Aakhet Mahal - 10 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | आखेट महल - 10

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आखेट महल - 10

दस

''खोल.. खोल.. खोलता है कि नहीं मुँह..।'' सिपाही जोर-से चीखा। और एक भरपूर तमाचा फिर उसके मुँह पर मारा।

गौरांबर उसी तरह खड़ा रहा। सिपाही होश खो बैठा। जोर से तीन-चार घूँसे उसके पेट में मारे। गौरांबर लड़खड़ा कर दीवार से सट गया। उसकी आँखों में आँसू आ गये। सिर के पिछले हिस्से में जोर से चोट लगने से खून बहने लगा, जिससे उसके बाल चिपक-से गये। गौरांबर ने सिर के पीछे हाथ लगाकर दबाया तो दो अँगुलियाँ खून से सन गयीं। गौरांबर की आँखें भय से फैल गयीं। वह धीरे-धीरे दीवार के सहारे ही फिसलता-सा वापस बैठ गया। गौरांबर ने बिना कुछ बोले आगे की ओर झुक कर अपना हाथ सिपाही के जूते की ओर बढ़ाया और खून से सनी अँगुलियों से ही उसकी पैंट पर भी दाग लग गया। वह झटके से पीछे हटा। और न जाने क्या सोचता हुआ सलाखों वाले दरवाजे को ठेलकर बाहर आ गया।

सूरज की धूप की तपन से ही गौरांबर ने अन्दाज लगाया कि दोपहर के तीन बजे होंगे, जब नींद से उसकी आँखें खुलीं। वह दीवार की ओर पैर करके लेटा हुआ था। उठा तो सिर में दर्द मालूम पड़ा। उसने सिर घुमाकर देखा। दीवार के पास ही जमीन पर लगे उसकी खून भरी अँगुलियों के निशान अब सूखकर काले से पड़ गये थे। उसने सिर के पिछवाड़े की ओर भी हाथ छुआ कर देखा। वहाँ भी खून सूख चुका था और बालों में गाढ़ा-गाढ़ा खून लग जाने से बाल चिपक कर जम से गये थे। वहाँ एक गूमड़ा-सा बन गया था। गौरांबर को प्यास भी जोरों से लग रही थी। गौरांबर ने देखा, थाने के बाहर वाली चाय की दुकान का एक लड़का थाने के भीतर सबको चाय देने के बाद पीछे वाले नल पर बर्तन धो रहा था। गौरांबर ने इशारे से उसे बताया कि उसे प्यास लगी है, तो लड़के ने काँच का छोटा-सा गिलास नल से भर कर उसकी ओर बढ़ा दिया। उसी लड़के ने गौरांबर को एक बीड़ी भी दी। गौरांबर के पास माचिस नहीं थी। उसने इधर-उधर देखा तो लड़का भी उसका आशय समझ गया। लड़के ने उससे बीड़ी वापस लेकर अपने मुँह में लगायी, फिर सुलगा कर गौरांबर को पकड़ा गया। लड़का चला गया तो गौरांबर फिर चलकर अपनी जगह आ बैठा।

शाम के लगभग सात बजे होंगे कि एक लड़का गौरांबर को बुलाने के लिए आया। उसने वहाँ आकर पास खड़े सिपाही के कान में धीरे-से कुछ कहा। और सिपाही दरवाजे का ताला खोलकर गौरांबर को कन्धे से पकड़े-पकड़े उस लड़के के पीछे-पीछे चलने लगा। वे तीनों चलते हुए इमारत के सामने के हिस्से के बरामदे में पहुँचे तो थानेदार साहब सामने ही खड़े थे। उनके साथ एक आदमी और था जो गौर से गौरांबर की ओर देख रहा था। गौरांबर ने अपरिचय और अविश्वास से उस ओर देखा, फिर आँखें झुका लीं।

थानेदार ने उड़ती-सी नजर अपने सामने खड़े व्यक्ति पर डालकर अपने सिपाही को निर्देश दिया कि इस आदमी को थोड़ी देर गौरांबर से बात करने देना, फिर ले जाकर इसे वापस बंद कर देना।

आगन्तुक व्यक्ति ने काफी नम्रता से और थोड़े संकोच से कहा, ''पर साहब, मैं बातचीत आपके सामने ही करना चाहता था।''

