भूमिका
मित्रों
उपनिषद कहता है सर्व खल्विदं बृम्ह,सबकुछ परमात्मा है
मै ऐक पुजारी खानदान मे पैदा हुआ,मेरा परिवार घोर रूढिवादी रहा है । किंतु मैने पोटग्रेजुऐशन साईंस मेथ्स से किया है अतः मुझमें हर विचार को तर्क की दृष्टि से देखने
की पृवृत्ति है। मैने उपनिषद व वेदान्त का अध्ययन बचपन मे ही कर लिया था ।
मैने आज से 60 वर्ष पूर्व ऐक दिन जब जे कृष्णमूर्ति को पढ़ा तो मै उनके मौलिक विचारों को पढ़कर दंग रह गया ।
मेरी समस्त मान्यताएँ पूर्णतया हिल गई, मेरी ही नही वे सम्पूर्ण मानव जाति की आज तक की सभी सहस्रों वर्षों से चली आ रही मान्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं ।
फिर भी वे पृकृति की किसी वस्तु जैसे पहाड़, नदी, व्रक्ष, पक्षी, समंदर या महिला को देखकर समाधिस्थ होता जाते थे ।
उन्होंने किसी मंत्र तंत्र योग साधना का सहारा नही लिया वरन् निषेध किया । उन्हें बुद्ध का मैत्रेय अवतार, नया मसीहा घोषित किया गया, किंतु उन्होंने अपना अवतार पद, जगद्गुरु का पद, विश्व भर के हजारों आश्रम लाखों शिष्य, अकूत सम्पत्ति सबकुछ त्याग दिया । वे अकेले बिना किसी साधन या सहायता के अनजान विदेशी धरती पर निकल पड़े ।
उसके बाद उनके सर्वथा मौलिक विचारों को सुनकर विश्वभर के सबसे पृसिद्ध चिंतक साहित्यकार वैग्यानिक जैसे ऐल्डस हक्सले, बर्ट्रेंड रसेल आदिउनके पृशंसक बन गए । उनके प्रशंसकों मे अनेक नोबल प्राइज़ विनर व प्रसिद्ध दार्शनिक गणितज्ञ भी शामिल थे | किन्तु भारत मे रूढ़िवाद के विरोध मे उनके स्वरों को नहीं सुना जाता इसलिए वे यहाँ आम जनता मे अपनी जगह नहीं बना पाए | कृष्णमूर्ति ने अपनी दिव्य अनुभूति को पृथम बार ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति दी है जिसे उनके पूर्व आजतक कोई आध्यात्मिक महापुरुष नही दे सका ।
प्रस्तुत ईबुक्स मे पृमुखतया कृष्णमूर्ति के विचारों पर मंथन किया गया है । साथ ही बौद्ध धर्म के विचारों को भी तरजीह दी गई है | मैंने प्रचलित धर्म के अत्यंत गूढ अर्थ को भी स्वर देने का प्रयास किया है | पाठक बंधुओं से निवैदन है कि नास्तिक विचार मानकर पढ़ना बंद न करें क्योंकि यह ऐक सर्वोच्च दिव्य आस्तिक विचार से प्रेरित मिलेगी ।
उपनिषद कहता है सर्व खल्विदं बृम्ह, सबकुछ परमात्मा है
लेखक बृजमोहन शर्मा इंदौर मो 9424051923
1
नया मसीहा का पद त्याग
थियासाफिकल सोसायटी के ऐक टीचर लेडबीटर ने पहली बार बालक कृष्णमूर्ति को देखा तो उसने कहा यही बालक है जो अहं से
शून्य है व मैत्रेय की आत्मा के वाहक के योग्य है । यह सोसायटी किसी ऐसी दिव्यात्मा किया खोज कर रही थी जो भगवान मैत्रेय के नये संदेश वाहक का कार्य कर सके ।
थियासाफिकल सोसायटी की अध्यक्षा ऐनी बेसेंट ने कृष्णमूर्ति व उनके छोटे भाई नित्या को सोसायटी कै लिए गोद ले लिया । वे कृष्णाजी को उस रूप मे ट्रेनिंग देना चाहते थे जो भविष्य के मसीहा, भगवान बुद्ध के मैत्रेय के वाहक के रूप मे नया संदेश देगा । इस महाअभियान के लिए दुनियाभर मे अनेक आश्रम व अनगिनत फोलोवर इकट्ठे हो गए। 1929 अगस्त मे जब हालेंड मे हजारों फोलोवर की उपस्थिति मे
