Spandan - 8 in Hindi Spiritual Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | स्पंदन - 8

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स्पंदन - 8

 

 

                                                                                    २३: चाय का प्याला

 

            मेइजी युग के नान-इन झेनगुरू के पास विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर झेनयोगा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने आ गए।

            नान-इन मास्टरजी ने उनके लिए चाय बनायी ओैर प्रोफेसर के कप में चाय डालने लगे। चाय का कप पुरा भर गया, चाय बाहर छलकने लगी। प्रोफेसर साहब को यह कृत्य बडा अजीब लगा। पहले तो बडे अचरज से वह कृत्य देखते रहे ओैर फिर बोले “ आप यह क्या कर रहे हो? कप तो पुरा भर गया है फिर भी आप चाय डालते ही जा रहे हो?”

             तब नान-इन ने कहा “ इस कप की तरह आप भी अपने विचारों से ओैर मत-मतांतरों से पुरे भरे हुए हो। तो मैं आपको झेनयोगा के बारे में ओैर कैसे बताऊँ? आप जब तक बाकी विचारों से निवृत्त नही हो जाते तब तक सब व्यर्थ है।”

              प्रोफेसर चकरा गए ओैर गुरु को बोले “ आप का कहना सही है, लेकिन पुरे जीवनभर जो शिक्षा मैंने प्राप्त की, आगे की पिढी तैयार करने की जिम्मेवारी ली, व्यवहारीकता, भौतिकता यह तो दुनिया का अविभाज्य अंग है।”

              “ आपने सही कहा, लेकिन मनुष्य सातत्यता से विचार में डुबा रहता है। कभी भुतकालीन खयालों में उलझा रहता है तो कभी भविष्यकाल के मनरंजन पर झुमता रहता है। वर्तमानकाल में जब निर्णय लेने का समय आता है तब उस निर्णय पर हमेशा भुत-भविष्य का पगडा उस में समाया रहता है। जिस व्यक्ती या घटना को हम देखते है उस पर पिछले बातों का भी प्रभाव रहता है। तो यह निर्णय सही नही हुआ। तुम जब विद्यार्थीयों को पढाते हो तब सिर्फ उन्हे सिद्धांत सिखाना है, ज्ञान उपलब्ध करा देना है इसी उद्देश से पढाओ, तुम्हारा मन पुरी तरह से सजग रखो। तब घर के, बाहर के विचार मन में ना लाते हुए सामने विद्यार्थी बैठे है, यही सजगता रहनी चाहिये।” नान-इन उन्हे समझा रहे थे।

          प्रोफेसर अब उलझ गए “ यह कैसे हो सकता है? मन में तो विचार आएंगे ही।”

           “ इसीलिए तो झेनयोगा का अभ्यास करना चाहिये।” मास्टरजी समझाने लगे।

          अब तो प्रोफेसरजी के मन में उत्सुकता जागृत होने लगी। अभी तक धार्मिकता के माहोल में पले-बढे प्रोफेसर ऐसी बातों से अनजान थे। उन के मन में अचानक से अलग विचारों का आकर्षण बढने लगा।

          “ मास्टरजी, कृपया कर के क्या आप झेनयोगा के बारे में कुछ बता सकते है? इसका अभ्यास किस तरह से किया जाता है?”

          “ हाँ जरूर बताऊँगा। व्यावहारिक जीवन के बारे में एक कहावत है ‘ खाली दिमाग शैतान का घर ।’ लेकिन जिस व्यक्ती की ‘स्व’ को जानने की आंतरिक उर्मी बढने लगी है, उसकी जीवन-मुक्ती की तरफ यात्रा शुरू हो गई है उसके लिए खाली बैठना यह एक वरदान साबित हो सकता है। जिस प्रकार से चाय से कप भर जाने पर वह नीचे गिरने लगती है, उसी प्रकार विचार, अनेक ज्ञान को इकठ्ठा करना वह केवल वैचारिक अशांतता ओैर कोलाहल को निर्माण करने जैसा है। बार-बार कोडिंग-डिकोडिंग करते-करते मस्तिष्क क्षीण होने लगता है। ऐसा अशांत मस्तिष्क अराजकता निर्माण करता है। नए ओैर पुराने विचारों का मेल बिठाते वह थक जाता है। व्यक्ती को अगर जीवन-मृत्यु शृँखला से मुक्त होना है तो सर्वप्रथम अपने विचारों पर काम करना पडेगा। एक विचार एक जनम इस तरह से वह जन्म लेता ही रहता है। इससे पार होने के लिए ध्यान करना बहुत आवश्यक है। मेरे मन में अब कोई खयाल आने ही नही चाहिये यह बात भी गलत है। केवल साक्षीभाव से, तटस्थता से विचारों का परीक्षण करते रहने से मुक्ती मार्ग प्रशस्त हो जाता है। विचारों में शांती प्रगट होने लगती है। निरर्थक विचारों का बहाव कम होने के कारण मस्तिष्क, शिथिलता महसुस करता है। यह केवल एक दिन में नही होता, सातत्यपुर्ण अभ्यास यही सफलता की कुँजी है। खाली हुए मस्तिष्क में फिर सच्चे ज्ञान की उपलब्धी हो जाती है। इसीलिए चाय का कप खाली करो ओैर सच्चा ज्ञानमार्ग अपनाओ।

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                                                                                       २४: मेहनत का फल

 

             मार्शल आर्ट का एक विद्यार्थी अपने गुरु के पास गया ओैर बडे विनम्रतापूर्वक कहने लगा “ मुझे आपके यहाँ मार्शल आर्ट सिखना पसंद है। इसमें पुर्णत: पारंगत होने में मुझे कितना वक्त लग सकता है?”

            गुरूं सहजता से बोले “ दस वर्ष लग जाएँगे।”

            तब बडे उतावलेपन से चेले ने कहा “ लेकिन मैं इतने साल राह नही देख सकता। उसके पहले मुझे प्राविण्य हासिल करना है। रोज मैं बहुत परिश्रम करूँगा। दस-दस घंटे सराव में लगा दुँगा। तब मुझे सिखने में कितना समय लगेगा?”

            गुरूं इस बात पर जरा विचार करने के बाद फिर बोले “ दस साल।”

           मतितार्थ, हर बात का समय आने पर ही काम पुरा हो जाता है। एखाद पेड जल्दी बढ जाए इसलिए उसे जादा खाद ओैर पानी देते रहे तो भी उस पेड को पूरी तरह बढने ओैर फल आने में ठराविक काल तो लगेगा ही, उल्टा जादा खाद, पानी डालने से पेड के सडने का खतरा मँडराता है। वैसे ही कोई भी विद्या में प्रविण होने के लिए समय तो लगेगा ही। तुम्हारा शरीर, मन भी विद्या साध्य करने के लिए तैयार होना, सक्षम होना जरूरी है। जितना हेतू सहजसाध्य उतना तुम्हे आनंद प्राप्त होगा। अन्यथा इर्षा, द्वेष, जैसे विकारों में बँध जाने का खतरा मँडराता रहेगा ओैर प्रगती मार्ग रुक जाएगा। इसीलिए केवल हेतु साध्य करना है, सिखना है यही बात मन में ठान लेनी चाहिए। एक ध्येय, दिशा का अवलंबन करते हुए परिश्रम करते रहने से, पूरी धैर्यता से कार्य करते-करते उत्तम फलप्राप्ती अवश्य मिलेगी। उतावलापन कभी भी हानिकारक है। मानसिक धैर्य का होना अनिवार्य है अन्यथा आज यहाँ तो कल वहाँ ऐसे मन, तुम्हे भटकाता रहेगा। ऐसे एक विद्या में पारंगत होने के लिए बरसों का समय तो लग ही जाएगा। सब्र का फल मिठा होता है।

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                                                                                       २५: अंतिम घोषणा

 

