aakhiri khat in Hindi Short Stories by Pathak Ashish vilom books and stories PDF | आखिरी खत

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आखिरी खत

पटना जंक्शन... एक ऐसा नाम जहाँ रोज़ हजारों चेहरे आते-जाते हैं। किसी की आंखों में मंज़िल होती है, किसी की आंखों में जुदाई का ग़म। भीड़ होती है, शोर होता है, धुएँ और धूल की चादर हर चेहरे को ढँक देती है। पर उस दिन, इस शोर के बीच एक चेहरा ऐसा भी था जो खामोशी से लड़ रहा था, भीड़ में होकर भी अकेला था—अनुराग।


वो स्टेशन की एक टूटी-सी बेंच पर बैठा था, जहाँ लोग कुछ पल सुस्ताने के लिए रुकते हैं और फिर अपनी राह पकड़ लेते हैं। लेकिन अनुराग की राह कहीं नहीं थी। उसके कदम यहीं ठहर गए थे। उसके हाथ में एक खत था—कई बार पढ़ा जा चुका, कोनों से मुड़ा हुआ, लेकिन उसके लिए हर बार नया, हर बार ताज़ा। उस खत में सिर्फ़ कुछ पन्नों की स्याही नहीं थी, उसमें एक पूरी ज़िंदगी थी—उसकी सुहानी।


अनुराग की नज़रें बार-बार उस खत पर टिक जातीं, फिर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर भागती दुनिया को देखतीं और वापस लौट आतीं। जैसे उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि इतनी भीड़ में भी कोई नहीं है जो उसकी तलाश का हिस्सा हो। उसका दिल पूछता—“क्या सच में अब वो नहीं है?”


खत सुहानी ने लिखा था—उसने, जो कभी उसकी ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत हकीकत थी। वो लड़की जो बारिश में भीगना पसंद करती थी, जो किताबों की खुशबू को महसूस कर सकती थी, जो चाय के कप में अपना पूरा दिन ढूंढ लेती थी। वही सुहानी अब उसकी दुनिया से जा चुकी थी, बिना पता दिए, बिना अलविदा कहे।


खत की आख़िरी पंक्तियाँ उसके ज़हन में जैसे गूंजती रहती थीं:

“अगर कभी मुझसे मिलना हो, तो गंगा के किनारे आना… मेरी यादें वहाँ मिलेंगी।”


बस यही एक वाक्य था, जिसने अनुराग को पटना खींच लाया। दिल्ली की भागती ज़िंदगी से निकलकर, उसने सब छोड़ दिया। नौकरी, दोस्त, आराम—सब कुछ पीछे छोड़कर वो उस एक पते की तलाश में चल पड़ा, जो कोई पक्का पता नहीं था, सिर्फ एक भावनात्मक संकेत था।


स्टेशन पर बैठा वो उन पलों को याद कर रहा था जब पहली बार उसने सुहानी को देखा था—एस.बी. कॉलेज के गलियारे में, नीली साड़ी पहने, किताबों में खोई हुई। पहली मुलाकात में ही कुछ तो था, जो उसकी दुनिया को पलट गया था। फिर धीरे-धीरे दोनों करीब आए, और हर लम्हा एक कविता बन गया। लेकिन किस्मत को जैसे कविताओं से चिढ़ थी।


परिस्थितियाँ, परिवार, समाज... ये सब उस प्रेम के सामने दीवार बन गए। और एक दिन, सुहानी बिना कुछ कहे चली गई। बस एक खत छोड़ गई थी। वही आख़िरी ख़त।


अब अनुराग उस खत को हाथ में लेकर जैसे वक़्त से लड़ रहा था। एक तरफ़ उसका मन कहता कि वो अब नहीं है, और दूसरी तरफ़ दिल कहता—“शायद... कहीं होगी, इंतज़ार में होगी।”


स्टेशन पर कोई अनाउंसमेंट हुआ, ट्रेन आई, लोग चढ़े-उतरे। लेकिन अनुराग की दुनिया वहीं रुकी रही। समय जैसे उसके लिए ठहर गया था। उसे न आवाज़ सुनाई दे रही थी, न ट्रेन की सीटी, न लोगों की चहल-पहल। वो खोया हुआ था, अपनी यादों की गलियों में।


उसने धीरे से खत को खोला। शब्द वैसे ही चमक रहे थे जैसे पहली बार पढ़े थे।

“अगर कभी मेरी याद सताए, तो गंगा किनारे आना…”


