Qaafirana Ishq ? - 1 in Hindi Drama by Mona Gole books and stories PDF | Qaafirana Ishq ? - 1

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Qaafirana Ishq ? - 1

जून का महीना।

बंबई की दोपहर, मतलब जैसे सूरज ने खुद मरीन ड्राइव से एलान कर दिया हो – "आज कोई AC के बिना बचा तो समझो उसने तपस्या पूरी कर ली!"

गली के कुत्ते पक्के मुंबईकर – पर इस गर्मी में वो भी छांव में बैठकर खुद को मिरर सेल्फी में देख रहे थे –“क्यों यार, इतना क्यों तप रहे हैं?”

और कौवे? अब वो खिड़की से झाँकते नहीं, सीधे किचन की खिड़की से पूछते – "कुछ बर्फ भेजोगी क्या, या तुम्हारे फ्रीज में भी पॉलिटिक्स है?"

लेकिन उसका घर? वो अंधेरी ईस्ट का थ्री रूम किचन फ्लॅट— जहाँ गर्मी को भी अपना आधार कार्ड मिल गया था।
गर्मी वहाँ मेहमान नहीं थी... 'किरायेदार' बन चुकी थी।

घर बिल्कुल क्लासिक – मिडल क्लास लेकिन प्यार से सजा-संवरा। दीवार पर गणपती बाप्पा की तस्वीर, नीले फ्रेम में थोड़ी धुँधली सी, लेकिन सिर पर राजशाही मुकुट में वही ठाठ! कोने में रेडियो-कबर्ड, जिसे अब रेडियो कम और अचार रखने की तिजोरी ज्यादा समझा जाता था – कैरी, नींबू, मिर्च और एक ‘सिर्फ माँ का मिक्स’ – जिसका फॉर्मूला बस माँ और NASA को ही पता!

घर के बीच में उसका कमरा। और उस कमरे में – वो!

सफेद चिकन कुर्ता – जो धूप में इतना चमक रहा था कि जैसे सूरज का छोटा भाई ही हो।

अगर उस पर दाग लग जाए, तो धोने से ज़्यादा guilt होता– "कपड़ा नहीं, आत्मा छूटी है!"

दुपट्टा – हल्की वनीला खुशबू लिए, बाहर से एलीगेंट, अंदर से पसीने से बर्फीला तूफ़ान!

और बाल? ऐसे बिखरे जैसे मुंबई लोकल से उतरे हों - "प्लॅटफॉर्म पे आ गए, पर dignity रह गई पीछे।"

चेहरे पे वो लुक – जैसे खुद से ही पूछ रही हो, “मैं ठीक लग रही हूँ ना?”

लेकिन अंदर की आवाज़ –“मैं जुहू चौपाटी की बर्फीली चाट हूँ – तली भी गई, पिघली भी!”

एक हाथ सिर पर, दूसरे में मोबाइल – स्क्रीन खाली, लेकिन चेहरे पर लिखा था: "ज़िंदगी कोई लोकल ट्रेन है – चढ़ भी गए, तो बैठने की जगह नहीं!"

सायशा – आर्किटेक्चर की टॉपर, मगर इस वक्त अपनी ही अंदर की इमारतों की टूट-फूट से जूझ रही थी।

सुबह डांस क्लास – लेकिन झिंगाट शुरू होने से पहले ही शरीर कह देता, "बस! मैं नहीं नाचने वाला!"

शाम को फाइन आर्ट – बच्चों को कला सिखाती, लेकिन सारे रंग खुद के चेहरे पर जमा हो जाते।

और जब फुर्सत मिलती, तो रियाज़ – पर आवाज़ ऐसे निकलती जैसे गरम 'वडा पाव' गले में अटका हो।

लेकिन उस दिन... उसकी हालत थी जैसे पंखे के नीचे पड़ी कोई अधूरी इच्छा – और उसकी आखिरी उम्मीद थी ऊपर घूमता पंखा!

पर...

पंखा: "चूं... चूं... चूं... टक!"

और फिर एकदम से थम गया – जैसे कह रहा हो, “मैंने बहुत कुछ दिया तुमको, अब मुझे भी रिटायरमेंट दे दो..."

सायशा ने धीरे से आँखें खोली। ऊपर देखा। चेहरे पे वही मुंबईया sarcasm – जैसे बेस्ट बस लेट हो गई हो और वो कह रही हो – “क्या नई बात है?”

धीरे से हवा झलते हुए बड़बड़ाई –"ये पंखा है या किसी पुरानी हिंदी फिल्म का विलन – पहले बहुत कुछ करता था, अब बस धमकी देता है!"

फिर मुस्कराकर बोली – "थोड़ी देर में ये ceiling fan नहीं, feeling fan बन जाएगा – हिला तो कुछ नहीं, पर इमोशनल ज़रूर करता है!"

अब पंखा शांत, वो बेचैन, और तपती हवा बोल रही थी – "मैं अभी यहीं हूँ, टाटा मत कर!"