        तंजेन नाम के एक गुरु ने अपने जीवन के आखरी पडाव पर साठ पोस्टकार्ड लिखे ओैर अपने एक शिष्य को वह पोस्टबॉक्स में डालने के लिए कहा। शिष्य के जाने के बाद गुरु ने तुरंत देहत्याग किया। पोस्टकार्ड में उन्होने लिखा था, ‘ मैं इस संसार, जगत से विदा ले रहा हूँ। यह मेरी अंतिम घोषणा है। तंजेन २७ जुलै १८९२।

         मतितार्थ, इस कथा से दो बातों पर प्रकाश डाला जा सकता है। पहला अपने कर्म के अनुसार या इच्छानुरुप कहाँ ओैर कैसे जनम लेना है यह हम ही तय करते होंगे। आँखिर जनम-मरण यह एक प्रक्रिया है। जैसे हमने तय किया की बॉम्बे जाना है तो बस, जहाज, फ्लाइट, पैदल, रेल्वे, सायकल, कार ऐसे अनेक प्रकार से सफर कर सकते है। इन में से एक तय करने के बाद सफर शुरू किया तो सफर में जो भी सहप्रवासी मिल जाएंगे उनके साथ अपना सफर जारी रहेगा। इस के बीच किसी का स्टॉप पहले आ गया तो वह उतर जाएगा। क्युँ की उस व्यक्ती ने वही तक सफर चुन लिया था। अपना स्टॉप नजदिक आने पर परिचित दृश्यों की शृंखला शुरू हो जाती है, ओैर हमको पता चलता है की अपना रुकने का, उतरने का स्थान अब आ गया है। फिर हम साथवाले लोगों से विदा लेने लगते है ओैर अपने स्थान पर उतर जाते है। जब बॉम्बे जाने का प्लान बन जाता है तब उसी हिसाब से सफर में क्या लेना है? पैसे, कपडे, खाने का सामान यह सब लेकर चलते है। वैसे ही भगवान ने भी इस जनम के सफर के लिए पहले ही सब तजविज की होती है। जब तुम इस जनम में साधना पथपर आगे बढ जाते हो तब यह सब बाते समझ में आने लगती है। अपना मृत्युसमय भी व्यक्ती जान जाती है। ऐसे ही तंजेन गुरु समझ गए होंगे की इस जगत के सफर का, जनम का, विदाई लेने का समय आ चुका है अपने जीवनसफर का उतरने का  स्थान आ गया इसीलिए उन्होने परिचितों से विदाई ले ली।

          दुसरा पहलु यह भी हो सकता है, वह इतने ज्ञानी, पहुँचे हुए महात्मा थे, की अपने मृत्यु का समयकाल नजदिक आ गया है यह जानने के बाद उनके जीवन सफर में जो भी सहभागी थे उन के सहयोग के लिए कृतज्ञता पुर्वक धन्यवाद देते हुए अपने मृत्यु के बारे में उन्होने बता दिया।

           तिसरा पहलू यह हो सकता है की जन्म लेते वक्त ना मै कुछ ले आया, लेकिन मेरी पहले से ही सब तजविज भगवान ने कर के रखी थी। स्वतंत्र होने तक संभालना, योग्य समय पर अन्न, कपडा, पैसा, इन सब बातों का ध्यान पहले से ही रखा हुआ था। जैसे एटीएम कार्ड से आज के जमाने में व्यक्ती कही भी अपनी जरूरत पूरी कर सकता है पैसा पॉकेट में रखने की जरूरत नही। पैसे कम होने पर लो बॅलन्स का मेसेज भी आता है वैसे ही अपने शरीर का एटीएम कार्ड खत्म होने लगा तो दात गिरने लगते है, बाल गिरते है, शरीर कमजोर होने लगता है यह तो आम लोगों का हो गया लेकिन ज्ञानी आदमी यह कह जाता है ना मैं साथ कुछ लेकर आया था ना साथ कुछ ले जाऊँगा।

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                                                                                          २६: जलता घर

 

            बहोत साल पहले की बात है। एक नगर में धनवान व्यक्ती रहता था। उसका मकान बहोत बडा था ओैर इतने बडे मकान में बाहर जाने का सिर्फ एक रास्ता था। एक दिन मकान के एक कोने में आग लग गई ओैर वह हवा के कारण जोर से फैलने लगी। जल्दी ही पुरे मकान में वह फैल गई। उस धनवान व्यक्ती के दस से जादा बच्चे एक कमरे में खेल रहे थे। खेल में बच्चे इतने मदहोश हो गए थे की उनको पता ही नही चला घर में आग लगी है।

       वह धनवान आदमी अपने बच्चों को बचाने के लिए उनके कमरे के ओर दौडा ओैर चिल्लाते जोरसे आवाज देने लगा, जल्दी से कमरे के बाहर आ जाओ, लेकिन बच्चे खेलने में इतने मश्गुल थे की उनकी आवाज कोई सुन ही नही पाया। धनवान आदमी चिल्ला-चिल्लाकर बाहर ना आने से तुम लोगों को तकलिफ हो जाएगी यह बात बताता रहा, लेकिन कोई बात गंभीरता से सुनने की स्थिती में थे ही नही।

       फिर पिता ने एक चाल चली ओैर बोले “ बच्चों, देखो तो, मैने तुम सब के लिए कितने सारे खिलौने लाए है। वह कार में रखे है। तुम सब बाहर नही आए तो कोई आकर तुम्हारे सब खिलौने चुराकर ले जाएगा।” यह सुनते ही सब बच्चे दौडते हुए घर के बाहर आए ओैर उनके प्राण बच गए।

        मतितार्थ, धनवान पिता मतलब बोधीप्राप्त हुए गुरु, ओैर बच्चे मतलब साधारण मानव। संसार के खेल में मश्गुल हुए लोग, अलग-अलग खिलौने से खेलते रहते है। मनोरंजन, रिश्तेदार, शिक्षा प्राप्ती, परिवार का लालन-पालन, नौकरी, व्यर्थ चिंता इन सब में उलझा रहता है। इस जंजाल से निकल भी सकते है, इसका उन्हे जरा भी ज्ञान नही रहता है। इसी बंधन में जीव घुमता रहता है। उस बंधन में ही मजा है, ऐसे कपोलकल्पित भावनाओं में रहते हुए जीवन के उतार-चढाव सहता रहता है। आधि-व्याधी को निमंत्रित करते दुःख सहता है। ऐसे परिस्थिती से बाहर निकलने के लिए गुरु नानाविध तरीके अपनाकर मनुष्य को समझाते रहते है। उपदेश देते है, लेकिन जीव इसी में कभी खुशी, कभी गम के दायरे में झुमता ही जाता है। फिर जब सांसारिक खिलौनों का नाश होने लगता है तब जाकर कही मनुष्य को संसार के फोलता का ज्ञान हो जाता है। जीवन मतलब ओंस की बुंदे, कब फिसल जाए पता ही नही चलता। गुरूं के मार्गदर्शनपर बातें याद आने लगती है। फिर कोई मनुष्य यही से आध्यात्मिक यात्रा की ओर चल पडता है।

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                                                                                        २७: कहाँ है स्वर्ग-नरक

 

            नोबुगिशे नाम का एक सैनिक, झेनगुरू हाइकुन के पास आ गया ओैर पुछ्ने लगा “ मास्टरजी विश्व में सचमुच स्वर्ग-नरक होते है?”

             “ तुम कौन हो?” हाइकुन गुरु ने उसे पुछा

             “ मैं एक समुराई हूँ।” सैनिक ने जबाब दिया।

             “ तुम सैनिक हो? तुम्हारे जैसे आदमी को, कौनसा राजा अपने सेना में रख सकता है? तुम तो भिखारी लगते हो।” बडे अचरज से उसे देखते हुए गुरु बोले।

             यह सुनते ही नोबुगिशे को इतना क्रोध आ गया की अपनी तलवार उठाने के लिए उसका हाथ म्यान में गया। हाइकुन यह सब देख रहे थे।

              फिर से उन्होने कहा “ अच्छा, तो तुम्हारे पास तलवार भी है, लेकिन इसमें इतनी धार है की वह मेरा मस्तिष्क उडा सकेगी?”

