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स्नेही मित्रों
नमस्कार
आशा है आप सब प्रसन्न व आनंदित हैं |
नव वर्ष में कुछ बदल जाता है क्या?नहीं न ?
वैसे ही दिन-रात, सुबह-शाम, अँधेरा
एक बात जरूर है कि हम सब नए वर्ष में नई आशाएं जरूर करते हैं, अब उनमें से किसकी कितनी पूरी होती हैं, नई योजनाओं के साथ कितना चल पाते हैं, कितने सपने पूरे होते हैं और कितने बीच में ही रह जाते हैं, इसका कुछ हिसाब किताब नहीं होता |
उपनिषद में एक बड़ी प्यारी कथा है जिसे मैंने ओशो के प्रवचन में सुना , उसे आपके साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई इसलिए उस कहानी को आप मित्रों से साझा कर रही हूँ ।
याज्ञवल्क्य ऋषि को अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना गया है |इनके दो पत्नियाँ थीं और इनके पास बहुतायत में धन था |अपने जीवन के अंतिम दिन चरण में उन्हें महसूस हुआ कि अब उन्हें गृहस्थी छोड़कर छोड़ कर किन्हीं पर्वतों की गुफाओं में या बन में चले जाना चाहिए | वे अपना धन अपनी दोनों पत्नियों में एक जैसा बांटकर वहाँ से चले जाना चाहते थे उसकी | यज्ञवल्कय उस समय के प्रकांड पंडित थे । ज्ञान में उनका किसी से कोई मुकाबला नहीं था। तर्क में भी उनकी प्रतिष्ठा थी।उसकी ऐसी प्रतिष्ठा थी कि उनके समक्ष कोई भी नहीं टिक सकता था | न ही ज्ञान में, तर्क में और धन में भी ! कहानी है कि राजा जनक ने एक बार एक बहुत बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौओं के सींग सोने से मढ़वा कर और उनके ऊपर बहुमूल्य वस्त्र डाल कर महल के द्वार पर खड़ी करवा दिया | उन्होंने मुनादी करवा दी कि जो पंडित विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा यानि उसे यह पुरस्कार प्राप्त होगा ।
खूब सारे पंडित इकट्ठे हुए। दोपहर हो गई। बड़ा विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो पा रहा था कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा ? दोपहर में याज्ञवल्क्य अपने शिष्यों के साथ पहुँचे । दरवाजे पर उन्होंने देखा– कि गौएं सुबह से खड़ी-खड़ी थक गई हैं, धूप में उनका पसीना बह रहा है। उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि वे गायों को ले जाएं, वे तर्क, विवाद को समाप्त करके आता हूँ । शिष्य अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए गायों को हाँककर ले गए |
राज्य जनक का भी यह कहने का साहस नहीं हुआ कि यह गलत है | पहले विवाद जीतने के बाद ही पुरुस्कार ले जाना चाहिए ! किसी पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है–पुरस्कार पहले ही कैसे?!
याज्ञवल्क्य ने कहा कि उन्हें भरोसा है कि जीत तो उन्हीं की होगी । तुम फिक्र न करो। विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर भी कुछ ध्यान करना जरूरी है।
शिष्यों से कहा, तुम फिक्र ही मत करो, बाकी मैं निपटा लूंगा।
शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता। पुरस्कार पहले ले लिया। बड़े बड़े सम्राट उन के शिष्य थे | अब उनके घर-परिवार छोड़ने का समय आ गया था | उन्होंन दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि सारा धन तुम दोनों में बाँट देता हूँ ,यह इतन है कि सात पीढ़ियों तक भी खत्म नहीं होगा । इसलिए वे निश्चिंत रहें , उन्हें कोई अड़चन नहीं आएगी और बन में जाने के लिए निकलने लगे । अब अपने अंतिम दिनों में वह परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाने के लिए उत्सुक थे । अब वे किसी और प्रपंच में पड़ना नहीं चाहते थे |अब वह एक क्षण भी मैं किसी और बात में नहीं लगाना चाहते थे ।
उनकी एक पत्नी तो इतने धन मिलने की बात जानकार बड़ी बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था याज्ञ लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा कि इसके पहले कि आप जाएं, एक प्रश्न का उत्तर दे दें। इस धन से आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला? अगर मिल गया तो फिर कहाँ और क्यों जाना है? अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों पकड़ाते हो? फिर मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ ।
याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़े थे । उन्हें यह समझ में नहीं आ रहाथा अब इस स्त्री को क्या कहे! कहे कि नहीं मिला| बाँटने की इतनी अकड़ क्या और क्यों?! वह बड़े गर्व से बाँट रहे थे देखो! इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन, इतना विस्तार! ब उसमें थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा उस क्षण में कि देखो कितना दे जा रहा हूँ | किस पति ने कभी अपनी पत्नियों को इतना दिया है! लेकिन दूसरी पत्नी ने उनके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया। उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही क्यों नहीं? मैं चलती हूँ तुम्हारे साथ।
कितना भी पैसा हो जब तक एक दूसरे की परवाह न हो,प्रेम न हो केवल धन से मन को नहीं जीता जा सकता |प्रेम का स्वरूप पैसे में नहीं हमारे साथ होने में है और उसका कोई आकार नहीं है जो किसी वृत्त में उसे बाँधा जा सके |
हम तो साधारण मनुष्य हैं ,इतने बड़े ऋषि मुनि भी अहंकार से अछूते नहीं रह पाए |
केवल प्रेम ही वह संवेदना है जिसे सबमें बाँटकर हम वास्तव में भीतर से अमीर होते जाते हैं |जहां दूसरी कोई भी वस्तु वृत्त में सीमित हो जाती है वहाँ एक प्रेम इतना विस्तृत है जिसे कहीं भी ,किसी वृत्त में नहीं बाँधा जा सकता |इसके समक्ष अन्य सब वस्तुएं तुचह हो जाती हैं |
मित्रों! और किन्ही योजनाओं के साथ प्रेम का विस्तार करने की योजना बनाएं ,यह अवश्य ही सफ़ल होगी क्योंकि प्रेम को कभी तोला नहीं जा सकता ,गिना नहीं जा सकता ,कभी किसी वृत्त में नहीं रखा जा सकता |
सभी को स्नेहिल शुभ,शुभ्र मंगलकामनाएं !!
आप सबकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती