहां से कश्मीर भारत की गिरफ्त से बाहर लग रहा था लेकिन तभी, कहानी एक मोड़ लेती है.... घुसपैठिये अपनी मकसद भूलकर लूटपाट, हत्या, बलात्कार में लग गए। उन्होंने न केवल ही हिन्दुओं, सिक्खों बल्कि मुसलमानों को भी निशाना बनाया। दुकानें जला दी गई..., चारों तरफ आगजनी की गई..., औरतों की इज्जते लूटी गईं... चारों तरफ हाहाकार मच गई....।
जिन–जिन साधनों से ओ आए थे उन में लूट का सामान लादकर वापस भेजने लगे, पूरा बारामुला तबाह हो गया... चारों तरफ खंडहर और वीरान सा हो गया.... यह सिलसिला लगभग दो दिनों तक चला जिससे राजा हरिसिंह को तथा भारतीय सेना को तैयार होने का मौका मिला गया, लेकिन घुसपैठियों की बारामुला में उपस्थिति कश्मीर ये लिए अभी भी खतरा खड़ा किए हुए थी।
अब हर एक क्षण महाराजा हरिसिंह के लिए कीमती था। उन्होंने भारत सरकार से गुजारिश की कि ओ भारतीय सेना को जल्द से जल्द कश्मीर भेज दे क्योंकि अब मामला उनके हाथ से निकल चुका था। 25 अक्टूबर 1947 को डिफेंस कमेटी की एक बैठक हुई.. जिसमें रियासती डिपार्टमेंट में सेक्रेटरी का कार्यभार संभाल रहे वी.पी. मेनन को कश्मीर भेजने की मंजूरी मिली।
कश्मीर में रामचन्द्र काक अब प्रधानमंत्री नहीं रहे उनकी जगह मेहर चंद को प्रधानमंत्री बनाया गया था। वी.पी. मेनन की मुलाकात महाराजा हरिसिंह तथा नए प्रधानमंत्री मेहर चंद से हुई। चर्चा इस बात पर हुई कि राजा को जल्द से जल्द श्रीनगर छोड़कर जम्मू चले जाना चाहिए क्योंकि अगर राजा इन घुसपैठियों के हाथ लग गए तो कश्मीर का भारत में मिलना नामुमकिन हो जाएगा।
महाराजा हरिसिंह रात में ही जम्मू के लिए रवाना हो गए लेकिन मेनन श्रीनगर का जायजा लेने के लिए वही रुक गए.. अब श्रीनगर को घुसपैठियों ने चारों तरफ से घेर लिया मेनन जल्द ही वहा से निकलने की तैयारी करने लगे लेकिन एक दुविधा थी महाराजा हरिसिंह जम्मू जाते वक्त सारी गाड़िया लेकर चले गए थे.. बस एक जीप ही बचा था, किसी तरह मेनन, मेहर चंद तथा आर्मी के उच्च पदाधिकारी उस जीप में सवार होकर एयरपोर्ट पहुंचे। अब कश्मीर की सुरक्षा का जिम्मा दिल्ली वालों के हाथ में था लेकिन माउन्ट बेटन जिद्द पर अड़े थे कि जब तक महाराजा हरिसिंह कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए हस्ताक्षर नहीं करेंगे तब तक भारत से कोई सहायता नहीं दी जाएगी। इस समाचार को लेकर मेनन तथा मेहर चंद महाजन , जम्मू के लिए रवाना हो गए। दोनों लोग महाराजा हरिसिंह से मिले तथा उन्हें इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर करने को कहा, राजा कुछ हिचकिचाए.... लेकिन अंत में उन्होंने इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया।
"मै श्रीमान इंदर महेंद्र राज राजेश्वर महाराजधिराज श्री हरिसिंह जी जम्मू एवं कश्मीर नरेश तथा तिब्बत आदि देशाधिपति सार्वभौम सत्ता का इस्तेमाल करते हुए ... भारत संघ के साथ इस "इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन" पर दस्तख़त करता हूं ... मै इसी के साथ भारतीय संघ में शामिल होने का ऐलान करता हूं।"
लेकिन उन्हें भारतीय सेना पर पूरी तरह भरोसा नहीं था। उन्हें इस बात का डर था कि... अगर भारतीय सेना समय पर ना पहुंची तो क्या होगा? उन्होंने अपने ए.डी.सी. कैप्टन दीवान सिंह को बुलाया और कहा "मै सोने जा रहा हूँ कल सुबह अगर तुम्हे भारतीय सैनिक विमान की आवाज सुनाई न दे ... तो मुझे गोली मार देना।" यह कहकर महाराज सोने चलें गए।
उधर नेहरू,पटेल, बेटन और सेना के पदाधिकारियों की मीटिंग हुई अंग्रेज कमांडर कश्मीर में सेना भेजने से कतरा रहे थे लेकिन पटेल और नेहरू के दबाव और बेटन के एक शर्त की "अगर भारत कश्मीर को इन घुसपैठियों से बचा लेगा तो उन्हें वहां जनमत कराना होगा" इस शर्त पर हम सेना को कश्मीर जाने की अनुमति देंगे, इस शर्त को नेहरू और पटेल ने बिना विरोध किए मंजूर कर लिया।