              यह सुनते ही नोबुगिशे ने एक झटके में अपनी तलवार बाहर निकाली।

               हाइकुन ने कहा “ देखा, नरक का दरवाजा खुल गया ना?”

               यह सुनते ही समुराई को गुरु क्या समझाना चाहते है वह बात समझ में आ गई। अपने हाथ की तलवार गुरु के चरणों में रखकर उन्हें साष्टांग दंडवत किया।

               गुरु ने कहा “  देखो बेटा, अब तो तुम्हारे लिए स्वर्ग के द्वार भी खुल गए।  

               मतितार्थ, कितनी सुंदर कहानी है। ईश्वर ने स्वर्ग-नरक निर्माण नही किया है, मनुष्य के हाथों में इसका निर्माण सोंप दिया है। जिसको लगेगा वह अपने आयुष्य का स्वर्ग तैयार करेगा अन्यथा स्वर्ग जैसे संसार का नरक बना देगा। ईश्वर किसी से भेद-भाव नही करता। राग, लोभ, मोह, मद-मत्सर जैसे विकार मन में आते ही विचारों का तुफान शुरू हो जाता है। फिर अविचार का सैलाब विवेकबुद्धी का नाश करते हुए गलत निर्णय लेते हुए जो कृती करता है उससे जिंदगी नरक जैसी बन जाती है। व्यक्ती के मन में जब अविचार आता है वह नरक होता है ओैर सुविचार स्वर्ग बन जाता है। अच्छे कर्म से मन को शांती प्राप्त होती है। विचार कम होने में मदत होती है। विचार के कम हो जाने से कभी-कभी निर्विचारता के क्षण भी नसीब हो जाते है। निर्विचारता ही असली स्वर्गसुख का द्वार है। मतलब मन पर काबू पाने से या ना पाने से दोनों चीजे अपने पर ही निर्भर है। जिस प्रकार से विचार उत्पन्न होने लगते है उसी प्रकार अपने शरीर में रासायनिक बदल होने शुरू हो जाते है। इसीलिए अपने विचारों का परीक्षण करते रहने से हम खुद ही अपना स्वर्ग-नरक तैयार कर सकते है।

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                                                                                               २८: क्रोधोपचार

 

               गुरुकुल में साधना सिखनेवाले एक शिष्यने एक बार अपने गुरु से कहा “ मास्टरजी मुझे बहोत जल्दी क्रोध आता है, इससे बाहर निकलने का कोई उपाय है क्या? मेरा क्रोध कैसे कम कर सकता हूँ? कृपया आप इस विषयपर मुझे मार्गदर्शन किजिए।”

               गुरु ने कहा “ यह तो बहुत ही अजीब बात है। ऐसे करना, तुम मुझे क्रोधित होकर दिखाओ।”

               शिष्य ने कहा “ यह तो मैं अभी नही कर सकता।”

             “ क्युँ? तुम्हे अभी क्रोध क्युँ नही आ सकता?”

             “अब क्रोध आ जाए ऐसे कहने से थोडी क्रोध आ सकता है? वह तो कुछ बात या घटना घटने के बाद ही आ सकता है ना?”

              यह बात है, तो क्रोध यह तुम्हारे प्रकृति का, स्वभाव का भाग नही है। अगर यह तुम्हारे स्वभाव का अंग होता तो तुम वह कभी भी दिखा सकते थे। जो तुम्हारे प्रकृति का भाग नही है, तो उसे अपनेपर हावी होने देना यह कहाँ की शराफत है?”

               गुरु के समझाने पर अब शिष्य ने तय किया ओैर जब भी क्रोध आने की संभावना थी तब गुरु वचन याद करने लगा। इस तरह से शांत ओैर संयमित व्यवहार अपने आचरण में लाने लगा।

              मतितार्थ, मनुष्य को क्रोध तब आता है जब अपने आस-पास वह अपुर्णता महसुस करता है। इस अपुर्णता को जब उसका मन स्वीकार नही कर पाता तब वह दुसरे व्यक्ती पर या परिस्थिती पर इल्जाम लगाते हुए क्रोधित हो जाता है। एक लहर पुरे शरीर, मन में फैल जाती है, भाव-भावनाओं में उसका तीव्र रुपांतरण होने से शरीर का कपकपाना, अपशब्दों का इस्तमाल करना ऐसी प्रतिक्रिया दिखायी देने लगती है। यह क्रिया अपने मस्तिष्क, शरीर, मन सबको हानिकारक होती है। अगर व्यक्ती ने अपुर्णता का, परिस्थिती का स्वीकार किया तो बात वही खत्म हो सकती है। कोई भी अपेक्षा मन में रखने से लोभ, मोह, मत्सर यह क्रोध का कारण बन जाता है। इसीलिए कम से कम अपेक्षाए ओैर परिस्थिती का स्वीकार यह दो बाते याद रखने से जीवन में क्रोध के क्षण कम हो सकते है। क्रोध यह स्वभाव नही विकार है। गुरूं के वचन के नुसार व्यक्ती ऐसे ही क्रोधित नही हो सकता उसके लिए कोई बहाना चाहिए, जो हम ढुंढते रहते है। असंतुष्ट मन में, कारण की चिंगारी पडने पर क्रोधाग्नी अपने रुप में प्रगट हो जाता है। इसीलिए शांत, संयमित, अपेक्षारहित जीवन ही आनंददायी जीवन है।

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                                                                                        २९: इर्षा, क्रोध ओैर अपमान

 

            टोकियो के पास एक झेन मास्टर रहते है। वृद्धकाल में भी अपने आश्रम में झेन बुद्धिझम की शिक्षा वह देते है। एक तरुण सैनिक, जिसने कभी भी पराजय देखा नही था, उसके मन ने, अहंकार भरे भाव से यह तय किया था अगर मैने झेन मास्टरजी को लढने के लिए तैयार किया तो उनका पराजय करना, मेरे लिए कोई बडी बात नही होगी ओैर मेरी प्रसिद्धी दुर-दूर तक फैल जाएगी। ऐसे सोच-विचार से वह युवक आश्रम में आ गया। अपने क्रोधपूर्ण आवाज में उन्हे आव्हान देना शुरू किया।

          “ कहाँ है वह मास्टर? सामने आ जाओ ओैर मेरे साथ लढकर अपना पराजय कबुल करो।”

          उसकी आवाज सुनकर आश्रमवासी धीरे-धीरे वहाँ इकठ्ठे हो गए। आखरी में मास्टर भी पहुँच गए।

         मास्टरजी को देखते ही सैनिक ने अपमानजनक शब्दों से उनकी निर्भत्सना करना शुरू किया, लेकिन मास्टरजी मौन में रहते हुए शांती से उसकी बाते सुनने लगे। बहुत देर तक अपमान सहने के बाद भी मास्टरजी ने कुछ नही कहा, यह देखकर योद्धा डर गया। ऐसा कुछ हो सकता है यह उसने सोचा भी नही था। उनकी गहरी शांती देखकर सैनिक वहाँ से भाग गया।

          सब शिष्य गुरूं के मौन पर नाराज हो गए। आप सैनिक से इतना क्युँ डर गए? उसे करारा जबाब क्युँ नही दिया? आप अगर उससे लढने के लिए तैयार नही थे तो हमे आज्ञा करते, हम उसे अच्छा सबक सिखाते। ऐसी चर्चा बहुत देर तक सुनने के बाद मास्टरजी ने हँसकर जबाब दिया “ आप सब लोग मुझे एक बात बताओ, कोई आपके लिए कुछ सामान या भेटवस्तू ले आया ओैर तुमने उसे स्वीकार करने से मना किया तो उस सामान का क्या हो जाएगा?”

