उपन्यास औघड़ by नीलोत्पल मृणाल
भारतीय ग्रामीण जीवन और परिवेश की जटिलता पर लिखा गया उपन्यास है जिसमें अपने समय के भारतीय ग्रामीण-कस्बाई समाज और राजनीति की गहरी सच्चाई का बखान किया गया है। आज के इस आधुनिक दौर में हमारे ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़ेपन को उजागर करता है , उपन्यास जिसको पढ़ कर कही ना कही आप ये सोचने पर मजबूर हो जाएंगे के क्या ऐसे परिवेश में जीवन कितना जटिल होता होगा !
उपन्यास का अंत आपकी सोच के बिल्कुल विपरीत और आश्चर्यजनक हैं....! कुल मिलाकर बहुत अच्छा और उम्दा लेखन है , सभी पात्रों का विस्तृत वर्णन और उनके अनुरूप उनका किरदार लेखन इस उपन्यास को और भी रोचक बनाता है .....।
इस उपन्यास में दर्शाया है किस तरह जातिवाद आज भी हमारे समाज में आज भी फैला हुआ है जिसके कारण हिन्दू हिंदू ना हो कर स्वर्ण , पिछड़ा , हरिजन हो कर आपस में बिखरा हुआ है । कैसे राजनेता , अधिकारी , पूंजीवादी ,और पुलिस प्रशासन सब अपने अपने फायदे के लिए हमारे देश संविधान को अपने अपने हिसाब से तोड़ मोड़ कर गरीब वर्ग का शोषण करते है .... सब जान कर भी लोगो में ना उसका विरोध नहीं कर के उसको अपने जीवन का हिस्सा मान उसके मुताबिक जीवन जीते है ! क्योंकि सभी ये जानते है हमारे देश में ये सामाजिक वर्गीकरण कभी खत्म नहीं होने वाला ! जिसका मुख्य कारण देश की राजनीतिक पार्टियां इस देश में मुद्दों पर नहीं बल्कि सामाजिक वर्गीकरण की राजनीति को ज्यादा महत्व देती है जो इस उपन्यास में प्रदर्शित होता है !
यह उपन्यास आपको आज के परिवेश में भारत के पिछड़े पन से अवगत कराता है के कैसे आज दोर में देश दुनिया में इतना आधुनिकरण होने के बाद भी भारतीय गांव आज भी 21 वीं सदी में आने बाद भी आज तक आजादी के पहले वाली मानसिकता को ही अपना भाग्य मानते है और कैसे अपने आपको अपनी जाति के अनुरूप बड़ा या छोटा मानते है !
कैसे पैसे के बल पर नेता ,पुलिस और अधिकारी अपनी मन मानी कर के किसी महिला का शोषण करने बाद भी समाज में अपनी धाक जमाते है और कैसे उसकी की आवाज को दबा दिया जाता है और सभी बस तमाशा देखते है !
शायद हमारे देश का दुर्भाग्य यही है सब जानते बुझते भी हम लोग उस चीज के होने पर सिर्फ उसके बारे में थोड़ी निराशा प्रकट कर उसको भूल जाते है जिसका फायदा उठा कर ही राजनेता धर्म , जाती , और आपसी भेदभाव का फायदा उठा कर सत्ता में बने रहते हैं जनता का शोषण करते रहते है ...
नीलोत्पल मृणाल जी ने हमारे देश के गांवों के पिछड़ेपन को बहुत अच्छे लेखन से सामने रखने का प्रयास किया है !
इस उपन्यास की भूमिका में नीलोत्पल लिखते हैं कि —
आप चाहे किसी भी धारा के हों, किसी भी वाद के वादी हों, किसी भी समुदाय से हों, किसी भी वर्ग से हों, किसी भी जाति से हों....मैं जानता हूँ आप मुझे छोड़ेंगे नहीं। और मैंने भी पूरी कोशिश की है, किसी को न छोड़ूँ। जो इसे पढ़ कर शत प्रतिशत सही लगा ....
सच हमेशा कड़वा होता है जो इस उपन्यास को पढ़ कर महसूस हुआ के हम कितनी भी आधुनिकरण की बातें कर ले पर जाती ,समाज की सोच के हिसाब से आज भी पिछड़े ही है ....