ब्रह्म मुहूर्त मे यज्ञदत्त ने निद्रा का त्याग किया। सोमदेवा भी जग गई। जगने के साथ उसकी दृष्टि अग्निशर्मा के बिछौने पर गई। अग्निशर्मा को बिछौने में न देखकर वह चौंक पड़ी : 'अरे, अग्नि कहाँ गया अकेले !' 'मैं भी अभी ही जगा हूँ। देखता हूँ... शायद पीछे बाड़े में गया हो!' यज्ञदत्त परमात्मा का नामस्मरण करते हुए पिछवाड़े के बाड़े में गये। सोमदेवा दीपक ले आई। सारा बाड़ा देख लिया। परंतु उन्हें अग्नि दिखाई नहीं दिया। सोमदेवा की आँखें गीली हो गई... उसका स्वर करुण हो उठा। 'ओफ्फोह... आज मुझे कैसी गहरी नींद आ गई?' 'मेरी भी एक ही नींद में सुबह हो गई!' 'तो क्या वे दुष्ट आकर मध्यरात्नि में उसे उठा ले गये होंगे? घर के अंदर की कुंडी देखी?' 'नहीं... अब देख लेते हैं।' पति-पत्नी घर में आये। भीतर की कुंडी खुली थी। दरवाजा खोलकर दोनों बाहर निकले। हाथ में दिया लेकर दोनों ब्राह्मणवास के नुक्कड़ तक गये। आसपास के घर बंद थे। गली के श्वान भी शांत सोये हुए थे। 'क्या हुआ होगा अग्नि का? वह स्वयं अकेला कभी बाहर जाता नहीं है.... तब क्या उस यमदूत ने दरवाजे पर दस्तक दी होगी? अग्नि जग गया होगा? उसने खड़े होकर दरवाजा खोला होगा? खोलने के साथ ही यमदूत ने झपट्टा मार कर अग्नि को उठा लिया होगा! यदि ऐसा कुछ हुआ हो तो उसकी तलाश करना फिजूल है। परंतु आज दिन तक वे लोग इस तरह रात में कभी अग्नि को ले नहीं गये हैं!' पति-पत्नी, सर पर हाथ रखकर सूर्योदय तक बैठे रहे। सूरज के जगने के साथ साथ सारा मुहल्ला जग गया था। लोगों की दैनिक प्रवृत्तियाँ चालू हो चुकी थी। यज्ञदत्त ने स्नान नहीं किया था। पूजा पाठ भी नहीं किया था। सोमदेवा ने कहा: 'नाथ, आप स्नान करके पूजा-पाठ वगैरह कर लें।' यज्ञदत्त ने मौन रहकर सहमति दी। सोमदेवा ने पिछवाड़े के बाड़े में पानी का बर्तन रखा और वह स्वयं जल्दी-जल्दी उस मुहल्ले के द्विजश्रेष्ठ के यहाँ पहुँची।वयोवृद्ध द्विजश्रेष्ठ भी पूजा-पाठ में बैठने की तैयारी ही कर रहे थे, इतने में उन्होंने सोमदेवा को घर में प्रवेश करते हुए देखा, उन्होंने पूछा : 'बेटी, तुझे और तेरे पुत्र को कुशल है ना?' 'पूज्य, आज हम दोनों जब ब्रह्ममुहूर्त में जगे तब अग्नि का बिछौना खाली था। अग्नि का कहीं पता नहीं था। हमने घर में, मुहल्ले में तलाश की, पर अग्नि नहीं मिला !' 'कहीं वे दुष्ट लड़के तो उसे उठा ले नहीं गये?' 'वे लोग कभी भी इस तरह रात के समय उसे नहीं ले गये। और उठा ले जाए तो कुछ आवाज होती... अग्नि की चीख-चिल्लाहट सुनाई देती, वैसा कुछ सुनाई नहीं दिया है।' 'तब फिर?' 'कुछ समझ में नहीं आ रहा है। वह अकेला कभी भी घर के बाहर निकलता ही नहीं है! रात में तो बिल्कुल नहीं!' 