          शिष्य बोले “ जो लाया था वह उसी के पास रहेगा।”

          “ सही बात की आप लोगों ने। यही बात इर्षा, क्रोध, अपमान जैसे विकारों पर भी लागू हो जाती है। मैने उसकी बातों का स्वीकार नही किया, तो सैनिक को, यहाँ से भागना पडा।”

          मतितार्थ, कुछ लोग ऐसे होते है, उनके स्वभावनुरूप दुसरे ने बर्ताव करने पर उनका अहंकार खुशी देता है। सामनेवाला अपने दर्जे में आते देख वह आगे की ओर बढता है ओैर बुरे व्यवहार करने की उन्हे छूट मिल जाती है। कैसा आध्यात्मिक गुरु है? बात-बात पर गुस्सा हो जाता है, अपशब्द कहता है ऐसी बाते चार लोगों में कहता फिरता है। अहंकारी लोग एक तरह से व्यक्ति का इम्तहान लेनेवाले लोग होते है। ऐसे लोगों से अगर सामना करने की नौबत आ जाए तो उन पर हावी होने का प्रयास करने के बजाय दुर्लक्षित भाव रखते हुए शांत रहना ही उचित होता है। व्यक्ती जब साधना पथपर होती है तब ऐसे लोगों से पाला पडने के बाद ही पता चलता है की हम इस माहोल में भी शांत रह सकते है या नही? अगर हम शांत रह सके तो यह प्रगती का द्योतक माना जाएगा। शांती भंग हो गई ओैर हमने भी ताव में आकर अपशब्द कह डाले तो समझ लेना, साधना प्रगती में हम अभी कोसो दूर है। शांती में रहने से उसका पराभव ओैर अपना, आगे की ओर बढा एक कदम व्यक्ती खुद महसुस कर सकती है।

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                                                                                                ३०:इर्षा का कारण

          एक वयोवृद्ध साधू को एक बार एक राजा ने अपने राजमहल में आमंत्रित किया। उनका आदर-सत्कार करते हुए राजा ने साधू से कहा “ महात्मन, आपके पास कुछ भी नही है फिर भी आप अत्यंत आनंदित लगते हो। यह देखकर मुझे आपसे ईर्षा होने लगती है।”

          उस बात पर साधू, राजा से बोले “ राजन, आपके पास मुझसे भी बहुत कम भांडार है, इसीलिए मुझे भी आपसे कभी-कभी इर्षा होने लगती है।”

          “ आप मुझे ऐसे कैसे बोल सकते है? मेरे पास तो इतना बडा राज्य है। राजा ने बडे आश्चर्य से उनसे पुछा।

          “ मेरे पास यह अनंत आकाश, पहाड, नदी, सागर, है। सुर्य चंद्रमा है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो मेरे अंतकरण में परमात्मा का निवास है। राजन, तुम्हारे पास केवल राज्य है।

          मतितार्थ, कभी भी दुसरों से तुलना करने से, इर्षा करने से अपने पास जो भी है उसकी किंमत व्यक्ती जान नही पाता, या जानकर भी उसकी अहमियत नही रहती है। हमारे पास जो है, जितना है उसी में आनंदित रहने से जिंदगी संतुष्टता से भरी हुई रहती है। फिर किसी के साथ स्पर्धा, मोह, मत्सर जैसे विकारों से सामना करने की जरूरत ही नही रहती है। भौतिक सुख में अगर आनंद ढुंढने लग जाओगे तो हमेशा जीवन कुछ ना कुछ कमी ही नजर आएगी। प्रकृति में, निसर्गता में रहोगे तो जीवन, गाने की धुन बन जाएगा। जीवन में एक लयबद्धता महसुस होने लगेगी। प्रकृति हमे यह भी सिखाती है की जीवन के उलझनों से कैसे सामना करना है? प्रकृति में एकरूप होने से कैसे हम ईश्वरानुभूती प्राप्त कर सकते है इन बातों का ज्ञान होने लगता है। इस ज्ञान के अभाव में राजा को लगता है की साधू महाराज के पास कुछ भी नही है फिर भी वह इतने आनंद में कैसे रहते है? ओैर साधू महाराज को लगता है की इतनी विशाल प्रकृति सामने होते हुए भी राजा सिर्फ अपने पास राज्य होने का गर्व क्युँ जता रहा है? अपनी आँखे खुली रखकर हम जीवन जीने लगे, तो अपनी झोली कभी भी खाली नही दिखेगी। लेकिन बंद आँखे हमेशा जीवन में कमी ही दिखाएगी दुःखी मन हमेशा विकारग्रस्त रहता है। मनुष्य की जीवनशैली बदल गई है, लेकिन जितना भी निसर्ग सान्निध्य में रह सकोगे, रहो। समाधान में रहो। जीवन आनंद तुम्हारा है उसे किसी पर निर्भर मत रखो। खुद से जब सही तरीके से रिश्ता जोड पाओगे तभी दुसरे रिश्ते भी अच्छी तरह से निभा पाओगे। अन्यथा जीवन एक बोझ बन जाएगा। समाधानी मन यही सुखी जीवन की कुंजी है।

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                                                                                        ३१: स्वर्ग का आनंद

 

           मरने के कुछ पल में ही जुआन को महसुस हुआ की कोई अनोखे रमणीय जगह पर वह आ गया है। यहाँ इतनी परमशान्ती ओैर आनंद की लहरे फैली हूई थी, की इसकी तो जुआन ने कल्पना भी नही की थी।

           श्वेत वस्त्र परिधान किया हुआ एक व्यक्ती उसके पास आया ओैर कहने लगा “ तुम यहाँ जिस चीज की भी कामना करोगे वह तुम्हे मिल जाएगी। कोई भी प्रकार का भोजन, सुख-भोग तुम यहाँ पा सकते हो।”

           यह बाते सुनकर जुआन बहुत खुश हुआ। जीवनभर जो भी इच्छा अपूर्ण रह गई थी वह सब पुरे करने में जुट गया। बहुत साल तक इच्छापूर्ती करने के बाद वह श्वेतधारी व्यक्ती के पास पहुँचा ओैर कहने लगा “ महात्मन, बहुत सालों तक मुझे जो भी चाहिये था वह मैं करता रहा, अब सब कामना पूरी हो गई है। अभी मैं कुछ काम करना चाहता हूँ। किसी के लिए जीना चाहता हूँ। किसी के काम आना चाहता हूँ। मुझे कुछ काम मिल सकेगा यहाँपर?”

            जुआन की बाते सुनकर महात्मन मुस्कुराकर बोले “ क्षमा करना, इस जगह  पर यही एक चीज तुम कर नही सकते। यहाँ किसी प्रकार का काम नही है।”

             जुआन को अचानक गुस्सा आ गया “ यह तो बहुत ही अजीब बात है। इस तरह अनंतकाल तक मैं खाली नही बैठ सकता। इससे बेहतर आप मुझे नरक में भेज दो।”

             इस बात पर श्वेतधारी ने मंद मुसकाते कहा “ तुझे क्या लग रहा था? तुम्हारी कल्पना से तुम कहाँ पर आए हो?”