उन्हें स्टार आफ आर्डर दिया जाना था तो उन्होंने वह पद ठुकरा दिया । दुनिया भर मे फैले लाखों फोलोवर, हजारों आश्रम, अकूत सपत्ति,भारी पृसिद्धी, चमचमाता दुनिया भर का दिनरात पागलों सा पीछा करता मीडिया सब ठुकरा दिऐ और वे अकेले अनजान दुनिया मे निकल पड़े । अध्यात्म के इतिहास मे ऐसा त्याग पढ़ने सुनने को नहीं मिलता । इसके बाद तो पाश्चात्य दुनिया के सर्वोच्च प्रसिद्ध लोग जैसे बर्ट्रेंड रसल,एल्डस हक्सले आदि नोबल प्राईजविनर साइंटिस्ट भी उनके सर्वथा मौलिक संदेश को सुनकर उनके पृशंसक बन गए ।
2
यथार्थ ध्यान
बंधुओं साधारणतया ध्यान करने के लिए आग्या चक्र अथवा सहस्रार पर ध्यान करना सिखाया जाता है । किसी ऐक मंत्र के जप की सलाह दी जाती है । भगवान की दिव्य मूर्ति पर ध्यान का निर्देश किया जाता है ।
किंतु कृष्णमूर्ति के अनुसार ये सब क्रियाएं ध्यान नही है । किसी मूर्ति का,किसी मंत्र के जप से मन को आत्मविभ्रम होता है जिसे उपलब्धि मान लिया जाता है । स्वयं मन अपनी कंडीशनिंग के अनुसार तरह तरह के पृक्षेप फेंकता है ।
कृष्णमूर्ति कहते हैं
आप ध्यान नहीं कर सकते क्योंकि ध्यान अहं का विलोपन है | ध्यानकर्ता खुद का विलोपन कैसे कर सकता है ?
जहाँ द्रष्टा द्रष्य दर्शन की त्रिपुटी न रहे वह ध्यान है ।
ध्यानकर्ता के प्रयास से यह संभव नहीं है ।
वह सिर्फ अपने मन का अवलोकन बिना किसी छेड़छाड़, बिना हस्तक्षेप, बिना बदलाव की इच्छा के करता रहे, स्वयं के मन मे आते जाते विचारों का बारीकी से देखता रहे ।
साधक किसी प्रकार के दिव्य अनुभव की आशा न रखे । पृकृति स्वयं अपना काम खुद करेगी ।
ध्यान खुद ब खुद बिना प्रयास के प्राकृत होता है ।
3
महायोगी को स्वयं के भ्रम से मुक्ति
ऐक बार ऐक हिमालय का सिद्ध योगी कृष्णमूर्ति से मिलने आता है । उनके पास अनेक यौगिक सिद्धियां व अनेकों भक्त होते हैं ।
वह बड़े दंभ से खुद का परिचय देते हुऐ कहता है कि वह अपने ऐक शिष्य के कहने पर उनसे मिलने आया है । अन्यथा उसे किसी से मिलने जाने क्या आवश्यकता नही थी । वह स्वयं पूर्ण सक्षम अनेक सिद्धियों से युक्त है ।
कृष्णमूर्ति बातचीत के द्वारा योगी को अहं की परिधि से बद्ध होने का अहसास करा देते हैं.व
योगी को तत्क्षण अपने बंधन का अहसास होता है । उसे सत्य के दर्शन होते हैं । उसे लगता है वह योगसाधना की अहं की दीवार से बद्ध था ।
वह जीवनभर कृष्णमूर्ति का कायल हो जाता है ।
4
इसी प्रकार ऐक स्वनामधन्य भगवान, आचार्य, जो महाप्रसिद्ध भाषणबाज, दुनिया भर मे जिसके लाखों पृशंसक थे,बहुत वैभव सम्पत्ति थी, कृष्णमूर्ति के पास पहुंचा और उनसे अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुऐ कहने लगा कि मैने उस परम दिव्य अवस्था को पा लिया है ।