'बेटी, तू जा, मैं ईश्वर-पूजा करके तेरे घर पर आता हूँ।' ब्राह्मण समाज के वयोवृद्ध अग्रणी की यज्ञदत्त सोमदेवा के प्रति गुणदृष्टि थी। उनके प्रति सहानुभूति थी। अग्निशर्मा के उत्पीड़न से वे दुःखी थे। वे पूजा-पाठ में बैठे। सोमदेवा अपने घर पर गई। यज्ञदत्त ईश्वरध्यान में लीन थे। सोमदेवा छलकती आँखों से घर के काम निपटाती है। मन में तो अग्निशर्मा के ही विचार चल रहे हैं। 'यदि कृष्णकांत या उसका कोई मित्र, अग्नि को लेने के लिए आये तो समझना होगा कि वे लोग अग्नि को नहीं ले गये हैं। यदि लेने न आये...तो मानना होगा कि वे लोग ही उसे उठा ले गये हैं। उनका समय... अग्नि को ले जाने का समय हो चुका है। दिन के प्रथम प्रहर की अंतिम दो घड़ियों में वे लोग आते हैं! परंतु, आज न भी आये। जैसे कि कल तीन दिन के बाद अग्नि को ले गये थे, वैसे और तीन-चार दिन तक लेने नहीं आये, यह भी तो संभव है।' सोमदेवा उलझ गई। उसे समझ में नहीं आया कि आखिर अग्नि को ले कौन गया है? पुत्र स्नेह से वह व्यथित एवं व्याकुल हो उठी। • यज्ञदत्त पूजा-पाठ करके खड़े हुए। • द्विजश्रेष्ठ ने घर में प्रवेश किया।• यज्ञदत्त ने स्वागत वचन कहे और द्विजश्रेष्ठ को बैठने के लिए काष्ठासन दिया। द्विजश्रेष्ठ ने कहा: 'महानुभाव, हम नगर के श्रेष्ठि के पास जाकर सारी बात करें।'यज्ञदत्त के साथ द्विजश्रेष्ठ नगरशेठ की हवेली पर आये। नगरश्रेष्ठि प्राभातिक कार्यों से निवृत्त होकर बैठे हुए थे। उन्होंने दोनों ब्राह्मणों का उचित स्वागत किया। और सेवक ने उन्हें बैठने के लिए आसन दिये।द्विजश्रेष्ठि ने यज्ञदत्त के सामने कहा: 'महानुभाव, रात को जो भी घटना हुई... यह यथार्थरूप में, नगरशेठ के समक्ष कह दें।'यज्ञदत्त ने जो बात हुई थी... वह कह सुनाई। नगरश्रेष्ठि चौंक उठा। साथ ही यज्ञदत्त ने कल हुई घटना भी कह दी। किस तरह खून सने कपड़े एवं जख्मी हालत में वह अग्नि को गाँव के बाहरी मंदिर के चबूतरे पर से ले आया था, वह बात कही। यज्ञदत्त की बातें सुनकर नगरश्रेष्ठि ने मजबूती के आवाज में कहा :'अब तो हमें स्वयं उस चंडाल चौकड़ी की अक्ल को ठिकाने लाना होगा। इसके लिए राजसत्ता के सामने बगावत का झंडा उठाना पड़ेगा तो उठाएंगे। प्रजा को इस तरह उन दरिंदों की करतूतों का शिकार नहीं होने दिया जा सकता! यज्ञदत्त ! तुम जाओ तुम्हारे घर पर। अब तुम्हारे पुत्र की तलाश मैं खुद करवाऊँगा।' द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके, उन दोनों को नगरसेठ ने बिदाई दी। बिदाई देकर तुरंत उन्होंने महाजन को बुला लाने के लिए अपने नौकरों को भेजा।'आज तो किसी भी कीमत पर राजकुमार को, उसके चचेरे भाई कृष्णकांत को, मंत्री पुत्र व सेनापति पुत्र को सीधा करना ही होगा। वे लोग समझाने से नहीं समझेंगे! दूसरा कुछ कारगर उपाय खोजना होगा।'