हर लफ्ज़ में एक पुकार थी, एक वादा, एक अधूरी ख्वाहिश। शायद सुहानी जानती थी कि अनुराग आएगा। शायद उसने जान-बूझकर ही गंगा का नाम लिया था—एक ऐसी जगह जहाँ आत्माएँ भी लौटती हैं।


अनुराग की आँखें भर आईं। वो चाहकर भी रो नहीं पा रहा था। आँसू पलकों तक आते और वहीं थम जाते। कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिन्हें आँसू भी बयान नहीं कर सकते।


उसने खत को फिर छाती से लगा लिया। कुछ देर यूँ ही बैठा रहा। फिर एक गहरी साँस ली और बेंच से उठ खड़ा हुआ। अब उसे पता था कि अगला पड़ाव गंगा घाट है। शायद वहीं उसे कोई जवाब मिल जाए। या फिर एक आख़िरी अलविदा।


स्टेशन से निकलते समय उसने एक बार पलटकर भीड़ को देखा—हर चेहरा व्यस्त, हर कदम जल्दी में। किसी को फ़िक्र नहीं कि कोई टूट रहा है, कोई बिखर रहा है। मगर अनुराग अब इन सबसे ऊपर जा चुका था। उसका दिल अब सिर्फ़ एक आवाज़ सुन सकता था—सुहानी की।


अब उसकी जेब में सिर्फ़ एक खत था और दिल में एक भरोसा...

कि अगर मोहब्बत सच्ची हो, तो उसका रास्ता गंगा किनारे ज़रूर जाता है।



पिछले तीन दिनों से अनुराग पटना की गलियों में भटक रहा था। उसके पैरों में थकान थी, मगर दिल में एक बेचैन उम्मीद उसे चलते रहने को मजबूर कर रही थी। वह बस चला जा रहा था—बिना दिशा, बिना मंज़िल। प। पटना की वो गलियाँ जो कभी उसे सुहानी की हँसी से गुलज़ार लगती थीं, अब वीरान सी जान पड़ती थीं। हर दीवार जैसे उसकी चुप्पियों को दोहरा रही थी।


उसने उन तमाम जगहों को खंगाल डाला जहाँ कभी वो दोनों साथ गए थे। कदमकुआँ का वो छोटा-सा मोड़, जहाँ पहली बार सुहानी ने उसका हाथ पकड़ा था—अब वहाँ वो पुरानी चाय की दुकान भी नहीं थी। उसकी जगह कोई और बैठा था, कोई और बात कर रहा था। मगर अनुराग को सुनाई देती थी सिर्फ़ सुहानी की हँसी। बोरिंग रोड की वो किताबों की दुकान, जहाँ सुहानी घंटों बैठकर उपन्यासों की दुनिया में खो जाती थी—अब वहाँ नई सजावट थी, नई किताबें थीं, लेकिन उसकी आँखें उसी पुरानी पीली किताब को ढूँढ रही थीं, जिसमें सुहानी ने एक बार फूल दबाया था।


इन तीन दिनों में उसने न तो ढंग से खाया, न सोया। वो बस एक भटकती आत्मा बन गया था—एक प्रेम में डूबा राही, जो अपने ही अतीत के धुएँ में रास्ता तलाश रहा था।


उस शाम पटना की हवा में कुछ खास था। शायद किसी अलविदा की नमी थी या फिर किसी पुनर्मिलन की उम्मीद। सूरज धीरे-धीरे अस्त हो रहा था, आसमान पर लालिमा फैली थी, जैसे किसी ने शाम की चादर पर दर्द के रंग बिखेर दिए हों।


अनुराग अब गंगा घाट की ओर बढ़ रहा था। हर कदम भारी होता जा रहा था। थकान शरीर की नहीं थी, वो तो रूह तक में उतर चुकी थी। रिक्शा लेने का मन नहीं किया। उसे लगा जैसे इस आख़िरी रास्ते को वो अपने पैरों से तय करना चाहता है—जैसे हर कदम उसके प्रेम की तपस्या का हिस्सा हो।


गंगा घाट पर पहुँचा तो वहाँ साधुओं की शांति थी, आरती की गूंज थी, दीपक बहते हुए नदी की लहरों पर टिमटिमा रहे थे। हवा में अगरबत्तियों की ख़ुशबू घुली हुई थी, लेकिन अनुराग की साँसों में सिर्फ़ एक नाम था—सुहानी।


वो सीढ़ियों पर बैठ गया। थका हुआ, टूटा हुआ, फिर भी उम्मीद की डोर थामे हुए। जेब से वह ख़त निकाला जिसे पिछले तीन दिनों में वह न जाने कितनी बार पढ़ चुका था। फिर भी हर बार कुछ नया महसूस होता था। हर लफ़्ज़ जैसे उसकी धड़कनों में उतर जाता।