इस पर कृष्णमूर्ति ने बड़ी विनमृता से उनसे कहा, महोदय क्या आपने अपनी मुट्ठी मे समंदर को भर लिया है । अर्थात सत्य कोई सी स्थिर वस्तु नही है जिसे आप प्राप्त करें वरन् वह क्षण प्रति क्षण जीना है, होना है ।
हमे बनना नहीं,होना है ।
क्या आप हवा को अपनी मुट्ठी मे भर सकते हो, कृष्णमूर्ति का इशारा समझकर वह.भगवान भुनभुनाते हुए नाराज होकर वहां से
चला गया । बाद मे उस आचार्य को बड़ी बेइज्जती करके अमरीका से निकाला गया । क्योंकि वह हर किसी की त्रुटि निकालता रहता था । उसने अमरीका मे ईसामसीह की, वहां के राष्ट्रपति की भयानक आलोचना कर दी ।
उसका बड़बोलापन उसकी जान का दुश्मन बन गया । उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी ।
स्मरण रहे ईसामसीह साधना के उच्चतम स्थिति मे थे जिनकी प्रशंसा रमण महर्षि, विवेकानन्द भी करते थे ।
5
कृष्णमूर्ति रोज नियम से प्रातः सायं पैदल भ्रमण पर जाया करते थे । वे दूर निर्जन जंगल मे पहाड़ों पर वृक्षों के बीच जाते । वहां अचानक उनका मन ऐकदम निर्विचार रिक्त हो जाता ।
उन्हें ऐक अनंत की अनुभूति होती जिसे शब्दों मे
व्यक्त करना बहुत मुश्किल होता है किंतु फिर भी उन्होंने अपनी अनुभूतियों को बहुत ही सुंदर सशक्त ढंग से अभिव्यक्ति दी है । उस अनंत अनुभूति को उन्होने वह,है, शब्द से संबोधित किया है । स्मरण रहे उपनिषदों मे ब्रम्ह को वह व है,से जगह जगह संबोधित किया है । स्मरण रहे कृष्णमूर्ति ने कभी हिंदू शास्त्र नहीं पढ़े । उनकी पुस्तकें कामेंटरीज आन लीविंग व द ओनली रिवोल्यूशन मे ये सुंदर अत्यंत दिव्य अभिव्यक्तियां पढ़ने को मिलेंगी । वे यथार्थ को मानते थे, दिव्यता, रहस्य,प्रचलित आधयात्मिक अनुभवों को स्वप्रक्षेप कहते थे । देवी देवता, पूजा पद्धतियों को वे मानव निर्मित कल्पना बताते हैं ।
वे स्वयं की अनुभूति पर निर्भर रहने की सलाह देते हैं ।
6 कृष्णमूर्ति को कुंडलिनी जागरण की अनेकों बार
क्रियाऐं होती थी जिससे उन्हें मस्तिष्क, पीठ, पेट आदि अनेक जगह बहुत असहनीय पीड़ा होती थी । ये क्रियाऐं उन्हें अपने आप होती थी? वे बुरी तरह से चीखते चिल्लाते व भयानक मृत्यु सद्रश्य दर्द की शिकायत करते । यह यंत्रणा अनेक घंटों, दिनों तक चलती रहती ।
इसके बाद वे बहुत ही दिव्य अनुभूति मे चले जाते ।
7
क्रष्णमूर्ति के आसपास ऐक विशिष्ट आध्यात्मिक आभामंडल था । संसार प्रसिध्द दार्शनिक. खलिल जिब्रान को उनके पास प्रेम के विस्फोट की अनुभूति की । आनंदमयी माता जब उनके समीप से गुजरी तो उन्हें दिव्य आनंद की अनुभूति हुई व
उन्होंने क्रष्णमूर्ति को अपना पिता कहकर सम्बोधित किया । बचपन से उनके हाथों मे छूने भर से किसी कोई रोगमुक्त करने की क्षमता थी जिसे उन्होने कुछेक बार ही बहुत आवश्यक होने पर ही उपयोग किया था ।
ऐक व्यक्ति को उनके शरीर को छूने भर से शाक लग गया था ।
8
अईर्ष्या, ईर्ष्या का निरंतर है