नगरश्रेष्ठि का संदेश मिलते ही एक के बाद एक महाजनों के रथ नगरश्रेष्ठि की हवेली के बाहर आने लगे। दो घड़ी में तो सभी महाजन उपस्थित हो गए। नगरशेठ ने महाजन का स्वागत करके, यज्ञदत्त से सुनी हुई बात यथावत् कही, और पिछली रात से अग्निशर्मा लापता है, वह बात भी कही।महाजन व्याकुल हो उठे।हम सब मिलकर महाराज से भेंट करें। शायद, कल की एवं पिछली रात की घटना से महाराज वाकिफ नहीं हों! उनके समक्ष ही उस चंडाल चौकड़ी को बुलाया जाए व उनसे जवाब-तलब किया जाए। इसके बाद क्या करना? इस बारे में आज रात्रि में हम सब वापस मिलेंगे और सोचेंगे ! ठीक है ना?' नगरसेठ ने पूछा। सभी ने जवाब दिया: 'ठीक है।' 'तब फिर चलें... सभी अपने-अपने वाहन में बैठ जाएं... और अभी इसी वक्त महाराज के पास चलें।' एक-दो या दस-बारह रथ नहीं, पर पूरे एक सौ आठ रथ राजमहल के विशाल मैदान में पहुँच कर खड़े हुए। नगरश्रेष्ठि के पीछे धीर-गंभीर और प्रतिष्ठित महाजन महल के सोपान चढ़ने लगे! राजमार्ग पर से महाजन के एक सौ आठ रथों को एक साथ राजमहल की ओर जाते हुए देखकर, नगरवासी लोग अनेक तरह के तर्क-वितर्क करने लगे। शत्रुघ्न की हवेली राजमार्ग पर ही थी। उसने भी महाजनों को राजमहल की ओर जाते हुए देखा। सभी की गंभीर मुखमुद्रा देखी...। वह सोचने लगा : 'क्या वह अग्निशर्मा मर गया होगा? कल शिकारी कुत्ते ने उसे बुरी तरह जख्मी कर दिया था... यदि वह मर गया होगा... तब तो हमें इस नगर में रहना भारी पड़ जाएगा। यहाँ से भाग जाना ही बेहतर होगा। कृष्णकांत से जरा सलाह-मशविरा तो करूँ!' शत्रुघ्न तुरंत ही कृष्णकांत की हवेली पर पहुँचा। वहाँ पर जहरीमल भी उपस्थित था। तीनों मित्र इकट्ठे हो गये। शत्रुघ्न ने पूछा : 'उस अग्निशर्मा के कुछ समाचार ?' 'वह उसके घर में नहीं है... उसकी खोज चल रही है।' 'संदेह तो अपने पर ही आएगा न?' 'और किस पर आयेगा? हम ही तो उसे उठाकर ले जाते हैं...! यह बात सभी को मालूम है।' 'परंतु, आज तो हमने उसे देखा भी नहीं है! कौन उठा ले गया होगा... यह हमें भी सोचना तो होगा न?' 'क्या गुणसेन ने और किसी आदमी के द्वारा तो...''संभव है! हमने तो मना ही किया था। अभी तीन-चार दिन उसे कुछ भी नहीं करने को कहा था। कुमार को शायद हमारी बात पसंद न भी आई हो! 'तो क्या मैं महल में जाकर तलाश करूँ? कृष्णकांत ने कहा। 'मुझे तो लगता है... महल में से अपने लिए बुलावा आया ही समझो ! परिस्थिति गंभीर लगती है।' शत्रुघ्न ने कहा। 'हाँ, यदि वह मर गया होगा तो महाजन के सामने मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे! जहरीमल बोला। 'अरे, महाराज हम चारों को शूली पर ही लटकायेंगे!' 'नहीं... नहीं... महारानी हमारा बीच-बचाव जरूर करेगी!' तीनों मित्र चिंतित हो उठे थे। उनके दिल में डर घुस गया था। महाजन की सत्ता को वे अच्छी तरह जानते थे। और साथ ही अपने किये हुए गुनाह भी उन्हें मालूम थे। 