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मामा मामियों और बहन भाइयों से मिल कर मन थोङा बहल गया था । वहाँ हमने स्वादिष्ट भोजन खाया । मामियों ने सारा खाना मेरी पसंद का बनाया था । मैंने जी भर कर खाया । फिर पता नहीं ऐसा स्वादिष्ट खाना कब नसीब होगा । फिर बहन भाइयो के साथ ढेर सारे खेल खेले । उनके साथ अंत्याक्षरी खेलने में दो घंटे कैसे बीते , पता ही नहीं चला । इस तरह दो तीन घंटे मजे से बीते । चलते हुए शगुण अलग से मिला । मामा तो विदा करना ही नहीं चाहते थे पर सुबह पाँच बजे की ट्रेन थी तो समय से सोना जरुरी था । ऊपर से इनके घर का ग्रामीण परिवेश जहाँ सब लोग शाम को सात बजते न बजते बिस्तर पर चले जाते थे । तो वापस तो आना ही था । बेमन से ही हमें विदा किया गया तब साढे नौ बज रहे थे । लेकिन अभी मामा का मन नहीं भरा था , वे हमारे साथ बातें करते साथ हो लिए ।
मामाजी आप कब आओगे ?
बस दो दिन बाद । बठिंडा तक ट्रेन लेकर जानी है तब आगे आऊंगा ।
हम धीरे धीरे बातें करते चल रहे थे । सामने घर आ गया तो मामा चौंके – अरे , घर आ गया । अब तुम लोग भीतर जाओ । मैं परसों या चौथ मिलने कोटकपूरा आऊंगा ।
जी मामाजी ।
मामा बार बार कहने पर भी भीतर नहीं आए और वहीं से लौट गये ।
हम घर आए तो पिताजी दुकान बढा रहे थे । माँ रसोई में आटा गूंथ रही थी । चूलहे पर दाल चढी हुई थी ।
माताजी , हमने तो खाना खा लिया । अब आप रसोई उठा दो ।
मेरी तो हँसी छूट गई – बाकी सबने अभी खाना खाना है , सिर्फ आपने ही तो खाया है ।
इतनी देर से ?
हम तो दस बजे ही खाते हैं । नौ बजे तक तो दुकान पर मरीज आते रहते हैं फिर दुकान बंद होती है । पिताजी भीतर आते हैं , उसके आधे घंटे बाद खाना पीना होता है ।
पिताजी ने हमें आया देखा तो हमारे पास चले आए – जा आए भई आप लोग ।
जी पिताजी ।
कैसा लगा ?
बहुत बढिया ।
चलो तुम लोग अपनी पैकिंग पूरी कर लो । मैं संध्या बत्ती करके आता हूँ ।
जी ।
पिताजी ने हाथ मुँह धोया । सुबह से पहने हुए कपङे उतार कर नये धुले हुए कपङे पहने । फिर मंदिर में जाकर धूप जोत जलाई । घंटी बजा कर आरती की फिर मंदिर से बाहर आए । तब तक उनका खाना परोस दिया गया था । पिताजी ने हमें भी खाने का निमंत्रण दिया । इन्होंने तो हाथ जोङ दिए पर मैं पिताजी के साथ खाने का लोभ संवरन नहीं कर पाई । आधी रोटी पिताजी के साथ खा कर मन को पूर्ण तृप्ति मिली , उसका कोई मुकाबला नहीं । मैंने हाथ खींच लिया -
बस मेरा हो गया । आप खाइए ।
अभी से बस । पूरी एक रोटी तो खा ले । आधी बीच में ही छोङ दी ।
पेट भर गया था पहले ही , अब मन भी भर गया । और नहीं खाई जाएगी ।
पिताजी मुस्कुरा दिए ।
चल ठीक है । अब तू अपना सामान देख ले । सम्हाल कर सब कुछ रख ले । कुछ छुट न जाए ।
कहना तो चाहती थी , जो छुट गया फिर ले जाऊंगी । अपने घर में ही तो रहेगा । यहाँ से कहाँ जाएगा पर सुबह वाली बात याद करके चुप ही रह गई ।
सामान पैक करने के नाम से मेरा मूड फिर से आफ हो गया था पर सामान तो रखना ही था । मैंने अपना सामान संभाला । माँ ने ढेर सारे उपहार दिए थे । सूट , साङियां , मिठाई , मेवे वगैरा वगैरा । सारा सामान इकट्ठा किया । उन्हें पैक कर लिया । दो सूट पिछले साल ही सिलाए थे । अब तक मात्र दो तीन बार ही पहने होंगे और एक ही बार धोए होंगे । वे भी निकाल कर रख लिए ।
आपका सामान ?
