' हम कितना आत्म संवाद करते है ? हम क्या आत्म संवाद करते है? और हम कितना आत्मसंवाद सिर्फ खुद की आत्मा को संतुष्ट करने के लिए करते है?'
आज की पीढ़ी क्या भूल रही वास्तविक आत्मसंवाद करना क्यों?
या अब विचार की नई धारा आ गई जिसे कहते, overthinking,,
आप अपने मन को किस प्रकार दूषित कर रहे, छिछला मनोरंजन देख के? या उन लोगों से घंटों बात करके जिनका लक्ष्य समाज में विध्वंश फैलाना हो?
हर उस बुरे विचार को त्याग दो , जो तुम्हें वास्तविक आत्मसंवाद
से दूर कर रहा हो
किन्तु कौनसे विचार बुरे और अच्छे हैं इसको किस कसौटी पर रख के पता लगाए एक प्रश्न यह भी आता है, जैसे अपराधी के लिए अपराध नैतिक हो जाता, और समाज के लिए वही अपराध कुकर्म, किंतु वह अपराध को करते समय अपराधी के मन में क्या विचार होगा, नैतिक और अनेतिक इसका पता उसे खुद नहीं पता होता, होगा
फिर विचार को कैसे बुरा और अच्छा माने, अब आप सोचिए कि आप जो विचार कर रहे उसका भूत और भविष्य से कितना सरोकार है, क्या वह विचार वर्तमान में पुष्ट होके, भूत और भविष्य की परिस्थिति को समेट सकते हैं? क्या वह विचार किसी को हानि पहुंचा कर तो उदात्त नहीं बन रहे क्या वह विचार, आपको कभी आत्मग्लानि से भरेंगे तो नहीं ?
अगर इन सब कसौटी को देख के आप विचार करते है तो आप एक चिंतन परम्परा को खुद को जोड़ देते है।
अनेक दृष्टि , में आपकी दृष्टि क्या है, संसार में हर व्यक्ति की दृष्टि भिन्न होती है,? क्या आप ऐसा मानते है, और आपको पता चले कि अपवाद भी हो सकता है? तो
हां बकाई मैं दृष्टि भले अलग़ हो किंतु एक साथ बहुत लोगों का दृष्टिकोण एक हो सकते हैं।
हम वास्तविकता से भागते क्यों है? हम अध्यात्म को जानने के लिए पूजा पाठ करने लगते ब्रह्मचर्य धारण कर लेते हम ऐसे ऐसे कृत्य करने लगते जिसे वास्तविक हम खुद कर ही नहीं रहे होते , हम या किसी की नकल करते या खुद को श्रेष्ठ बनाते!
क्या नकल करके श्रेष्ठ बन सकतें है? उतर हां और नहीं दोनों हो सकता है, एक उदाहरण से समझते है,
एक क्लास में अनेक विद्यार्थी है , उनका exam हैं और कक्षा में कोई कैमरा जैसी सुविधा नहीं है एक बच्चा नकल करके अपनी उत्तर पुस्तिका को भव्य बना कर परिणाम के समय सबके लिए खुद को उदाहरण की तरह रखता है, क्या वह बच्चा श्रेष्ठ हुआ??
हम हुआ कुछ पल के लिए अपने मन में किंतु जब वह वास्तविक ज्ञान की तरफ बढ़ेगा तो वह खुद को श्रेष्ठ कहते वक्त आत्मग्लानि से भर जायेगा,
क्या अध्यात्म का पर्याय वास्तविकता नहीं हो सकती छिछली वास्तविकता नहीं, उत्कृष्ट वास्तविकता,,, वास्तविक रहके इश्वर को प्राप्त किया जा सकता है पानी की तरह पारदर्शी होके अध्यात्म को वरण किया जा सकता, अध्यात्म सिर्फ एक ही चीज त्यागने को कहेगा, वह है, बहुत जगह वैराग्य को धारण करना संन्यास लेना, या खुद को माया से मुक्त करना,
किन्तु फिर वह क्या करे जो गृहस्थ जीवन में है वह संन्यास लिए बिना कैसे अध्यात्म में आ सकते? अनेक प्रश्न के अंदर फिर प्रश्न ठीक वैसे ही संन्यास का वास्तविक अर्थ , सब त्यागना होता है। किन्तु त्यागना काफी होता है ? नहीं , काफी होता है निष्काम भाव से ब्रह्म को स्मरण करना बस सही मायने में तभी आप संन्यासी हो पाते है। गृहस्थ जीवन में हम निष्काम भाव का संचार करना होगा तभी हम अध्यात्म को जानने के लिए खुद को समर्पित कर पाएंगे..
और उसके लिए आपको वास्तविक ही बनना होगा , खुद की नजरों में खुद की दृष्टि में।।
संसार मै दुख अनेक है किन्तु सबसे बड़ा दुख किसे कहें? प्रेमिका प्रेमी का दुख या विधवा विधुर का दुख या जिस मां पिता ने अपनी सन्तान खोई , या माया का दुख या अधिक की लालसा रखने पर वह न मिलना उसका दुख? कौनसा दुख बड़ा है, जिसकी जितनी आयु उसके वैसे दुख, क्या दुख परिस्थिति से उत्पन्न हुए हमें ये देखना होगा वास्तविक परिस्थिति , जब हम एक निश्चित बिंदु पर पहुंच जायेगे, तब दुख जैसा कुछ बचता ही नहीं कुछ भी?
