Aakhet Mahal - 11 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | आखेट महल - 11

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आखेट महल - 11

ग्यारह

शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसका तो मानो दूसरा जन्म ही हो गया। आधी रात को चोरों की तरह छिपकर खुद शंभूसिंह उसे अपने साथ गाँव लाया, पर सवेरा होते ही गौरांबर को लगा, मानो वह बरसों बाद, अपने माँ-बाप के बीच, अपने घर पहुँच गया हो।

गौरांबर की आँख खुलते ही वह घर, घर जैसा लगने लगा, जिसकी महीनों से उसे आदत ही छूट गयी थी। अगली सुबह शंभूसिंह ने उसे खुद जब जाकर उठाया, गौरांबर ने जैसे किसी नवाब की तरह आँखें खोलीं। उसे अपने पर, दिख रहे मंजर पर और गुजरी रात के वजूद पर जैसे एतबार नहीं आया। शंभूसिंह ने गौरांबर की आवभगत की, मगर उसे कुछ दिन घर की चहारदीवारी में ही सम्भलकर रहने की हिदायत दी, क्योंकि आखिर वह पुलिस स्टेशन से चोरी-छिपे यहाँ आये थे और पुलिस के रिकॉर्ड में जब तक गौरांबर चाहे अपराधी हो या न हो, परन्तु अब अवश्य अपराधी था।

शंभूसिंह कौन था, क्यों वह जान-जोखिम में डालकर गौरांबर को साथ लाया था, वे सब रहस्य धीरे-धीरे गौरांबर के सामने खुलने लगे..।

खुद गौरांबर को जब शंभूसिंह ने बताया कि रावले वाले बड़े रावसाहब उसके बड़े भाई हैं तो गौरांबर को जरा भी यकीन नहीं आया। सुबह शंभूसिंह के लिए मट्ठे का गिलास और गौरांबर के लिए चाय हाथ में लेकर शंभूसिंह की घरवाली यदि उसी समय कमरे में न आयी होती, और गौरांबर के सामने अपने पति की बात का समर्थन न करती तो शायद गौरांबर को यकीन ही नहीं आता। 

यह कुदरत का खेल था या अपने-अपने जीवट का परिणाम, शंभूसिंह आज रावसाहब के पासंग कहीं नहीं ठहरता था। पर धीरे-धीरे गौरांबर ने जाना कि शंभूसिंह के पास जो था, उसमें रावसाहब बड़े दरिद्र थे। और रावसाहब के पास जो था शंभूसिंह उसमें काफी पीछे छूट गये थे।

राव मनोहर सिंह और शंभूसिंह के पिता ने दो शादियाँ की थीं। एक शादी से राव मनोहर सिंह थे, तो बड़े रावसाहब कहलाते थे। दूसरी पत्नी से शंभूसिंह थे। दोनों ही पत्नियाँ अब जीवित नहीं थीं। उनके पिता का भी दो साल पहले देहावसान हो गया था। उनके पिता ने गाँव में काफी अच्छी जमीन-जायदाद होते हुए भी बच्चों को शहरी शिक्षा दिलायी थी। उनके पिता का पहले, बल्कि कई पीढ़ियों पहले यहाँ के राजघराने से ताल्लुक होने के कारण ये मिल्कियत जमा हो सकी थी। गाँव में उनके पिता का काफी दबदबा था, यद्यपि उन्होंने अपने जीवनकाल में अपने रौब-रुतबे और रोकड़े में कोई इजाफा नहीं किया था। उन्होंने एक आम शहरी की तरह शहर के माहौल में आम जीवन ही जिया था। वह कुछ वर्ष फौज में भी रहे थे। पर बाद में जल्दी ही उन्होंने वहाँ से कमीशन से लिया था और उसके बाद शहर में कई छोटे-मोटे काम करते हुए ही जिन्दगी गुजारी। उनके रहते घर में रुपये-पैसे की कोई इफरात नहीं थी, तो खास तँगी भी नहीं थी।

