उन्नीस
यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़ गयी। यह एक सप्ताह में रावसाहब का तीसरा चक्कर था दिल्ली का। लेकिन इस बार यह खबर वह ले ही आये कि केन्द्रीय सरकार के एक केबिनेट मंत्री ने इस महीने के आखिरी सप्ताह में नये बने अस्पताल के उद्घाटन की मंजूरी दे दी। व्यापक पैमाने पर उद्घाटन समारोह की तैयारियाँ शुरू हो गयीं।
अस्पताल के नाम को लेकर पिछले पन्द्रह-बीस दिन से जो बवाल मचा हुआ था वह भी एकाएक समाप्त हो गया। जिला प्रशासन ने साफ तौर पर कह दिया था कि नाम को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता। प्रदेश के जिस स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर इस अस्पताल का नाम रखने की माँग कई स्थानीय संगठन कर रहे थे, उन्हें सूचित कर दिया गया था कि उनका शताब्दी समारोह अभी निर्धारित नहीं है। दूसरे, उनका जन्म शताब्दी वर्ष लगभग दो माह पूर्व बीत चुका था, अत: अब उनके नाम पर अस्पताल के नामकरण का कोई औचित्य नहीं था। तीसरा, और सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि स्वीडन की जिस कम्पनी ने अस्पताल के लिए हुए व्यय की एक बड़ी राशि उपलब्ध करवायी थी उसके अधिकारियों का भी मानना था कि नाम को किसी विवाद से बचाने के लिए उसका नाम कंपनी द्वारा सुझाया गया 'चाइल्डहुड' ही रखा जाये। लगभग इसी पर सबकी सहमति बन गयी थी, क्योंकि इस नाम पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। किसी एक नेता के नाम पर नामकरण होने में अन्देशा यह था कि उनके अनुयायियों के अलावा दूसरे पक्षों के लोग उसे स्वीकार न करें। इस नाम में एक आकर्षण भी था और अर्थ भी। यह आधुनिक भी लगता था। अस्पताल में, इस छोटे शहर में उपलब्ध सुविधाओं की तुलना में, कई अत्याधुनिक सुविधाएँ थीं।
झील के किनारे वाले परकोटे से बहुत सारी लेबर यहाँ लगा दी गई थी और यहाँ बचा-खुचा काम तेजी से हो रहा था। अस्पताल के अहाते को सजाया जा रहा था। उसके चारों ओर की सड़क के किनारे वृक्ष लगाये जा रहे थे। फुटपाथ पर रंगीन पत्थरों व सीमेंट से शानदार कारीगरी करके नयनाभिराम परिसर बनाया जा रहा था। पास के मैदान को साफ व समतल करके भव्य समारोह के योग्य बनाया जा रहा था।
रावसाहब स्वयं हर दूसरे-तीसरे दिन काम का मुआयना करने आते थे। वह गाड़ी खड़ी करके पैदल भी साइट पर चक्कर लगाया करते थे।
शंभूसिंह ने यह समाचार घर पर अपनी पत्नी व गौरांबर को भी सुनाया था। गौरांबर स्टेशन से लौटने के बाद से और भी गम्भीर रहने लगा था।
शंभूसिंह का बर्ताव उसे समझ में नहीं आता था। एक ओर तो बेटे की भाँति वह और उनकी पत्नी उसे चाहते थे, उसकी हर सुख-सुविधा का एहसास दिलाते थे, दूसरी ओर उसे यह आभास भी हरदम दिलाते थे कि उसे उनके लिए कुछ करना है।
गौरांबर सोच न पाता कि शंभूसिंह आखिर क्या चाहते हैं। वह किस प्रकार रावसाहब के खानदान से बदला लेना चाहते थे, किस प्रकार गौरांबर का इस्तेमाल करना चाहते थे। यह सब अब तक बिलकुल अस्पष्ट था।
क्या हो सकता है शंभूसिंह का इन्तकाम? क्या वह रावसाहब के साम्राज्य में कोई विध्वंस करवाना चाहते हैं? या किसी को जान से खत्म तक कर डालने की खौफनाक मुहिम उनके जेहन में पल रही है। या फिर वह राजनीति के शतरंज पर किसी भाँति रावसाहब को नीचा दिखाना चाहते हैं। और वह इसमें कहाँ और किस तरह काम आ सकता था। यह ठीक था कि शंभूसिंह ने जान पर खेलकर उसे लॉकअप से निकाला था। उस पर पनाह देकर बड़ा एहसान भी किया था परंतु शंभूसिंह किसी भी कोण से ऐसे निष्ठुर या अमानवीय नहीं दिखायी देते थे कि वह अपने उपकारों के बदले में गौरांबर की जान मुफ्त में ऐसे झोंक दें। आखिर बलि के बकरे और इंसान में कोई फर्क तो होता है। क्या शंभूसिंह नरबलि के लिए गौरांबर को पोस रहे हैं। यही सब उधेड़बुन गौरांबर के मन में रहती। वह बिलकुल बैरागी-संन्यासी-सा होता जा रहा था और मन से अपने आपको हर होनी-अनहोनी के लिए तैयार कर रहा था।
रेशम देवी जिस ममता और स्नेह से गौरांबर से पेश आतीं, उसे विरोधाभास का यह गोरखधंधा बिलकुल समझ में न आता।
एक दोपहर, जब शंभूसिंह घर में नहीं थे और गौरांबर अपनी रोज की दिनचर्या से निबट कर विश्राम कर रहा था, रेशम देवी से गौरांबर पूछ बैठा, ''काकी, काका साहब मुझे मन्दिर में जिन संत जी के पास ले जाते हैं, वह कौन हैं?''
''आज तुझे बैठे-बैठे उनका ख्याल कैसे आया?''
''वैसे ही! कौन हैं वे, आप लोगों से उनका परिचय कैसे है?''
रेशम देवी ने मुस्कुराकर गौरांबर की ओर देखा। थोड़ा-सा झिझकीं। पर गौरांबर उत्सुकता से उनकी ओर देख रहा था। वह कोई रहस्य उससे छिपाये न रख सकीं।
''बेटा, वो तेरे काका के बड़े पुराने मित्र हैं। बचपन के दिनों के।''
''हाँ, ये तो मैंने भी देखा काकी! मगर वो क्या करते थे, उनका घर-बार कहाँ है, वो संन्यासी बनने से पहले भी तो कुछ करते होंगे?''
''बेटा, संन्यासी जब संन्यासी बन जाते हैं, तो बस वे केवल संन्यासी ही रह जाते हैं। उनका आगा-पीछा कुछ नहीं होता।''
''पर काकी, वे तो सियासत में बड़ी दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें तो दुनियादारी का बड़ा ज्ञान है।'' गौरांबर ने आश्चर्य से कहा।
''बेटा, उनकी दिलचस्पी तो बातों की ही दिलचस्पी है। और दुनियादारी तो दुनिया से आँखें मूँदने के साथ ही जाती है।''
''पर वह जीवन को त्याग करके बैठ क्यों गये?''
''कोई आसानी से जीवन नहीं त्यागता। हाथ-पैर सभी मारते हैं जीने के लिए। पर हर जगह असफलता ही हाथ लगे..''
''क्या सारे संन्यासी असफल गृहस्थ होते हैं?''
रेशम देवी गौरांबर के इस प्रश्न पर हतप्रभ रह गयीं। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। गौरांबर ही फिर बोला, ''या तो आदमी मरते दम तक दुनियादारी में हार नहीं माने। जो दिन, जैसे दिन आयें, उन्हें दिलेरी से भुगते। या फिर हार ही जाये तो दीन-दुनिया से बेखबर ही रहे। ये बीच का रास्ता कैसा? देश की, समाज की, लोगों की, इतनी चिन्ता और लोगों से ही दूर जा बैठना। छिपकर जा बैठना। ये क्या शोभा देता है?''
''बेटा, तेरे सवाल बड़े मुश्किल हैं, मेरी जबान सीधी भी है और बहुत सारे वादे-वचनों से बँधी हुई भी। तू मुझसे कुछ न पूछ। अपने काका जी से ही पूछना।''
''अच्छा काकी, ये बताओ, मैं काका की क्या मदद कर सकता हूँ? मैं उनके लिए कुछ करना चाहता हूँ।''
''बेटा, तू अभी कह रहा था न कि सारे संन्यासी असफल गृहस्थ होते हैं। ऐसा नहीं है। असफल गृहस्थ तो असफल जोगी भी होंगे। हाँ, जिनकी असफलता इसलिये होती है कि वे नेक होते हैं, सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं, वे ही संन्यासी होते हैं ताकि अपनी आत्मिक शक्ति संचित करें और उन्हें सत्यपथ से डिगाने वालों का नाश कर सकें।''
''पर काकी, आज की दुनिया में किसी का नाश बहुत बड़ी या मुश्किल बात कहाँ है? आदमी की नन्ही-सी जान होती है। कोई भी, कहीं भी, कैसे भी ले सकता है। छल से, बल से, कोई भी किसी को भी मार दे।''
''बेटा, आदमी को उसकी देह से खत्म करना तो किसी भी सवाल का जवाब नहीं है। आदमी को खत्म करने के लिए पहले यह तलाश की जाती है कि उसकी नन्ही-सी जान रहती कहाँ है और फिर यह कोशिश की जाती है कि इसे इस तरह, कैसे खत्म किया जाये कि धरती पर पाप का बोझ कम हो। बढ़े नहीं। आदमी आदमी का खून कर दे तब तो पाप चढ़ता है। आदमी किसी आदमी के भीतर बैठा अमानुष खत्म करे.. तब बात है।''
''मैं कुछ समझा नहीं!''
''बेटा, तुझे मालूम है, पृथ्वीराज चौहान ने ऊँची अटारी पर बैठे हुए सुल्तान को आँखों पर पट्टी बाँधे शब्दबेधी बाण से कैसे मारा था?''
गौरांबर को यह सन्दर्भ समझ में नहीं आया। वह सपाट-से चेहरे से बैठा रहा।
रेशम देवी कुछ बोलतीं, इससे पहले ही गौरांबर फिर से बोल पड़ा, ''काकी, मैंने आपसे पूछा था कि मैं काका की मदद कैसे करूँ..''
गौरांबर की बात अधूरी रह गयी। तभी दरवाजे पर एक जोरदार धड़का हुआ। गौरांबर दरवाजा खोलने के लिए लपका। रेशम देवी भी उठकर चौखट तक चली आयीं।
दरवाजे पर शंभूसिंह थे, जो आज काम पर से काफी जल्दी लौट आये थे। उनके माथे पर हल्का तनाव और खिंचाव था। आँखें भी लाल-सी हो रही थीं। लगता था, जैसे उनकी तबीयत ठीक नहीं है। वह काफी धीमी आवाज में अपने जल्दी लौट आने का कारण बता रहे थे। वह कपड़े उतारकर बैठ गये। रेशम देवी पानी लेने भीतर चली गयीं।
गौरांबर उनके करीब ही बैठ गया। काफी देर तक चुप्पी रही। फिर शंभूसिंह ने बोलना शुरू किया, ''आज शहर में फिर दंगा उठा। न जाने क्या होता जा रहा है। ऐसा लगता है कि कोई इस शहर में फसादों की आदत बनाये रखना चाहता है।''
''क्या हुआ काका!'' गौरांबर ने उत्सुकता से पूछा। रेशम देवी भी पानी का गिलास लेकर आ गयी थीं। उसे शंभूसिंह को पकड़ा कर उनकी बात सुनने खड़ी हो गयीं। शंभूसिंह ने पानी पीकर गिलास हाथ में पकड़ लिया, परन्तु रेशम देवी उनकी बात सुनने के लिए ऐसी उत्सुक थीं कि उन्हें गिलास लेने का भी ख्याल न रहा। शंभूसिंह खाली गिलास उसी तरह हाथ में पकड़े बैठे रहे।
''बेटा, आज मैं तुझे एक जगह ले जाना चाहता था, पर अब तो जाना न हो सकेगा।''
''कहाँ काका?''
