Aakhet Mahal - 13 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | आखेट महल - 13

Featured Books
  • DIARY - 6

    In the language of the heart, words sometimes spill over wit...

  • Fruit of Hard Work

    This story, Fruit of Hard Work, is written by Ali Waris Alam...

  • Split Personality - 62

    Split Personality A romantic, paranormal and psychological t...

  • Unfathomable Heart - 29

    - 29 - Next morning, Rani was free from her morning routine...

  • Gyashran

                    Gyashran                                Pank...

Categories
Share

आखेट महल - 13

तेरह

किसी बहुत पुराने खण्डहर से सटा एक मकान का जर्जर और अधबना हिस्सा था वह। आसपास की टूटी-फूटी मैली और खस्ताहाल दीवारें। इन्हीं के बीच एक साफ-सुथरा-सा कमरा था, जो पुराना होते हुए भी किसी समय शानदार होने का आवाज भी गवाह था। फर्श पर रंग-बिरंगे पत्थरों की टाइलें बिछी हुई थीं। और इसी कमरे में एक कोने में अँधेरे की पतली-सी तंग चौकी के बीच किसी तहखाने में एक रास्ता उतरता था। इसी की सीढ़ियों पर बैठा था एक बूढ़ा आदमी। सफेद और काले मिले-जुले बालों की दाढ़ी और कन्धों तक आते हुए खिचड़ी बालों वाला।

मन्दिर के पुजारी का बेटा पुखराज जब तश्तरी में रोटियाँ और तरकारी लेकर पानी के लोटे के साथ पहुँचा, तो वह तहखाने की ओर पैर लटकाये इस तरह बैठा था, जैसे कोई बूढ़ा कब्र में पाँव लटकाये बैठा हो। पुखराज ने कमरे के भीतर पाँव रखते ही उधर देखा, फिर आहिस्ता-से थाली को आले पर रखकर लोटा भी उसके साथ सावधानी से रख दिया और पलट कर बूढ़े के पीछे आकर खड़ा हो गया।

''अरे पुखराज बेटा तू! तू आज पढ़ने नहीं गया?''

''मेरे कॉलेज की छुट्टी चल रही है अभी।''

''अच्छा-अच्छा.. अरे हाँ, मैं तो भूल गया, तू इस बरस कॉलेज में आ गया बेटा! मैं तो तुझे..''

''हाँ! आप तो मुझे दूध पीता बच्चा समझ रहे थे। है ना..!''

''नहीं-नहीं.. बहुत अच्छा हो गया। तू आ गया बेटा, आ, आजा मेरे साथ आ।''

''कहाँ..?''

''नीचे.. यहाँ तहखाने में। देख, मैं कैसा खेल खेल रहा था, तू भी देख।''

पुखराज बूढ़े के साथ-साथ आहिस्ता-से तहखाने में उतर गया और अँधेरे में ही आठ-दस कदम चलने के बाद उस कुएँनुमा कमरे में पहुँच गया, जो काफी ऊँची दीवारों वाला था और उसकी छत खुली थी। छत पर लोहे की जाली ढकी थी। जाली ऊपर से, मन्दिर के पिछवाड़े से दिखायी देती थी। यहाँ से देखने पर यह कोई लोहे की सलाखों से ढका हुआ कुआँ दिखायी देता था। इस कुएँनुमा कमरे में बहुत सारे कबूतर थे, जो फर्श पर, दीवारों के दो छेदों और सलाखों के आसपास फैले हुए इधर-उधर उड़ रहे थे।

पुखराज को बूढ़े के साथ इस खेल में मजा आया। कुएँ के मुहाने पर चुपचाप बैठ गया। बूढ़ा भीतर उतर गया।

''देख बेटा.. ये देख, मैं इनके लिए दाना डालता हूँ..'' बूढ़े ने कहते हुए कुरते की जेब से एक मुट्ठी ज्वार के दाने लेकर चारों ओर छितरा दिये। कबूतर फड़फड़ा कर इधर-उधर उड़े और गुटरगूँ करते हुए कुछ कबूतर जल्दी-जल्दी दाना चुगने लगे। बूढ़ा प्रसन्नचित्त होकर कबूतरों को और सोलह-सत्रह बरस का यह किशोर बूढ़े को देखने लगे।

''ये देख, देखा तूने? खा रहे हैं।''

''हाँ काका!''