माँ-बाप अपने बच्चों को अपने जिगर का खून देते हैं, जो एक-सा होता है। गुजर-बसर देते हैं, जो एक-सी होती है। पर नसीब माँ-बाप नहीं देते, इसलिए वो एक-से नहीं होते।

मनोहर सिंह जिन दिनों जयपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, उनकी पहचान आखेट महल के मालिक धनराजपुर के बेटे की थी। रियासत के साथ पुराने सम्बन्ध ऐसे रहे थे कि आज भी, आजादी के बाद, उनकी लड़की जब यूनिवर्सिटी में दाखिल हुई तो वह माँ साहिबा के पास उनके महल में ही रही। रानी माँ साहिबा का एक महल जयपुर विश्वविद्यालय के नजदीक ही था, जहाँ कभी-कभी वे आते समय इस बच्ची को भी साथ ले आती थीं।

और एक दिन ऐसा आया कि राव मनोहर सिंह आखेट महल के दामाद बन गये; क्योंकि आखेट महल में लड़का कोई नहीं था। वक्त ने रावसाहब को सब मिल्कियत का स्वामी बना छोड़ा। बाद में एक बार मनोहर सिंह जी की दिलचस्पी राजनीति में भी हो गयी और उन्होंने चुनाव भी लड़ा और विधायक बन गये। महारावल से उनकी बड़ी करीब की पटरी खाती थी। 

उनके प्रभाव से उन्हें तत्कालीन स्वतंत्र पार्टी का टिकट मिल गया और वे विधानसभा में पहुँच गये।

राव मनोहर सिंह की शादी की खिलाफत खुद उनके माँ-बाप ने भी की थी। उनका कहना था कि आखेट महल में कोई लड़का नहीं है। मनोहर को घर दामाद बन जाना होगा और बुजुर्गवार मानते थे कि किसी भी लड़के लिए कहीं घर-जँवाई बनना ठीक वैसे ही है, जिस प्रकार किसी सीप के लिए आबदार मोती के ढुलक जाने के बाद जीना। बेआब-बेनूर होकर।

राव मनोहरसिंह ने न मोती की परवाह की और न मोती की आब की। उन्हें जमीर के बदले आखेट महल का सौदा बहुत सस्ता लगा और उन्होंने माँ-बाप को नाराज कर दिया। बेटे ने नये जमाने की नयी तालीम के नाम पर चाहे जो कुछ किया, माँ-बाप ने पुराने जमाने के पुराने बाशिंदे होने की रीति मरते दम तक निभायी। मनोहर की शक्ल जीते-जी न देखी। लड़का विधायक हो गया और चार-पाँच महीने के लिए मंत्री भी रहा पर अपने तमाम दबदबे और ठाठ-बाट के होते हुए भी एक दिन के लिए माँ-बाप को अपनी ड्योढी पर लाकर अपने ससुराल पक्ष का पानी नहीं पिला सका। जब ठाकुर साहब मरे, तो इसी गाँव में और दस-बीस आदमियों द्वारा ले जायी गई अर्थी पर चढ़कर जलाये गये तो इसी छोटी-सी ढाणी के पास बने श्मशान में, जहाँ रात के अँधेरे में गौरांबर शंभूसिंह के साथ निकल कर आया था। वही बरगद का बड़ा-सा पेड़, जिसके करीब आते ही, शंभूसिंह साइकिल से उतर गये थे और वहाँ से दोनों पैदल घर आये थे।

इस सारी बात में शंभूसिंह का तुरूप का पत्ता यह था कि बड़ी माँ, यानी कि राव मनोहरसिंह की माँ भी अपने जीवन के आखिरी दिनों में शंभूसिंह के पास, उसके साथ रही। सगे बेटे की शोहरत उड़ कर उन तक आयी हो तो आयी हो, उनके पैर की जूती भी चलकर कभी मनोहर के महल-दो महलों में नहीं गयी। यही शभूसिंह की इंसानियत का सबसे बड़ा प्रमाण था और यही उनकी जिन्दगी की सबसे बड़ी मिल्कियत। अब शंभूसिंह यहाँ अपने खेतों के साथ, खलिहानों के साथ आराम से बसर कर रहे थे। छोटी-सी ढाणी में गिनती के दो या तीन घर ही पक्के थे जिनमें एक, और सबसे मजबूत शंभूसिंह का था। गाँव में गिनती के लोग थे जिनके खेत में ट्रेक्टर चलता था। शंभूसिंह उनमें से एक थे। 