उसने खत खोला।

सुनाई दी सुहानी की आवाज़—उसकी लिखावट में जो सादगी थी, वह अब दर्द में डूबी हुई थी।


“अनुराग, अगर कभी मेरी याद सताए, तो गंगा किनारे आ जाना। शायद इन लहरों में मेरी सांसें बसी हों।”


पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें भर आईं। पर आँसू बाहर नहीं निकले। वो बस भीतर ही भीतर घुट रहा था। खत को उसने अपने दिल से लगाकर कुछ पल यूँ ही बैठे-बैठे बिताए—जैसे लहरों से बात कर रहा हो।


तभी एक तेज़ हवा चली—अचानक, बेरहम।

खत उसके हाथ से फिसल गया।


अनुराग चौंका। उसकी रूह कांप गई। वो तुरंत उठा, लपका, भागा खत की ओर।

लेकिन वो काग़ज़ अब पंख बनाकर उड़ चला था। हवा उसे सीढ़ियों से नीचे बहा लाई, और फिर गंगा की लहरों ने उसे अपनी बाहों में ले लिया।


वो खत अब नदी के पानी में था—धीरे-धीरे भीगता, फैलता, मिटता हुआ।


अनुराग वहीं ठहर गया। उस। उसके पैरों में जैसे ज़ंजीरें पड़ गईं। वो कुछ पल तक खड़ा रहा—हैरान, हताश, खाली। फिर धीरे से नीचे बैठ गया, वहीं उसी सीढ़ी पर। उसकी आँखें अब भी उस जगह टिकी थीं जहाँ खत पानी में समाया था।


वो खत कोई साधारण काग़ज़ नहीं था, वो उसका आख़िरी जुड़ाव था सुहानी से। अब वो भी चला गया था।


गंगा की लहरें बहती रहीं, चुपचाप। जैसे उन्होंने वो खत अपने भीतर रख लिया हो। जैसे अब वो दर्द सिर्फ़ अनुराग का नहीं, गंगा का भी हो गया हो।


अनुराग की आँखों से आँसू बह निकले। वो चुपचाप रोता रहा। बिना आवाज़ किए, जैसे कोई पुकार भीतर ही घुट रही हो।


वो सोचता रहा—क्या वो सुहानी से सच में आख़िरी बार मिल चुका था, उस खत में?

या फिर वो सिर्फ़ एक शुरुआत थी—एक नई तलाश की।


वो वहाँ देर तक बैठा रहा। आसमान काला हो गया, घाट पर दीपक टिमटिमाते रहे, लोग आते-जाते रहे। मगर अनुराग वहीं बैठा रहा। अब उसके पास न सवाल था, न जवाब। बस एक खामोशी थी जो उस खत से भी ज़्यादा गहरी थी।


शायद यही प्रेम का अंतिम पड़ाव था—जहाँ शब्द ख़त्म हो जाते हैं और सिर्फ़ मौन बचता है।


अनुराग वहीं बैठ गया। गंगा की सीढ़ियाँ अब उसके लिए सिर्फ़ पत्थर की सीढ़ियाँ नहीं थीं—वो किसी मंदिर की तरह पवित्र लग रही थीं, जहाँ उसका प्रेम एक अंतिम प्रार्थना बनकर बह गया था। हवा में अब भी सुहानी की खुशबू जैसे बसी हुई थी। गंगा की लहरें थरथरा रही थीं, मानो किसी गहरे दुख को अपने साथ बहा रही हों।


वो कुछ नहीं बोला। न चीखा, न कोई शोर मचाया। बस चुपचाप देखता रहा—एकटक। जैसे कुछ टूट चुका था भीतर, बहुत गहराई में। जैसे उसके सारे सवाल, सारी शिकायतें, सारे अधूरे सपने उस बहते काग़ज़ के साथ कहीं दूर चले गए हों।


उसके भीतर एक अजीब-सी ख़ामोशी उतर आई थी। बाहर घाट पर भीड़ थी, लोग आरती कर रहे थे, पुजारी मंत्र पढ़ रहे थे, बच्चों की आवाज़ें गूंज रही थीं—पर अनुराग के लिए सब मूक हो चुका था। जैसे वह किसी और ही समय में बैठा हो, जहाँ केवल उसकी साँसें और सुहानी की यादें थीं।


उसके होंठ थरथराए, एक सवाल बार-बार ज़हन में उभरता रहा—

"अगर ख़त नहीं गया होता, क्या मैं उसे फिर पा सकता था?"


