Roktchinh - 1 in Hindi Thriller by Pritam Maity books and stories PDF | रक्तचिह्न - 1

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रक्तचिह्न - 1



📘 सीरीज़ का नाम: रक्तचिह्न

🩸 भाग १: रात्रि उस जले हुए बंगले में

शैली: थ्रिलर × रहस्य × सामाजिक तनाव


✍️ कहानी शुरू:

कोलकाता के उत्तर शहर में, एक पुराना जला हुआ बंगला है।
नाम किसी को नहीं पता, और किसी ने कभी रखा भी नहीं।
कहते हैं वहाँ रात को रोशनी जलती है — लेकिन कोई पास नहीं जाता।
मुहल्ले के लोग कहते हैं, "वो जगह अपशगुनी है।"
किसी ने धीरे से फुसफुसाया — "वहाँ एक लड़की की हत्या हुई थी..."

रात्रि बोस, एक साहसी पत्रकार, इन सब बातों को अंधविश्वास मानती थी।
वो काम करती है एक डिजिटल चैनल में — “नगर वार्ता”।
“सनसनी मतलब व्यूज़, और व्यूज़ मतलब पैसा।”
और आज रात, रात्रि ने ठान लिया था — वो उस बंगले के अंदर जाएगी, और एक एक्सक्लूसिव रिपोर्ट बनाएगी।


रात्रि ने अपने बैग में मोबाइल, माइक, एक छुपा कैमरा और टॉर्च रखा।
रात के साढ़े दस बजे, वह उस बंगले के सामने खड़ी थी।
तेज हवा की एक ठंडी लहर उसके रोंगटे खड़े कर देती है।
उसने महसूस किया जैसे कोई उसकी गर्दन के पीछे सांस ले रहा हो।
वो पलटती है — कोई नहीं।

दरवाज़ा आधा टूटा हुआ था।
थोड़ा धक्का देने पर चर्र की आवाज़ के साथ खुला।
अंदर से एक हल्की आवाज़ आई —
कांच टूटने की? नहीं…
वो जैसे कोई पुराना पियानो हो… उसके कीज़ पर किसी ने धीरे से उंगलियाँ चलाई हों।

रात्रि की साँसें थम गईं।
“डरने की ज़रूरत नहीं। ये डर अगर कैमरे में आ जाए, तो न्यूज़ हिट है।”

वो अंदर चली जाती है।


बंगले के फर्श पर धूल की एक मोटी परत जमी थी।
छत का एक हिस्सा गिर चुका था।
चाँद की रोशनी एक टूटे हुए शीशे से टकरा कर फर्श पर गिर रही थी।
कोई प्रतिबिंब नहीं था, लेकिन शीशे के पास जाने पर उसे लगा जैसे कोई देख रहा हो।

एक कोने में पड़ा था — पुराना लकड़ी का पियानो।
एक तरफ टूटा हुआ पलंग, उस पर फटा-सा चादर…
और उसके ऊपर एक बहुत पुराना लिफ़ाफ़ा।

रात्रि ने कैमरा ऑन किया।

लिफ़ाफ़ा खून के धब्बों से सना था।
धीरे से उसे खोला —
अंदर लिखा था:

“अगर तुम वापस आओ, तो मैं जान जाऊँगी — तुम अब भी मुझे ढूंढ रही हो। मेरा खून अब भी दीवारों पर जमे हैं…”

रात्रि की साँसें अटक गईं।
उसने दीवार की तरफ देखा —

वहाँ सच में खून का सूखा धब्बा था।


उसी पल —
पियानो अपने आप बज उठा।

टन… टन… टन…

उस ठंडी आवाज़ से कमरे की हवा काँप उठी।

रात्रि भागने लगी —
लेकिन दरवाज़ा बंद हो चुका था!

वो ज़ोर ज़ोर से धक्का देती है —
कुछ नहीं होता।

तभी उसकी नज़र एक कोने में लिखी इबारत पर जाती है —

"आज ठीक दस साल बाद तुम लौटी हो, और मैं अब भी यहीं हूँ..."


...तभी उसकी नज़र एक कोने में लिखी इबारत पर जाती है —

"आज ठीक दस साल बाद तुम लौटी हो, और मैं अब भी यहीं हूँ..."

रात्रि के हाथ से कैमरा गिर पड़ता है।
कमरे में अचानक एक हल्की सी सिसकी गूंजती है —
जैसे किसी ने दर्द में कहा हो — “रात्रि...”

उसका दिल धड़कना भूल जाता है।

पीछे पलटते ही —
वो देखती है, एक धुंधली सी आकृति…
सफेद कपड़े में लिपटी, बाल बिखरे…
आँखें, जो शायद कभी इंसान की थीं — अब खाली गड्ढों में बदल चुकी हैं।

उस आकृति ने धीरे से कहा — "मेरा सच जानोगी, तो बच नहीं पाओगी..."


🔗 (जारी रहेगा...)
अगला भाग: “पूर्वरात्रि की परछाई”