आँगन में खड़े ट्रेक्टर को कई दिन तक देखने के बाद गौरांबर ने उसे ध्यान से देखा था और तब उसने पाया था कि ट्रेक्टर काफी दिनों से अपनी जगह से हिला-डुला भी नहीं है। उस पर धूल-मिट्टी की डीजल में मिली परत जमी हुई थी और पहियों के नीचे हल्की-सी घास-फूस तक उग आयी थी। और अब गौरांबर को यह भी पता चला कि जिद करके कभी ट्रेक्टर खरीदा गया था शंभूसिंह के बेटे के द्वारा, जो इसी पास के शहर में कॉलेज में पढ़ने जाया करता था। कुछ दिन बेटे पर बड़ा शौक रहा इस ट्रेक्टर का। वह कॉलेज से लौटने के बाद रोटी-पानी खाकर रोज शाम को इसे खेतों में हाँक ले जाता था। गाँव भर की गोड़ाई-बुवाई उसने ले रखी थी। पर चार-पाँच साल पहले लड़का फौज में गया और फिर न जाने वहाँ से ही क्या जुगाड़ बैठा कर परदेस चला गया। बाहर के किसी देश में उसे काम मिल गया था। फिर बस, छठे-छमाहे आती उसकी चिट्ठी, जिससे ट्रेक्टर के पहियों के नीचे जमी घास तो नहीं साफ हो सकती थी। लड़के ने शादी कर ली थी और अब उसकी घर में आमदरफ्त न के बराबर ही थी।

कॉलेज के बाद जिन दिनों लड़का यहाँ रहा, शंभूसिंह ने बहुत कोशिश की कि लड़का यहीं रह जाये। इधर-उधर डैने फैलाने की कोशिश न करे। पर यहाँ दो साल तक काम की तलाश ने उसे बहुत थका दिया। निराशा की हद तक उकता गया था उनका अभिमन्यु।

उस समय यदि ये राव मनोहरसिंह, बड़े रावसाहब चाहते तो अभिमन्यु, उनका बेटा वहीं रह सकता था। यहाँ माँ-बाप के पास रहकर घर-द्वार सम्भाल सकता था। मगर रावसाहब को अपने लोगों की ओर देखने की फुरसत न मिली। सारे बाहर के थे वे, केवल अपने भतीजे को कैसे देखते!

शंभूसिंह ने बेटे की निराशा के उन दिनों में एक बार खुद जाकर रावसाहब से विनती की थी, मगर परकोटे के प्रोजेक्ट की बेशुमार भर्ती में अभिमन्यु के हिस्से कहीं कुछ न आया। और जिस जगह के लिए अभिमन्यु सोचता था कि उसके ताऊजी अवश्य ही उसे मौका देंगे, वो बाद में नरेशभान के हिस्से आयी।

नरेशभान का नाम शंभूसिंह के मुँह से सुनकर गौरांबर के शरीर में सिर से पाँव तक कड़वाहट भर गयी। और इस कड़वाहट को अनुभवी शंभूसिंह की खेली-खायी आँखों ने न भाँपा हो, ये बात भी नहीं थी।  