थानेदार ने आँखें तरेरी, और बेमन से बोले, ''आप पूछ लो इससे, क्या पूछना है, हम तो यहीं हैं। हमसे बाद में बात कर लेना।'' यह कहते हुए थानेदार के स्वर में थोड़ी उपेक्षा भी झलक रही थी। अपनी बात की प्रतिक्रिया देखने के लिए वह वहाँ ठहरा नहीं, बल्कि जल्दी से सीढ़ी उतरता हुआ चला गया। गेट पर एक स्टार्ट जीप उसकी प्रतीक्षा में थी।

थानेदार के जाने बाद कुर्ता-पायजामा पहने हुए गहरे-से रंग का एक युवक गौरांबर से मुखातिब हुआ। वह लगभग गौरांबर की उम्र का था।

गौरांबर को गर्दन से पकड़कर लाया सिपाही अब भी वहीं खड़ा था। पर अब उसने गौरांबर को छोड़ दिया था। बराबर की एक कोठरी में लकड़ी की एक बेंच पड़ी थी। सिपाही ने उस युवक से वहाँ जाकर बैठने का अनुरोध किया और स्वयं बरामदे के मुख्य दरवाजे के पास आकर मुस्तैदी से खड़ा हो गया। यहाँ खड़ा होकर सिपाही उस युवक और गौरांबर को कोठरी में बैठे हुए साफ देख सकता था। वह लापरवाही से एक बार उस ओर देखकर सिगरेट सुलगाने लगा।

गौरांबर किसी यंत्रचालित पुतले-सा उस युवक के पीछे-पीछे जाकर बेंच पर बैठ गया। युवक उत्साह से उसके और समीप बैठ गया और बड़े आत्मीय तरीके से उससे बातें करने लगा। बीच-बीच में युवक गौरांबर की झिझक तोड़ने और उसे आत्मीयता का बोध करवाने के लिए गौरांबर के कन्धे पर हाथ भी रख देता था।

युवक ने जेब से निकाल कर गौरांबर को अखबार की कटिंग का वह कागज भी दिखाया, जिसमें गौरांबर का फोटो और उसके साथ एक लम्बा-सा समाचार छपा था।

गौरांबर सरसरी तौर से सारी खबर पढ़ गया। अपने फोटो को भी देखा उसने, फिर लापरवाही भरे गले से बोला,

''सब झूठ है, पब्लिक को चूतिया बनाते हैं सब मिलकर।''

युवक इस प्रतिक्रिया से जरा हैरान-सा हुआ, फिर संजीदगी से बोला, ''यह झूठ है, यह मुझे पता है। इसीलिए तो मैं आया हूँ, तुम्हारी मदद करने  के लिए। तुम सही-सही सारी बात बता दो।''

गौरांबर पर इस बात का कोई असर नहीं पड़ा। वह उसी तरह उपेक्षा से मुँह फेरे रहा।

''देखो, यदि तुम सब सच-सच बता दोगे तो हम बचाने की कोशिश करेंगे।''

''किससे बचाने की कोशिश करेंगे? क्या किया है मैंने?'' गौरांबर ने क्रोध से उत्तेजित होकर कहा।

युवक ने गौरांबर का हाथ अपने हाथ में लिया और काफी विनम्रता के साथ उसे समझाने का प्रयत्न करने लगा। बोला—''इस तरह तो यदि तुम्हारी बात सही भी होगी तो कोई तुम्हारी मदद नहीं कर पायेगा। देखो भाई, अखबार में छपी सारी बात पढ़कर मैं खुद ये भाँप गया था कि इसमें जरूर दाल में कुछ काला है। इसीलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ।''

युवक के द्वारा इस तरह काफी विश्वास दिलाने और लगातार अपने ही हक में बात किये जाने का गौरांबर पर काफी प्रभाव पड़ा। उसका सुर भी बदल गया और उसने जल्दी-जल्दी अपनी ओर से बिना कुछ छिपाये सारी बात युवक को बता दी। उसने युवक को यह भी बता दिया कि कोठी से भागने के पहले रात को वहाँ क्या हुआ था और किस तरह नरेशभान के भय से रातों-रात वह जगह छोड़ दी थी उसने।

युवक ने काफी ध्यान से एक-एक बात सुनी और बीच-बीच में कुछ एक बातें वह एक कागज पर नोट भी करता जा रहा था। जैसे कि उस कुली का नाम, जिसे गौरांबर ने अपनी घड़ी पचहत्तर रुपये में बेच दी थी। उन दो-तीन ठिकानों के पते जहाँ लाचारी के उन दिनों में उसने खाना खाया था या वह रात गुजारने के लिए जहाँ-जहाँ रहा था।  

