NOVEL REVIEW: IBNEBBUTI BY DIVYPRAKASH DUBYE in Hindi Book Reviews by Vishwas Panday books and stories PDF | समीक्षा : उपन्यास इब्नेब्बूती लेखक दिव्य प्रकाश दुबे

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समीक्षा : उपन्यास इब्नेब्बूती लेखक दिव्य प्रकाश दुबे

इब्नेब्बूती लेखक दिव्य प्रकाश दुबे 

आज हम बात करते है इब्नेबतूती की जैसा उपन्यास की शुरुआत में ही लिखा है ....

इब्नेबतूती - इस शब्द का कोई मतलब नहीं होता। इसलिए आप इसको अपनी मर्जी और ज़रूरत के हिसाब से कोई भी मतलब दे सकते हैं। कुछ सुंदर शब्द कभी शब्दकोश में जगह नहीं बना पाते। कुछ सुंदर लोग किसी कहानी का हिस्सा नहीं हो पाते। कुछ बातें किसी जगह दर्ज नहीं हो पातीं। कुछ रास्ते मंज़िल नहीं हो पाते। उन सभी अधूरी चीज़ों, चिट्ठियों, बातों, मुलाक़ातों, भावनाओं, विचारों, लोगों के नाम एक नया शब्द गढ़ना पड़ा। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनको सहेजने वाले इस दुनिया में बस दो लोग होते हैं। ये वो रिश्ते होते है जो पारिवारिक मजबूरी या सामाजिक धारणा के कारण पूरे नहीं हो पाते और बस यादों में जिंदा रह जाते है ....! 

 ये कहानी है मां शालू अवस्थी और बेटे राघव अवस्थी की मार्मिक और विचारणीय कहानी है जो आधुनिक युग की सोच ( बेटे की मां के लिए )  और पुरानी सामाजिक सोच ( पिता की बेटी के लिए ) के बीच के अन्तर को दर्शाती है.... ! ये कहानी एक ऐसी सशक्त महिला की जो अपने पति के देहांत के बाद अपने बच्चे का अकेले संघर्ष करके पालन पोषण करती है ...!  माँ और बेटे के रिश्ते पर लिखी हुई ये अपने आप में एक अलग तरह की कहानी है जो खत्म तो कभी नहीं होती, हाँ माँ के त्याग और समर्पण का एक एहसास जरूर कराती है।

राघव जिसे विदेश में एक अच्छे बड़े कॉलेज में दाखिला मिल जाता है और उसके जाने कुछ दिन पहले ही उसकी मां एक दिन चक्कर खा कर गिर जाती है जिससे उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ता और फिर राघव अपनी मां और अपनी पढ़ाई दोनों के बीच कश्मकश फंस जाता है तभी एक दिन उससे आपने मां के पुराने कालेज के मित्र आलोक कुमार को लिखे हुए पर कभी ना भेजे हुए खत मिलते है जो उसकी मां ने उससे छिपा कर रखे थे ।जैसा कि बेटे के बड़े होने पर मां उसकी शादी के लिए  जीवनसाथी ढूंढने में जुट जाती है पर इस कहानी में वही बेटा अपनी मां के अकेलेपन को दूर करने के लिए साथी की खोज जुट जाता है जो उसे जितना आसान लग रहा था पर असल में होता नहीं ....! 

कहानी को बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया है , जब इसे पढ़ेंगे तो आपको ये कहानी दो दौरों के बीच चलती नजर  आएगी एक  दौर 2015 का लखनऊ और दूसरा 1990 का दिल्ली के विश्व विद्यालय की है । पहला दौर की कहानी एक नई प्रकार की आधुनिक सोच आपके सामने लेकर आएगि और आपके मां बेटे के प्यार को और समर्पण को देख सामाजिक नजरिए को बदल देगी और वहीं दूसरा दौर आपको 90 के दशक ज्वलंत मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों में शामिल होंगे वाले विश्वविद्यालयों के छात्रों के संघर्ष की हैं जो उस समय के सामाजिक और मानसिक बंधन को प्रदर्शित करता है ... ! 

ये उपन्यास आपकी सोच को बहुत सीधा और सरल शब्दों में आपके दिल से जोड़ देती है , दिव्य प्रकाश दुबे जी का लेखन बहुत अच्छा है और कहानी मार्मिक भी है जो मां बेटे के प्रेम को और उनकी नोंकझोंक को बहुत अच्छे से दर्शाती है व इस कहानी को और रोचक बना देता है ...

समीक्षा प्रस्तुति : विश्‍वास