main to odh chunriyya in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 65

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मैं तो ओढ चुनरिया - 65

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

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मायके में पहले तीन दिन कैसे बीत गए , पता ही नहीं चला । वक्त रेत की तरह मुट्ठी से फिसल रहा था । जब दो दिन की छुट्टियां बाकी रही तो इन्होंने कहा – अपना अटैची तैयार कर लो । कल सुबह की गाङी से हमें वापस चलना है ।

सुन कर ऐसा लगा , जैसे किसी ने स्वर्ग से बाहर निकल जाने का आदेश सुना दिया हो । मैं गुमसुम हो कुर्सी पर बैठ गई ।

क्या हुआ , मैंने कहा ,पैकिंग शुरु कर लो और तुम बैठ गई , वह भी उदास होकर ।

मुझे नहीं जाना , आप चले जाओ ।

यहाँ तुम्हें कोई नहीं रखने वाला । चलो जल्दी से चलने की तैयारी करो ।

ऐसे कैसे नहीं रखने वाला । मेरा घर है यह । मैं तो रहूंगी । तुम अकेले ही जाओगे ।

तब तक पिताजी भीतर आ गये थे ।

पिताजी , यह कह रहीं हैं कि इन्हें यहीं रहना है । बताओ , आप रख रहे हो इन्हें ।

अब पिताजी ने हमारी बात तो सुनी ही नहीं थी , वे बोले – बेटा , बेटियां किस बाप ने अपने घर रखी हैं । वे तो अपने घर ही सजती हैं ।

तभी उनकी निगाह मेरे चेहरे पर पङी । निराशा और अपमान के भाव मेरे चेहरे पर दिखाई दे रहे होंगे । वे एकदम सतर्क हो गये – अभी पौष शुरु होने वाला है तो मैं अगले हफ्ते लेने आऊंगा । तब यह महीना दो महीने लगा जाएगी । मैं भाईसाब को खत भी लिख दूंगा ।

और वे बाहर चले गए । यकीनन उनकी आँख भी भर आई थी  ।

मैं ठुनकती हुई माँ के पास गई – माँ मुझे नहीं जाना ।

ऐसे कैसे नहीं जाना । क्या हुआ ? किसी ने कुछ कहा क्या ?

मेरे मन की बातें जबान पर आते आते गले में ही लौट गई । जो लोग मेरे रुक जाने की बात सोच कर ही परेशान हो गये , उन्हें वहाँ की बातें पता चल गई तो क्या होगा ।

मैंने इंकार में सिर हिलाया – नहीं तो हुआ तो कुछ नहीं । बस वैसे ही जाने का मन नहीं कर रहा ।

माँ ने सुख का साँस लिया – बेटियों का घर तो ससुराल ही हुआ करता है । मायके चार दिन के लिए हँसी खुशी आओ । जितना समय दामाद जी अपनी खुशी से कहे , रहो । जाना तो होगा ही । बाकी तेरे पिताजी को जल्दी भेजूंगी लेने ।

मेरा सारा गर्व चूर चूर हो गया । आँसू भरी आँखों से मैं अपनी अटैची लगाने लगी । इन्होंने अपनी बात सच होते देख अभिमान से भर मेरी ओर देखा पर मुझे उदास देख ये भी उदास हो गये । रसोई में सब्जी छोंकती माँ भी आँचल से आँसू पौंछ रही थी ।

इतने में मेरी दोनों मामी और मामा आ गये ।

ये क्या ? हम तो खाने के लिए कहने आए थे , तुम लोग सामान बांध रहे हो । जा रहे हो क्या ।

जी आए हुए तीन दिन हो गए । छुट्टियां खत्म हो रही हैं । सोमवार दफ्तर जाना है । तो कल जाएंगे । परसों आराम करके ड्यूटी पर जाऊंगा ।

तो आज शाम का खाना हमारे साथ खाना ।

ठीक है जी ।

मामी , जोगी ,दीपक ,सुधा , संजू सब कहाँ हैं ।

सब घर हैं । शाम को आएगी तो सबसे मिल लेना ।

मामा मुझसे कम इनसे ज्यादा बातें करते रहे । मुझे इर्ष्या महसूस हो रही थी । हालांकि जानती थी , ये मेरे साथ पहली बार मेहमान बन कर आए हैं तो अतिरिक्त ध्यान तो मिलना ही था ,पर मन का क्या करूं ।

मामाजी मेरा सामान ?