शंभूसिंह वाटरवर्क्स के दफ्तर में मुलाजिम थे। वहाँ कई साल क्लर्क रहने के बाद अब सीनियर एकाउन्टेंट थे। सरकारी महकमे में होने के कारण आसपास की सरकारी गतिविधियों के अच्छे जानकार थे। और परकोटे-महल के पास झील और बगीचे का जो काम चल रहा था, वाटरवर्क्स के दफ्तर में उसके बाबत रोज का आने-जाने का सम्बन्ध था। चाहे नरेशभान हो, चाहे कोई और। कहने को तो नरेशभान भी शंभूसिंह को काकासाहब कहता था, क्योंकि रावले के बहुत सारे कर्मचारियों की तरह उसे भी यह बात पता थी कि शंभूसिंह रावसाहब के भाई हैं। वह आदमी ठेकेदारी के काम से जुड़ा हुआ था और साथ ही इतने फैले हुए काम को देख रहा था कि सरकारी महकमों में सम्बन्ध-पहचान बनाये बिना चलना उसके लिए सम्भव ही न था।

शंभूसिंह के मन में गहरी फाँस थी कि जिस बंजर जमीन की पथरीली खाई को खोद कर हरियाली और झील का सपना सजाया जा रहा है वहाँ उनके इकलौते बेटे की हसरत और दो वक्त की रोटी का ठौर-ठिकाना सिरे न चढ़ सका। बेटा गाँव से भटक कर अब देश से ही छिटक गया था। दुनिया भर के कामगार, मुलाजिम, हाकिम और मजदूर जहाँ रोज आ-आकर खप रहे थे, वहीं इसी मिट्टी का जाया, इसी में पला-बढ़ा और इसी शहर का पढ़ा, उनका बेटा रोजगार न पा सका था। और सबसे बड़ी बात ये कि यहाँ ठिकाने किसी लॉटरी या सरकारी जुये से नहीं बँट रहे थे बल्कि ये, घर की खेती थी। रावसाहब यहाँ के बादशाह थे। ताज के भी, और बेताज भी। उनके बड़े भाई।

रोज शाम को दफ्तर से निकलने के बाद साइकिल से इसी सारे तामझाम को पार करके घर जाने के लिए निकलते थे और रोज कलेजे पर बर्छियाँ चलती थीं। किसी जमाने में उनका गाँव इस शहर से चालीस किलोमीटर के फासले से हुआ करता था। मगर पिछले कई सालों से शहर ने सुरसा की जीभ की भाँति खेतों-खलिहानों पर फैलना और उन्हें निगलना शुरू कर दिया था, इसलिये बाईस-पच्चीस किलोमीटर का फासला रह गया था उनके गाँव का। इस इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे शंभूसिंह। उनकी भी पहचान और दबदबे का दायरा कई छोटा न था, मगर अब अपने-आपको उजड़ा हुआ ही मानते थे। बेटे के चले जाने के बाद से तो यह शहर उनकी वीरान सियाही को और झुलसाता ही था।  

और यही शंभूसिंह जवान लड़कों-सी चपलता से आधी रात जाकर गौरांबर को पुलिस लॉकअप से छुड़ा लाये। थाने में भी शंभूसिंह को सब जानते थे। थानेदार साहब से भी खासी राम-राम, श्याम-श्याम थी। कई बार यहाँ थानेदार साहब के पास बैठकर पान-जर्दा खाकर जा चुके थे। एक-एक मनक से, एक-एक जगह से वाकिफ थे। निकाल ले गये गौरांबर को चोरी-छिपे, इस तरह कि कोई सोच भी न सके।

शंभूसिंह को खबर थी कि रावसाहब ने पेट्रोल पम्प के पास, जरा आगे वाली सड़क पर रेस्ट हाउस बनाने के लिए दो खेत लिए हैं। वह खेत शंभूसिंह के एक मिलने-जुलने वाले आदमी के ही थे। उस पर एक मकान भी बना हुआ था, जिसे ठीक-ठाक करवा कर रावसाहब ने कामचलाऊ व्यवस्था करवायी थी। इस रेस्ट हाउस पर रखने के लिए गौरांबर को नरेशभान जब लाया था, शंभूसिंह को सब पता था। कभी शंभूसिंह के मन में आखिरी कोशिश के रूप में यह सपना भी तैरा था कि फिलहाल यहाँ रेस्ट हाउस का ही कामकाज देखने के लिए रावसाहब इशारा कर दें तो वह बेटे अभिमन्यु को वापस अपने देश लाने की आखिरी कोशिश करें। पर यह जिम्मेदारी भी नरेशभान के पास ही आ गयी थी। और उसने सहायक के तौर पर गौरांबर को वहाँ ले जाकर रख दिया था। रावसाहब का विश्वासपात्र होने और उनकी गड्डी में नरेशभान के कई पत्ते होने के कारण यह सारा काम रावसाहब ने नरेशभान पर ही छोड़ दिया था।