              मतितार्थ, मनुष्य को जीवनभर ऐसे लगता है की बिना कुछ काम किए जग के सारे सुख उसे प्राप्त हो जाए। लेकिन मेहनत, श्रम में ही सच्चा सुख समाया हुआ है यह बात वह भुल जाता है। भुख लगने के बाद जो भोजन खाया जाता है उसमें जो मजा है, स्वाद है वह केवल भुख से तडपता व्यक्ती ही जान सकता है। ऐसे भोजन के सामने पाँच पक्वान भी फिके पड जाते है। मनुष्य की रचना ही ऐसी है की वह खाली नही बैठ सकता। कोई भी काम किए बिना वह रहने लगा तो दुनियाभर का दुःख उस के पिछे लगेगा। मानसिक-शारीरिक स्तर पे वह कमजोर हो जाता है। जब कोई ध्येय अपने सामने रखकर वह काम में जुट जाता है तभी मेहनत का आनंद उसे मिलने लगता है. ध्येय प्राप्ती से जादा श्रम की तल्लीनता में वह अपने आप को खो देता है। एक ध्येय प्राप्ती के बाद अब आगे क्या यह अंतराल महसुस होता है तभी व्यक्ती व्यथित हो जाती है। मतलब सातत्यतापुर्ण कोई ना कोई काम करते रहना ओैर मेहनत के फल का स्वाद चखते रहना यही मनुष्य जीवन है ओैर निष्काम कर्म यह अध्यात्मिकता है। वेदो-पुराणों में कहा जाता है की जब तुम्हारे अच्छे कर्म समाप्त हो जाते है तब तुम फिर से धरती पर जन्म लेते हो। शांती से रहने के बाद फिर तुम्हे काम करने की इच्छा निर्माण होती है मतलब अब धरती पर जन्म लेने का समय आ चुका है। कुछ काम किए बिना रहना मतलब नरक ही है।

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                                                                                              ३२: क्षमा

 

                रात के घनघोर अंधेरे में एक चोर, झेन आश्रम में चोरी करने के उद्देश से अंदर आ गया। एक कमरे में झेनगुरू मंत्रजाप करते बैठे हुए थे। उनको देखते ही चोर अपनी तलवार निकालकर उनकी तरफ दौडा, ओैर आश्रम में जितना भी धन है वह सब बाहर निकलो, मेरे हवाले करो ऐसा कहते हुए उन्हे धमकाने लगा।

                 गुरु ने बडे बेपर्वाई से उसे कहा “ बेटे, मेरे मंत्रजाप में विघ्न मत डालो। सब धन सामनेवाले अलमारी में रखा हुआ है। तुम्हे जो चाहे वह ले लेना, पर आश्रम के लिए कुछ धन रख के जाना।”

                 उस चोर ने अलमारी खोली ओैर कुछ धन छोडकर बाकी सब धन इकठ्ठा किया ओैर वहाँ से जाने लगा तब गुरु ने उसे टोका ओैर कहा “ जब जहाँ से कुछ भी हासिल हो जाय तो उस के लिए धन्यवाद जरूर देने चाहिये।” चोर उनको धन्यवाद देते हुए वहाँ से निकल गया।

                   थोडे दिन के बाद वह चोर दुसरी जगह चोरी करते हुए पकडा गया तब गुनाह की कुबूली देते वक्त झेन आश्रम के चोरी का भी गुनाह उसने कुबूल किया। आश्रम के मास्टरजी को जब छान-बिन करने बुलाया तब गुरूं ने कहा इसने आश्रम में कोई भी चोरी नही की। मैने खुद उसे धन दिया ओैर उसके बदले इसने मुझे धन्यवाद भी किया। बाकी जो गुनाह साबित हो गए उसके लिए सजा मिलने पर चोर ने सजा, पश्चाताप के साथ काटी ओैर वह खत्म होने पर झेनगुरू के पास आश्रम में गया ओैर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।

             मतितार्थ, गुरु हमेशा सबको समान दर्जा देते है। किसी से कोई अपराध हो रहा हो तब वह जान जाते है यह उसकी नियती है। कर्म है। उसके पिछे की परिस्थिती, पुनर्जन्म शृंखला के बारे में जानते है। ऐसे समय में उस व्यक्ती का कर्मफल कैसे कम कर सकते है इसी के बारे में गुरु सोच-विचार करते है। खुद ही धन कहाँ है यह बताकर उस चोर के मुँह से आभार भावना भी प्रकट करने का विचार जागृत करने से उसकी अपराध की तीव्रता बहुत कम हो गई। जब चोर पकडा गया तब गुरूं ने मैने उसे खुद धन दिया यह बात कहकर उसे क्षमा करते हुए चोर का कर्म वही खत्म कर दिया। ज्ञानी लोग जानते है की कौनसी कृती करने से सामनेवाले व्यक्ती में सुधार लाया जा सकता है। मुढ लोगों को गुरूं का मार्गदर्शन मिलने पर वह सही रास्ता अपनाते है।

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                                                                                       ३३: नेमबाज धनुर्धर

    

           एक नेमबाज तिरंदाज, बहुत स्पर्धा जितने के बाद खुद को महान तिरंदाज समजने लगा। वह जहाँ भी जाता वहाँ लोगों को मुकाबला करने का आव्हान दे देता, ओैर कोई उसके साथ मुकाबला हार जाता तो वह उसकी खिल्ली उडाता, उपहास करता था।

           एक बार उसने तय किया की प्रसिद्ध झेनमास्टरजी को तिरंदाजी का आव्हान दिया जाय। पहाडी पर उनका आश्रम था, वहाँ पर सुबह-सुबह वह पहुँच गया।

           मास्टरजी से कहा “ मैं आपको नेमबाजी में मुकाबला करने के लिए चुनौती देने आया हूँ।” मास्टरजी ने उसका आव्हान स्वीकार किया ओैर मुकाबला शुरू हुआ। नेमबाज युवकने पहिले तिरसंधान में ही दूर रखे हुए निशान के मध्य में बाण चलाकर उसके दो तुकडे कर दिए। अपने जय पर घमंड करते हुए उसने कहा “ मास्टरजी आपने देखा मेरा कमाल? इससे भी अचूकता से आप बाण चला सकते है? ऐसा कौशल्य है आपके पास?”

           यह कथन सुनकर मास्टरजी ने उसे अपने पिछे आने के लिए कहा। चलते चलते वह एक दुर्गम, खाई के पास पहुँचे।

          वह देखकर युवक तो घबरा गया ओैर बोला “ मास्टरजी, आप मुझे कहाँ ले जा रहे है?”

          “ डरो मत युवक, लगभग हम अभी पहुँच ही गए है। सामने एक पुराना लकडी का पुल तुम्हे दिख रहा है ना उसी के मध्य हमे पहुँचना है।”

          युवक ने देखा दो बडे-बडे पहाडों को जोडनेवाला एक कामचलाऊ, जीर्ण लकडी का पुल किसी ने वहाँ बांध दिया था,ओैर मास्टरजी वहाँ चलने के लिए कह रहे थे। पहले मास्टरजी उस पुल के मध्य में जाकर खडे हो गए ओैर वहाँ से दूर एक पेड पर उन्होने निशाना लगाया। निशान साध्य करने के बाद मास्टरजी बोले “ आओ युवक अब तुम यहाँसे निशाना लगाओ ओैर अपनी अचूकता दिखाओ।”

            वह युवक डरते-डरते आगे बढ गया ओैर मध्य में पहुँचने पर अपना तीर निशाने पर चलने लगा, लेकिन वह तीर निशाने के आस-पास भी नही पहुँच पाया। उसने अपना पराजय स्वीकार करते हुए मास्टरजी से क्षमा माँग ली।

             तब मास्टरजी ने कहा “ बेटे, आपने, तिरंदाजी में कौशल्य तो हासिल किया है लेकिन तुम्हारा मन तुम्हारे काबू में नही है। किसी भी परिस्थिती में शांत मन से लक्ष भेदन करना जरूरी है। बेटे तुम यह बात याद रखना की जब तक मनुष्य के अंदर जीतने का अहंकार मौजुद है तब तक व्यक्ती का पतन ही होता रहता है, लेकिन जब अंदर से कुछ सिखने की, हासिल करने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है तब ज्ञान प्राप्त होने लगता है।”

          वह युवक मास्टरजी की बात समझ गया। उसे यह भी ध्यान में आ गया कि अपना धनुर्विद्या का कौशल्य सिर्फ अनुकूल परिस्थिती में ही काम आता है। अभी भी बहुत कुछ सिखना बाकी है। वह मास्टरजी के सामने शरणागत हो गया ओैर अपने ज्ञान पर घमंड ना करने की प्रतिज्ञा ली।

