आत्मा और शरीर में ज्यादा फर्क नही है पर शरीर रोता तब दुःख होता और आत्मा रोती तो तकलीफ
अक्सर मनुष्य संवेदनशील प्राणी है ये कथन बहुत बार सुना पढ़ा, किंतु बहुत लोगों में संवेदनाय देखी नहीं, तो पुरी तरह सार्थक हुआ ये वाक्य अभी भी अतियोस्योक्ति पूर्ण ही नजर आता है,,
"साहित्य व सिनेमा समाज का दर्पण है"" ऐसा तो हम सभी ही मानते है !
अकेलेपन में जितना आनंद उतनी ही बैचनी, मूवी देखना कभी आदत नहीं बनी शायद भविष्य में बन जाय खैर.!!
लम्बे समय के बाद एक मूवी मेरे सामने आई देखने से पहले सोचा की जरूर देखूंगी पर हां आज उसका नंबर आ ही गया था,,
बाकई में शायद मैं खुद को ज्यादा संवेदनशील कहूंगी क्यूंकि मुझे थोड़ी इमोशनल मूवी देखते ही रोना आ जाता है,, पर ये फिल्म उम्म्म इमोशनल के साथ एक सच्चाई के साथ मेरे सामने चल रही न जाने कितने बार ह्रदय मसोस के रह गया किसी की लाचारी तो किसी की बेबसी को देख के।
हां मैं उस मूवी रिव्यू शायद नहीं पर अपनी नजर से उसको देखना चाह रही, उस बच्चे की मासूमियत उसकी जिद्द, पढ़ाई के लिए उसका लालचायित आंखे, स्कूल जाने के लिए उतावलापन, और न जाने कितने भाव उसके चेहरे पर थे, एक क्रांति का भाव जैसे वो चाहे तो पूरी दुनियां पलट दे, सबके लिए एक भाव जैसे एक वृक्ष बनके सबको छाया दे, उसका नाम भी तो " गुठली" था ।
जैसे एक गुठली को जरा सा पानी और मिट्टी कुछ खाद मिलने पर वो पौधा और फिर वृक्ष में रूपांतरित हो जाती है ठीक वैसे ही तो , गुठली को चाहिए था,, तो फिल्म का नाम है "गुठली"
जो एक भंगी समाज के जीवन पर आधारित है, की किस प्रकार उनको उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता, उनको अछूत कहकर बार बार उनका तिरस्कार किया जाता, पर उस समाज के बच्चे जिनको स्कूल तक में दाखिला नहीं मिलता, उसी भंगी समाज का हिस्सा था "गुठली" जो 7या 8 वर्ष का होगा, और उसका पिता"मंगरू" जो नाली व गटर साफ या कहे सफाई कर्मचारी था, गुठली का दोस्त उसी के उम्र का था उसका नाम था,
"लड्डू" उसके पिता भी मंगरू के साथ काम पर जाता था।
अजीब बात है न हम खुद को आज आज़ाद कहते हैं, और कुछ लोगो को तो अपने हक अधिकार तक नहीं मिल रहे वो तो आज़ादी के बाद भी आज़ादी का सुख भोग नही पा रहे, आधुनिक समय में जो आजाद है वो आजादी के लिए नही धर्म के लिए लड़ रहे, पर एक वर्ग ऐसा भी है जो ठीक सांस भी नही ले रहा खैर
फिल्म की शुरुआत से ही फिल्म बांध लेती है और जिज्ञासा सी रहती है कि आगे क्या होगा। गुठली को और लड्डू को मिठाई की दुकान पर देखा, लड्डू की आंखों में जैसे लड्डू खाने के लिए एक भाव न जाने वो कब से तरस रहा हो बकाई में आज भी गरीब घर का बच्चा तरसता ही है , दुकान पर मिठाई का ऑर्डर देने स्कूल का प्रिंसिपल आता है जिसको गुठली हरि नाम से ही बुलाता,
जब दुकान दार लड्डू से कहता ये भंगी चल भाग, तो बदले में गुठली भी कहता तू भी भंगी और वह दोनो भाग जाते उतने में ही प्रिंसिपल जी कहते ऐसे मत कहा करो संविधान में ये बोलना कानून के खिलाफ है, और वह इस भाव से कहता जैसे कानून से उसे क्या डर,,
गुठली के समाज के लिए एक स्कूल था पर वो काफ़ी सालो से बंद था खंडहर जैसा हो गया, दूसरा था जो गांव के सात कोश नदी पार था, पर एक स्कूल था , पर उसके हरिजन समाज या कहे भंगी समाज के बच्चो को दाखिला नहीं मिलता था, उसी स्कूल का प्रिंसिपल था, हरि वह ब्राह्मण था (वाजपेई) ।
गुठली उसी स्कूल में जाता क्लास के बाहर खड़ा होके सुनता, फिर वह खंडहर वाले स्कूल में वही चीज़ दोहराता।
वायुमंडल, मछली जल की रानी है, बन्दे मातरम।
ये सब, एक दिन क्लास के बाहर खड़ा था सब सुन रहा, टीचर पूछती है की बताओ तारे क्यों चमकते है तो क्लास के अंदर से कोई नही बता पता,, पर गुठली बाहर से हाथ खड़ा किए उचक रहा जैसे, कह रहा की में सब जानता हुं मुझे अवसर तो दो, अंततत टीचर की नजर उस पर पढ़ती है, और वह कहती है अच्छा बताओ तुम, तुम गुठली जैसे फटाक से जवाब देता है " वायुमंडल"