हतप्रभ बैठे गौरांबर को अनोखा रोमांच हो आया कि सामने बैठे बुजुर्ग उसे कोठी पर तैनाती के दिन से ही जानते थे और कोठी की पार्टियों, हलचलों की सब जानकारी उनके किसी मित्र द्वारा शंभूसिंह के पास जब-तब पहुँचती रहती थी। और वे सब गतिविधियों से वाकिफ थे।

गौरांबर को इस नयी जगह बिलकुल अपने माँ-बाप की शक्ल में शंभूसिंह और उनकी पत्नी रेशम देवी को पाकर अपने नसीब का सारा  सियाहपन भुलाने का मौका मिल गया था। केवल यही एक हिदायत थी कि गौरांबर किसी भी समय घर से बाहर न जाये, बाकी हर तरफ से उसकी सुख-सुविधा का ख्याल रखा जा रहा था। घर काफी बड़ा और खुला-खुला होने से गौरांबर को हाथ-पैर चलाने और काम में लगे रहने को कुछ-न-कुछ मिल जाता था। 

शंभूसिंह का ट्रेक्टर गौरांबर ने दो दिन की मेहनत से पुर्जा-पुर्जा चमका डाला था। शंभूसिंह की पुरानी धोतियों को घुटने तक मोड़े गौरांबर दिन भर घर में किसी-न-किसी काम में लगा रहता। आने के पहले ही दिन आँगन में जब लकड़ी का बड़ा पट्टा रखकर बदन मल-मलकर नहाया था, तो रेशम देवी को कॉलेज के दिनों का अभिमन्यु याद आ गया था। नहाने के बाद उसी के पुराने कुर्ते, कमीजें, जाँघिये और रूमाल के ढेर-के-ढेर गौरांबर के सामने ला पटके थे उन्होंने। गौरांबर और शंभूसिंह की निगाह बचाकर रसोई में रोयी थी रेशम देवी उस दिन।

घर की सफाई, भीतर की दीवारों पर चढ़-चढ़ कर उनके जाले निकालना, गायों का चारा-पानी कर देना, इन कामों में अपने को आपादमस्तक डुबा छोड़ता था वहाँ गौरांबर। उसके सिर की चोट अब अच्छी हो चली थी। वहाँ पर केवल खुरण्ड जमा रह गया था। एक दिन जब शंभूसिंह ने उसे अपना रेजर और दाढ़ी बनाने का दूसरा सामान दिया तो कई दिनों की अपनी दाढ़ी के साथ-साथ हाथ से ही काट-छाँट कर बालों को भी हल्का कर लिया था उसने। माँ समान रेशम देवी की पानी भरने व घर के दूसरे कामों में भी मदद करता था गौरांबर। 

शंभूसिंह रोजाना सुबह नौ बजे घर से निकल जाते और शाम को सूरज ढलने के समय तक ही लौटते। पर रेशम देवी को दिन भर बेटे की भाँति नजर के सामने रहने के लिए कोई मिल गया था। कभी-कभी तो वह ऐसी खो जाती मानो उसका अपना अभिमन्यु ही अपने पुराने दिन वापस लेकर लौट आया हो। रात को शंभूसिंह के साथ गौरांबर की खूब बातें होतीं। आठ-नौ बजे तक खाने-पीने से निबट कर दोनों घर की ऊँची-सी छत पर जा चढ़ते, जहाँ शाम को बाल्टी से पानी लेजा-लेजाकर रोजाना गौरांबर छिड़काव किया करता। शंभूसिंह के शाम को आते ही उनके नहाने-धोने का पानी पास के कुएँ से निकालकर रखना नहीं भूलता गौरांबर।