''लेकिन, तूने देखा, सब नहीं खा रहे हैं।''

''हाँ, जिन्हें भूख है, वो खा रहे हैं। जिन्हें भूख नहीं हैं, वो नहीं खा रहे।'' बूढ़े ने जोर देकर पुखराज की बात को दोहराया, ''देखा न बेटा, जिन्हें भूख है, वही खा रहे हैं।''

''अच्छा चल, अब तू इधर आ। इनमें से दो को पकड़ ले।''

पुखराज को बड़ा आनन्द आया। बाबा कितना अच्छा था ये, कबूतरों को हाथ में उठाने को कह रहा था, जबकि अभी दो बरस पहले तक अपने बचपन से ही इन कबूतरों को हाथ लगाने के लिए माँ उसे डाँटती थी। उसने झटपट सीढ़ी से उतरकर फड़फड़ाते हुए दो कबूतर अपने हाथ में पकड़ लिए। उसे बड़ा रोमांच हो आया। बूढ़े ने भी झुककर दो कबूतर उठाये और अपने हाथों में लिए-लिए सीढ़ी चढ़कर तहखाना पार करके अँधेरे वाली दीवार के करीब आ गया। पुखराज भी बूढ़े के पीछे-पीछे आ गया।

''अब मैं जोर से बोलूँगा जय श्रीराम, और तू मेरी बात खत्म होते ही इन्हें छोड़ना। समझा।''

''समझा काका!'' पुखराज किसी खिलाड़ी की भाँति मुस्तैदी से तैयार हो गया।

''जय श्रीराम..'' जोर से चिल्लाया बूढ़ा और इस आवाज के साथ दोनों ने अपने-अपने हाथों से कबूतर छोड़ दिये। कबूतर छोड़ते ही तेजी से उड़कर अपने साथियों में जा मिले। एक कबूतर फड़फड़ाता हुआ तहखाने में ही चक्कर काटता रहा। और फिर एक छोटे रोशनदान में जा बैठा। जो तीनों कबूतर जाली वाले गोल कमरे में गये, उनमें से एक ऊपर छत की ओर दीवार के एक सुराख में जा बैठा। उड़ते-उड़ते फड़फड़ाते दो कबूतर पतली-सी जगह से निकलने के चक्कर में एक-दूसरे से टकराये और फिर पहले एक कबूतर भीतर चला गया। दूसरा एक-दो सेकण्ड वहीं फड़फड़ा कर उसके पीछे-पीछे चला गया।

बूढ़े ने दोनों हाथ इस तरह झाड़े, मानो मिट्टी झाड़ रहा हो। पुखराज उसकी ओर आश्चर्य से देखता रहा।

''आओ, चलो ऊपर। खेल खत्म!''

बूढ़ा वापस सीढ़ियाँ चढ़कर बाहर कमरे में आ गया। उसके बैठते ही पुखराज ने लोटे से थोड़ा पानी डालकर उसके हाथ धुलाये और थाली उठा कर उसके सामने रख दी।

बूढ़ा खाना खाने लगा। पुखराज कमरे से बाहर निकलने लगा। दरवाजे के पास पहुँचते ही वह वापस पलटा और बोला, ''अरे, मैं तो भूल ही गया काका! भाईसाहब ने कहा है, आपसे कोई मिलने आये हैं, वो अभी थोड़ी देर में उन्हें आपके पास लेकर आयेंगे। आप खाना खालो।''

कह कर लड़का बाहर निकल गया।

बूढ़ा कुछ सोचता हुआ-सा खाना खाने लगा। 

खाना खाकर बूढ़े ने लोटे के पानी से कुल्ला किया ही था कि खण्डहर के बीच के पतले से रास्ते से तीन आदमी आते हुए दिखायी दिये। आगे-आगे इसी मन्दिर का पुजारी था, जिसका लड़का बूढ़े को अभी-अभी खाना देकर गया था। उसके पीछे-पीछे शंभूसिंह और उनके साथ में गौरांबर था।

