शहर का नाम था 'धरमपुर'। कोई बहुत बड़ा नहीं था, पर इतना भी छोटा नहीं कि खौफ की कोई पहचान न हो।
और धरमपुर में नाम चलता था 'मनन राठौड़' का।
उम्र लगभग 37, लेकिन उसके चेहरे पर वक़्त से ज़्यादा कहानियाँ थीं।
चेहरे की दाढ़ी हमेशा सलीके से कटी होती, और आँखें… जैसे किसी ने राख में आग छुपा रखी हो।
कभी पुलिस वाला रहा था, फिर सिस्टम से तंग आकर खुद कानून बन गया।
अब MLA भी उससे डरते थे और स्कूल की बच्चियां भी।
'काया सीना', 18 साल की लड़की, अभी-अभी गाँव से आई थी धरमपुर पढ़ने।
उसकी आंखों में किताबों के सपने थे और अंदर वही गाँव की सी मासूमियत।
वो ज़्यादा बात नहीं करती थी, लेकिन जब मुस्कुराती, तो लगता जैसे कमरे में हल्की बारिश हो गई हो।
वो दिन अलग था…
कॉलेज के बाहर कुछ लड़कियां चाय पी रही थीं।
काया ने जैसे ही कप उठाया, पीछे से शोर हुआ
"रास्ता खाली करो... मनन भैया आ रहे हैं!"
लड़कियां सर नीचे करके हटने लगीं।
लेकिन काया तो धरमपुर के उस खौफ से अंजान थी। वो वहीं खड़ी रही।
काली SUV के दरवाज़े से उतरे 'मनन राठौड़'।
एक नजर चारों ओर… और फिर सीधा काया पर।
वो कुछ सेकंड चुप रहे…
फिर धीरे से मुस्कराए
"तेरे जैसी आंखें मैंने सिर्फ किताबों में पढ़ी हैं। नाम क्या है तेरा?"
काया की सांस अटक गई। उसने कप नीचे रखा और पीछे हट गई।
"क–काया..."
मनन ने उसकी घबराहट को आँखों में कैद कर लिया।
"काया... बहुत नरम नाम है। जैसे सुनते ही खून थम जाए।"
काया पलटी और चली गई बिना कुछ कहे।
अगले दिन…
काया के क्लासरूम की खिड़की के बाहर गुलाब का एक फूल रखा था।
साथ में एक कागज:
“डर ठीक है… पर दिल का डर जब आंखों में उतरता है, तो वो इश्क़ हो जाता है।”
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काया की सहेली बोली, “तूने क्या किया रे? मनन राठौड़ तुझसे बात कर गया?”
काया घबरा गई। “मैंने कुछ नहीं किया… मैं तो बस वहाँ खड़ी थी।”
पर अब सब कुछ बदलने लगा था।
क्योंकि अब मनन उसे हर जगह दिखाई देता।
कभी कॉलेज के बाहर गाड़ी में बैठा हुआ।
कभी लाइब्रेरी के सामने चुपचाप, सिर्फ उसे देखता हुआ।
उसने कभी छूने की कोशिश नहीं की।
ना ही ज़बरदस्ती की।
बस घूरता था। गहराई से, जैसे आँखों के रास्ते उसकी रूह तक उतर जाना चाहता हो।
एक शाम…
काया हॉस्टल लौट रही थी। रास्ता सुनसान था।
SUV धीरे-धीरे उसके पास आकर रुकी।
मनन दरवाज़ा खोलकर उतरा।
“डर लग रहा है?”
उसने पूछा।
काया कांपती हुई बोली,
“क…क्या चाहिए आपको?”
मनन ने अपनी आँखों में हल्की सी मुस्कान लाकर कहा
"तू। पूरी की पूरी। तेरे डर के साथ। तेरी चुप्पी के साथ। मैं हर रोज़ तुझे देखता हूँ, और हर रोज़ खुद को भूल जाता हूँ।”
काया की आँखों में आंसू आ गए।
"कृपया... मेरा पीछा मत कीजिए। मैं सिर्फ पढ़ने आई हूँ।"
मनन थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला:
"अगर मोहब्बत जुर्म है, तो मैं हर दिन ये जुर्म करूँगा। पर तुझे तकलीफ़ नहीं दूँगा… कसम मेरी माँ की।”
वो चुपचाप चला गया।
लेकिन काया को लगा जैसे उसके बाद सब कुछ चुप हो गया हो
हवा, पत्ते, और उसकी अपनी धड़कनें।
काया के लिए धरमपुर अब वैसा नहीं रहा था जैसा उसने सोचा था।
कॉलेज, लाइब्रेरी, हॉस्टल सब अब जैसे बंद कमरों में बदल चुके थे, जिनकी दीवारों के पीछे एक ही नाम गूंजता था ’मनन राठौड़’।
रातों को वो नींद में चौंक जाती, और हर परछाईं को SUV समझने लगती।
लेकिन मनन...
वो तो जैसे किसी और ही दुनिया में जी रहा था।
कभी वो काया की गली से गुजरते हुए उसकी बालकनी की तरफ देख लेता।
कभी हॉस्टल के सामने खड़ा होकर बस एक गुलाब छोड़कर चला जाता।
और कभी एकदम बेझिझक, किसी प्रोफेसर से कह देता
"उस लड़की का ख्याल रखा करो… काया नाम है उसका। वो मेरी है।"
एक दिन...
काया लाइब्रेरी में बैठी थी। किताबें सामने खुली थीं, पर आँखें उनींदी और मन डर से कांपता हुआ।
एक साया उसके सामने आकर बैठ गया।
उसने सिर उठाया मनन।
उसके हाथ में एक किताब थी “मंटो की कहानियाँ”
और आवाज़... खामोश, पर भारी।
“डर लग रहा है न?”
काया ने पीछे हटना चाहा, पर कुर्सी थी।
“कृपया… मत आइए मेरे पास।”
मनन झुका नहीं।
बस शांत स्वर में बोला
"तू जानती है तेरा डर मुझे कितना खूबसूरत लगता है?
तेरी आंखें… जो मुझसे बचती हैं, उनमें मैं खुद को देखता हूँ।”०
काया कांप गई।
“आपको क्या लगता है, ये सब मोहब्बत है? ये पागलपन है!”
मनन थोड़ा मुस्कराया
"हो सकता है... पर ये पागलपन सिर्फ तुझसे जुड़ा है।
बाकी दुनिया से मेरा कोई वास्ता नहीं।
मैं तुझसे दूर हो भी जाऊँ, पर तुझे भुला नहीं सकता।”
काया गुस्से में उठ खड़ी हुई।
"तो कीजिए न कोशिश! भूल जाइए! मैं कोई खिलौना नहीं जो आपकी पसंद बन जाऊं!"
मनन चुप रहा।
फिर धीमे से बोला
"तू जब चिल्लाती है ना... वो आवाज़ मेरे सीने में उतरती है।
और जब डरती है… तो लगता है मैंने तुझे छू लिया हो।”
काया उस दिन पहली बार रोई थी
किसी के प्यार से नहीं, किसी की ‘दीवानगी से डरी हुई मोहब्बत से’।
उस रात उसने दुआ की
"या तो ये इंसान बदल जाए… या ये शहर छोड़ दूँ।"
पर शहर उतना छोटा नहीं था,
और मनन का इश्क़ उतना आसान नहीं था।