उठकर कमरे के कोने में जरा ओट में जाकर गौरांबर ने अपने कपड़े हटा कर वे घाव भी युवक को दिखाये, जो यहाँ दो-तीन बार पूछताछ करने के दौरान सिपाहियों ने उसे दिये थे।

सारी बातचीत के दौरान युवक बेहद गंभीर बना रहा। किन्तु जब वह उठा तो गौरांबर पर हताशा का फिर एक दौरा-सा पड़ा। वह पहले की तरह व्यंग्य और लापरवाही से बोला—

''पर इस सबसे कुछ नहीं होगा..। ये लोग मुझे जान से मारकर ही छोड़ेंगे।''

युवक ने किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया। वह पूर्ववत् खड़ा रहा।

युवक बाहर निकल गया। उसके बाहर जाते ही सिपाही ने आगे बढ़कर गौरांबर को बाँह से पकड़ा और साइड का लम्बा गलियारा पार करके गौरांबर को फिर वहीं ले जाकर बंद कर दिया। गौरांबर को छोड़ सिपाही दरवाजे के पास पहुँचा ही था कि खाना लेकर जाने वाला लड़का अखबार के एक कागज में चार मोटी-मोटी रोटियाँ और थोड़ी-सी तरकारी रखकर ले आया। गौरांबर ने सलाखों के बीच से ही हाथ बढ़ा कर खाना ले लिया। 

उस रात लगभग ग्यारह बजे नरेशभान अपने एक-दो और आदमियों के साथ पुलिस स्टेशन में आया। काफी देर तक वे लोग वहीं रहे। रात को देर तक गिलासों के खनकने और हँसने-बोलने की आवाजें आती रहीं। नरेशभान बौखलाया हुआ था। उसे शाम की घटना के बारे में सब मालूम हो गया था। वह जान गया था कि अखबार के दफ्तर में काम करने वाला एक लड़का खुद यहाँ आकर गौरांबर से काफी देर बातचीत करके गया है।

रात को थाने पर बराबर वाले ढाबे से मटन की चार-पाँच प्लेटें और तन्दूरी रोटियाँ आयीं। और प्राय: वीरान पड़े रहने वाले इस कमरे में देर रात तक चहल-पहल रही।

लेकिन न जाने क्यों, रात का यह वातावरण बेहद खिंचा-खिंचा, डरावना-सा लग रहा था। इस इलाके में रात को साठ-आठ बजे बाद से ही शान्ति-सी हो जाती थी, क्योंकि ज्यादातर इमारतें या दुकानें आदि अभी बनने की प्रक्रिया में ही थीं। चहल-पहल के नाम पर वहीं अपने डेरे पर चौकीदारी करने या वैसे ही आकर रह जाने वाले दो-चार लोगों के अलावा कुछ नहीं होता था। हाँ, हाइवे की मुख्य सड़क अवश्य ट्रकों व गाड़ियों की आवाजाही से गुलजार रहती थी। 

शाम को रावसाहब के यहाँ से फिर फोन आया था कि मामले के बारे में हुई अब तक की कार्रवाई उन्हें बतायी जाये। नरेशभान को भी उन्होंने डपटा था। और बँगले में हुई वारदातों के बाबत जो कुछ अखबार में छपा था, उसकी मजबूती से कोई काट जल्दी ही फिर से छपवाने का आग्रह किया था। रावसाहब चाहते थे कि अखबार में इस बात के बेबुनियाद होने के बारे में प्रभावशाली तरीके से छपे और इस मामले को रफा-दफा किया जाये। पर बाद में रावसाहब के पास से लौटने के बाद नरेशभान को यह समाचार मिला था कि शाम को अखबार का आदमी स्वयं सारी बात खुद गौरांबर से करके गया है।

नरेशभान को मन-ही-मन यह बात डराने लगी थी कि गौरांबर ने उस दिन की बात का खुलासा उस रिपोर्टर के सामने कहीं कर न दिया हो और सब कहीं सुबह खबर के खण्डन का हिस्सा बनकर न छप जाये। वैसे तो अब तक गौरांबर ने पुलिस की किसी पूछताछ में सरस्वती व नरेशभान के  बारे में कुछ नहीं कहा था, पर रिपोर्टर को अवश्य ही उसने सब बता दिया होगा, यह नरेशभान को शंका थी।