'महाराज, कुमार और उनके मित्रों ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। कल उस ब्राह्मणपुत्र को उन्होंने बुरी तरह घायल करके नगर के बाहर जैन मंदिर के चबूतरे पर फेंक दिया था।' 'नगरश्रेष्ठि और महाजन, कल की घटना के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं है...। आप कहते हैं... तो बात सत्य ही होगी।' 'और... रात के समय उस ब्राह्मणपुत्न का अपहरण हुआ है। उसे कोई उठाकर ले गया है।' 'और कौन उठा ले जाएगा? दुष्ट गुणसेन के अलावा ऐसा घोर पाप करने की जुर्रत और कौन करेगा? अभी इसी वक्त तुम सबके सामने मैं कुमार को बुलाता हूँ।' महाराज पूर्णचन्द्र गुस्से से दनदना उठे थे। 'महामंत्रीजी और सेनापतिजी, आप भी अपने-अपने पुत्रों को बुलवा लीजिए, ताकि सभी का न्याय साथ-साथ हो जाए।' नगरसेठ ने वहाँ पर बैठे हुए महामंत्री और सेनापति से कहा। महाराज ने कहा : 'साथ-साथ कृष्णकांत को भी बुला लिया जाए।' राजमहल के विशाल सभागृह में महाराज पूर्णचन्द्र के सामने चारों मित्रों को हाजिर किया गया। चारों मित्र अपने मुँह जमीन की ओर झुका कर खड़े थे।'बोलो, ब्राह्मणपुत्र अग्निशर्मा कहाँ है?' 'हमें पता नहीं है!' गुणसेन ने कहा। 'रोजाना तुम लोग ही उसे उठा कर ले जाते हो ना?' 'जी हाँ !' 'तब फिर कल कौन उठाले गया?' 'हम नहीं जानते हैं।' 'तुम लोग सच नहीं बोलोगे?' किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। 'कल गुप्त रूप से क्या तुम लोग अग्निशर्मा को उठा ले गये थे? और उसे जख्मी करके नगर के बाहर जैन मंदिर के चबूतरे पर डालकर चले गये थे? शैतानों, दुःख देने का मजा तुमने बहुत लूटा है, आज दुःख सहने की सजा का आनंद भी अनुभव कर लो ! सेनापति, इन चारों दुष्टों को पचास-पचास चाबुक लगाये जाएं...। चारों को जख्मी कर राजमहल के बाहर खंभो से बांध दिया जाए। यह मेरी आज्ञा है।' 'नहीं, नहीं, महाराज... इतनी कड़क सजा मत दीजिए...।' नगरश्रेष्ठि और महाजन ने विनती की। 'सजा इन्हें करनी ही होगी...। इसके अलावा ये शैतान अपनी करतूतों से बाज नहीं आएंगे। दुःख सहे बगैर औरों के दुःख की कल्पना ही नहीं आ सकती! इन लोगों ने बरसों से उस ब्राह्मण पुत्र को दुःख दिया है, मैं इन्हें एक ही दिन का दुःख देने की आज्ञा कर रहा हूँ!' 'क्षमा कीजिए, महाराज... सजा मत दीजिए...।' बावरी सी बनी हुई रानी कुमुदिनी सभाखंड में आई और महाराज के चरणों में लोट गई। 'देवी, जैसे तुम्हें तुम्हारा पुत्र प्रिय है, वैसे अग्निशर्मा की माँ को भी उसका पुत्र प्रिय होगा ना? वह माँ भी बरसों से रोती कलपती होगी! तुमने कभी तुम्हारे लाड़ले को, उस माँ के पुत्र को पीड़ा नहीं देने की सलाह दी? कल जब वह राजा बनेगा...