दोनों आगन्तुकों ने बूढ़े को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। चारों जमीन पर एक कोने में बिछी दरी पर बैठ गये। पुजारी ने ही बात शुरू की-

''ये वही लड़का है भाईसाहब, जिसके लिए इन्होंने पत्र में आपको लिखा था।''

''अच्छा.. अच्छा..'' कहते हुए बूढ़े ने गौरांबर की ओर देखा। उसने भी आश्चर्य से उनकी ओर देखते हुए उन्हें दोबारा प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़ दिये।

''खुश रहो बेटा!'' बूढ़े ने कहा।

तीनों के बीच काफी देर तक बातें होती रहीं। गौरांबर मूक दर्शक की भाँति तीनों के बीच बैठा रहा। उन लोगों की बातचीत से उसे केवल इतना समझ में आ रहा था कि वे तीनों किसी काम की योजना बना रहे हैं। पर यह काम क्या है, और गौरांबर की अपनी भूमिका इसमें क्या है, इस बात से वह पूर्णत: अनभिज्ञ था। थोड़ी ही देर बाद पुखराज जब बर्तन उठाने वापस कमरे में आया तो बूढ़े को जैसे कुछ याद आया। एकदम से बोला—

''इन लोगों ने भोजन कर लिया कि नहीं?''

''हाँ-हाँ, हम तो बहुत देर पहले ही आ गये थे। भोजन भी हो गया। दर्शन भी हो गये। हमने सोचा, आपसे तो शाम को भी बातें हो जायेंगी। इसलिये पहले इनसे बातें करने बैठ गये। ये शाम को मन्दिर में व्यस्त हो जायेंगे।'' शंभूसिंह ने कहा।

पुजारी जी मुस्कुरा दिये।

करीब आधे घण्टे बाद पुजारी जी उठे और शंभूसिंह से मुखातिब होकर बोले, ''तो ठीक है साहब, आप लोग आराम करो। लेट लो यहीं थोड़ी देर। मैं अभी शरबत भिजवाता हूँ।'' कहकर उन्होंने हाथ जोड़ लिए। 

पुजारी के जाते ही शंभूसिंह और बूढ़ा दीवार की टेक लगाकर दरी पर अधलेटे-से हो गये। गौरांबर ने भी दीवार के नजदीक सरक कर दीवार का सहारा लिया और पैर फैला लिए। वह ध्यान से दोनों बुजुर्गों की बातें सुनने लगा। बीच-बीच में उसका ध्यान कमरे की बनावट पर जाता और वह इधर-उधर देखने लगता। बाहर से देखने से जो बिलकुल खण्डहर-सा दिखायी देता था, उसी में पिछवाड़े की ओर जरा भीतर को चलकर यह कमरा बना था। यह कमरा मन्दिर के पिछवाड़े की ओर था। मन्दिर के सामने पुजारी का मकान था। पुरानी शैली में बना हुआ। घुमावदार सीढ़ियों से होकर ऊपर के गलियारे में रास्ता जाता था। दोनों बातों में खो गये..

''हजारों साल का इतिहास पढ़ लो, ये देश कभी भी दस-बीस-पचास साल से ज्यादा आजाद रहा ही नहीं। जरा-जरा से देश हैं, देखो साले, अपने एक छोटे राज्य के बराबर। और हमारे एक-एक बड़े शहर के बराबर उनकी जनसंख्या है, फिर भी साले हुकूमत चलाते हैं हमारे पर।'' शंभूसिंह बूढ़े से कह रहे थे और गौरांबर को बातचीत के विषय और शैली पर अचम्भा हो रहा था।

