Manzile - 11 in Hindi Mythological Stories by Neeraj Sharma books and stories PDF | मंजिले - भाग 11

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मंजिले - भाग 11

   " मैं कुछ कहना चाहता हुँ " एक पुस्तक मंजिले से संदेश तो दे ही सकता हुँ।

मतलब जितनी देर हमारा पीछा करता रहेगा, हम कुछ  भी करने मे असफल होते रहेंगे। ये सच  है। पेट की भूख बहुत कुछ करा देती है, झूठ बोलो, " पर किसी को दबाओ नहीं, किसी को ललचार मत बनाओ, किसी को शार्ट कट समझाते हुए उसके साथ कुए मे मत कूद जाओ। मतलब एक ऐसा बिंदु है, जो आदमी को शून्य से जयादा कुछ भी नहीं देता। मतलब रखोगे, किसी के साथ भी, तो संसारिक बधन मे ही रहोगे। रखो मतलब पर, इतना गहरा नहीं, कि मोह जाग जाए। मोह कभी मरता भी है, मरता है, पर किस  तरा से, कोई भगवत किर्पा हो तभी, इसे मार देना, कोई खाला जी का वाड़ा नहीं। पेट की भूख जरुरी है, जीने के लिए। तुम कब तक जिओगे, ज़ब तक अन जल है,  इस लिए इंसान को हर हाल मे जीना है, बस। अकाल चलाना जब तक लिखा है तब तक नहीं होगा।

कल्याण एक जिंदगी का दुःखद कलाकार था। मंच पे काम करता था.. जो हौसला आफसाए हो जाए वो लेता था। उसके इकागी लेखन किर्या बहुत प्रभाव शाली थी। एक्टिंग मे डूब जाता था। जो मर्जी एक्ट करा लो। जैसे कल्याण बना ही इस लिए था।

बम्बे मे रहना बहुत महंगा था। किरायेका मकान था। पढ़ा लिखा था। कोई काम नहीं मिला, बस नाटक कपनी मे आ गया... नास्तिक था, उसके कर्म जो भी थे उसमे परमात्मा का कोई नाम तक नहीं था। कयो की वो ये इस शहर मे जान गया था, कोई किसी पे बिना मतलब के तरस नहीं करता। बम्बे मे उसके कला छेत्र के नाटक चल निकले थे। हर कोई उसे जान गया था। एक उसका नाटक था, "गरीब "  बहुत चला था। आज भी उसकी ही बात हो रही थी। लोग कैसे है, ऐसा उसने उसमे बता रखा था। मतलब के बिना कोई पानी भी नहीं पूछता... कितना दुखी इंसान आपनो मे जीता है। कल्याण अकेला था... उसकी एक्टिंग का चर्चा बम्बे  के राजश्री वालो के पास भी हुआ था।

सवेरे के कार रुकी। उसको दस वर्ष के लिए पक्का साइन किया गया। सब खर्चा राजश्री प्रडक्ट की ओर से था। राज कपूर को देख कर वो बहुत खुश था। जैसे उसकी भूख शांत हो गयी हो। उसका फैन था। दलीप साहब अक्सर उसको मिलते रहते। उसे जवान के नाम पे बुलाते थे। वो बहुत खुश था। स्क्रीन टेस्ट उसका कभी हुआ ही नहीं.... नाम का एक्टर था। सब कुछ था, पर कुछ भी नहीं था। कैसा वक़्त था। कैसे लोग थे। कैसी कहानी थी। वो रुक गया, सब कुछ ही रुक गया।

                        कभी कभी मशहूरी भी बंदे को खत्म कर देती है। वो गांव आया। मुड़ के कभी बम्बे नहीं गया। वहा उसका अब का पानी का अन जल खत्म था। बीमार  रहने लगा था। कुछ शहर का पच्चा नहीं होगा... गांव मे चाचा था, बस और चाची भी नहीं थी, चाचे के बच्चे बाहर थे। एकेला चचा ही था। कल्याण के माँ बाप गुज़र चुके थे। उसके मामे का लड़का उसे बम्बे ले गया था। सच कहानी लेकिन जिंदगी कभी बे अर्थ ही गुज़र जाती है। हमसे कभी वो बहुत कुछ ले लेती है, तो कभी उससे किराया( जिंदगी ) से वसूल नहीं होता। कया बस, हवाओ को बस कल्याण देख रहा था, जिंदगी का शुक्र किस से करे... कभी कोई इतना भाग्यशाली भी नहीं होता कोई, कि मालिक से ( खुदा, परमात्मा )  शुक्र करे।

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                चलदा                                नीरज शर्मा 

                                                   शहकोट, जालंधर।