''मैंने एक जगह तेरे लिए काम की बात की थी। मगर आज शहर में फिर से दंगा भड़क गया।''
''कैसा काम है काका?'' गौरांबर ने उत्साहित होकर पूछा।
''बताऊँगा, तुझे बताऊँगा.. तू खुद देख लेना। तुझे पसन्द आयेगा।''
''गौरांबर को आन्तरिक खुशी के साथ-साथ थोड़ा-सा अचम्भा भी हुआ। शंभूसिंह उसके लिए काम तलाश कर रहे थे, यह जानकर उसे अच्छा लगा। वह भी काफी दिनों से खाली रहते-रहते उकता-सा गया था। पर उसे एक आशंका अब भी थी कि आखिर शंभूसिंह उससे चाहते क्या थे। वह वास्तव में उसे किसी रोजगार से लगा रहे थे या फिर वह चाल चलने की शुरुआत कर रहे थे, जिसमें गौरांबर को मोहरा बनना था।''
क्या वास्तव में शंभूसिंह के जिगर में कोई ज्वालामुखी है? क्या वह किसी इन्तकाम की आग में जल रहे हैं? क्या उनका कलेजा इतना आतंकवादी है कि वह गौरांबर से अपने ही बड़े भाई रावसाहब पर जानलेवा हमला करवा सकेंगे? किसी बम आदि से उन्हें बरबाद करवा सकेंगे? या फिर और किसी तरह उन्हें जलील करवायेंगे? गौरांबर के दिमाग में उतने ही ख्याल आते थे, जितने इन दिनों उसकी घनी दाढ़ी में बाल थे। एक अजीब-से भाव से आवेष्टित रहता था वह इन दिनों।
रात को खाना दोनों ने साथ खाया और फिर रोजाना की भाँति बातें करते-करते घर की छत पर जा चढ़े।
''गौरांबर बेटा, मेरा एक पुराना दोस्त है बचपन का। उसकी एक बेटी है।''
''जी..''
''मैं कह रहा था, मेरे दोस्त की बेटी शादी के लायक है। वह बहुत अच्छी है। घरेलू। सब काम में होशियार भी।''
''अच्छा..'' गौरांबर की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। वह प्रश्नवाचक मुद्रा बनाकर शंभूसिंह की बात सुनता रहा।
''तू एक दिन चल मेरे साथ, तुझे दिखा भी लाता हूँ।''
गौरांबर आश्चर्य से आँखें फाड़े देखता रह गया। उसकी आँखें कुछ शर्म और संकोच से झुक-सी गयीं। परन्तु तभी नीचे से रेशम देवी की आवाज ने खलल डाला, जो गौरांबर से नीचे से पानी का मटका उठाकर ऊपर ले जाने को कह रही थीं। गौरांबर पानी का घड़ा उठाकर छत पर लाया तो बात का सिरा ही बदल चुका था, क्योंकि रेशम देवी उसके पीछे-पीछे ऊपर चली आयी थीं। बात आई-गई हो गई।
आखेट महल प्रोजेक्ट के परिसर में पहला सार्वजनिक समारोह होने वाला था। अस्पताल के उद्घाटन की तारीख भी तय हो गई थी। वहाँ की चहल-पहल और तैयारियाँ देखकर लोग दबी जबान से यह भी कहने लगे थे कि इस प्रोजेक्ट के साथ-साथ बड़े रावसाहब का एक प्रोजेक्ट और भी चल रहा है। और वह था राजनीति में वापसी का। यद्यपि रावसाहब का दबदबा इस इलाके में वैसे भी किसी से कम न था, परन्तु अब विधिवत् वे चुनाव लड़ने की भूमिका भी बना रहे थे। यद्यपि इस बारे में सारी खबरें केवल अटकलों तक सीमित ही थीं, मगर ये ऐसी अटकलें थीं जिन पर अविश्वास किसी को नहीं था।
लोग तो यहाँ तक कहने लगे थे कि राज्य विधानसभा के लिए इस इलाके से नरेशभान को भी टिकट दिये जाने की सम्भावना थी। खुद नरेशभान के चेले और चमचे ऐसा प्रचार करते घूमते थे। नरेशभान खुद भी कभी चर्चा चलने पर ऐसी किसी बात का खण्डन नहीं करता था।