''भाई, इतिहास रटने की जरूरत क्या है। इतिहास तो यहाँ बार-बार अपने को दोहराता है, फिर देख लेना, पाँच-सात साल ठहर जाओ, फिर किसी देश की गुलामी करना पक्का है। बिलकुल वही तैयारी है, जैसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जमाने में थी। बार-बार जनता को मूर्ख बनाते हैं। जो आजादी के लिए लड़ रहे थे वो आज भी रोटी के लिए लड़ रहे हैं और जो तब फिरंगियों की गुलामी कर रहे थे वो आज देश पर राज कर रहे हैं। आजादी की हाँक गाँधी ने लगायी, और आजादी लपक ली नेहरू ने। देश के हजारों-लाखों लोगों को चूतिया बना रहे हैं साले!'' गद्दी के लिए अपनी औलादों को विदेशों में पढ़ा-पढ़ाकर तैयार कर रहे हैं और यहाँ करोड़ों बच्चे देसी स्कूलों में पढ़-पढ़कर मूर्ख बन रहे हैं।

''अजी, अब विदेशों में भेजने की क्या जरूरत है। अब तो यहीं विदेशी स्कूल, विदेशी माल, विदेशी पैसा, विदेशी तकनीक आ रही है। अंग्रेजों ने सत्ता सौंपी उन रायबहादुरों और रायसाहबों को, जो कि उस समय उनके सामने झोली फैलाये खड़े थे। और उन्हीं की औलादें, उन्हीं के पिल्ले आज कुर्सियों पर हैं। पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को कचरे के ढेर से ढूँढ़-ढूँढ़ कर शहीदों की तख्तियाँ निकलवाते हैं, उसके बाद फिर जहाँ-के-तहाँ।''

''लोगों का करोड़ों रुपया कोई एक आदमी निगल ले और रोज उसका नाम और फोटो अखबारों में पढ़-पढ़कर चाटते रहो, न पैसा मिले और न दलाल। ये व्यवस्था है साहब, इनकी। हरामी के पिल्ले कहते हैं, खुली, विदेशी अर्थनीति अपना रहे हैं। खुली विदेशी नीति यही तो है, हराम का पैसा खा लो और विदेश में उड़ जाओ।'' 

''तभी तो ये दिन देखने पड़ रहे हैं कि एक पूरा-का-पूरा शहर बमों से उड़ाकर एक आदमी परदेस में जा बैठता है और यहाँ से साले हाथ मलते रह जाते हैं। अभी तो देखते जाओ, विदेशी पैसा यहाँ आने दो। यहीं के लोगों की खाल की जूतियाँ बनेंगी और विदेशियों के लिए निर्यात होंगी।''

गौरांबर ध्यान से बैठा बातें सुन रहा था, मगर उसे इनमें से आधी बातें समझ में नहीं आ रही थीं। थोड़ी देर बाद एक तश्तरी में शरबत के तीन गिलास रखकर पुखराज फिर कमरे में आया। तीनों को गिलास दिये उसने।

''अब ये नया चक्कर चलाया है। जब-जब इन पर मुसीबत आती है, अपने कर्मों को तो देखते नहीं, नया शिगू$फा छोड़ देते हैं। साले कहते हैं, धर्म को राजनीति से अलग करेंगे। संसद में विधेयक लायेंगे। आज देश की दुर्दशा यहाँ तक पहुँच गयी कि बेवकूफों की राजनीति धर्म को दूर रखने का विधेयक ला रही है। अरे, होना तो यह चाहिये था कि राजनीति को सबसे दूर रखने का विधेयक आता। राजनीति शिक्षा से दूर रहती। राजनीति प्रशासन से दूर रहती। पर ये गुण्डे राजनीति से धरम-करम को दूर रखेंगे। क्या होगा इससे पता है..?''