दुख की परिभाषा शायद यही होती है जैसा हमें चाहिए वह मिला नहीं या जो हमें प्रिय है वो है नहीं, तो दुख मैं भी हम सिर्फ अपना स्वार्थ देखते है फिर कैसे किसी को कारण मानना चाहिए, वास्तविक दुःख, होता है या नहीं कितना संशय है, अब प्रश्न आता है वास्तविक दुःख क्या है, क्या आप कहना चाहते जो अपनों के खोने से दुखी है वह स्वार्थी है?
" जो चीज निश्चित नहीं हैं, उसकी व्याख्या करना मूर्खता है"
दुख, सुख और प्रेम ये निश्चित नहीं है,, अब प्रश्न आता है कि बाकी नहीं पता पर मेरा प्रेम निश्चित और कभी कम न होने वाला है, हां हो सकता है,, किंतु यह मानवीय स्वाभाव से परे लोगों के लिए,, तभी प्रेम दुख सुख तीनों एक साथ आते हैं।
अगर ये तीनों के साथ आप भावानात्मक होते है तो आप वास्तविक दुःख को जानने के लिए सक्षम हो चुके हो।
परिपक्व होना समझदार होने से बेहतर है, और हम भूल जाते की गंभीर होना हमेशा उत्तम होता ही नहीं, कभी भी, बचपना और गंभीरता एक साथ कभी नहीं पनप सकती, बचपन मासूम होता है और मासूम व्यक्ति गंभीर कभी नहीं,,
प्रश्न आता है तो हमें क्या होना चाहिए, परिपक्व या समझदार या बचपना ....
अब समझने की बात यह है कि आप 40 की आयु मैं किस तरह के बचपने में रहना चाहते,, बचपने का वास्तविक अर्थ
रंगभेद जातिभेद लिंगभेद , और ईष्र्या से परे रखना अगर आप अपने अंदर यह भाव जिंदा रखते है तो मैं मानती हूं आप बचपने को वास्तविक और पूरे हक से बुढ़ापे तक जीवित रख सकते है।
अगर आप बचपने का अर्थ सिर्फ इतना लेते है है कि में गलती करूं बस तो आप बचपने को समझे ही, एक बच्चा गलती करने से सबसे ज्यादा बचता है।
तो अब प्रश्न होगा तो हमें वास्तविक तौर पर परिपक्व ही रहना है?
किन्तु मैने ये तो नहीं कहा , अर्थ कि गहराई सिर्फ इतनी है कि हमें संतुलित रहना है विवेकशील रहना है, जब आप संतुलित होंगे तो बचपना मरेगा नहीं और जब आप विवेकशील होंगे तो परिपक्वता के दायरे में हमेशा रहेंगे..।
क्या महत्वपूर्ण है संबंध? या हमारे भविष्य के सुख?
अब एक प्रश्न आता है कि कैसा सुख? दैहिक सुख? आत्मिक सुख? लक्जरी जीवन जीने का सुख??
क्या संबंध को स्थगित कर देना आवश्यक है?
पर जब आप वास्तविक सम्बन्ध ओर वास्तविक सुख को समझ जायेंगे तो कोई द्वंद बचेगा ही नहीं, इन सबमें महत्वपूर्ण है विश्वाश खुद पर ,,
तुम किस कोटि के व्यक्ति के साथ संबंध में हो? जो तुम्हे सिर्फ दैहिक सुख देता है? या जो घिसीपिटी सुंदरता के लिए है? किस लिए है?.
क्या आप जिससे संबंध मैं है वहां विचार विमर्श होते है? क्या वहां
देहिकता और कॉस्मेटिक प्रदर्शन से ऊपर उठा जाता है,
क्या वहां एक दूसरे के विचारों को आत्मसात करने से पहले तर्क किए जाते? आपके बोध को महत्व दिया जाता? आपके विचारों को संदर्भित किया जाता??
अगर आप सिर्फ सुख की कामना के साथ किसी रिश्ते में है तो संबंध विच्छेद होने की बहुत चांस हो सकते है, किंतु आप हर दिन एक दूसरे से कुछ सीखते हो तो आप वास्तव में सही व्यक्ति के साथ हो,, अपवाद होना शायद ही मुश्किल है, क्योंकि
अगर विचार विमर्श में एकता हो गई फिर सुख आप लोग खुद निर्माण कर सकते है,, । अब प्रश्न आयेगा कि ऐसे तो सम्बन्ध में प्रेम होगा ही नहीं,, सब तार्किक होगा, रिश्ता खत्म होगा वह एक दूसरे के भावानात्मक पीड़ा को नहीं समझेंगे,, ।।
तब आप समझे ही नहीं , प्रेम अगर आत्मा से हो और संबंध भी उसके साथ तो बंधन भी सुखी लगता है, हो सकता है पर जब व्यक्ति के अंदर किसी के भावानात्मक पक्ष को समझने की शक्ति नहीं तो वह मनुष्यता के गुणों से वंचित है।
पर क्या सिर्फ व्यक्ति भावना को नहीं समझ रहा इसका मतलब ये नहीं वह निरर्थक है वह तुम्हें अपने विवेक से देखेगा अगर वह तुम्हें
प्रेम करता होगा तो ,, ।।
तुम्हारे तर्क के बीच में भी तुम्हारे दुख को खोज लेगा, तो संबंध तो महत्व रखते है सुख सुविधा से पहले, क्योंकि सही व्यक्ति अगर है तो आप कभी भी निम्न स्तर पर नहीं आ सकते...।यही है वास्तविक सम्बन्ध जो तुम्हे उड़ने दे विस्तार दे...।
विचार शील बने तर्क शील बने किन्तु भूले न हमारी वजह से कोई आहत न हो,
समाज को एक शिखर तक पहुंचाने के लिए हर भेद को मिटाना पड़े तो मिटा दो रंग भेद हो या जातिभेद, यही है मानवता ।