तब मेरी प्रजा की वह क्या स्थिति करेगा? इस बारे में तुमने संजीदगी से सोचा है कभी? पूछो, तुम्हारे इस कोंखजाए को पूछों कि कहाँ पर छुपा कर रखा है... उस ब्राह्मण पुत्र को? कल उस लड़के को कैसे उन्होंने जख्मी किया? पूछो... उसे !!तुम्हारा बेटा यदि कुरूप होता... बदसूरत होता... और दूसरे लोग उसका उत्पीड़न करते तो तुम क्या करती? जो माता-पिता अपनी संतानों को इस तरह के हीन कृत्य करने देते हैं... देखा-अनदेखा करते हैं, वे भी सजा के पात्र हैं। तुम्हें यदि देवी! तुम्हारे बेटे को सजा नहीं होने देना है तो ठीक है... उसकी बजाए सजा मैं उठाऊँगा! मैं राज्य का त्याग करके, संसार का त्याग करके अरण्यवास स्वीकार करूँगा। मेरी शेष जिंदगी तपोवन में बिताऊँगा।' 'नहीं... पिताजी, नहीं! मैं सजा उठाने को तैयार हूँ। मुझे पचास नहीं वरन् पाँच सौ चाबुक मारने की सजा दें, मुझे मारते-मारते सारे नगर में घुमाइये। पर आप तपोवन में मत जाइये... आप हमारा त्याग मत कीजिए...।' गुणसेन रो पड़ा... महाराज के चरणों में लोट पड़ा। 'मैं प्रतिज्ञा करता हूँ... आज के बाद कभी उस ब्राह्मण पुत्र का उत्पीड़न नहीं करूँगा। मैं उससे क्षमा मांगूगा। उसके माता-पिता से माफी माँगूगा। परंतु... आप सच मानिए कि मैंने या मेरे इन मित्रों ने उसका अपहरण नहीं किया है...। न हमने उसे छुपाया है। हमें इस बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। और सेनापति जी, आप पिताजी की आज्ञा का पालन कीजिए। सबसे पहले मुझे चाबुक मारा जाए !' राजा-रानी, महाजन और वहाँ उपस्थित सभी रो पड़े। गुणसेन ने करुण रुदन करते हुए कहा : 'मेरे ये मित्र निर्दोष हैं... मैंने ही उन्हें गलत रास्ते पर चलने को मजबूर किया है। इसलिए इनकी सजा भी मुझे ही की जाए। सख्त से सख्त सजा कीजिए मुझे, पिताजी!' कोई कुछ बोलता नहीं है...। सभी की आँखें आँसू बहा रही थीं। 'पिताजी... गुणसेन ने महाराज के दोनों हाथ अपने हाथ में पकड़ कर कहा 'मैंने उस बेचारे ब्राह्मण पुत्र को जो दुःख दिया है, जो संत्नास दिया है, उस पर शिकारी कुत्ते को छोड़कर उसे जो घोर पीड़ा दी है... उसकी सजा शूली पर चढाने की हो सकती है। ऐसा दुष्कृत्य यदि और किसी ने किया होता तो आप शूली पर ही चढाते ना? मुझे शूली पर चढा दीजिए, पिताजी !' गुणसेन बच्चे की भांति बिलख पड़ा। हाथ के दोनों पंजों में अपना मुँह छुपाकर वह बोला... मैं अधम हूँ... मैं अपना मुँह किसी को बताने लायक नहीं हूँ!' शत्रुघ्न, कृष्णकांत और जहरीमल भी फूट-फूटकर रो रहे थे। वे तीनों गुणसेन से लिपट गये। 