परसों मुझे ट्रेन लेकर बठिंडा जंक्शन जाना है तब ले आऊंगा ।

ठीक है ।

वे लोग एक घंटा रुके फिर हमें जल्दी आने का आग्रह करके लौट गए । दोपहर में मैं माँ के साथ बाजार गई पर मन अनमना ही रहा । पहले वाली जिद और इच्छाएं पता नहीं कहाँ गायब हो गई थी । माँ ने कई कई सूट साङियां दिखवाए । कई दुकानें हम घूमे । आखिर में एक दुकान से मैंने एक ठीकठाक सा सूट पसंद कर लिया । ज्यादा पैसे खर्चवाने का मन ही नहीं किया वैसे भी जानती थी कि घर जाकर अभी खाना भी बनाना है और पैकिंग भी करनी है । अब ये घर पराया है , इस अहसास से मुक्त नहीं हो पा रही थी ।

घर आई तो मामाजी पहले से लेने आए हुए थे । हमने चाय पी और बाजार से लाए समोसे खाए । मैं जाने के लिए उठी तो माँ ने कहा – कपङे नहीं बदलना चाहती तो मत बदल पर बाजार की धूल मिट्टी सारे चेहरे पर लगी है । मुंह हाथ धोकर बाल तो सँवार ले फिर जाना ।

शादी के बाद पहली बार हम ननिहाल जा रहे थे तो मामियों और पास पङोस का ध्यान रखना तो बनता था । मैंने गहरे नीले रंग की साङी निकाली । इस साङी पर मैंने मुकैश लगानी शुरु की थी लेकिन इसे पूरा किया था माँ की एक सहेली की बेटी ने और वह भी बिना कोई पैसा लिए । साङी मानो नीला आसमान था जिस पर तारे झिलमिला रहे थे । मैंने इसे  पहन लिया । साथ की चूङियां भी बाहों में फँसा ली । बाल संवार कर माथे पर बिंदिया लगाई । पीछे मुङ कर देखा तो पति महोदय की आँखों में प्रशंसा स्पष्ट दिखाई दे रही थी । इस तारीफ की अवहेलना कर मैंने सैंडल पहने और हम चले । मैंने माँ और पिताजी से भी चलने के लिए कहा पर उन्होंने साथ आने से मना कर दिया । कीर्ति मुझे एक मिनट के लिए भी अकेला नहीं छोङता था । उसे साथ लेकर हम ननिहाल पहुँचे । मामी ने तेल ढाल कर स्वागत किया । खाने में सब मेरी पसंद का था । खाना खाकर मैं अपने बहन भाइयों के साथ खेलती रही । भाई बहनों में छोटी तीन साल की बिट्टू मुझे सजे धजे देख सहज नहीं हो पा रही थी । वह बार बार दरवाजे के पीछे आती , झांक कर देखती और फिर बाहर दौङ जाती । मैंने उसे पकङा तो वह छूटने के लिए मचलने लगी । मैंने गले लगाना चाहा तो वह चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी । आखिर में उसे नीचे रखा तो वह पैर पटक पटक कर विरोध जताने लगी । मामी ने आकर उसे चुप कराया – तुम बैठो रानी , मैं इसे संभालती हूँ । मामी उसे अपने साथ चौके में ही ले गई । वह पीढे पर बैठी हिटकोरे ले रही थी । रह रह कर उसकी कमर हिल जाती । हम रात के दस बजे तक बातें करते रहे । फिर मैं उठ गई – मामा जी , माताजी और पिताजी हमारा इंतजार कर रहे होंगे । हम पहुँचेगे तो वह सोएंगे ।

सुबह छ बजे की गाङी है तो साढे पाँच घर से जाना होगा । चार बजे उठना हैं ।

मामी गुङ ले आई । गुङ खाकर हम चले तो तीनों मामियों ने शगुन दिए । गले लगा कर विदा किया । मामा साथ छोङने आए ।

 

 

बाकी फिर ...