शंभूसिंह ने बहुत परिचय के, घर में चले आने वाले लोगों से गौरांबर का परिचय अभिमन्यु के पुराने दोस्त के रूप में करा दिया था ताकि लोग-बाग ज्यादा पूछताछ न करें। उन्हें बता दिया गया था कि गौरांबर कामकाज के सिलसिले में यहाँ आया था और कुछ रोज यहीं रहेगा। 

रेशम देवी का हाल तो अब ये हो गया था कि ये लड़का केवल कुछ दिन यहाँ रहेगा, कहने भर से उनकी छाती हुलस उठती थी। उनका बस चलता तो वह सारे गाँव से यही कहतीं कि यह लड़का हमने गोद लिया है और अब ये सारी जिन्दगी यहीं रहेगा, हमारे साथ।

शंभूसिंह से ही गौरांबर को यह भी पता चला कि जब रात कोठी में नरेशभान के साथ मजदूर बस्ती की ओर सरस्वती को आते हुए पड़ोस के उसी आदमी ने देखा जो रावसाहब को खेत बेच देने के बाद वहीं जरा दूर पर अपना एक कमरा बना कर रह रहा था और शंभूसिंह के दफ्तर के पास ही कहीं काम पर लगा हुआ था।

सुबह जब कोठी से गौरांबर के चले जाने की खबर कुछ लोगों को लगी तो बात शंभूसिंह के पास भी आयी। नरेशभान भी अगले ही दिन से तीन-चार दिन के लिए कहीं बाहर चला गया। उसे उन दिनों किसी ने न देखा। कोठी के करीब रहने वाले आदमी  ने क्योंकि उस रात सरस्वती को पहचान लिया था, शंभूसिंह और वह आदमी अगले दिन पोखरे के पास साइट पर जाकर सरस्वती से मिले। और संयोग ऐसा कि सरस्वती भी दो-तीन दिन काम पर न आयी। उसका मरद साइट पर काम करने आता था। इसलिए उसका घर पता करके सरस्वती से भी एकान्त में सुभीते से सारी बात हो गयी। और उसके मरद तथा बच्चे की सौगन्ध देने और उसे नरेशभान के साथ रात को देख लिए जाने की दुहाई देकर शंभूसिंह ने सब कुछ पूछा और उसने थोड़ी ना-नुकर के बाद रोते हुए सारी सच्चाई बता दी। उसने गौरांबर के लिए बहुत ही अच्छे शब्दों का प्रयोग किया और बताया कि हमारे कर्मों से वो देवता जैसा आदमी छिपा हुआ फिर रहा है।

दो-तीन दिन किसी की कोई खोज-खबर नहीं मिली, क्योंकि स्वयं नरेशभान शहर से बाहर चला गया था, गौरांबर की फरारी का कोई अनुमान न लगा सका। रावसाहब के आदमियों ने एकाधबार पीछे से कोठी का दरवाजा दूसरी चाबी से खोला भी तो गौरांबर की लापरवाही के लिए उलाहना देने और उस पर खीजने से आगे बात नहीं बढ़ी। सब यही समझे कि गौरांबर या तो नरेशभान के साथ कहीं गया है या उसकी सहमति से कहीं गया है। बात परदों में रही। 

इस बीच नरेशभान की मोटरसाइकिल और रुपये चोरी जाने का तहलका मचा और तभी उसके आ जाने के बाद गौरांबर की ढूँढ़ भी मची। पुलिस ने वहाँ रात्रि की गश्त बढ़ा दी और थाने पर सरगर्मियाँ बढ़ गयीं। खुद शंभूसिंह भी शाम को वहाँ से लौटते समय एकाध बार मुंशी से पूछताछ कर गये थे। पर चोरी का कोई सुराग नहीं मिला।

बाद में पेट्रोल पम्प पर तैनात रात्रि ड्यूटी के हवलदार ने गश्त लगाते समय गौरांबर को कोठी में चोरी-छिपे घुसने की कोशिश करते हुए पकड़ा और पहुँच गया गौरांबर पुलिस लॉकअप में।