लोग समझ न पाते थे कि आखिर हमने देश में राजकाज चलाने के लिए जो व्यवस्था चुनी है वह किस बात पर आधारित है। इस प्रणाली में सारा दारोमदार केवल इसी बात को लेकर था कि आप सार्वजनिक जीवन में जोड़-तोड़ के माध्यम से लोगों के बीच कितने जाने-पहचाने जाते हैं। और अब तो लोगों ने इसका एक और प्रभावशाली रास्ता निकाल लिया था। लोगों के बीच लोकप्रिय होने के लिए स्वयं को कुछ विशेष करने की जरूरत नहीं समझी जाती थी बल्कि लोग अपने आसपास के लोगों की लोकप्रियता को कम करके अपनी साख को बड़ा दिखाने की कोशिश करते थे। इसके एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना एक आम बात हो चली थी। आम जनता की स्मरण शक्ति इतनी सीमित थी कि उसे यह याद न रह पाता था—किसने क्या किया है। बस, उन्हें तो मीडिया में बार-बार आये लोगों के नाम याद रह जाते थे और वे यंत्रचालित से जाकर जरूरत पड़ने पर उन्हें वोट दे आया करते थे।
अस्पताल के उद्घाटन समारोह में केवल तीन दिन शेष रह गये थे। आखेट महल के पिछवाड़े वाली सड़क के लगभग सात किलोमीटर लम्बे रास्ते को साथ-सुथरा करके सजाया गया था, जिससे कार द्वारा मंत्री महोदय आने वाले थे। स्थानीय अखबारों में पिछले सात-आठ दिन से रोजाना बड़े-बड़े इश्तहार दिये जा रहे थे जिनमें आखेट महल प्रोजेक्ट, अस्पताल और बाकी सारी योजनाओं के बारे में विस्तार से जानकारी दी गयी थी। विकास और उपलब्धियों के आँकड़े दिये गये थे। विदेशी कम्पनियों की ओर से शुभकामनाएँ व बधाइयाँ दी गयी थीं। कई नेताओं के फोटो दिये गये थे। एक पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में तो सत्ता दल के दो-तीन दिवंगत नेताओं के फोटो देकर उनके नीचे रावसाहब और उन मंत्री महोदय का फोटो दिया गया था जो उद्घाटन के लिए आने वाले थे। इन विज्ञापनों में तरह-तरह से दर्शाया गया था कि कितना विकास हो चुका है। एक छोटे-से विज्ञापन में नरेशभान की तस्वीर भी थी। और उद्घाटन से ठीक दो दिन पूर्व जो विज्ञापन छापा था उसमें तो बड़े-बड़े अक्षरों में नरेशभान के साथ-साथ रावसाहब के ड्राइवर के साले का नाम भी छपा था। यह सारे नाम सत्ता पक्ष के बड़े नेताओं की तस्वीरों के नीचे निवेदक के रूप में छपे थे। ये नाम ऐसे थे, जिन्हें कभी किसी ने, किसी से निवेदन करते हुए न देखा था। ये लोग निवेदन न करते थे, बल्कि लोग इनसे निवेदन करते थे। कभी इलाके की अकेली और बेसहारा लड़कियाँ इनसे छोड़ देने का निवेदन करती थीं, कभी राह चलते लोग इनसे और ज्यादा वसूली न करने का निवेदन करते थे।
और अब अखबार ने निवेदक के रूप में इस सबके नाम छापे थे। अखबारों में इन विज्ञापनों को छापने का तमाम खर्चा उन लोगों ने किया था, जो इन तस्वीरधारियों और नामधारियों से वर्ष भर तरह-तरह के निवेदन किया करते थे।
जिस दिन उद्घाटन होना था, उसके कुछ घण्टे पहले ही भारी मात्रा में पुलिस यहाँ-वहाँ तैनात की गयी थी। यह अब एक आम रिवाज था। सत्ताधारी लोग जब अपने किसी भी कार्य या उपलब्धि के बाद जनता के बीच आते थे, तो वे मन-ही-मन जानते थे कि जनता उनके काम से कितनी खुशी होगी। और इसलिये प्राय: सभी को घर से निकलते ही भारी पुलिस बन्दोबस्त और सुरक्षाकर्मियों की जरूरत पड़ती थी।
