Gul Daastan - 1 in Hindi Classic Stories by Lalit Kishor Aka Shitiz books and stories PDF | गुल–दास्तां भाग 1

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गुल–दास्तां भाग 1

भूमिका — "गुल–दास्तां"


कुछ कहानियाँ धूप में सूख चुके फूलों की तरह होती हैं—मुरझाई नहीं होतीं, बस वक़्त के पन्नों में दबकर पुरानी हो जाती हैं। उनमें अब भी रंग होते हैं, पर हल्के; उनमें अब भी ख़ुशबू होती है, पर रुक-रुक कर।

"गुल–दास्तां" उन यादों, मुलाक़ातों और बिछुड़नों की एक बुनावट है, जो कभी किसी शनिवार की दोपहर, स्टेशन की कॉफ़ी, या किसी ग़ज़ल की धुन में खिली थीं। यह सिर्फ़ प्रेम की नहीं, उस दूरी की भी दास्तां है जो दो शहरों, दो समयों, या दो चुप्पियों के बीच होती है।

यह संग्रह उस मूक संवाद को दर्ज करता है जो दो लोगों के बीच तो घटा, पर कभी पूरी तरह कहा नहीं गया। हर भाग, हर ‘गुल’—एक दास्तां है; हर धागा—एक स्मृति जो इन कहानियों को बाँधता है।

"गुल–दास्तां" उन्हीं ख़ामोश प्रेमपत्रों का गुलदस्ता है—जो शायद कभी भेजे नहीं गए, पर जिनकी महक अब भी ज़हन में तैरती है।



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आज फिर उसे काव्या की मौजूदगी का एहसास हुआ, जब मेट्रो स्टेशन से ऑटो में बैठते ही अचानक फ़रीदा ख़ानुम की ग़ज़ल "आज जाने की ज़िद न करो" कानों में गूंज उठी।काव्या अक्सर वैभव के साथ ग़ज़लें सुना करती थी। उसे याद आया, जब वह इंटर्नशिप से लौटकर मिलने आया था, तो साथ में जगजीत सिंह की "होठों से छू लो तुम" सुनी थी।


वैभव आज भी जयपुर में रहता है, लेकिन काव्या अब सीकर में तहसीलदार है।चार साल साथ बीत चुके हैं, मगर आज भी जब कहीं ग़ज़ल की कोई धुन सुनाई देती है, तो वैभव को लगता है काव्या अब भी आसपास है।पहले हर शनिवार वैभव सीकर जाया करता था, और रविवार की रात लौट आता।हफ्ते भर की दूरी वह एक दिन में पाट आता। हर बार काव्या उसे स्टेशन छोड़ने आती, और जाने से पहले स्टेशन की कॉफ़ी साथ पीती।तब वैभव एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता था।हर हफ्ते की छुट्टी तय थी, और काव्या पहले ही टिकट बुक कर देती।

मगर अब वैभव ने अपनी कोचिंग क्लास शुरू कर दी है। तब से शनिवार की यात्राएं बंद हो चुकी हैं।करीब चार साल पहले ही तो वह पहली बार काव्या से मिला था—ऑटो में।तब वह अंडरग्रेजुएट था, और काव्या गर्ल्स कॉलेज में एम.ए कर रही थी।

उस दिन ऑटो से उतरते वक्त वैभव ने जेब में हाथ डाला, लेकिन भौंहें सिकुड़ गईं—दस का नोट ग़ायब था।शर्ट की जेब में सिर्फ़ चार रुपये के खुले सिक्के थे, और ऑटो वाला ऐसे घूर रहा था जैसे वैभव उसकी बेटी भगा ले गया हो।काव्या ने वैभव का चेहरा देखा—मोटा सा मुँह, हल्की दाढ़ी, और धारीदार शर्ट जिसकी जेब पर पेन की स्याही फैली हुई थी।उसने एक पल को वैभव की आँखों में देखा, फिर नज़रें फेर लीं—पर हाथ आगे बढ़ा दिया। पाँच रुपये का सिक्का उसकी हथेली में था।

वैभव ने झेंपते हुए, हल्की मुस्कान के साथ वह सिक्का ले लिया और 'थैंक्यू' कहते हुए ऑटो वाले को दे दिया।अब भी एक रुपया कम था, मगर ऑटो वाला बिना कुछ कहे रवाना हो गया।पीछे मुड़कर देखा तो ऑटो की पीठ पर लिखा था—"हम दिल दे चुके सनम।"उसी वक्त वैभव को ज़मीन पर अपने पैरों के पास पड़ा दस का नोट दिखा। उसने गहरी साँस ली—काव्या की छवि फिर आँखों में घूम गई।

ग़ज़ल अब भी बज रही थी।फ़रीदा ख़ानुम की आवाज़ के साथ वैभव का सफ़र भी जैसे पूरा हो गया।ऑटो से उतरते हुए वह किराया दे ही रहा था कि जगजीत सिंह की आवाज़ में "चिट्ठी न कोई सन्देश" गूंज उठी।उसने तीस रुपये दिए, ऑटो वाले ने पाँच का सिक्का लौटाया।ऑटो फिर चल पड़ा।वैभव ने मुड़कर देखा—अब पीछे कुछ नहीं था, सिवाय एक टूटे काँच के झरोखे के।

..........to be continued