उस समय ऐसा लग रहा हो मानो की ये क्या है मन अंदर से सिसक रहा हो की इसके साथ ऐसा क्यूं ?और एक सवाल भी की उन लोगों को इसलिए नीच समझा जाता है की वो सफाई करते है, पर वो तो अपना काम करते हैं , पर उनको नीच समझने बालों की सोच कितनी नीच है ये अंदाजा तो लगा ही सकते हैं,
आज भी हम उनको घरो के अंदर तक नहीं आने देते अगर वो पानी मांगे तो उनको अलग बर्तन और अलग ही दिया जाता जेसे की वो कोई अलग हो,, मुझे ये मूवी देखने में थोडा ही अचंबा हुआ क्यूंकि इसमें दिखाए गए दृश्य कोई नए नहीं थे, वास्तविक जीवन में भी हम देखते, अच्छा मैं जहां रहती हूं , वहां इन लोगो के लिए एक अलग मौहल्ला जैसा है वहां सिर्फ इनके ही घर है, शायद ही उधर कोई जाता होगा, जहां रहते हैं वहां बहुत साफ़ जगह नहीं है,
ये लोग आते है घर त्यौहार पर कभी इनाम लेने तो कभी मिठाई लेने, मेरे घर का माहौल मुझे ठीक लगता है पापा कभी नहीं सिखाए की ये लोग बुरे हैं या अलग है, जब वो आते हैं तो उनको खाना दिया जाता है, उनसे बत्मीजी बिल्कुल नहीं खैर,,
फिल्म में जब मंगरू और उसका दोस्त किसी ऊंची जाति के यहां नाली साफ़ करने का काम कर रहे तो उसके बाद उस घर को मालकिन उनको 50 रुपए देती है, और कहती हैं कि तुम इसमें से 20वापस कर दो, रुपए देते वक्त वह श्रीमती जमीन में रुपए रख देती है हाथ में देती तो शायद उसका धर्म भ्रष्ट हो जाता किन्तु उतने ही क्षण मैं देखी की उसी मंगरू से उसने रुपए वापस लिए तब वो अपवित्र नही हुई न जाने क्यूं? अजीब द्वंद था मंगरू के दिमाग में किन्तु वह एक बात कह के उसके द्वंद को जैसे जमीन पर पटक देती है, की
" लक्ष्मी का कमल अगर कीचड़ में खिले तो भी वह कमल ही रहता है"
कितना अलग है इनलोग की जिंदगी किसी चीज़ को छू लिया तो दूसरे आदमी अपवित्र मंगरू ने चाय की दुकान से एक कप ही तो छुआ कितना पीटा उसको,,
फिल्म देखते वक्त एक तरफ मुझे मंगरू का उन लोगो को झेलना और एक तरफ़ उसका बेटा गुठली जैसे क्रांति की मिसाल, एक जिद लिए की वो जाए गा तो हरि के ही स्कूल में फिर उसको कुछ भी करना पढ़े, उस स्कूल में संविधान के लिए काफ़ी कुछ कहा जाता, जैसे की उसने हमे समानता, बोलने की अभिव्यक्ति, आदि आदि।
पर हां, ये बाते उस में जितनी ही तहज़ीब से बोली जाती उतनी ही तहजीब से इनको दरकिनारकिया जाता।
मैं आगे की कहानी लिखूं या छोड़ दूं, मेरे मन में एक असमंजस है, और मैं छोड़ देती हूं, मेरा उदेश्य है ही नहीं लिख के प्रसिद्धि पाना, मेरा उदेश्य है पढ़ने की लालसा रहना,,,,
वही लालसा जो गुठली में थी,, आप लोग जानते है स्कूल में जब प्रतियोगिता हो रही गुठली ,, जब जबरजस्ती जाके स्टेज पर बोलता है, हमें काहे न पढ़न देत? हमें सब आत है चार कविता, 50 तक गिनती,
हमें पढ़न दो न हरि......
उस वक्त आप समझेंगे कि एक निम्न जाति के बच्चे को , आरक्षण दिया जाता है , और में आपको लिख के देती हूं अगर आप उसे सम्मान और हक देंगे तो वह आरक्षण छोड़ देगा ......
जब गुठली और हरि का एक जगह संवाद होता तो गुठली कहता है
हमाए पास तो स्कूल का कपड़ा भी हरि काहे हमें न आन देत काहिके हम हरिजन है? इस संवाद में हरि भी भावुक हो जाता एक बच्चे की करुण रिदम, से पत्थर ह्रदय भी पिघल जाता, है।
अंत में मैं यही कहूंगी कि हमारी दृष्टि कैसी है? हर व्यक्ति के लिए क्या कहीं हम भी जाने अनजाने में या जानबूझ के किसी का दिल तो नहीं दुखाते जाति के नाम पर या उसके स्टैंडर्ड के नाम पर क्या? हम तो ये नहीं कर रहे... अगर हमारी अंतरात्मा उत्तर दे हां तो आप मनुष्य होने के लायक है ये खुद सोचना....... और खुद को बदल देना हर गलत चीज को गलत नियम को.. बगैर ये सोचे को लोग क्या सोचेंगे या क्या कहेंगे..
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