और तमाम शोर-शराब के बीच इसी सब उधेड़बुन में नरेशभान भी था कि घटनाचक्र को कैसे अपने पक्ष में बनाये रखते हुए इस फिजूल के  चक्कर से छुटकारा पाया जाये।

लेकिन डर यदि था तो नरेशभान के मन में था। सच्चाई जानने की इच्छा थी तो अखबार के उस रिपोर्टर के मन में थी। सारा मामला बिना बदनामी के निपट जाने की चिन्ता थी तो रावसाहब के मन में थी। पर उस सिपाही के मन में तो इसमें से कुछ नहीं था जो उस रात वहाँ अपने साथी के साथ मौजूद था। वह सुबह से ही चिढ़ा हुआ था।

दोपहर को ही यदि सिर की चोट से गौरांबर बेहोश न हो गया होता तो वह गौरांबर से 'सच्चाई' उगलवा चुका होता। उसने नशे में डूबे नरेशभान से सिर्फ एक रात की मोहलत और माँग ली तथा नरेशभान को आश्वासन भी दे डाला कि जो कुछ होगा उसकी आँच नरेशभान पर किसी भी तरह से नहीं आयेगी। बदले में नरेशभान ने भी, नशे में होने पर भी, पूरे होशोहवास में सिपाही को आश्वासन दे डाला कि उसके घर पर छत पर बनने वाली छोटी-सी कोठरी और कच्ची दीवार को पत्थर की पक्की दीवार में बदलवाने का सारा खर्चा नरेशभान का।  

नरेशभान और उसके साथियों को बारह बजे के आस-पास खुद ही वहाँ से चले जाने के लिए थाने के उस संतरी ने कहा, और तीनों को बैठाकर धूल उड़ाती हुई नरेशभान के दोस्त की मोटरसाइकिल उड़न-छू हो गयी।

बाहर दूर-दूर तक अँधेरा दिखायी दे रहा था। दूर से सड़क की लाइटों की चमक ही कतार से फैली खड़ी थी। थाने के अहाते में बड़ा अजीब-सा सन्नाटा था। दो आदमी बाहर के गेट के पास एक तख्त पर सोये हुए थे। भीतर बरामदे में बराबर की चाय की दुकान पर काम करने वाला लड़का बँसी सोया था। पिछवाड़े की ऊँची दीवार के साये में पतली-सी तंग कोठरी में गौरांबर सोया पड़ा था। किसी की कोई आहट नहीं आ रही थी।

थोड़ी देर बाद एक साइकिल थाने के मुख्य दरवाजे के पास आकर रुकी और उस पर से एक ऊँचे कद और मजबूत डील-डौल वाला आदमी उतरा। साइकिल उसने दीवार के सहारे टिका दी और स्वयं दबे कदमों भीतर वाले बरामदे में आ गया। एक बार उसने सामने के बड़े कमरे के भीतर घुसकर उसकी बत्ती जलायी और इधर-उधर देखने लगा, कमरे के भीतर कोई भी नहीं था। दो मेजों पर कुछ कागज, रजिस्टर, फाइलें और दूसरा कुछ सामान फैला-बिखरा पड़ा था। आड़ी-तिरछी रखी हुई तीन-चार कुर्सियाँ पड़ी थीं। उसने कमरे के कोने के पास जाकर एक मेज की दराज खोली और उसमें से कागज की पुड़िया में लिपटी हुई कोई चीज चुपचाप उठाकर अपनी जेब में डाली। फिर धीरे-धीरे वापस आकर उसने कमरे की बत्ती बुझायी और बाहर निकल कर बरामदे में चलता हुआ पिछवाड़े की ओर जाने लगा। उसके कदमों की आहट बहुत धीमी थी। चलता-चलता वह पीछे की ओर जाकर गौरांबर की कोठरी के ठीक सामने खड़ा हो गया। उसने जेब से चाबी निकाल कर दरवाजे का ताला खोला। बहुत ही धीरे-से उसने दरवाजे की कुण्डी खोलने की कोशिश की और हौले-से दरवाजे को ठेलकर भीतर घुस गया। गौरांबर बेखबर होकर गहरी नींद सो रहा था। उसने धीरे-से उसके करीब पहुँच कर हाथ के हल्के स्पर्श से उसे जगाने की कोशिश की। दो-तीन बार जरा जोर से ठेलने के बाद गौरांबर झटके से नींद से जाग गया और भौंचक्का होकर अँधेरे में ही उस अजनबी-से आदमी को देखने लगा, जिसे वह जानता न था। उसकी समझ में कुछ न आया। वह आँखों पर हथेली मल-मल कर हैरानी से देखने लगा। आधी रात को, नितान्त अजनबी आदमी, उसे नींद से जगा कर इस अँधेरी कोठरी में उससे क्या चाहता था। गौरांबर को कुछ समझ में नहीं आया।