'कुमार, सजा तुम्हें नहीं उठानी है... सजा हम उठाएंगे।' उन्होंने महाराज से कहा : 'महाराज, जो भी सजा करनी है, वह हमें कीजिए... कुमार को नहीं!' नगरश्रेष्ठि ने खड़े होकर महाराज से दोनों हाथ जोड़कर, नतमस्तक होकर प्रार्थना की: 'राजेश्वर, कुमार और उनके मित्रों को उनके किये हुए दुष्कृत्यों का घोर पश्चात्ताप हुआ है! सच्चा पश्चात्ताप व्यक्त किया है। इसलिए उन्हें क्षमा देने की कृपा करें। कुमार तो भविष्य में हमारे राजा होनेवाले हैं, हमारे रक्षक होनेवाले हैं। हमारी उनसे विनती है कि... वे प्रजा के दुःख-दर्द को जानें और उन दुःखों को दूर करने के लिए प्रयत्न करें। हमारी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि... आप अरण्यवास स्वीकार करने का विचार मत कीजिए। अभी संन्यास लेने में बहुत देर है। आप हमारे तारणहार हैं। हमारे परम प्रिय महाराज हैं!' जब कोई कुछ नहीं बोला... तब नगरश्रेष्ठि ने महाराज के समीप आकर प्रार्थना की: 'महाराज, आप आवास में पधारिये... एवं स्वस्थ होईये!' रानी कुमुदिनी की ओर देखकर कहा : 'महादेवी, आप भी महाराज के साथ पधारिये, ताकि सभा का विसर्जन हो सके।' राजमहल में तीन दिन तक पूरी तरह खामोशी का साया छाया रहा। महाराज राज्यसभा में नहीं जाते हैं। कुमार गुणसेन अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता है। रानी कुमुदिनी भी उदास-उदास रहती है। गीत-गान बंद हो गये हैं! संगीत के सुर लुप्त हो गये हैं। हंसी-मजाक का सिलसिला समाप्त हो गया है। तीसरे दिन की रात थी। महाराज पूर्णचन्द्र रानिवास में गये। रानी कुमुदिनी ने मौनरूप से स्वागत किया। महाराज सिंहासन पर बैठे। कुमुदिनी उनके चरणों के पास बैठी। कुछ क्षण विश्राम लेकर महाराज ने कहा : 'देवी, मेरी इच्छा है कि इस महीने कुमार की शादी कर दें।' रानी ने राजा के सामने देखा।'और फिर, अच्छे मुहूर्त में उसका राज्याभिषेक कर दें।' 'क्यों? इतनी जल्दबादी क्यों?' 'हमें हमारे संसार के इन अधूरे कर्त्तव्यों को पूरे करके, आत्मकल्याण के लिए पुरुषार्थ कर लेना चाहिए।' रानी गहरे सोच में डूब गई। राजा ने कहा: 'जो भी अच्छा लगता था, अब वह कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। यह राज्य... यह वैभव... ये ऐन्द्रिक सुख... सब कुछ नीरस लगता है....। यह सब छोड़कर अरण्यवास स्वीकार करने की तीव्र इच्छा पैदा हो गई है। इसलिए अनंगपुर के महाराज को संदेश भिजवा देता हूँ! इस महीने में ही शुभ मुहूर्त में शादी का कार्य निपटा दें।' 'एक-दो साल के बाद करें तो?' रानी ने पूछा। 'विलंब क्यों करना? मैं तो हो सके उतना जल्दी मुक्त हो जाना चाहता हूँ। तुम बेटे के साथ रहना।' 'स्वामिन्, वह कभी हो नहीं सकता! जहाँ आप रहेंगे वहाँ मैं रहूँगी...। जिस दिन आप इस महल का त्याग करेंगे उसी दिन मैं भी आपके साथ ही निकल जाऊँगी। तपोवन में हम साथ ही रहेंगे। मैं तो आपकी छाया बनकर ही जीऊँगी!' 