27 अक्टूबर को भारतीय सेना की तीन टुकड़ी कश्मीर के लिए रवाना हो गई तथा अगली सुबह से पहले ही सेना की एक टुकड़ी श्रीनगर के लिए उड़ी। सेना के लिए यह काफी कठिन था... क्योंकि उन्हें यह तक नहीं ज्ञात था कि जिस एयरपोर्ट के लिए ओ रवाना हुए है वह सुरक्षित है भी? या नहीं। इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि बिना सिग्नल मिले ओ वहां लैंड नहीं करेंगे। लेकिन जैसे ही सेना श्रीनगर पहुंची घुसपैठियों के हालत बिगड़ने लगी। वह सेना की मदद शेख अब्दुल्ला तथा उनके पार्टी (नेशनल कॉन्फ्रेंस) के सदस्य भी कर रहे थे। उन लोगों ने सेना को पूरा साथ दिया।
कश्मीर में भारतीय सेना की कार्यवाही से पाकिस्तान में हलचल मच गई पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना बौखला उठे। जिन्ना द्वारा जनरल ग्रेसी को फोन किया गया और उन्हें तत्काल रावलपिंडी से होते हुए कश्मीर में सेना भेजने को कहा गया लेकिन जनरल ग्रेसी ने साफ इनकार कर दिया और कहा बिना सुप्रीम कमांडर ऑचिनलेक के इजाजत के बगैर हम सेना नहीं भेजेंगे। जनरल ऑचिनलेक भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के सेना के जनरल–इन–चीफ थे और उनका पद माउंट बेटन से नीचे आता था।
अब जब जिन्ना की बात ऐसे नहीं बनी तो उसने माउंट बेटन और नेहरू को लाहौर मीटिंग के लिए न्यौता दिया इसको नेहरू और माउंट बेटन ने बिना हिचक के स्वीकार कर लिया लेकिन एक शख्स इसका विरोध कर रहा था.... ओ थे सरदार पटेल। उनका कहना था कि हम क्यों पाकिस्तान जाए…?, जब हमला पाकिस्तान ने ही किया है हमे क्या जरूरत है…? उनके पीछे भागने की उनको दिल्ली आना हो तो आए, लेकिन माउंट बेटन और नेहरू ने कहा कि एक मुलाकात करने में क्या ही हर्ज है हमे मुलाकात कर लेनी चाहिए लेकिन नेहरू की तबियत बिगड़ने लगी…, उनका लाहौर जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया। अब यह अनुमान यह लगाया जाता है कि अगर नेहरू लाहौर जाते तो नतीज कुछ और निकलता। यह भारत के पक्ष में भी हो सकता था... या फिर बात और उलझ सकती थी, हालांकि ये सब केवल अनुमान थे।
माउंट बेटन के कश्मीर जाने से पहले एक चौंकाने वाला बयान जारी किया गया, जिसमें जिन्ना ने भारत और कश्मीर विलय को धोखे और हिंसा से हुआ बताया। यह सबसे ज्यादा चोट नेहरू को की जिनके मन में अब अलग तरह के विचार पाकिस्तान के लिए पनपने लगी थी क्योंकि अभी दोनों देश आजाद ही हुए थे उसके पहले दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और जिन्ना बंटवारे के बाद कश्मीर पर हमला बोल दिए… क्या जिन्ना के पास कोई और रास्ता नहीं था? शांति से वार्ता करने की।
आखिरकार माउंट बेटन 1 नवंबर 1947 को लाहौर के लिए रवाना हुए, जिन्ना ने माउंट बेटन के सामने वही पुराना हिंसा और धोखे से विलय वाली बात दोहराई और माउंट बेटन को कहा कि अगर भारत अपनी सेना को कश्मीर से निकल ले तो वह इस मामले को सुलटा (हल कर) सकते है। यह भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर पहली आधिकारिक मीटिंग मानी जाती है। इस मीटिंग में जिन्ना ने यह कुबूल लिया कि कश्मीर पर पाकिस्तान ने पहले हमला किया था । लेकिन कहानी अब एक और मोड़ लेती है इस बात को खबर बनने से पहले नेहरू ने रेडियो पर एक स्टेटमेंट दे दिया.. उन्होंने कहा कि "कश्मीर में मामला शांत होने के बाद संयुक्त राष्ट्र की देख–रेख में जनमत संग्रह कराया जाएगा"। और यह पहला मौका था जब नेहरू ने जनमत संग्रह करने की बात सार्वजनिक तौर पर कही। माउंट बेटन ने यही शर्त जिन्ना के सामने भी रखी लेकिन जिन्ना इस पर राजी नहीं हुए। माउंट बेटन ने नेहरू को लाहौर यात्रा से पहले ही इस शर्त को लेकर राजी करा लिया था नेहरू के पास इस शर्त को मानने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं था.. नेहरू लोगो को दिखाना भी चाहते थे कि भारत में कश्मीर का विलय धोखे या रक्तपात से नहीं हुआ है उन्हें कश्मीरियों पर विश्वास भी था । लेकिन पाकिस्तान के कश्मीर में हस्तक्षेप के बाद यहा स्वतंत्र, निष्पक्ष जनमत संग्रह करना संभव नहीं था ।