           मतितार्थ, व्यक्ती जब पहले कोई कला या मार्ग चुनता है वह केवल अच्छा लगता है इसीलिए चुनता है। एकबार उसमें दिलचस्पी आने शुरू हो जाती है तो उस बात की गहराई में वह खिंचता चला जाता है। उसमें पारंगत होता है। कभी-कभी इस बात को भी भुल जाता है की उसने जगत के असंख्य ज्ञान मार्ग में से एक मार्ग चुना है। श्रेष्ठता की होड अपने पिछे लगाकर वह निकोपता को खो बैठता है। फिर रह जाता है केवल अहंकार। अपना श्रेष्ठत्व दिखाना ओैर अपने आगे कोई जा ना पाए इसके लिए कडी मेहनत की जाती है तो व्यक्ति मनःस्वस्थ खो बैठता है। उसके विचार में श्रेष्ठत्व की सब सिडियाँ वह पार कर चुका है। अब दुसरा कोई उसके साथ सामना करने आ जाए तो मुकाबला तो तय है। ऐसे में मानसिक तुफानों का सामना भी अहंमन्य व्यक्ती को करना पडता है। इससे एकाग्रता भंग हो जाती है ओैर एकाग्रता ही सब सफलता की कुंजी है। उसी पर आघात होने से व्यक्ती एकदम से नीचे आ जाता है। किसी दुसरे व्यक्ती को अगर उसने मदद की तो उसका श्रेष्ठत्व आबाद रहेगा। वहाँ मुकाबला न रहकर शत्रुत्व भावना भी नष्ट हो जाएगी। उल्टा उसका आदर सब लोग करते रहेंगे। मनःशांती में वह आदमी जी पाएगा।  हम जैसे एक विद्या में पारंगत है, श्रेष्ठ है वैसे ओैर लोग भी कोई ना कोई विद्या में पारंगत रहते है इस बात का ध्यान रखा तो कही शत्रूत्वता रहेगी ही नही। हर एक प्रति आदर, सन्मान, प्रेम भावना रखने से श्रेष्ठत्व अबाधित रहता है।

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                                                                                                  ३४: एकरस

 

              एक झेनगुरूं के बगीचे में बहोत सारे कददू लगे हुए थे। एक सुबह गुरु अपने कुटिया से बाहर आ गए, ओैर उन्होने देखा के सब कददू एक-दुसरे के साथ झगडा कर रहे है। वाद-विवाद चल रहा है। मारने-पिटने की नौबत आ चुकी थी।

              गुरूं ने उनसे पुछा “ कददूोओं क्युँ झगडा कर रहे हो? एक-दुसरे से प्यार करो।”

            वह बात सुनते ही सब कददू चिल्लाए यह हो नही सकता, हम एक-दुसरे के दुश्मन है। दुश्मन से प्यार कैसे किया जाय?

            फिर गुरूं ने कहा “ ठीक है, तो अब तुम सब ध्यान करने बैठ जाओ।”

            “ हम तो कददू है, ध्यान करने कैसे बैठ जाए?”

            तब झेनगुरूं ने कहा “ देखो तो, इस मंदिर के अंदर कितने कददू ध्यान कर रहे है।”

            मंदिर में सब भिखू ध्यान के लिए बैठे थे। उनके मुंडन किए हुए सर कददूओं के जैसे ही दिख रहे थे। “ देखा, अब तुम सब भी इन्ही की तरह ध्यान में बैठ जाओ।”

             पहले तो सब कददू हँसने लगे, लेकिन गुरूं ने कहा है इसलिए ध्यान में बैठने के लिए राजी हो गए। जैसे गुरु ने बताया वैसे ही वह सब बैठ गए। वज्रासन में बैठकर आँखे मुंद ली, ओैर पीठ  सीधा रखते हुए वह ध्यान करने लगे। ऐसे बैठने से मन अपने-आप शांत होने लगता है। झेनगुरूं ने तो इस ध्यान का नाम ही रखा था झाझेन। झाझेन मतलब कुछ भी किए बिना शांती से बैठना। कददू भी बैठे-बैठे शांत होने लगे। यह स्थिती उनके लिए अनोखी थी, वह अचरज में पड गए। एक आनंद की लहर उनके इर्द-गिर्द फैलने लगी।

              थोडी देर में गुरु वापीस आ गए ओैर कहने लगे “ अब तुम सब अपने हाथ तुम्हारे सिर पर रखो।” सब कददूओं ने अपने सिर पर हाथ रख दिए, तब उन्हे एक विचित्र अनुभव हुआ की हम सब एक बेल से जुडे हुए है। जब उन्होने सिर उपर किया तब एक ही बेल दिखाई दी। अलग-अलग बेल वहाँ पर नही थी, मतलब एक ही बेल पर सब कददू लगे हुए थे। तब उन्हे समझ आ गया की हम सब एक है। सब में एकरस बह रहा है ओैर हम झगडते बैठे है।

            तब गुरु ने कहा “ अब तो तुम सब लोगों के समझ में बात आ गई? तुम खुद ही एक विस्तार हो यह जान गए? अब तो एक-दुसरे के साथ प्यार से रहोगे?”

            सब कददूओं को बात समझ में आ गई ओैर वह प्यार से रहने लगे।

            मतितार्थ, कददू मतलब मानव का प्रतिक। दो गट तैयार करके जीवनभर  झगडते रहते है। कितने संत, महात्मे युगो-युगों से एकत्व का पाठ पढा रहे है लेकिन अभी भी मानवजाती की दुरी खत्म नही हो पायी। ध्यान-ज्ञान साधना के माध्यम से जो यह बात जान पाया वह इन झगडों से दूर होकर सब से प्यार करने लगा ओैर अपना हित साधने लगा। सृष्टी से एकरूप होने लगा। प्रकृति के अनेक अंश में से एक अंश मैं यह बात अनुभव करने लगा। यहाँ पर फिर ‘मैं’ ( स्व ) का भाव खत्म हो जाता है। अहंकार खत्म होने से मन में शांती का उद्गम होने लगता है। शांती में निर्विचारता जब आती है तब पुरी दुनिया अपनी है, एक है यह भाव जागृत हो जाते है।

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                                                                                                 ३५: विचारधारा

 

           एक दिन शिष्य अपने झेनगुरूं के पास गया ओैर कहने लगा “ मास्टरजी, मुझे कुछ सुझ नही रहा है। मेरे दिमाग में बार-बार ऐसे विचार आ रहे है की जिनका मैने निषेध किया है। मेरे मन में वही चीजे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होने लगती है। उनके प्राप्ती के लिए मेरा मन योजनाए बनाना शुरू कर देता है। यह सब बाते मेरे हित में नही, अब मैं क्या करू?”

            गुरु शिष्य को गमले में लगा हुआ पौधा दिखाते हुए बोले “ बताओ यह क्या है?” शिष्य को वह कौनसा पौधा है यह पता नही था।

            तब गुरु ने कहा “ यह एक जहरीला पौधा है। इसके पत्ते अगर तुमने खाए तो तुम्हारा मृत्यु निश्चित है, लेकिन जब तक इस वनस्पती को तुम केवल देख रहे हो तब तक तुम्हे कोई भी हानी नही पहुँच सकती। इसी प्रकार से केवल अधोगति के ओर ले जानेवाले विचार तुम्हे हानी नही पहुँचा सकते।

              मतितार्थ, अपने कर्मों के अनुसार, पुर्वजन्म के अनुसार मन में बहुत अजीब खयाल आते रहते है, जो आज के अपने व्यक्तित्व के विपरीत है। ईश्वर ने अपने हाथ में एक बहुत अच्छी चीज दे रखी है ओैर वह है ‘विवेक’ पहले के कर्मफल के अनुसार अच्छे-बुरे विचार आने पर भी हम जब तक कोई कृती करने का निर्णय नही लेते तब तक कोई खतरा नही रहता। वह विचार आने से केवल तटस्थता से देखते रहने के अभ्यास से वह क्षण, कर्म वही पर खत्म हो जाता है। वह क्षण दुसरे विचार को जनम लेने ही देता। ध्यानमार्ग यही है केवल अपने विचार तटस्थता से देखने से कर्म खत्म कर देता है। कर्म नही तो कर्मफल नही। बुरे विचार मन में आए तो भी खुद को कोसने की जरूरत नही। हीन भावना का त्याग करने से वेदनामय जीवन नष्ट होने लगता है। मन शांती से भर जाता है।