''होगा क्या, हिटलरों के साथ-साथ बाबरों, नादिरशाहों का राज खुले खजाने चलने लगेगा। इन्हें बाहर से अनाप-शनाप पैसा मिल ही इसलिए रहा है। अरब देशों का माल यहाँ इन्हीं कामों में तो लग रहा है।'' शंभूसिंह ने उत्तेजना में कहा। 

''बिलकुल! ये कानून ठीक वैसा है कि रावणों की लंका बनकर चारों तरफ खड़ी होती रहे, राम पर तीर चलाने की पाबन्दी का विधेयक ले आओ। साले, किसी भी शहर की किसी भी बस्ती को देखो, राक्षस कैसे फलफूल रहे हैं। छ: छ: गाड़ियाँ उनके दरवाजे पर खड़ी मिलेंगी, हजारों-लाखों की जमीनें, फार्म हाउस फैले-बिखरे पड़े हैं। टैक्स वाले दुम हिलायें और पाबन्दी लगाने की सूझी है धर्म पर, ईश्वर के नाम पर, संन्यासी, वैरागियों पर। अधर्म पर नहीं, धर्म पर पाबन्दी लगाने की सूझी है।''

''ये जो घर-घर अफीम के पेड़ लगा दिये हैं न, रंगीन टेलीविजन, फ्रिज, वी.सी.आर. और नीली-पीली फिल्में, इनसे आम आदमी के दिमाग तो सुला दिये हैं सालों ने। बोले कौन? अपनी बात तोड़-मरोड़कर चाहे जैसे टी.वी. पर, रेडियो पर सुनाते रहते हैं। लोग कूल्हे मटकाऊ नाचों में और गला फाड़ गानों में मगन हैं।'' 

बूढ़े की वेशभूषा से गौरांबर ने कतई ये अन्दाज नहीं लगाया था कि उसका आधुनिकता का बोध इस खण्डहर में रहकर भी इतना जबरदस्त होगा। उसके बात करने के ढंग से भयंकर कुण्ठा और बागीपन की झलक मिलती थी। पर पिछले दिनों तरह-तरह के अनुभव झेल चुका गौरांबर जानता था कि उसकी सारी बातें अक्षरश: सही हैं। जितनी उसकी समझ थी, उसे देखते हुए आज के माहौल पर उसकी टिप्पणी से गौरांबर का पूरा इत्तफाक था।

शंभूसिंह की भी एक-एक बात गौरांबर को सही प्रतीत होती थी। उनकी बातों में उसकी आवाज को भी स्वर मिल रहा था।

सुबह बहुत ही जल्दी उठ कर बस से निकलने के कारण गौरांबर की आँखों में नींद भरी थी और इन बातों के बीच कब उसकी आँख लग गयी, उसे पता ही न चला! शंभूसिंह और उस बूढ़े के बीच काफी देर तक बातें होती रहीं।

शाम का खाना उन सभी ने उस कमरे में साथ-साथ खाया। पुजारी जी रात को उन्हें दर्शन के लिए मन्दिर भी ले गये। बूढ़ा भी साथ गया।

खाना खाने के बाद रात को शंभूसिंह को किसी काम से पुजारी जी के साथ किसी से मिलने जाना था। वे लोग निकल गये थे। गौरांबर और बूढ़ा कमरे में रह गये।

कमरे में रात का वातावरण बड़ा बोझिल और उबाऊ-सा लग रहा था, क्योंकि कमरे में जो बल्ब था वह बहुत ही पुराना और मद्धिम था। लालटेन की सी रोशनी थी उसकी। चारों ओर के माहौल में भी नीरवता व्याप्त थी, क्योंकि मन्दिर बन्द हो जाने के बाद इलाका काफी निर्जन हो गया था।

गौरांबर बूढ़े के सामने बैठा था। दिन भर उन लोगों के बीच गुजार देने के बाद अपरिचय या संकोच जैसा कुछ नहीं रहा था। बूढ़े ने गौरांबर से काफी बातें कीं। उसे बहुत कुछ बताया। उस जगह के बारे में जानकारी दी।   

''तो तुझे भी खत्म कर दिया क्या उन्होंने?'' बूढ़े ने गौरांबर से सीधे पूछा।

''क्या!'' गौरांबर को ये सवाल बड़ा अटपटा-सा लगा। वह इसका आशय ही नहीं समझा। उसने जोर डालते हुए फिर पूछा, ''क्या..?''