यह सवाल छोटा था, लेकिन उसकी आत्मा में भूचाल ले आया।

वो सोचने लगा…

क्या ये आख़िरी उम्मीद थी जो उसके हाथ से फिसल गई? क्या उस ख़त में ही कोई सुराग छिपा था? कोई पता, कोई नाम, कोई और इशारा?


उसने खत को न जाने कितनी बार पढ़ा था, लेकिन अब याद आने लगा कि एक कोना अधूरा सा था—शायद सुहानी ने कुछ और भी लिखा था जो उसने पहले कभी गौर से नहीं देखा। क्या उसमें कोई पुराना पता था? या फिर कोई वक़्त, कोई संकेत?

अब वो सब भीग चुका था, बह चुका था—अनुपलब्ध, अनदेखा… शायद हमेशा के लिए।


साँझ अब रात में ढल चुकी थी। घाट की सीढ़ियाँ ठंडी हो चुकी थीं, हवा में नमी बढ़ गई थी। लेकिन अनुराग उठने का नाम नहीं ले रहा था।

वो अब अपने भीतर उतर चुका था। उस जगह जहाँ हर याद काँच की तरह चुभती है, जहाँ हर ‘क्या होता अगर...’ एक नई सज़ा बन जाता है।


उसकी आंखों में अब भी वो दिन जिंदा थे, जब वो और सुहानी पटना की गलियों में चलते थे। वो शाम जब सुहानी ने उसके कंधे पर सिर रखकर कहा था—

"अगर कभी खो जाऊँ, तो मुझे अपनी यादों में ढूंढ लेना।"


वो अब उन यादों में डूबा हुआ था, लेकिन वहां सिर्फ़ परछाइयाँ थीं—न आवाज़ थी, न रंग।


उसने अपने आसपास देखा। कुछ बच्चे घाट की सीढ़ियों पर खेल रहे थे। एक बूढ़ा आदमी ध्यानमग्न बैठा था। कुछ प्रेमी जोड़े हाथों में हाथ लिए घाट पर टहल रहे थे।

और अनुराग—वो उन सबसे अलग था। न वर्तमान में था, न भविष्य में। बस एक भूतकाल की छाया था, जो गंगा की हर लहर के साथ अपना अस्तित्व बहा रहा था।


"क्या मोहब्बत कभी पूरी होती है?"

उसने खुद से पूछा।

पर कोई उत्तर नहीं आया।


हर प्यार में एक वादा होता है, एक इंतज़ार। लेकिन हर वक़्त कोई जवाब नहीं होता। और जब मोहब्बत खो जाती है, तो पीछे रह जाता है सिर्फ़ एक धुंधला सा चेहरा, एक आवाज़ जो वक्त की भीड़ में कहीं गुम हो जाती है।


उसके जेब में अब कुछ नहीं था—न वो खत, न कोई निशानी। लेकिन उसकी यादें अब और तीव्र हो गई थीं। क्योंकि जब कोई चीज़ आखिरी बार छूटी होती है, उसका असर सबसे गहरा होता है।


उसे अब भी सुहानी की आवाज़ याद थी—धीमी, सधी हुई।

"अगर तुम मुझसे कभी बिछड़ जाओ, तो खुद से मत बिछड़ना..."


लेकिन अब तो वह खुद से ही दूर हो गया था।


वो देर रात तक वहीं बैठा रहा। सीढ़ियों पर, अकेले। लोग आते गए, जाते गए, आरती खत्म हो गई, घाट खाली होने लगा।

पर अनुराग…

वो अब गंगा की लहरों का हिस्सा बन चुका था। उसकी साँसें अब उस शाम की हवा में घुल चुकी थीं।


उस रात, पटना की हवा में सिर्फ़ एक ही नाम गूंज रहा था—सुहानी।


और घाट की सीढ़ियों पर बैठा अनुराग… अब हर दिन वही एक सवाल दोहराता है—

"अगर खत नहीं गया होता, क्या मैं उसे फिर पा सकता था?"


शायद नहीं।

या शायद हाँ।

पर अब उस सवाल का कोई मतलब नहीं रह गया था।


अब वो सिर्फ़ एक चेहरा था जो हर शाम गंगा के घाट पर बैठा दिखाई देता है—चुप, शांत, थका हुआ। जैसे वो किसी को ढूंढ रहा हो, जो अब कभी नहीं मिलेगा।



पटना से लौटते वक़्त ट्रेन की खिड़की से बाहर देखता हुआ अनुराग बस इतना सोच पाया—"क्या सब सचमुच ख़त्म हो गया?"