'परंतु, पुत्र के बगैर... 'मन नहीं मानेगा, पर आपके बिना कुछ अच्छा नहीं लगेगा।' 'यह भी तो बंधन है।' 'धीरे-धीरे यह बंधन भी टूट जाएगा।' 'राग के बंधन इतने जल्दी कहाँ टूटते हैं... देवी!' 'आपके राग के बंधन तो कितने जल्दी टूट गये हैं!' 'टूटे कहाँ हैं? तोड़ने के लिए पुरुषार्थ करना है!' 'रागद्वेष के बंधन टूटे बगैर अरण्यवास किस तरह स्वीकारा जा सकता है?' 'अरण्यवास में वे बंधन जल्दी टूटते हैं!' कुमुदिनी मौन रही।'तुम कुमार से बात कर लेना।' महाराज ने कहा।' 'कौन सी बात?' 'उसकी शादी की, उसके राज्याभिषेक की और अपने गृहत्याग की।' 'मैं बात करूँगी... पर वह नहीं मानेगा तो?' 'तुम मना सकोगी।' 'नहीं मानेगा तो आपके पास भेज दूँगी।' दोनों खामोश हो गये। 'एक बात पूछूँ?' कुमुदिनी बोली। 'पूछो।' 'इतना जल्दी वैराग्य होने का कारण क्या है?' 'यह संसार ही वैराग्य का कारण है देवी!' 'फिर भी कोई विशेष निमित्त !' 'निमित्त की बात भी करता हूँ: 'उस ब्राह्मण पुत्र अग्निशर्मा की काफी खोज की। वह नहीं मिला, न कुछ समाचार मिले। उसकी जुदाई के दुःख में रो-रो कर कल सबेरे उसकी माँ मौत की गोद में समा गई... और शाम को उसके पिता यज्ञदत्त पुरोहित की भी मृत्यु हो गई? बस, यही निमित्त है। एक पूरे परिवार का नामोंनिशां मिट गया। 'क्या कह रहे हैं आप? बेचारे उस ब्राह्मण दंपति की पुत्र वियोग में मृत्यु हो गई? ओह! कैसा है यह संसार! जीव की रागदशा कैसी है?' 'पूरे नगर में हाहाकार मच गया है।' 'घटना भी तो वैसी करुण है ना!' 'इसलिए अब हम जल्दी-जल्दी इस गृहवास से छुटकारा प्राप्त कर लें।' रानी कुमुदिनी ने गुणसेन के खंड में प्रवेश किया। रानी पहली बार ही गुणसेन के कमरे में गई थी। गुणसेन पलंग पर जगता हुआ ही लेटा था। माँ को कमरे में आयी देखकर, वह सहसा खड़ा हो गया। माँ के पास जाकर उसको प्रणाम किया। 'माँ, तुझे क्यों आना पड़ा? मुझे बुला लिया होता!''बेटा! बहुत दिनों से रानीवास से बाहर निकली नहीं थी... और फिर तेरे साथ एक-दो महत्त्वपूर्ण बातें करनी थी, इसलिए मैं स्वयं ही चली आई।' माँ और पुत्र दोनों पलंग पर बैठे। 'वत्स, इस महीने ही वसंतसेना के साथ तेरी शादी तय कर दी है।' वसंतसेना जो अनंगपुर की राजकुमारी थी, उसके साथ गुणसेन की सगाई-मंगनी पहले ही हो चुकी थी। 'फिर, दूसरी बात?' गुणसेन ने पूछा। 'इसके बाद जो अच्छा मुहूर्त आये... उस दिन तेरा राज्याभिषेक करना है!' 'पर इतनी जल्दबाजी क्या है, माँ?' 'चूंकि, तेरे पिताजी का मन इस संसार के प्रति विरक्त हो चुका है। वे शीघ्रातिशीघ्र अरण्यवास स्वीकार करना चाहते हैं!' कुमार गुणसेन रो पड़ा। माँ की गोद में सिर छुपाकर वह रुदन करने लगा। 