मेरा सारा सामान अटैची में ही है । बस यह कुरता पजामा और चप्पल रखना बाकी है । सुबह नहाने के बाद रख लेंगे । यह कमीज और पैंट बाहर रहने देना । सुबह यही पहननी है ।
ठीक है ।
सारा सामान पैक हो गया था । मैंने बैग और अटैची निकाल कर बाहर बरामदे में रख दिया । मिठाई और ड्राईफ्रूट एक थैले में ऱख लिए और भीतर ही कुर्सी पर टिका दिए । माँ ने दूध गिलासों में डाल दिया था ।
बेटा ये दूध ले जाओ।
मैंने गिलास उठाए । एक गिलास पिताजी को और एक पतिदेव को दे दिया ।
तेरा गिलास ? तूने दूध नहीं लेना क्या ।
मेरा पेट ज्यादा भर गया है । रोटी जरुरत से ज्यादा खा ली थी । दूध मुझसे पिया नहीं जाएगा ।
और मैं बिस्तर में लेट गई ।
लेटते ही नींद में घिर गई । सुबह चार बजे होंगे जब मुझे इन्होंने उठाया – उठो भई , तैयार हो जाओ । साढे चार बजे निकलना है । तभी ट्रेन मिलेगी वरना गाङी छूट जाएगी । स्टेशन भी काफी दूर है ।
आँखें खुलने में ही नहीं आ रही थी । मन न होने पर भी उठना तो था ही । उठ कर चाय बनाई ।
माँ भी उठ कर आ गई थी उन्होने आलू छील कर रखे । नमक मसाला मिलाया और तब तक परांठे बनाने शुरु कर दिए थे । पिताजी ने बीरबल भाई को बुला लिया था । वे रिक्शा लेकर दरवाजे पर आ गये । हम फटाफट नहा कर तैयार हुए । एक एक परांठा खाया । माँ ने सूखे आलू और परांठे साथ के लिए बाँध दिए थे । उन्हें भी थैले में ही रख लिया गया । माँ ने हथेली में जब शगुण के रुपए रखे तो रात से रोके गये आँसू अपना बाँध तोङ कर बह निकले । माँ की आँखों से भी आँसू बह रहे थे । मैं माँ से लिपट गई । माँ से गले मिल कर मैं देर तक रोती रही । पिताजी की आँखें भी गीली थी उन्होंने अपने आँसू रोके हुए थे । उन्होंने अपनी आँखें पौंछी । तब तक बीरबल भाई ने अटैची और थैला ऱिक्शा में टिका दिया था ।
बङा भावुक सा माहौल था पर जाना तो था ही तो हम रिक्शा में सवार हुए । गली में कोहरा तो था ही , आँसुओं ने सब कुछ धुंधला कर दिया था । रास्ते में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । पिताजी भी रिक्शा में सवार हो गये । स्टेशन पहुँच कर टिकट पिताजी ने ही कटवाया । महेंद्र भाई ने हमें सामान उठाने नहीं दिया । वे खुद सामान उठा कर ट्रेन में पहुँचाने आए । हम डिब्बे में सवार हुए । सौभाग्य से बैठने लायक सीटें हमें मिल गई । ट्रेन ने सीटी दी । डिब्बे सरकने शुरु हुए । गाङी स्टेशन से बाहर निकलने लगी । देखते ही देखते स्टेशन आँखों से ओझल हो गया । पिताजी और महेंद्र भाई पीछे रह गये थे । मेरी आँसुओं से भरी आँखें देख सामने की सीट पर बैठी आंटी जी पूछ बैठी – लाली , अभी हाल में ही शादी हुई है क्या ?
गला रुंधा हुआ था इसलिए मात्र सिर ही हिला पाई ।
होता है , होता है । शुरु शुरु में होता है । मन जाने का होता नहीं है फिर धीरे धीरे आदत हो जाती है और एक दिन ऐसा भी आता है जब मायका पीछे रह जाता है । ससुराल ही सब कुछ हो जाती है ।
मैं एकटक उन्हें देखती रह गई – ऐसा कैसे हो सकता है जब कोई अपना बचपन अपनी गलियां , घर द्वार भूल जाय ।
बाकी फिर ....