आदमी ने बहुत धीमी आवाज में कहा—''घबराओ मत, मेरे साथ चलो।'' 

''कहाँ..''

''यहाँ से बाहर..''

''पर कहाँ..'' अब जरा झुँझलाहट में पूछा गौरांबर ने। 

''सब बता दूँगा। तुम घबराओ मत। मैं तुम्हारी मदद करने आया हूँ।'' गौरांबर की आँखें एक बार अँधेरे में भी चमकीं। परन्तु उसके चेहरे पर टँगा अविश्वास पूर्ववत् बना रहा। 

''देर मत करो। हमें पास ही एक जगह पर चलना है। मैं तुम्हें सुरक्षित वहाँ ले चलूँगा।''

अब गौरांबर को थोड़ा-थोड़ा विश्वास उस आदमी पर आने लगा। वह उसके कहे अनुसार नींद झटककर खड़ा हो गया। आदमी फुर्ती से उठा और गौरांबर का हाथ पकड़ कर उसने उसे कन्धे से सहारा दिया। बाहर निकल कर उसने फिर उसी तरह आहिस्ता से कोठरी के दरवाजे को बंद किया और ताला लगाकर चाबी जेब के हवाले करते हुए गौरांबर को आगे बढ़ने के लिए कहा।

बरामदा पार करने के बाद जब वे लोग सामने की ओर आये, आदमी कमरे में घुस गया। एक पल के लिए वहाँ अकेला खड़ा रह गया गौरांबर भय से काँप गया। उसे लगा कि आदमी कहीं उसके साथ कोई दगा तो नहीं कर गया। पर उसका यह भय चन्द सेकण्डों में ही निर्मूल सिद्ध हो गया, जब वह आदमी फुर्ती से बाहर निकल आया। गौरांबर की जान में जान आ गयी। फिर से गौरांबर का हाथ पकड़कर चलता हुआ वह आदमी बीच की सीढ़ियों से उतर कर नीचे आया और साइकिल के पास पहुँचा। उसके पास साइकिल देखकर गौरांबर का हौसला थोड़ा और बढ़ा। दोनों मुख्य गेट के पास आ गये। यहाँ आसमान से चन्द्रमा की थोड़ी रोशनी आ रही थी। आदमी ने देखा कि गौरांबर नंगे पाँव है। उसने गौरांबर को इशारे से दिखाया। दरवाजे के पास पड़े तख्त पर दो आदमी बेखबर सोये हुए थे, उन्हीं में से एक की चप्पलें तख्त के करीब पड़ी थीं। गौरांबर ने फुर्ती से वे पैरों में डाल लीं और बाहर कच्ची सड़क पर आ गया, जहाँ वह आदमी साइकिल लिए खड़ा था।

थाने के मुख्य दरवाजे से निकलने वाली यह सड़क दायीं और पक्की थी, मगर बायीं ओर कच्चे रास्ते के रूप में थी, जो जरा आगे से घूमकर वापस थाने के पिछवाड़े वाली ऊँची दीवार के पीछे से होकर खेतों में निकल जाती थी। कुछ दूरी तक इस कच्चे रास्ते पर भी लाल बजरी बिछायी गयी थी। जब पिछले वर्ष छब्बीस जनवरी का छोटा-सा समारोह थाने के सामने हुआ था, उसी समय यहाँ वृक्षारोपण का कार्यक्रम भी हुआ था। जिसके अवशेष स्वरूप कहीं-कहीं गड्ढों में दो-चार पेड़ दिखायी दे रहे थे। हजारों पौधों को हर वर्ष पनपाने वाले इन खेतों को काट-काट कर लगाये गये तीन-चार ये पेड़ रात को उस वीराने के पहरुए-से लग रहे थे। इन्हीं के किनारे-किनारे तेजी से हिचकोले खाती साइकिल पर उस कद्दावर से अजनबी के साथ गौरांबर बरसाती पानी से बने ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चला जा रहा था। गौरांबर की स्थिति इस समय उस बहते हुए तिनके की-सी थी, जो पानी के बहाव में अपने दिशाबोध को तिलांजलि देकर बहता चला जाता है। उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि कौन था यह अजनबी, जो उसे जाने-पहचाने बिना, अपनी जान जोखिम में डालकर अपने दम-खम से साइकिल पर खींचे लिए जा रहा था।

