One decision... two lives ended in Hindi Short Stories by ABHISHEK books and stories PDF | एक फैसला... दो ज़िंदगियाँ खत्म

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एक फैसला... दो ज़िंदगियाँ खत्म



अपराजिता, अपने पिता की आँखों का तारा थी। उसके जन्म से ही उसके पिता ने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वो अपनी बेटी को दुनिया की हर खुशी देंगे। उन्होंने खुद के सपनों को दफन कर दिया था ताकि अपराजिता के सपनों को ऊँचाई मिल सके।

अपराजिता को हमेशा सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ाया गया, सबसे अच्छी किताबें दी गईं, और हर वह चीज़ दी गई जो एक पिता अपने बच्चे के लिए सोच सकता है। वो हमेशा कहते थे,
"मेरी बेटी अपने पैरों पर खड़ी होगी, किसी पर निर्भर नहीं रहेगी।"

समय बीता, अपराजिता ने पढ़ाई पूरी की। जब नौकरी की बारी आई, तो पिता को अहसास हुआ कि केवल हुनर काफी नहीं है — कभी-कभी दुनिया में आगे बढ़ने के लिए 'रास्ता बनाना' भी पड़ता है।
चुपचाप उन्होंने अपनी इज्ज़त को ताक पर रखकर, कंपनी के मालिक को भारी रिश्वत दी। बस एक वादा लिया:
"उसे कभी मत बताना कि ये नौकरी सिफारिश से मिली है। उसे लगे कि ये उसकी अपनी मेहनत का फल है।"

नौकरी लगने के बाद, जैसे-जैसे अपराजिता की ज़िंदगी में पैसे और शोहरत बढ़े, उसका व्यवहार भी बदलने लगा। अब उसमें एक अनदेखा अहंकार आ गया था। उसे लगता था कि वो खुद सब कुछ कर सकती है। लेकिन पिता के सामने वह आज भी वही मासूम बेटी बन जाती थी — जो उनसे हर छोटी खुशी बाँटती थी।

समय के साथ शादी की बातें शुरू हुईं। पिता ने बहुत सोच-समझकर एक लड़का चुना — सुलझा हुआ, संस्कारी और समझदार। अपराजिता ने बाहरी तौर पर हामी भर दी, लेकिन उसके दिल में कोई और बस चुका था।
वो लड़का जिससे वो प्यार करती थी, उसका अतीत धुंधला था — मगर अपराजिता ने अंधी मोहब्बत में सब कुछ नजरअंदाज कर दिया।

शादी का दिन आया। घर में खुशियों का माहौल था। शहनाइयाँ बज रही थीं, रिश्तेदार नाच-गा रहे थे।
लेकिन जब अपराजिता के भाई ने उसे फेरे के लिए बुलाने कमरे का दरवाजा खोला, वहां सिर्फ सन्नाटा था। और एक चिट्ठी:

> "मैं जा रही हूँ। मैं किसी और से प्यार करती हूँ। ये शादी नहीं कर सकती। माफ करना।"



भाई ने चिट्ठी पढ़ी, और चीखकर सबको बुलाया।
पिता ने जैसे ही चिट्ठी पढ़ी, उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। दिल ने साथ छोड़ दिया।
वो वहीं गिर पड़े — और हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

पिता की अर्थी उठी, तो घर का हर कोना चीख रहा था। भाई ने टूटे स्वर में अपराजिता को फोन किया,
"पापा चले गए..."

लेकिन अपराजिता के लफ्ज़ों ने सब कुछ खत्म कर दिया:
"अगर जाना था तो चले गए। मैं मजबूर नहीं थी किसी की।"

भाई ने रोते हुए कहा:
"जिसके लिए तुम सब कुछ छोड़ आई हो, वही एक दिन तुम्हारा सब कुछ छीन लेगा..."

अपराजिता ने हँसते हुए फोन काट दिया।

कुछ हफ्ते बाद... एक चौंकाने वाली खबर आई।
शहर के एक कचरे के ढेर से एक सूटकेस मिला। जब पुलिस ने उसे खोला, तो उसमें अपराजिता की लाश मिली — बुरी तरह चोटिल, टूटी हुई।

जाँच में पता चला कि जिससे वो भागी थी, वही लड़का उसे पैसों के लिए मार बैठा था। उसकी भावनाओं के साथ खेला गया, और फिर बेरहमी से उसकी जान ले ली गई।

आज उसका भाई हर उस पल को कोसता है — जब अपराजिता ने अपने पिता की सीखों को नजरअंदाज किया था।
"काश उसने एक बार भी पिता के दर्द को समझा होता..."
"काश उसने एक बार भी अपनी जिद से आगे सोचा होता..."

अब सिर्फ अफसोस रह गया है... और एक खामोश सवाल: "क्यों?"


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सीख:
कभी-कभी जो चमकता है, वह सोना नहीं होता।
और जो रोकता है, टोकता है — वह तुम्हारा दुश्मन नहीं, तुम्हारा सबसे बड़ा रक्षक होता है।