शहर के एक अस्पताल में मंजू ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रही थीं। उनका छोटा बेटा उन्हें अस्पताल लेकर गया था, जहाँ डॉक्टरों ने साफ़ कह दिया कि उनकी हालत बेहद गंभीर है। लिवर सिरोसिस के कारण उनके शरीर में पानी भर चुका था, और अगर तुरंत इलाज न हुआ, तो स्थिति और बिगड़ सकती थी।
मंजू के मायके वाले भी अस्पताल पहुँच गए। सबकी आँखों में चिंता थी, लेकिन मंजू का पति शैलेन्द्र वहाँ नहीं था। वह घर पर बैठा था, जैसे उसे इस सब से कोई मतलब ही नहीं था।
मौत के कुछ घंटे पहले...
मंजू अपने बेटों को देख रही थीं। उनकी आँखों में बेइंतहा दर्द था, लेकिन वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थीं। छोटा बेटा डॉक्टरों से बार-बार पूछ रहा था—
"डॉक्टर साहब, कोई और तरीका नहीं है?"
डॉक्टर ने जवाब दिया—
"अगर पहले ही लिवर ट्रांसप्लांट हो जाता, तो शायद बचाया जा सकता था। अब बहुत देर हो चुकी है।"
यह सुनते ही बेटे की आँखों से आँसू छलक पड़े। उसे अपने पिता की बात याद आ गई—
"अगर तुम लिवर दोगे, तो मैं पैसे नहीं दूँगा।"
पिता के इसी निर्णय की वजह से मंजू को सही समय पर इलाज नहीं मिल पाया। अब जब पानी उनके शरीर में बढ़ता जा रहा था, तो हर घंटे के साथ उनकी हालत और बिगड़ रही थी।
मंजू की आखिरी साँस
रात के करीब 2 बजे, मंजू की सांसें तेज़ होने लगीं। उनके मुँह से पानी बाहर आने लगा। डॉक्टरों ने पूरी कोशिश की, लेकिन वह अब ज़्यादा देर तक नहीं टिक सकीं।
उनके बेटे ने उनका हाथ पकड़ रखा था, लेकिन कुछ ही मिनटों में वह हाथ ठंडा पड़ गया। मंजू की मृत्यु हो गई।
छोटा बेटा फूट-फूटकर रोने लगा। मायके वाले भी रो रहे थे। सबके दिल में एक ही सवाल था—
"अगर समय पर इलाज मिलता, तो क्या मंजू बच सकती थीं?"
लेकिन अब पछताने का कोई फायदा नहीं था। जो होना था, वह हो चुका था।
घर में मौत पर खुशी!
मंजू का शव अस्पताल से घर लाया गया। घर में जैसे ही शव पहुँचा, वहाँ का माहौल देखकर रिश्तेदार हैरान रह गए।
शैलेन्द्र और उसकी बहू के चेहरे पर ज़रा भी दुःख नहीं था।
उनका व्यवहार ऐसा था जैसे कोई त्यौहार हो। शैलेन्द्र दिखावे के लिए लोगों से कह रहा था—
"बहुत बड़ा सदमा लगा है, अब हमारा क्या होगा?"
लेकिन उसकी आवाज़ में न दुःख था, न दर्द। सबको समझ आ गया कि वह सिर्फ़ नाटक कर रहा है।
मंजू के दोनों बेटे अपनी माँ के पास बैठे हुए थे। बड़ा बेटा, जो दिव्यांग था, आँसुओं में डूबा हुआ था। छोटे बेटे की आँखों में भी आंसू थे, लेकिन अब उसके दिल में ग़ुस्सा भी था।
पिता के लिए कोई जगह नहीं
जब मंजू की अर्थी उठाई गई, तो दोनों बेटों ने मन में फैसला कर लिया—
"अब इस आदमी से कोई रिश्ता नहीं रखना है। यही माँ की मौत का असली गुनहगार है।"
शैलेन्द्र सोचता था कि एक दिन बेटे उसके पास आएँगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दोनों बेटों ने पिता से हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया।
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