तभी रसोई से आती है एक योद्धा माँ की पुकार – पोहा, प्याज़ और गर्म कड़ाही के बीच जूझती हुई: "सायशा! पंखा बंद क्यों है? तुझे गर्मी नहीं लग रही क्या? या तू ध्यान में चली गई है?"

सायशा (आँखें मूंदते हुए, शरारत से): "माँ, पंखा बंद नहीं हुआ है… उसने 'मोक्ष' पा लिया है। उसके ब्लेड्स ने आखिरी फेरी ली और अब वो तारों में विलीन हो गया है।"

दो सेकंड की चुप्पी... फिर एक चप्पल की ‘टक टक टक’ आवाज – फिर चप्पल की "टक टक टक" – जैसे CBI घर पर आ गई हो।

माँ (कमर पर हाथ, डेली सोप टोन में): "क्या है ये! दिनभर तितली की तरह पड़ी रहती है! और ऊपर से पंखे की मौत का लेख भी लिख रही है? तुझे गर्मी नहीं लग रही क्या? या तू सूरज से मीटिंग करके आई है?"

सायशा (सिर पर हाथ रखते हुए, लंबी साँस): "माँ, लगता है तू और ये पंखा एक ही ट्रेनिंग सेंटर से निकले हो – एक गर्म करती है, दूसरा खुद गरम होता है!"

माँ का वही क्लासिक एक्सप्रेशन –"अब इसकी शादी करानी पड़ेगी, वरना ये और पंखा दोनों मेरी जान लेंगे!"

सायशा (जल्दी से उठते हुए, ऊपर देखती हुई): "माँ! तू तो ऐसे बोल रही है जैसे मैं किसी पूजा का अपमान कर रही हूँ! ऐसा लगता है पंखे का अपमान किया, तो एक दिन उपवास पक्का!"

माँ ने एक नज़र घुमाई – जैसे कोई फिल्म शुरू होने वाली हो… कमर पर हाथ, एक लंबी सास, फिर बोली –"तुझे आज़ादी चाहिए ना? पर पंखे का बटन कहाँ है, वो तक नहीं पता!"

सायशा (हँसते हुए): "माँ! तू तो ऐसे बोल रही है जैसे मैं कारगिल जा रही हूँ! मैं बस डांस सिखाती हूँ, बम डिस्फ्यूज नहीं करती!"

माँ आँखें तरेरती है (वो आँखें जैसे 'गेम ऑफ थ्रोन्स' की वारिस हों!) और जाते-जाते बोलती है – "वो डांस-वांस ठीक है, लेकिन पहले इस पंखे को चालू कर... ये घूमने लगा, तो समझ ले तू भी घूमने लगी – ज़िंदगी में और शादी में!"

माँ चली जाती है, और सायशा उठती है। कुर्सी पर रखी छड़ी उठाती है। पंखे की ओर देखती है – जैसे आखिरी उम्मीद की ओर।

सायशा (हल्की मुस्कान के साथ): "चल बे हीरो... नहीं तो मैं शादी करके तुझे यहीं छोड़ जाऊँगी। फिर देख, कौन देता है तुझे तेल!"

एक झटका… एक कंपन…

पंखा: "घूं... घूं... घूं..."
(आवाज़ ऐसा, जैसे नींद से उठकर खुद को चादर ओढ़ाकर फिर काम पर लौट आया हो।)

सायशा (चकित, मगर हँसते हुए): "वाह रे बाप्पा! माँ का डायलॉग सुनकर तू भी डर गया लगता है!और तुझमें ‘हिंदुस्तान इलेक्ट्रॉनिक्स’ की आत्मा अभी भी ज़िंदा है!"

अब पंखा घूम रहा है – थोड़ी कर्कश आवाज के साथ, लेकिन घूम रहा है – जैसे नौकरी छोड़ना चाहता है पर सैलरी के लिए काम कर रहा है।

कमरे में थोड़ी-सी हवा फैलती है – और एक मामूली-सा ‘सुकून’ भी।

सायशा (छोटा-सा योग लेते हुए): "अगर मोक्ष जैसा कुछ है, तो शायद यही है... और माँ की डाँट वही मंत्र!"

वो बेड पर लेटती है। आँखें आधी बंद। लेकिन तकिया… वो तकिया अब भी इतना गरम था कि लगता था जैसे उसमें आम का अचार छुपा रखा हो।

सायशा (तकिए को थपकी देते हुए): "ऐ तकिए! तू तकिया है या इन्वर्टर की बैटरी पर गरम हुआ टोस्ट?"

इतने में मोबाइल स्क्रीन चमकती है। वो देखती है – सिमी का वीडियो कॉल।

सायशा फोन उठाती है, और स्क्रीन की तरफ देखकर मन में सोचती है –"ये जरूर किसी को 'भैयाजी' बना के लौटी होगी..."

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क्रमशः 
Sjb©️