''मैं पूछ रहा था कि क्या तुझे भी अभिमन्यु की तरह नामर्द बना दिया उन लोगों ने?''

गौरांबर बुरी तरह चौंका। यह उसके लिए सर्वथा नयी और रहस्यमयी बात थी, जिसकी ओर तरह-तरह से इशारा तो शंभूसिंह और रेशम देवी ने किया था किन्तु वे गौरांबर को स्पष्टत: कुछ समझा न सके थे। बिजली चमकने की-सी गति से गौरांबर को सारी बात का रहस्य-सूत्र पकड़ में आने लगा। रेशम देवी के उस दिन के बरताव का आशय भी उसके आगे अब उजागर हुआ। उसने आश्चर्य और उत्सुकता दर्शा कर बूढ़े को यह पता नहीं लगने दिया कि इस बारे में उसे मालूम नहीं है। बूढ़ा यही समझ रहा था कि शंभूसिंह गौरांबर को अभिमन्यु के विषय में सब-कुछ बता चुका होगा।

''देख, कैसा निपूता बना दिया बेशर्मों ने। बेचारे शंभूसिंह का तो वंश ही खत्म होने पर आ गया।'' बूढ़े ने कहा।

''नहीं, मेरे साथ उतना कुछ नहीं हो पाया, पर कोशिश की थी हरामियों ने। जान से मार डालने पर उतारू थे।''

''अभिमन्यु के साथ तो बहुत ही बुरा किया। तेल छिड़क कर आग लगा दी।'' दोनों जाँघों के बीच पेट तक दो बालिश्त का हिस्सा बिलकुल जलाकर खत्म कर दिया कम्बख्तों ने। नरेशभान की ही करतूत थी सब। अभिमन्यु को अपनी सहायता के लिए ठेकेदारी में रख लिया था उसने। लड़का नया-नया कॉलेज से निकल कर आया था। जोश था, संजीदगी थी। और सबसे बड़ी बात खानदानी था। उसने मनमानी और रण्डीबाजी नहीं करने दी। उसी में रंजिश पाल बैठा। उसे ये बात अखर गयी कि सहायता करने को अपने नीचे रखा लड़का उसे कुकर्म न करने दे। ये कैसे हो सकता है! बस, इसी में सब कुछ समाप्त हो गया। रावसाहब का हाथ नरेशभान के सिर पर था। खुद रावसाहब का हरामीपना कौन-सा कम रहा। सगे भतीजे को नहीं बख्शा। अभिमन्यु का मन तो पहली ही यहाँ से उचाट हो गया था। बाद में फौज में भर्ती में आ गया। पर इसी वजह से मेडिकल में निकाल दिया उसे। लिया नहीं। लड़के ने पलटकर गाँव का रुख नहीं किया, देश छोड़कर चला गया। क्या करता, मरे फौज वालों ने भी तो उसे अपाहिज बता दिया। और जिसने ये सब हाल किया, उसे किसी ने कुछ नहीं बताया। जो असली अपाहिज था, हरामी, आज भी ढीली लँगोटी लेकर वहीं महलों में पल रहा है। रावसाहब का दाहिना हाथ बना हुआ है।

अभिमन्यु के बारे में यह सब जानकर गौरांबर को एक अजीब-सी हैरत हुई। उसे लगा, उसका इतिहास इसी बस्ती में ज्यों-का-त्यों पहले भी दोहराया जा चुका है। अब उसे सारी बात का मर्म समझ में आ गया था कि क्यों शंभूसिंह ने उसके साथ में सहानुभूति और ऐसा सुलूक दर्शाया। उसे शंभूसिंह में आस्था हो आयी। उनके लिए दर्द और बढ़ गया और वह मन-ही-मन ये ठान बैठा कि अब शंभूसिंह ने यदि किसी मन्दिर में उसकी नरबलि भी माँगी, तो वह इनकार नहीं कर सकेगा। वह रेशम देवी के बारे में सोचता रहा, जिन्होंने उस दिन अपनी बातचीत में कुछ इस तरह का संकेत दिया था।

