"भैया, स्टेशन चलोगे?"
रात के साढ़े दस बजे का समय था। सड़कें लगभग सूनी हो चुकी थीं। शहर की हलचल अब धीरे-धीरे नींद में जा रही थी।
नीली जींस और काले टॉप में एक लड़की ऑटो के पास आकर बोली। हल्की थकावट उसके चेहरे पर थी, लेकिन आँखों में एक अजीब-सी स्थिरता थी।
ऑटो वाले ने झिझकते हुए पूछा, "आप अकेली हैं मैडम?"
"हाँ, डरते हो क्या?" लड़की ने मुस्कुरा कर कहा।
ऑटो वाला — राजू — थोड़ी देर चुप रहा और फिर सर हिलाकर कहा, "बैठिए।"
ऑटो चल पड़ा।
राजू 27 साल का सीधा-सादा लड़का था, जो रात में ज़्यादा ऑटो चलाता था क्योंकि तब किराया थोड़ा अच्छा मिल जाता था। वह बहुत बातूनी नहीं था, लेकिन आज लड़की की आँखों में कुछ ऐसा था जो उसे बेचैन कर रहा था।
कुछ दूर चलने के बाद राजू ने बात छेड़ी, "इतनी रात को स्टेशन? ट्रेन है आपकी?"
लड़की ने हल्के स्वर में कहा, "किसी से मिलने जा रही हूँ। शायद आख़िरी बार।"
राजू थोड़ा चौंका, "मतलब?"
"बस समझ लो, ज़िंदगी का एक अधूरा किस्सा पूरा करना है।"
बात कुछ अजीब लगी, लेकिन राजू ने ज़्यादा कुछ नहीं पूछा।
थोड़ी देर बाद लड़की ने ही पूछा, "रात को अकेले ऑटो चलाते हुए डर नहीं लगता?"
राजू मुस्कराया, "नहीं मैडम, डर तो मुझे दिन के झूठे लोगों से लगता है। रात की सच्चाई से नहीं।"
लड़की थोड़ी देर चुप रही। फिर धीरे से बोली, "कभी-कभी रातें भी झूठ बोलती हैं…"
राजू अब थोड़ा असहज महसूस करने लगा था। कुछ था जो इस लड़की को अलग बनाता था — उसकी बातें, उसकी आवाज़, उसकी मौजूदगी।
तभी लड़की ने कहा, "थोड़ी देर रुकिए। मुझे एक जगह कुछ छोड़ना है।"
राजू ने ब्रेक मारा। सामने एक पुराना, जर्जर-सा मकान था। लड़की ने बैग से एक छोटा-सा लिफाफा निकाला और उस मकान के गेट के नीचे से सरका दिया।
राजू से रहा नहीं गया। पूछ ही लिया, "क्या था उसमें?"
"सच। लेकिन अब किसी काम का नहीं।"
फिर दोनों चुप हो गए।
कुछ देर बाद राजू ने फिर पूछा, "आपका नाम क्या है?"
"वाणी।"
"स्टेशन आने में 10 मिनट और लगेंगे," राजू ने कहा।
"कोई बात नहीं। मैंने अपनी ट्रेन मिस कर दी है… अब फ़र्क नहीं पड़ता।"
अब तक राजू को लगने लगा था कि वाणी कुछ छिपा रही है। उसकी हर बात, हर नज़र, जैसे किसी पहेली की तरह उलझी हुई थी।
अचानक वाणी ने पूछा, "अगर कोई आपको अपनी पूरी कहानी सुना दे… और फिर ग़ायब हो जाए… तो क्या आप किसी को बताएँगे?"
राजू मुस्कराया, "अगर कोई मुझसे बिना बताए चला जाए, तो मैं सबको बताऊँगा — ताकि दुनिया उसे याद रखे।"
वाणी उसकी ओर गहराई से देखती रही, जैसे कुछ सोच रही हो। फिर उसने अपनी नज़रें झुका लीं।
जब स्टेशन आया, वाणी ने उतरते हुए कहा, "थैंक्यू राजू, तुम बहुत अच्छे हो।"
"मैडम, किराया?"
"मेरे पास पैसे नहीं हैं… लेकिन मेरी कहानी तुम्हारे पास रहेगी।"
राजू कुछ बोलता, उससे पहले वाणी स्टेशन की ओर चल पड़ी।
वो अंधेरे में गुम होती जा रही थी…
अगली सुबह राजू जब थक कर घर पहुँचा, तो टीवी पर एक न्यूज़ फ्लैश आ रही थी —
“तीन दिन से लापता लड़की की लाश रेलवे स्टेशन के पास मिली — नाम: वाणी मेहरा।”
राजू की आँखें फटी रह गईं।
उसी वक्त, उसी कपड़ों में, वही नाम — वाणी।
पर... वो तो कल रात उसके ऑटो में बैठी थी।
उससे बातें कीं, उसे शुक्रिया कहा, फिर स्टेशन पर उतर गई…
राजू की साँसे तेज़ हो गईं। क्या वाणी की आत्मा उससे मिलने आई थी?
या फिर ये सब उसका वहम था?
पर राजू को वह बातचीत, वह चेहरा, वह आवाज़ — सब सच जैसा ही महसूस हो रहा था।
उसी दिन राजू दोबारा उस पुराने मकान पर पहुँचा जहाँ वाणी ने लिफाफा छोड़ा था।
दरवाज़ा खुला। एक बुज़ुर्ग महिला सामने आईं। राजू ने उन्हें वाणी की बातें बताईं।
बुज़ुर्ग महिला का चेहरा फीका पड़ गया।
"मैं वाणी की माँ हूँ…" उन्होंने धीमे से कहा।
उन्होंने अंदर से वह लिफाफा लाकर दिखाया, जो अभी भी गेट के पास रखा था।
उसमें एक चिट्ठी थी —
"माँ, माफ़ करना। मुझसे और अकेलापन नहीं सहा जाता। जो कुछ भी कहा नहीं जा सका, वो इस काग़ज़ पर है। शायद मेरी चुप्पी अब समझ आ जाए। मैं थक गई हूँ। लेकिन मुझे राजू मिला — जिसने बिना कुछ माँगे मेरी कहानी को जगह दी। अब मैं हल्की हूँ।
– तुम्हारी वाणी"
राजू की आँखों में आँसू थे।
उसने शायद ज़िंदगी में पहली बार किसी को बिना जाने, बिना माँगे, सिर्फ़ इंसान समझ कर समझा था।
वाणी अब नहीं थी, लेकिन उसकी "आख़िरी सवारी" एक कहानी बन गई थी —
जो न सिर्फ़ राजू के दिल में जिंदा थी, बल्कि हर उस इंसान के लिए एक संदेश थी जो कभी अनकही बातों के बोझ से गुज़र रहा है।