अवगुण दूर करने के पृयास के साथ वह निरंतर छिपे हुऐ तौर पर प्रयास कर्ता के साथ रहता है ।
अपने आप को हम जैसे हैं वैसा ही समझना चाहिए । जब ऐक लोभी, लोभ से मुक्ति चाहता है और वह पृयास करता है तो वह मूलतः लोभ.का ही निरंतरता है क्योंकि मूल भावना पृयास के साथ जुड़ी हुई. है । समय आने पर बाहर से शांत रहने वाला विस्फोटक रूप से बाहर आता है ।
यही तथ्य ईष्या, मोह, क्रोध आदि सभी अवगुणों से जुड़ा हुआ.है । हम जितना पृयास अवगुणों को दूर करने मे करते हैं वह अवगुण छिपे हुऐ तौर सकता हमारे साथ चलता है, पृयास कर्ता के पृयास मे साथ साथ चलता है व हमें अवगुण से मुक्त होने का भृम कराता है । इसीलिए हम अनेक बड़े साधुओं को बड़े क्रोध,चिढ़चिढ़ेपन, अहंकार से गृस्त देखते हैं ।
9
आप ही संसार हो
कृष्णमूर्ति कहा करते थे आप ही संसार हो ।
व्यक्ति का मानसिक उद्वेग, ईर्ष्या, लालच आदि हैं संसार के वर्तमान रूप मे पृक्षेपित हो रहा हैं ।
व्यक्ति का परिवर्तन ही संसार का परिवर्तन है ।
10
वृक्ष को देखकर दिव्य अनुभूति
ऐक बार कृष्णमूर्ति ऐक जंगल मे भ्रमण कर रहे थे । उन्हें ऐक नंगा वृक्ष दिखाई दिया । वे उसे देखकर आनंद विभोर हो उठे । वे लिखते हैं कि वह वृक्ष जंगल मे ऐक सुंदर कविता के समान था । उस वृक्ष को देखकर वे अपनी सुधबुध खो बैठते हैं । उन्हें अनंत का अनुभव होता है ।
वे समाधिस्थ हो जाते हैं । वे प्रचलित योगिक समाधि को नहीं मानते थे व उसे मनोभ्रम बताते थे । यही अनुभव ऐक अनय अवसर पर उन्हें ऐक तोते को देखकर हुआ ।
11
ऐक दिन रात को भारी बारिश हुई ।
प्रातः का नजारा बड़ा मनोरम था ।
वृक्षों के पत्तों की धूल साफ हो चुकी थी ।
कृष्णमूर्ति कहते है कि मन पर सदियों से चढ़ी भूतकाल की धूल साफ होगयी । दूसरे दिन सबकुछ बिलकुल नया था । मन मे आनंद और उल्लास उमड़ने लगा । कृष्णमूर्ति को ऐसी नवीनतम अनुभूतियां प्रायः हुआ करती थी । उनके अनुसार मन का भूतकाल के बोझ से मुक्त होना आवश्यक है ।
हमारा प्रचलित धर्म भूतकाल पर आधारित है जिसे कृष्णमूर्ति पूर्णतया नकार देते हैं ।
12
नेहरुजी,इंदिरा गांधी कृष्णमूर्ति को बहुत मानते थे । इंदिरा गांधी उनसे सलाह लिया करती थी ।
इसका जिक्र उनके जीवनी पर लिखी पुस्तक जे कृष्णमूर्ति मे पपुल जयकर ने किया है । इंदिरा जी को उन्होंने राजनीति छोड़ने की सलाह दी थी । अपनी मृत्यु के पूर्व इंदिरा जी ने उन्हें आमंत्रित किया था ।
कृष्णमूर्ति ने उनके आवास पर काला साया बताकर उन्हें सावधानी किया हिंट दे दी थी ।
13
मौलिकता का सर्वथा अभाव
जब किसी व्यक्ति से भगवान, धर्म,स्वर्ग नर्क आदि पर पूछा जाता है तो वह ग्रंथों मे या कथाकारों द्वारा सुने सुनाऐ उत्तर ऐक तोते कहा समान दोहरा देता है ।
भगवान क्या है ?
उत्तर भगवान वह है जिसने यह दुनिया बनाई, जो उसे पालता है ।
किंतु यह तो आपने दूसरे केलिखे या सिखाये या सुनी बात को तोते के समान दोहरा दिया, आपके खुद के क्या विचार हैं ?