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            हैरिगल नामक एक शिष्य ने झेनगुरू को आमंत्रित किया था। गुरु अपने मित्रों के साथ उसके घर पधारे। एक बिल्डिंग के नववे माले मंजिल में उसका निवासस्थान था। गुरु घर आने के बाद शिष्य ने उनका यथोचित सत्कार किया ओैर सब गपशप लगाने बैठ गए। गुरु अपने शिष्य, मित्रों को कुछ बता ही रहे थे की उतने में भुकंप मच गया। सब लोग सिडियों के तरफ भागे, वैसे वह शिष्य भी भागने लगा। सिडियों तक पहुँचा की उसके ध्यान में आया की गुरु तो यहाँ आये ही नही। वह शिष्य उन्हे देखने वापीस घर आया ओैर देखा तो गुरु आँखे मुँदकर ध्यान करने बैठ गए है। अब भुकंप भी रुक गया। तो बाकी लोग भी घर लौट आए। गुरूं आँखे खोलकर फिरसे ऐसे बाते करने लगे की जैसे कुछ हुआ ही ना हो।

           हैरिगल ने गुरु से कहा “ मास्टरजी, आप पहले मेरे एक सवाल का जबाब दिजिए। भुकंप आने के बाद सब लोग इधर-उधर दौडने लगे, लेकिन आप बाहर नही आए?”

           “ नही बेटे मैं भी दौडा। तुम लोग बाहर के तरफ दौडे ओैर मैं मेरे मन के अंदर के तरफ दौडा। मुझे एक बात बताओ नववे माले से एक-एक करते तुम नीचे जानेवाले थे वहा क्या भुकंप की लहरे नही थी? मतलब तुम सब लोग जहाँ दौडे वहाँ सब जगह भुकंप ही भुकंप था, ओैर मैं ऐसी जगह जा बैठा वहाँ भुकंप के लहरों का नामोनिशान नही था। मेरे सब केंद्र शांत थे।”

            मतितार्थ, मास्टरजी ने बाह्य भुकंप का उदाहरण देते हुए बात समझायी। मनुष्य के मन में लगातर कोई ना कोई प्रक्षोभक विचार हमेशा चलते रहते है। इस कारण व्यक्ती की मनस्थिती बिगडी हुई रहती है। अस्वस्थ मन का प्रभाव पुरे परिवार में ओैर समाज पर भी पडता है। यह एक तरह का मानसिक भुकंप ही रहता है। जब इर्षा, क्रोध, लोभ जैसे विचार मन में आते है तो एक तरह का भूचाल ही मच जाता है। ऐसे समय में अपने अंतर्मन के तरफ अगर अपना रुख कर दिया तो मन अपनेआप शांत होने लगता है। लेकिन यह एक सराव की बात है। मन हमेशा बहिर्मुखी रहने का आदी होता है। उसे अंदर की तरफ जाने के लिए सातत्यतापुर्ण प्रयास करने पडते है। तब कही जाकर वह अपनेआप में शांती महसुस करता है। बाह्य भुकंप में लोग एक-दुसरे की मदद तो करते है लेकिन जब अंदर भूचाल आता है तब व्यक्ती को खुद ही उससे बाहर निकलने का रास्ता ढुंढना पडता है।

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                                                                                            ३७: अंदर का प्रकाश

 

           एक आश्रम में एक झेनगुरू बहुत दिनों तक ध्यान लगाए बैठे थे। अचेतन अवस्था में दीर्घ समय रहने के बाद जब उस अवस्था से वह बाहर आने लगे तब कुछ शब्द उनके मुँह से निकल रहे थे। ‘अंदर का प्रकाश देखो’ जब पुरे जागृत हो गए तब उन्होने देखा की अपना प्रिय शिष्य पास में ही बैठा है।

            बडे प्यार से उन्होने पुछा “ वत्स, इतने काल तक तुम मेरे ही पास बैठे हो? थोडी देर के लिए भी मुझे अकेले नही छोडा?”

             साश्रूपुर्ण नजर से वह बोला “ गुरुदेव, मैं तुम्हे कभी भी अकेले नही छोड सकता।”

             “ ऐसा क्युं?” गुरुदेव ने पुछा।

             “ गुरुदेव, आप ही मेरे जीवन के प्रकाशपुंज हो।”

             यह जबाब सुनकर गुरु उदास हो गए। उन्होने पुछा “ मैं तुम्हे इतना तेजस्वी लगता हूँ, की मेरे प्रखर दिव्य तेज के कारण तुम अपने अंदर का प्रकाश देख पाओगे?”

              मतितार्थ, किसी से भी अंधी भक्ती ना करो, जिस कारण तुम्हारा विकास, प्रगती ही रुक जाए। केवल गुरुभक्ती, अनुसरण करना यह साधना पद्धती नही है। गुरु मन एकाग्र करने के लिए जो मार्ग दिखाते है वह सिर्फ चलते रहना यह साधना नही, तो उस मार्ग पर चलते एक अपना नया पथ, मार्ग बनाना यह काम शिष्य का होता है। गुरु परमेश्वर प्राप्ती की राह दिखाते है ओैर शिष्य वह राह पर चलने बजाय गुरु में ही अटका रहा तो वह आगे कैसे बढ पाएगा? अपना शिष्य केवल मेरे देह से चिपका रहा मेरे विचारों से नही। यह बात गुरूं को उदास कर गई, क्यों की कोई भी गुरु अपने शिष्य की प्रगती ही चाहता है। गुरुतत्व अनंत है। अपने अंदर के प्रकाश के ओर आगे बढते रहना है। यह सिर्फ व्यक्ती खुद कर सकता है। चलना तो स्वयं का काम है। कोई तुम्हे रास्ता बता सकता है पर चलना तो तुम्हे ही पडेगा।

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                                                                                                   ३८: निशाण

 

            झेनगुरू के आश्रम में बहोत शिष्य झेनयोगा सिखने आते थे। उनमें से एक शिष्य को, कोई भी कारण के बिना क्रोध आता था।

            एक दिन गुरूं ने उसे कहा “ बेटे, जब तुम्हे क्रोध आएगा तब तुम सामनेवाले पेड में एक किल ठोकते जाना।”

             पहले ही दिन उस शिष्य ने तीस किले पेड पर ठोक दिए। इस तरीके से कुछ हफ्तों में ही उसे अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना आ गया। धीरे-धीरे एखाद-दो किल पेड पर ठोकने की नौबत आ गई, ओैर फिर एक दिन ऐसा आया की एक भी किल ठोकने की उसे जरूरत नही महसुस हुई। अब शिष्य को भी लगने लगा की पेड पर किल ठोकने से आसान तो अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना है। अब कितने दिन तक उसे पेड में किल ठोकने की जरूरत ही महसुस नही हुई। फिर गुरुं के पास जाकर वह बात गुरु को बता दी। अब गुरु ने पेड में से सब किल निकालने की आज्ञा दी। आज्ञा का पालन करते हुए शिष्य ने बडे मेहनत से वह सारे किल निकाल दिए। काम पुरा होने के बाद गुरु उसके पास आए ओैर कहने लगे “ यह तो बहुत अच्छा काम तुमने कर दिया, लेकिन क्या तुमने इस पेड को बडे गौर से देखा है? पेड के टहनियों, बुँधों पर कितने निशान पड चुके है। अब यह पेड अपनी सुंदरता खो चुका है। इसी तरह जब तुम दुसरे पर क्रोध करते हो तब शब्दों के निशान दुसरों के मन पर ऐसे ही पड जाते है। अपने मन-वचन-कर्म के द्वारा ऐसे कोई कृत्य नही करने चाहिये जिस कारण बाद में तुम्हे पश्चाताप करना पडे।”