'वत्स, क्यों रो रहा है? जीवन की उत्तरावस्था आत्मकल्याण के लिए ही होती है! तुझे भी तो भविष्य में यही रास्ता अपनाना है।' सच बात है माँ! परंतु चार-पाँच साल का विलंब तो किया ही जा सकता है।' 'बेटा, वैराग्य विलंब को सहन नहीं कर पाता है।' 'परंतु, तू तो मेरे साथ रहेगी ना?' 'वत्स, तेरे पिताजी के साथ मेरी बातचीत हो गई है!' 'क्या बात हुई?' 'मैं भी उन्हीं के साथ ही अरण्यवास में जाऊँगी!' 'फिर?' 'तुझे राजा बनकर प्रजा का पालन करने का है। जैन धर्म को जीवन में जीना है। साधु पुरुषों का आदर करना है, परमात्मा को दिल में बसाना है, पापों का डर रखना है।' एक प्रहर तक पुत्र व माता वार्तालाप करते रहे।• राजकुमार गुणसेन की शादी राजकुमारी वसंतसेना के साथ हो गई। • राजकुमार के राज्याभिषेक की घोषणा नगर में एवं राज्य में हो गई। • राज्याभिषेक महोत्सव के समय महाराज ने स्वयं अरण्यवास स्वीकार करने की घोषणा कर दी। • एक आँख में खुशी... और एक आँख में दर्द के साथ प्रजाजनों ने राजा का गुणगान किया। • एक दिन राज्य के लाखों स्त्री-पुरुषों ने राजा-रानी को दुःखी हृदय से और आँखों में आँसू के साथ बिदाई दी। • राजा पूर्णचन्द्र – रानी कुमुदिनी तपोवन की ओर चले गये। • तब तक किसी को पता नहीं लग पाया था कि अग्निशर्मा कहाँ गया? उसका क्या हुआ?Chapter 4: पश्चात्ताप — संक्षिप्त सारांश इस अध्याय में महाराज पूर्णचन्द्र को जब यह ज्ञात होता है कि अग्निशर्मा लापता है और उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई, तो वे गहरे दुःख में डूब जाते हैं। उन्हें एहसास होता है कि उनके पुत्र गुणसेन की क्रूरता ने एक पूरा परिवार समाप्त कर दिया।गुणसेन को अपने कुकर्मों पर सच्चा पश्चात्ताप होता है। वह स्वयं दंड की मांग करता है और अपने मित्रों को निर्दोष ठहराकर सारी गलती अपने सिर लेता है। महाराज के मन में वैराग्य जाग उठता है। वे निर्णय करते हैं कि पुत्र का विवाह और राज्याभिषेक करके वे गृहत्याग करेंगे।रानी कुमुदिनी, एक सच्ची जीवनसंगिनी की तरह, अपने पति के इस निर्णय में साथ देने का संकल्प करती हैं। वह कहती हैं, “जहाँ आप रहेंगे, वहाँ मैं रहूँगी।” यह त्याग और समर्पण एक आदर्श दांपत्य का चित्र प्रस्तुत करता है।राजकुमार का विवाह वसंतसेना से होता है, राज्याभिषेक की घोषणा होती है, और अंततः महाराज-रानी तपोवन की ओर प्रस्थान करते हैं।NEXT PART - अग्निशर्मा तपोवन में!• अग्निशर्मा कहाँ गया है? क्या उसने सचमुच तपोवन का मार्ग चुन लिया है?• क्या राजकुमार गुणसेन और अग्निशर्मा का आमना-सामना फिर होगा?• क्या अग्निशर्मा तपोवन में भी मानसिक शांति प्राप्त कर पाएगा?• क्या अग्निशर्मा का भविष्य उसे किसी उच्च आध्यात्मिक भूमिका तक ले जाएगा?जानना चाहते है ? तो जानते हैं अगले Chapter में !