इस पर वह चुप हो जाऐगा या झगड़ा करने लगेगा ।
व्यक्ति को कभी मौलिक चिंतन करना नहीं सिखाया जाता ।
14
पृतिबद्धता
हमें बचपन से कुछ विचार समाज माता पिता गुरू बड़ों समय सिखाऐ जाते हैं ।
जैसे भगवान क्या है, मंदिर भगवान का घर है ।
भगवान से संबंधित अनेकों कथा कहानियां कही सुनाई जाती है जिन पर आंख मूंदकर विश्वास करना सिखलाया जाता है ।
हम फलानी जाति के हैं, हम औरों से श्रेष्ठ हैं।
धर्म और मान्यताओं पर प्रश्न करना पाप है ।
बच्चे का दिमाग कोमल होता है । सभी विभिन्न धर्मों व मान्यताओं के लोग अपना धर्म और जाति ही सत्य है,श्रेष्ठ है,एसा समझकर ऐक दूसरे से लड़ते हैं ।
अतः सभी पृतिबद्धता, संस्कार,व पुरानी जानकारी पर प्रश्न उठाया जाना चाहिए । पृतिबद्धता से मुक्ति सत्य के दर्शन के लिए आवश्यक है ।
पृतिबद्धता अहंकार को बढ़ाती है ।
मनुष्य सभ्यता मे हजारों वर्षों सै चली आ रही मान्यताओं पर फिर से पुनर्विचार करना चाहिए
15
तीर्थयात्रा व मन्नत पर पृश्न
लोग भगवान की खोज करने तीर्थो मे जाते हैं ।
वो अपने व अपने परिवार की कुशलक्षेम व उन्नति के लिए वहां जाते हैं किंतु हम रोज अखबारों मे तीर्थयात्रियों से भरी बसों को पलटने और सभी यात्रियों के मरने की खबरें अखबारों मे पढ़ते हैं । ये कौन सा कुशलक्षेम हुआ, ये कौन सी उन्नती हुई । जब इंसान ही नही रहा तो कौन सी मन्नत पूरी हुई ?
“कस्तूरी मृग मे बसै मृग ढूंढे बन माहि, तेरा साईं तुझमें क्यों विरथा भरमाहि”
भगवान जब मनुष्य के अंदर है तो उसे बाहर क्यों ढूंढना ?
“गंग नहाऐ हरि मिले तो हरकोई लेय नहाय, मछली जल मे रहत है कभी न बैकुण्ठ जाय”
मछली तो गंगा मे ही रहती है तो क्या वह वैकुण्ठ जाती है ?
सिर्फ मान्यताए जिनका कोई प्रुफ नहीं ।
16
भीड़तंत्र भेड़चाल
हम भीड़ मे स्वयं को सुरक्षित समझते है, सुख व उत्तेजना महसूस करते हैं ।
ऐक बार ऐक भेड़ो का झुंड बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ चला जा रहा था । ऐक व्यक्ति ने भेड़ो के सरदार से पूछा, ” तुम क्यो व कहाँ दौड़े जा रहे हो ?” सरदार ने कहा,“ ऐक पंडित ने बताया कि कुछ दूरी पर भगवान पृकट हुऐ हैं । हम उनके दर्शन के लिऐ जा रहे हैं । वह व्यक्ति भेड़ों के गंतव्य स्थल पर पहुंचा तो देखा कि.वहां ऐक बड़ी खाई थी जिसमें गिर गिरकर भेड़ें मर रही थी । उसने आकर सरदार से कहा, ” सावधान आगे खाई है और सभी भेड़े उसमें कूदकर मर रही हैं”
किंतु भेड़ो ने व उनके सरदार ने उसकी ऐक नहीं सुनी ।
रूढ़िवाद मनुष्य की आख कान बुद्धि सभी पर ताला लगा देता है ।
17
पृकृति से दूर
हम कभी पृकृति के साथ नही रहते ।
आधुनिक जीवन इतना भागदौड़ का होगया है कि हम.पैसा पद पृतिष्ठा के पीछे दिनरात भाग रहे हैं ।
हम कभी रुककर पेड़ नहीं देखते,उसकी सुंदरता को नहीं देखते, उसकी ठंडी छाया मे नहीं बैठते ।