             मतितार्थ, तुम्हे अगर रिश्ता निभाना है तो किसी का दिल दुखाना अच्छी बात नही होगी। जिन लोगों में परिस्थिती के साथ समझौता करने की ताकद, साहस, धैर्य  नही होता ऐसे ही लोगों को क्रोध बहुत जल्दी आता है। इस तरह से मानसिक असहायता के कारण क्रोध पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो जाता है। ऐसे लोगों का समाज में तिरस्कार किया जाता है। क्रोध का एक कारण यह भी होता है की लोगों को किसी तरह अपने तरफ ध्यान देने के लिए मजबुर करना। समाज का प्रेम वह चाहता है, लेकिन ऐसे क्रोधी व्यक्ती को समाज स्विकार करेगा ही यह जरूरी नही। उल्टा लोग ऐसे व्यक्ती को टालने की कोशिश करते है। लोगों से इस तरह प्रेम माँगने के बजाय अपने क्रोध पर नियंत्रण रखने से परिस्थितीयां अनुकूल हो जाती है ओैर अपनी वजह से दुसरों को तकलिफ भी नही होगी।

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                                                                                             ३९: चोरी की सजा

 

             एक बार झेन मास्टर बेनकेईने ध्यान शिबिर आयोजित किया। पुरे जपान देश में से बहुत लडके उनसे ध्यान साधना सिखने आ गए। जब शिबिर चल रहा था उस वक्त एक लडका चोरी करते पकडा गया। यह बात बेनकई मास्टरजी तक पहुँच गई। बाकी सब विद्यार्थीयों ने बिनती की, कि उसे चोरी के गुनाह की सजा तो मिलनी ही चाहिये। उसे अपने शिबिर से बाहर निकाला जाय। बेनकई मास्टरजी ने इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया नही दर्शायी। बाकी विद्यार्थीयों के साथ उसे भी पढाना जारी रखा।

              कुछ दिनों के बाद वही घटना की पुनरावृती हुई। वही लडका फिर से चोरी करते पकडा गया। बेनकई मास्टरजी के सामने उसे हाजिर किया, लेकिन मास्टरजीने उसे क्षमा करते हुए आगे पढाना जारी रखा। यह घटना बाकी विद्यार्थीयों के मन में क्रोध की लहर बनकर फैल गई। सब लडकों ने मिलकर मास्टरजी को खत लिखकर भेज दिया की, अगर उन्होने चोर लडके को शिबिर से नही निकाला तो हम सब शिबिर छोडकर चले जाएंगे।

              बेनकई गुरूं ने वह पत्र पढा ओैर तत्काल सब विद्यार्थीयों को वहाँ इकठ्ठा होने की आज्ञा दी। सब लडके वहाँ संम्मिलित होने के बाद गुरूं ने कहा “ आप सब विद्यार्थी बुद्धिमान हो। कौनसी बात सही या गलत इसका ग्यान तुम सभी के पास है। तुम लोगों को दुसरी जगह ज्ञान प्राप्त करने जाना है तो आप जा सकते हो, लेकिन यह चोर लडका बेचारा अज्ञानी है, सही-गलत का अभी उसे ज्ञान नही है। इन सामाजिक बातों से वह अनजान है। इसे मैं नही सिखाऊँगा तो कौन सिखाएगा? तुम सब लोग चले जाओ, मैं इस लडके को सिखाऊँगा।”  

              यह बात सुनते ही वह चोर लडका मास्टरजी के चरणों में गिरकर पश्चाताप के आँसू बहाने लगा। अब उसके मन से चोरी की भावना हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो चुकी थी।

              मतितार्थ, ज्ञान सबके लिए होता है। हर एक व्यक्ती में कुछ ना कुछ तो कमी होती ही है, ओैर कोई विशिष्ट ज्ञान भी हर एक को अवगत होता ही है। प्रत्येक व्यक्ती अपने हुनर से, अपने वकुब से ज्ञान हासिल करता है। इसीलिए किसी को यह बात कह नही सकते की तुम्हे तो इतना भी नही आता? गुरु सबको समान समझते, पढाते है। हर एक के जिज्ञासा के अनुसार ज्ञान बाँटते है। सच्चा गुरु, व्यक्ती संघटन के मानसिकता को नही जुमानता, प्रत्येक विद्यार्थी को ज्ञान कैसे प्राप्त हो इसी विषय में सोचता है। उनका काम ही एक सच्चा आदमी बनाना होता है। यही बात हमे भी लागू होती है। जो व्यक्ती, लडके-लडकियाँ गलत राह चल रहे है इस बात का पता चलने पर उन्हे योग्य दिशा प्राप्त करने के लिए मदद करनी चाहिये, ना की उँगलिया उठानी चाहिये। योग्य मार्गदर्शन से वह फिर से अच्छा जीवन जीना शुरू कर सकते है।

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                                                                                               ४०: दो भिक्षु  

 

          शाम का वक्त था, हलके से बारिश के कारण निसर्गरम्य वातावरण में ठँड फैल गई थी। रास्ते में चारों ओर पानी जमा हुआ था। दो बौद्ध भिक्षु अपने रास्ते, आश्रम जा रहे थे। इतने में उनकी नजर एक सुंदर युवती के तरफ गई। वह पानी से भरा हुआ रास्ता पार करने की कोशिश कर रही थी। बडे पैमाने पर वहाँ पानी जमा होने के कारण रास्ते से उस पार वह जा नही पा रही थी।

           दो भिक्षु में से एक जो बडा था, वह उस युवती के पास गया ओैर उसे उठाकर रास्ते के दुसरे किनारे छोड आया। फिर दोनों अपने आश्रम में वापिस आ गए। रात में छोटा भिक्षु, बडे भिक्षु के पास आया ओैर कहने लगा “ भाई, हम लोग तो भिक्षु है। स्त्री स्पर्श हमारे लिए वर्जित है। फिर आपने उस युवती को उठाकर रास्ता कैसे पार कराया?”

            यह बात सुनकर बडे भिक्षु ने हँसकर कहा “ अरे भाई, मैं तो उसे दुसरे किनारे छोडकर भी आया, पर तुमने तो अभी तक उसे उठाया है।” 

            मतितार्थ, जिसे काम, मदद करनी होती है वह काम कर खत्म कर भी देता है। मैं जो काम कर रहा हूँ वह सही है या गलत इसका मूल्यमापन करते बैठने से काम कभी पुरा ही नही होगा। इसका मतलब यह भी नही है की बिना सोचे-समझे काम करते चले जाना है ओैर बाद में पश्चाने की नौबत आ जाए। कुछ ऐसे विचार जो हमे अच्छे लगे उस पर सोच-विचार कर वह काम पुरे कर सकते है। फिर उससे कुछ गलत परिणाम भी निकल आते है तो वह पता होने के कारण उस स्थिती का कैसे सामना करना है इसका ग्यान व्यक्ती को पहले से ही रहता है। हर एक सिक्के के दो पैलू रहते है। कुछ ना करनेवाले व्यक्ती सिक्का दोनों तरफ से देखते रहते है। किसी एक नतिजे पर कभी नही पहुँच पाते ओैर जब कोई दुसरा, सिक्के के एक बाजू का विचार सोचकर कुछ निर्णय लेता है तब यही लोग उसकी निंदा करने लगते है। वैसे देखा जाय तो मानवता, सहिष्णुता यही सिखाती है की सब पर दया करो, सबकी मदद करो। उस समय व्यक्ती की प्रतिष्ठा, आदर्शवाद, मुल्य सामने रखकर किसी को मदद ना करे तो यह सही बात नही है। ईश्वर ने एक तरह से अपनी परीक्षा ली है ऐसे समझना चाहिये। हर एक में ईश्वर रहता है यह बात समझकर की हुई सेवा भगवान को बहुत पसंद आती है, लेकिन मैने यह किया, वह किया इस बात का अहंकार मन में नही आने देना, कर्ताभाव दूर रखने से निष्काम कर्म का आनंद बडा मजा लाता है। समाज में जब भी सेवा करने का मौका मिले तब वह जरूर करनी चाहिये।

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