''लेकिन दादा, नरेशभान की मोटरसाइकिल और रुपयों का थैला अब तक नहीं मिला है। ये काम किसका हो सकता है?'' गौरांबर ने बड़ी मासूमियत से शंभूसिंह से पूछा जिन्हें अब वह दादा कहकर ही सम्बोधित करने लगा था।

''यह सड़क काफी चलती हुई है। रात-दिन लम्बी दूरी के सैकड़ों ट्रक वहाँ से निकलते हैं। मुझे तो लगता है, किसी को रुपये के बारे में कहीं ढाबे या दारू के अड्डे पर भनक मिल गयी होगी, तो मौका देखकर किसी ट्रक में ही डाल ले गया कोई।'' 

गौरांबर हैरत से शंभूसिंह की ओर देखता रहा। उसे यह परेशानी अब भी सताती थी कि उसे रुपयों का चोर भी समझा जा रहा है। यदि कहीं से नरेशभान के रुपयों का पता चल जाता तो कम-से-कम गौरांबर सिर उठा कर चलने के काबिल तो हो जाता। उसे नरेशभान के रुपये मिलने में कतई दिलचस्पी नहीं थी। दिलचस्पी थी तो अपने कलंक के मिटने में।

''मुझे ये भी पता चल गया था कि थाने में तुझे बहुत तंग कर रहे हैं ये लोग।''

''कैसे?'' गौरांबर ने आश्चर्य से पूछा।

''चायवाला वो लड़का बंसी है न, वह भी मुझे बहुत अच्छी तरह पहचानता है। पहले वह वाटरवर्क्स के ऑफिस की कैंटीन में ही काम करता था। आते-जाते पान की दुकान पर साइकिल रोककर मैं जर्दा खा लेता था, तो उस बीच उससे भी एक बार बात हो गयी थी। और तुझे सच बताऊँ,  उसने यह भी सुन लिया था कि थाने के एक सिपाही ने नरेशभान से लेन-देन करके रात को तुझे तंग करने की ठान ली थी। नरेशभान ने उस रात खाना थाने में ही खाया था और बराबर वाले ढाबे से खाना सबके लिए वहीं मँगवाया था। नशा-पानी भी किया था। नरेशभान के साथ उसके जो दो आदमी उस रात थे, उनमें एक मेरा बहुत खास मिलने वाला भी है। रात को मैं हमारे इंजीनियर साहब के बंगले पर किसी काम से गया था, इसी से लौटने में मुझे देर हो गयी थी। मेरी साइकिल मेेरे दफ्तर में ही खड़ी थी। मैं दफ्तर में ही साइकिल छोड़कर साहब के घर चला गया था कि रात को लौटते समय ले लूँगा। साहब जीप में बैठा ले गये। मैं भी सब भूल-भाल कर काम के पीछे था। रात को खाना भी साहब के यहाँ खा लिया। कोई फाइल थी जो बातें करते-देखते दस-ग्यारह बज गये। दफ्तर में रात को ताला लगाकर खड़ी की अपनी साइकिल लेने पहुँचा तो साइकिल स्टैण्ड के पास पैदल आता मेरा वो जानकार आदमी मिल गया, जो नरेशभान के साथ थाने जाते समय भी था। उसने क्या पता नशे की झोंक में, या इंसानियत के नशे में मुझे पान की दुकान पर खड़े-खड़े सारी दास्तान सुना डाली और बताया कि ये लोग बड़ा खतरनाक खेल खेल रहे हैं। उस लड़के की जान के पीछे पड़े हैं। आज रात एक सिपाही सब प्लानिंग करके गया है। सुबह-सुबह तीन-चार बजे लड़के को पिछवाड़े निकाल ले जाने की बातें कर रहे हैं। क्या जाने, साले क्या करेंगे। या तो उसे तंग कर-कराके उससे जबरन उगलवाने की कोशिश करेंगे, या फिर राम जाने.. सालों का भरोसा थोड़े ही है।''