जिस दिन समारोह होने वाला था, अलसुबह लगभग साढ़े तीन बजे, शंभूसिंह के घर के सामने दो जीपें आकर रुकीं। एक-एक जीप से दस-बारह आदमी कूद-कूदकर भीतर आये। दालान में भगदड़-सी मच गयी। इन लोगों में कई चेहरे गौरांबर के जान-पहचान के भी थे। स्वयं वृद्ध संत महाराज आज पहचाने नहीं जा रहे थे। उन्होंने केसरिया रंग का लम्बा कुर्ता व धोती धारण किया हुआ था। माथे पर विशाल तिलक था। सन्त जी के खण्डहर के पास वाले मन्दिर के पुजारी भी साथ में आये थे।
रेशम देवी के साथ-साथ गौरांबर को भी इन मेहमानों की आवभगत में भागदौड़ करनी पड़ी। सबके नहाने-धोने का बन्दोबस्त किया गया और पौ फटने तक सबको नाश्ता आदि भी करवा दिया गया। शंभूसिंह भी उत्साह से तैयार हुए और गौरांबर को भी तैयार होने का निर्देश रेशम देवी ने दिया।
दोनों गाड़ियों में बुरी तरह लाद-ठूँसकर वे लोग आखेट महल परकोटे की ओर चल पड़े। रास्ता कच्चा था। इसीलिए जीपें धूल उड़ाती और हिचकोले खाती हुई जा रही थीं। महल से काफी दूर, दो किलोमीटर की दूरी पर, एक सुनसान-से खण्डहरनुमा मकान में जीपें रुकीं। गौरांबर को यह देखकर काफी आश्चर्य हुआ कि जीप से सन्त जी के साथ-साथ गौरांबर को भी उतरने को कहा गया। साथ में केवल एक लड़का और उतरा बाकी सभी लोगों को लेकर धूल उड़ाती हुई जीपें चली गयीं। देखते ही देखते कारवाँ ओझल हो गया। गौरांबर साथ के दूसरे लड़के से परिचित न था। लड़का डील-डौल में लम्बा-तगड़ा होने पर भी उम्र से ज्यादा न था। सन्त जी दोनों को साथ लेकर खण्डहरनुमा मकान के भीतर दाखिल हो गये। भीतर की ओर एक अधबना कमरा था जिसमें और कोई न था। सवेरे का उजाला थोड़ा-थोड़ा फैल चुका था, जिससे दिखाई दे रहा था कि दूर-दूर तक बियावान जंगल था। कोहरे के कारण वातावरण ढका-ढका सा था। हल्की-सी ठण्डक भी थी।
गौरांबर का दिल टूटने लगा। तीनों में से कोई किसी से कुछ नहीं बोल रहा था। थोड़ी दूर की चुप्पी के बाद वृद्ध ने ही बोलना शुरू किया। और तब पहली बार गौरांबर के सामने यह रहस्य उजागर हुआ कि शंभूसिंह और उस वृद्ध संन्यासी ने आखेट महल प्रोजेक्ट कभी पूरा न होने देने और विदेशी कम्पनी के इस लाइसेंस को रद्द करवाने की शपथ ली हुई है। वे इस काम को देश की गुलामी की शुरुआत मानते हैं।
गौरांबर की रगों में यह रहस्य जानकर बिजली-सी दौड़ गयी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि सन्त महाराज के शान्त और निस्पृह श्रीमुख से उसे ऐसी जानकारी सुनने को मिलेगी। साथ वाला दूसरा लड़का अविचलित था। गौरांबर को यह भी बता दिया गया कि उसका तथा दूसरे युवक का काम जान-जोखिम वाला है किन्तु उनकी पूरी हिफाजत करने की कोशिश की जायेगी और कुछ भी बुरा हो जाने की स्थिति में उनके घरवालों को बहुत बड़ी राशि के साथ-साथ पूरी सुरक्षा और सहायता दी जायेगी।
गौरांबर के हाथ-पैर सुस्त हो गये। सन्त जी का उसे यह समझाना भी निष्फल रहा कि जो कार्य उनसे लिया जा रहा है वह देश के हित में बड़ा कार्य है। उनकी गिनती भी देश के बड़े शहीदों में ही होगी, जब लोगों को पता चलेगा कि उन्होंने देश में भ्रष्टाचारी शासकों द्वारा विदेशियों को फिर से घुसाने के पाप को रोकने का काम किया है। पैसे और सत्ता के लोभ में सन् पन्द्रह सौ निन्यानवे का जो इतिहास देश की चुनी हुई सरकार दोहराने जा रही थी, उसे रोकने का यही एकमात्र उपाय था कि काले अंग्रेजों की मटमैली छाया को पहचाना जाये और उसे गाँव-गाँव, शहर-शहर बेनकाब किया जाये।