गंगा के घाट पर जो कुछ हुआ, वो उसकी रूह पर हमेशा के लिए छप चुका था। वो खत... वो हवा... वो असहाय दौड़... और अंत में लहरों में समा जाना—मानो वो सुहानी ही थी जो फिर एक बार उससे दूर चली गई थी।


गाँव पहुँचते ही चारों तरफ वही पुरानी गलियाँ थीं, लेकिन उनके बीच अनुराग पहले जैसे नहीं रहा। अब उसकी आँखों में शोर नहीं था, न ही कोई सवाल—बस एक ख़ालीपन था, जो गहराता जा रहा था।


तीसरे दिन, जब वह घर के आँगन में बैठा पुराने ख़्यालों में खोया था, डाकिया एक लिफाफा लाया।


"अनुराग कुमार?"

अनुराग ने चौंक कर सिर उठाया।

"हाँ..."


लिफाफे पर नाम देख कर उसकी साँसें रुक सी गईं। ऊपर लिखा था—"तुम तक पहुँचते-पहुँचते बहुत देर हो गई... — प्रिया"


प्रिया—सुहानी की सबसे करीबी सहेली। वही जो कॉलेज में हर वक़्त उनके साथ रहती थी।

काँपते हाथों से अनुराग ने लिफाफा खोला और पढ़ने लगा—



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प्रिय अनुराग,


शायद ये ख़त बहुत देर से पहुँच रहा है। शायद जब तुम इसे पढ़ रहे होगे, तब तक सब कुछ खत्म हो चुका होगा। पर फिर भी, लिखना ज़रूरी था।


मैं जानती हूँ कि तुम उसे ढूँढते-ढूँढते थक गए होगे… और सुहानी ने तुम्हें कभी कुछ साफ़-साफ़ नहीं बताया। शायद इसलिए, क्योंकि वो तुम्हें तकलीफ़ में नहीं देख सकती थी। पर अब तुम्हें सब जानना चाहिए।


सुहानी की शादी तय कर दी गई थी। जबरदस्ती। उसके घरवालों ने उसकी एक नहीं सुनी। रोई, गिड़गिड़ाई, पर उन्होंने उसे समझने की बजाय ‘इज़्ज़त’ का हवाला दिया।


तुमसे उसका प्यार उनकी नज़रों में गुनाह था। तुम्हारी कविताएँ, वो खत, तुम्हारा नाम… सब जला दिए गए। और फिर...


फिर एक दिन वो मुझे एक छोटा-सा लिफाफा देकर बोली—

"अगर मैं ना रहूं, तो ये अनुराग को देना..."

मैंने मज़ाक समझा। लेकिन उसी रात…


वो गंगा के घाट पर गई। उसी घाट पर, जहाँ तुम हाल ही में गए थे। और…


उसने छलाँग लगा दी।


हम बहुत ढूंढते रहे। पुलिस, प्रशासन—कोई नहीं ढूंढ पाया उसे। शायद गंगा ने उसे हमेशा के लिए अपने आँचल में ले लिया।


माफ़ करना अनुराग। तुमसे बहुत कुछ छिपाया गया। शायद इसलिए कि हम सब डरते थे… पर अब और चुप नहीं रह सकती।


वो तुमसे बहुत प्यार करती थी। आख़िरी साँस तक। और वो चाहती थी कि तुम टूटो मत।


जियो। उसकी याद में। अपनी मोहब्बत को जिंदा रखो।


— तुम्हारी प्रिया



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खत खत्म हुआ, लेकिन अनुराग वहीं जम गया।


उसकी आँखों से आँसू नहीं निकले, क्योंकि अब उसमें रोने की ताक़त ही नहीं बची थी। जैसे आत्मा ही सुन्न हो चुकी थी।

गाँव की हवा भारी लगने लगी।

वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या ज़्यादा तकलीफ़देह है—सुहानी का जाना, या उसका यूँ जाना।


गंगा… वही नदी जहाँ उसने अपनी प्रेमिका को आखिरी बार महसूस किया था—अब और गहरी लगने

लगी थी। जैसे वो नदी नहीं, एक प्रेमिका की कब्रगाह हो।


अगले दिन अनुराग ने अपने कमरे की दीवार पर सुहानी की एक तस्वीर टाँगी, और उसके नीचे वो खत चिपका दिया।

हर रात वो उसके सामने बैठता, चुपचाप।

             लेखक – पाठक आशीष ”विलोम”