अब दिसंबर 1 , 1947 को भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के खिलाफ पहली शिकायत दर्ज कराई गई। लेकिन सुरक्षा परिषद में अमेरिका और ब्रिटेन अपनी राजनीति सेकने के लिए इस मुद्दे को नजरअंदाज कर दिया और मामला यहा तक पहुंच गया की ब्रिटेन की तरफ से एक बात कही गई कि "कश्मीर के हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है"। अब यह मुद्दा कश्मीर का नहीं रहा, यह अब भारत–पाकिस्तान का मुद्दा बन गया। अभी आजादी मिले कुछ ही महीने हुए थे भारत अभी इतना शक्तिशाली नहीं था कि ओ ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों को अपनी बात मनवा सके। भारत इस मुद्दे में उलझ चुका था।
बात यही समाप्त नहीं हुआ अभी नेहरू के प्रधानमंत्री बने कुछ ही महीने हुए थे उन्होंने कश्मीर मुद्दे को न सुलझा पाने के पश्चाताप में अपना पद त्यागने को मन बना लिए थे इस पर उनके द्वारा माउंट बेटन को लिखी चिट्ठियों के सबूत थे। नेहरू ने पद तो नहीं त्यागा लेकिन... कश्मीर के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में चल रहे खेल ने उन्हें इस बात के लिए सशक्त कर दिया कि ओ कश्मीर को लेकर किसी भी समझौते से तैयार नहीं थे।
अब उनके सारे वादे जो कश्मीरियों से किए गए थे उसको लेकर बस अब केवल एक ही रास्ता बचा था शेख अब्दुल्ला। उस समय तक शेख अब्दुल्ला एक सेकुलर और पाकिस्तान के कट्टर विरोधी थे। शेख अब्दुल्ला भारतीय सेना को कश्मीर और वहां की जनता के रक्षक के रूप में लोगो को भाषणों के माध्यम से बताते थे। शेख अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस की घुसपैठियों के खिलाफ खोली गई मोर्चा ने उनका प्रभाव कश्मीर में बढ़ा दिया। 1948 के मार्च महीने में महाराजा हरिसिंह, शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री बनाने को मजबूर हो गए । अगस्त महीने में संयुक्त राष्ट्र ने भारत–पाकिस्तान के बीच युद्धविराम की प्रस्ताव रखा लेकिन तब युद्धविराम नहीं हुआ युद्ध चला... और जनवरी 1949 में भारत–पाकिस्तान में सीज़फायर (युद्धविराम) हुआ। लेकिन जब तक यह युद्धविराम हुआ तब तक भारतीय सेना ने पश्चिम में पुंछ और उत्तर में कारगिल और त्रास से घुसपैठियों को खदेड़ चुकी थी लेकिन इसके बाद का हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में रह गया जिसे हम पाकिस्तान ऑक्यूपाइड कश्मीर(POK) कहते है.. और जो हिस्सा भारत के कब्जे में है उसे पाकिस्तान, इंडियन ऑक्यूपाइड कश्मीर(IOK) कहता है। और जो सीजफायर लाइन थी उसे हम लाइन ऑफ कंट्रोल(LOC) कहते है। यह रहा कश्मीर का किस्सा जो उलझा भी और कुछ हद तक सुलझा भी लेकिन जो रह गया इसके लिए लड़ाई अभी भी चल रहा है। भारत माता का मुकुट कहा जाने वाला राज्य जम्मू एवं कश्मीर जहां एक तरफ सुंदर वादियां है तो दूसरी तरफ खौफनाक घटनाएं भी हुई है। जहां देशप्रेम भी है और आतंकवाद भी।
ऐसी बहुत सी कहानियां है जिन्हें ज्यादातर लोगों नहीं सुना है या पढ़ा है उन सभी कहानियों को हम इतिहास के पन्नों से ढूंढ के आपके लिए लेकर आते रहेंगे।
जुड़े रहिए chanchal tapsyam के साथ और पढ़ते रहिए ऐसी अनसुने लेकिन महत्वपूर्ण कहानियां।
धन्यवाद 🙏