रात को शंभूसिंह काफी देर से लौटे। कपड़े उतारकर सोने के लिए लेटे तो गौरांबर और बूढ़ा उसी तरह बातें करते-करते उनके पास खिसक आये। वह बूढ़े को धीमी आवाज में कुछ बताते रहे। उन दोनों के बीच होती बातचीत कभी-कभी इतनी धीमी हो जाती थी कि गौरांबर सुन भी नहीं पाता था। इसी बात का फायदा उठाकर गौरांबर आहिस्ता से उठकर कमरे से बाहर चला आया और खण्डहर की एक टूटी-सी दीवार पर बैठ गया। बाहर, भीतर की अपेक्षा थोड़ी ठण्डक भी थी। गौरांबर को बीड़ी की तलब लगी। वह वापस कमरे में आया और दीवार पर एक कील में टँगी अपनी पैंट की जेब से बीड़ी का बण्डल और माचिस निकाल कर फिर बाहर जा बैठा। बाहर की हवा उसे बहुत अच्छी लग रही थी।   

यह किसी पहाड़ की पथरीली-सी तलहटी में बसा अपेक्षाकृत निर्जन इलाका था। चारों ओर इक्का-दुक्का मकान छितराये हुए दिख रहे थे। थोड़ी दूर तक सन्नाटा था, फिर आगे शहर बनने की प्रक्रिया में बढ़ते कस्बे की जगमगाती बत्तियाँ दिखायी दे रही थीं। मन्दिर खामोशी से खड़ा था। लोग-बाग अपने-अपने घरों में जा चुके थे। काफी देर तक बाहर बैठे-बैठे गौरांबर अपने बारे में, आने वाले दिनों के बारे में, सोचता रहा। थोड़ी देर बाद जब उसे भीतर से आने वाली आवाजों का सुर जरा ऊँचा-सा प्रतीत हुआ तो वह दीवार से उठकर वापस कमरे के भीतर आ गया और दरी पर अपने लिए एक ओर छोड़ी जगह पर लेट गया। 

शंभूसिंह और बूढ़े में दिन की भाँति जोश-खरोश से बातें चल रही थीं। दोनों ही कभी-कभी बातों में ऐसे खो जाते थे कि सामने वाले को बिलकुल ही नासमझ समझकर किसी प्रवचनकर्ता की भाँति अपनी बात समझाने की मुद्रा में आ जाते थे। शंभूसिंह की आँखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी।

''क्या जरूरत है इन प्रोजेक्टों की! कहते हैं, इनसे लाखों लोगों को काम मिलता है। अरे, ये क्या कोई रोजगार है। पेट में दो मुट्ठी दाना डालने के लिए हजारों आदमी-औरतें घर-बार और ठहरी जिन्दगी छोड़कर इन बस्तियों के किनारे जलालत और गजालत की जिन्दगी बितायें। जानवरों की तरह टाट और कपड़े के तम्बूओं में बच्चे पैदा कर-करके छोड़ते जायें। ऐसे बच्चे, जिनके न कोई संस्कार हों, न जिनका बचपन हो, और न जीवन हो। और इस सबसे जो हासिल हो वो दो-चार आदमियों की अय्याशी के लिए जाया हो। भला इसे विकास कहते हैं।''

''विकास की इसी बदनामी की आड़ में शहर-शहर गुण्डे पनप गये हैं। दलाल पनप गये हैं। जो किसान साल भर तक हड्डी गला के एक रुपये की रोटी खेत में उगाता है, उसे आम आदमी के पेट तक पहुँचाते-पहुँचाते पाँच रुपये की बना देते हैं दलाल। किसान वहीं-का-वहीं रहता है और ये अँगूठा छाप दलाल अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में और औरतों को ब्यूटी पार्लरों में भेजने लग जाते हैं। लाखों मजदूर रहने, सिर छिपाने का ठिकाना नहीं पाते और इनके फार्म हाउस बनते चले जाते हैं। विश्वास नहीं होता कि प्रताप, लक्ष्मी और पृथ्वीराज इसी देश में पैदा हुए थे कभी।''