रित्विक के जाने के बाद कमरे में जैसे सब कुछ ठहर गया था। आरवी उस दरवाजे को देर तक देखती रही जहां से रित्विक निकला था - बिना जबाव दिए, बिना कोई वादा किए।
वो पल, जो एक सपने जैसा लग रहा था, अब एक अधूरी कहानी बन चुकी थी।
वो नही जानती थी कि रित्विक लौटेगा भी या नहीं,
पर दिल ने ठान लिया था... कि इंतजार तो करना ही होगा। समय बीत रहा था, लेकिन की लम्हें आज भी वहीं रुके थे। आरवी अब पहले जैसी नही थी। वो अब एक मां थी, एक लेखिका थी, और अब... उसे अपने अधूरे सवालों के जवाब चाहिए थे।
रित्विक को वहां से जाए एक अरसा बीत चुका था।
लेकिन आरवी अब अकेली नहीं थी उसकी एक प्यारी सी बेटी थी जिसका नाम उसने आन्या रखा।
उस रात जब फोन आया था, रित्विक चला तो गया... लेकिन उसके बाद न कभी रित्विक आया, और न ही कभी कोई फोन, न कोई चिठ्ठी। आरवी सुबह उम्मीद लेकर दरवाजा खोलती, दोपहर में दरवाजे की आहट सुनती, रातों को अपने अकेलेपन से लड़ती।
पर उसके दिल को अभी भी लगता था कि एक दिन तो रित्विक जरूर वापस आयेगा, उसके और उसकी बेटी के लिए।
वक्त के साथ अब उसकी नन्ही परी आन्या भी बड़ी हो रही थी। हर दिन उसकी मुस्कान में आरवी को एक उम्मीद दिखाई देती। उसने ठान लिया था - कि वो आन्या की जिंदगी पर किसी और का पराया साया नहीं पड़ने देगी। चलो उसे कितनी भी अकेली लड़ाइयां लड़नी पड़े।
आन्या अब स्कूल जाने लगी थी। वह भी अपनी मां की तरह पढ़ने में बहुत रुचि रखती थी। आरवी ने आन्या का दाखिला उसी शहर के एक अच्छे स्कूल में कर दिया था। और अब आरवी की कहानियां सिर्फ उस शहर तक सीमित न रही थी उसकी कहानियों के चर्चे कई बड़े शहरों में थे। आरवी अपनी बेटी के साथ खुश थी।
"कभी-कभी कुछ सवाल वक़्त से पहले सामने आ जाते हैं... उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ।"
आरवी दफ्तर से लौटी ही थी कि उसकी बेटी उसके पास आई।
“माँ, मेरे पापा कौन हैं?”
उस एक सवाल ने जैसे वर्षों की चुप्पी को तोड़ दिया।
आरवी कुछ पलों तक खामोश रही। उसकी आंखों में कई मौसम झलकने लगे — पतझड़ के, बहारों के, और अधूरे ख़्वाबों के...
थोड़ी देर बाद आरवी मुस्कुराई, हल्के से उसने आन्या का सिर सहलाया, लेकिन दिल के भीतर कुछ कांपने लगा। वो... बहुत अच्छे इंसान थे। बहुत प्यार करते थे हमसे। इतना कहकर आरवी चुप हो गई।
लेकिन उसी रात, जब सो रहे थे। आरवी ने अपने लैपटॉप पर एक ईमेल खोला जो कुछ ही घंटों पहले आया था-
From: R.K.
Subject: क्या तुम आज भी लिखती हो।
"कुछ वादे कभी बूढ़े नहीं होते। और कुछ कहानियां... कभी अधूरी नहीं होती। बस सही वक्त का इंतजार करती है।"
आरवी की आंखों में नींद नहीं थी, पर सपनों की झलक जरूर थी।
क्या वो रित्विक है?
वह मन ही मन बुदबुदाई।
आरवी पहले तो सहम जाती है, लेकिन फिर खुद को समझाती है कि शायद ये कोई और हो सकता है। आरवी अभी भी बैठी सोच रही थी। वह थोड़ी देर सोचती रहती है, खुद को शांत करती है। तभी अन्या उसे आवाज़ देती है, “मां!” आरवी उठती है और पलंग पर बैठी आन्या को सुलाने के लिए लोरी गाती है । धीरे धीरे आन्या और आरवी दोनों सो जाते हैं अगली सुबह अन्या आरवी से पहले उठ जाती है और खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगती है, क्योंकि आज का मौसम बेहद सुहावना था। जब आरवी उठती है, तो वह अन्या को खिड़की के पास बैठा देखती है और उससे पूछती है, “क्या देख रही हो?” अन्या मुस्कराकर कहती है, “मां, ये सुबह कितनी मधुर है।” अन्या की यह मासूम बात आरवी को अचानक रित्विक की याद दिला देती है। जैसे वो भी कभी यूं ही खिड़की के पास बैठा रहता था, घंटों बिना कुछ कहे… चुपचाप मौसम को निहारता था। कुछ पल के लिए आरवी जैसे फिर उसी बीते पल में लौट जाती है।
सब कुछ ठीक चल रहा था। अब आन्या की छुट्टियां भी खत्म हो गई थी। अन्या वापस अपने हॉस्टल लौट चुकी थी। आरवी फिर से अपनी कहानियों की दुनिया में डूब गई थी। अब जैसे रित्विक की वापसी की कोई उम्मीद ही नहीं बची थी — मानो पतझड़ के बाद कोई वसंत नहीं आने वाला।
तभी एक दिन उसके नाम एक पत्र आया। किसी बड़े शहर में एक भव्य सम्मान समारोह आयोजित किया जा रहा था, जहां आरवी को भी आमंत्रित किया गया था। पत्र पढ़कर उसकी आंखों में चमक तो आई, पर दिल में एक अजीब सी बेचैनी भी समा गई।
आरवी ने अन्या को भी साथ चलने को कहा, लेकिन अन्या ने परीक्षा की तैयारी का बहाना बना कर मना कर दिया। आरवी अकेले ही निकल पड़ी उस अनजान शहर की ओर — एक और पड़ाव, शायद एक और मोड़।
कार्यक्रम बहुत ही भव्य था। मंच सजा था, चारों ओर रोशनी और कैमरों की च闪क थी। देश भर से नामचीन लेखक और कवि वहां मौजूद थे। आरवी भी वहां बहुत से नए चेहरों से मिली, कुछ तारीफ़ें सुनीं, कुछ मुस्कानें बांटीं।
फिर मंच से एक-एक नाम पुकारे जाने लगे। सबको उनके साहित्यिक योगदान के लिए सम्मानित किया जा रहा था।
और फिर आरवी का नाम पुकारा गया।
हॉल में तालियों की गूंज के बीच वह धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़ी। जैसे ही उसने पुरस्कार लेने के लिए हाथ बढ़ाया — उसकी नज़र सामने व्यक्ति पर पड़ी, जो उसे पुरस्कार देने वाला था।
वो ठिठक गई। उसकी सांसें थम सी गईं।
उस आदमी कीआंखों में कुछ जाना-पहचाना था। वो चेहरा, वो मुस्कान — क्या वो व्यक्ति? क्या वो रित्विक था? अगर वो रित्विक था तो अब तक कहां था?
क्या पतझड़ के बाद सच में बसंत खिलने वाला था... या ये सिर्फ एक भ्रम था?
जारी...