हम रंग बिरंगे पुष्पों को नही निहारते,उनकी खुशबू का आनंद नहीं लेते । कलकल बहती नदी को रूककर नहीं देखते ।
आसमान और तारो के दर्शन नही करते । हम बच्चों को खेलते शोर मचाते उछलकूद करते नहीं देखते ।
हम ऐक कृत्रिम सीमेंट से घिरे वातावरण मे जी रहे हैं।
हमारे जीवन समय उल्लास उमंग समाप्त हो गये हैं ।
18
समंदर को देखकर ध्यान
उपनिषद कहता है
सर्व खल्विदं ब्रम्ह अर्थात सबकुछ बृम्ह ही है ।
जे कृष्णमूर्ति समंदर को देखकर ध्यानस्थ हो जाते थे। उन्हें परम शांति का अनुभव होता था ।
यद्यपि कृष्णमूर्ति बृम्ह आत्मा आदि को नहीं मानते थे । बौद्ध धर्म आत्मा परमात्मा बृम्ह अवतार आदि मान्यताओं को नही मानता ।
उसके अनुसार ये सभी कांसेप्ट्स हजारों वर्षो
के पृचार का परिणाम है ।
19
प्राकृत ध्यान
मित्रों,कृष्णमूर्ति किसी तोते को देखकर परम दिव्य अवस्था मे चले जाते थे ।
वे किसी वृक्ष को देखकर समाधिस्थ होने जाते थे । शाम के समय उन्हें प्रकृति मे परम शांति का अनुभव होता था ।
अपनी अनुभूतियों को जैसी सशक्त लेखनी मे उन्होंने अभिव्यक्ति दी है वह.मानव साहित्य मे अभूतपूर्व है । उनकी सारी लेखनी अंग्रेजी मे है ।
उनकी किताब द ओनली रिवोल्यूशन मे ध्यान की गहरी अनुभूति को इतनी सशक्त व सुंदर अभिव्यक्ति दी गई है कि विश्व साहित्य मे अन्यत्र दुर्लभ है । शायद अब उनकी सारी कृतियों का हिंदी व अन्य भाषाओं मे अनुवाद हो चुका क्ष है । वह.भी पृकृति के संसर्ग से स्वतः ध्यान ।
20
मन की आद्योपांत समझ
कृष्णमूर्ति के अनुसार मानव मन की सम्पूर्ण समझ आवश्यक है । मन के हर विचार हर भावना हर आवेग को सम्पूणतया निरीक्षण यही
ध्यान है । इस पृक्रिया मे मन रिक्त हो जाता है । उसमें दिव्यता के आगमन की पूर्ण सम्भावना बन जाती है किंतु प्रयास.के द्वारा किसी अनुभूति का पृयास नही करना । वह पृकृति से स्वयं आती है । अपनी अनुभूतियों को जैसी सशक्त लेखनी मे उन्होंने अभिव्यक्ति दी है वह.मानव साहित्य मे अभूतपूर्व है । उनकी सारी लेखनी अंग्रेजी मे है ।
21
शिक्षा मे योगदान
कृष्णमूर्ति ने मौलिक चिंतन को बढ़ावा देने के लिए संसार मर मे बालको के लिए विद्यालय खोले । इन विद्यालयों मे बच्चों को स्वतंत्र चिंतन के लिऐ प्रोत्साहित किया जाता है । उन्हें किसी भी व्यक्ति के विचारों कु नकल के दुष्परिणाम बतलाऐ जाते हैं । उन्हें पारस्परिक स्पर्धा से दूर रखा जाता है । पृकृति का महत्व व उसके सान्निध्य मे रहना सिखाया जाता है । अपनी पृतिभा के अनुसार करियर चूज करने के लिऐ उत्साह वर्धन किया जाता है ।
संसार के इस सर्वथा मौलिक चिंतक का 17 फरवरी 1986 को ओजाई केलिफोर्निया मे देहांत हो गया । संसार मे हर विषय पर अपने अनूठे मौलिक विचार के लिऐ सदैव बड़े सम्मान से स्मरण किया जाऐगा । इनके मौलिक विचारों को विश्वभर के अनेक वह विश्वविद्यालयो ने अपने अ र्स मे सम्मिलित किया है ।
********************