घण्टे भर तक साइकिल के उसी तरह चलते रहने के बाद, अब वे लोग बस्ती से काफी दूर एक बिल्कुल निर्जन स्थान पर आ गये थे। कभी-कभी जीवन में इंसान को ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ता है कि यह युवा लड़का गौरांबर इंसानों की बस्ती से दूर निकल आने पर राहत महसूस कर रहा था।

गौरांबर ने उस आदमी से अब तक कुछ पूछा नहीं था। न ही उसने अपने आप गौरांबर को कुछ बताया। दोनों अपने-अपने में खोये खामोशी से चले जा रहे थे। उस आदमी की साँस भी थोड़ी चढ़ आयी थी, क्योंकि काफी देर तक कच्चे रास्ते पर साइकिल चलाते आने के बावजूद वह कहीं रुका नहीं था और बीच-बीच में ऊबड़-खाबड़ रास्ता कई स्थानों पर बहुत ही चढ़ाव भरा हो गया था।

अब बस्ती से काफी दूर निकल आने के बाद गौरांबर का मन काफी हल्का हो गया था और रास्ता भी अपेक्षाकृत सीधा व साफ आ गया था।

''हम कहाँ जा रहे हैं?'' साहस करके गौरांबर ने पूछा।

''बस, आ गये, सामने थोड़ी ही दूरी पर मेरा घर है।'' 

''आपका घर?''

''हाँ.. क्यों विश्वास नहीं हो रहा?''

''मगर आपको मैं जानता नहीं, इसलिए..''

अजनबी अब जरा-सा मुस्कुराता हुआ साइकिल से उतरा, और धीरे-धीरे चलता हुआ बोला, ''जान जाओगे, सब जान जाओगे।''

उसके साइकिल से उतरते ही गौरांबर भी साइकिल से कूद कर उतर गया था और उसके साथ-साथ चलने लगा था। उसे बड़ा भला-सा लग रहा था सब कुछ। उसका मन कह रहा था कि वह अब खतरे से बिलकुल दूर है और यह आदमी भी उसे काफी भलामानस प्रतीत होता था।

''वो देखो, सामने एक कुआँ दिखाई देता है ना। बस उसके पास से जाने वाली पाल से गुजर कर अपना घर आ जायेगा। यहीं मेरे खेत भी हैं।'' 

''मगर आप हैं कौन..?''

''मेरा नाम शंभूसिंह है, इसी गाँव का रहने वाला हूँ।''

''आप मेरे बारे में कैसे जानते हैं। और..'' गौरांबर को काफी हैरानी हो रही थी।

''तुम अब यहाँ आ गये हो। धीरे-धीरे सब जान जाओगे। बहुत लम्बी कहानी है। तुम दो दिन से बहुत परेशान हो। मुझे सब पता है। पहले घर पहुँच कर आराम से हाथ-मुँह धोकर थोड़ी नींद निकाल लो। सुबह सब बातें जानोगे। अभी केवल एक बात जान लो कि इस गाँव-घर को अपना घर समझो। और इस शंभूसिंह को अपना शुभचिन्तक।'' 

गौरांबर का जी भर आया। एकदम से आँखों से आँसू आ गये। कुएँ के करीब पहुँचते ही वह पाल शुरू हो गयी थी और सामने ही चार-छ: घरों की एक ढाणी-सी साफ दिखाई दे रही थी, जो पेड़ों से घिरी हुई थी।

पास आने पर एक पक्का-सा घर दिखाई दिया, जिसमें साइकिल को दीवार से सटाकर, गौरांबर को लेकर घुस गया शंभूसिंह। रात बहुत बीत चुकी थी। अँधेरा बहुत था मगर पौ फटने में देर नहीं थी।