Manasvi - 4 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | मनस्वी - भाग 4

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मनस्वी - भाग 4

अनुच्छेद-चार
                    जिन्दगी पतंग की तरह कट जाए तो ?

            अस्पताल में भी एक तरह की अनाशक्ति पनप जाती है। रोज कितने ही लोग भर्ती होते हैं, कितने ही उससे बाहर होते हैं। रोज कितनी ही मौतें हो जाती हैं। जब किसी वार्ड में पड़े हुए किसी आदमी की मौत हो जाती है तो थोड़ी देर के लिए वातावरण जरूर बोझिल हो जाता है। जैसे ही वह शव बाहर हो जाता है, ऐसा लगता है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। उसी बिस्तर पर चद्दर बदल दिया जाता है और दूसरा मरीज़ लिटा दिया जाता है। मरीजों का आना-जाना लगा ही रहता है। ऐसे में कोई नर्स, कर्मचारी या डाक्टर किसी मरीज़ से चिपककर कैसे बैठेगा ? पर कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि कोई मरीज़, कर्मचारी, नर्स और डाक्टर के दिल में उतर जाता है। जब ऐसे मरीज को नर्स सुई लगाती है या दवा देती है तो उसका हृदय भी कहीं न कहीं स्पन्दित होता है।
            आपात कक्ष में बैठी नर्स मनु की फाइल बार-बार देखती है। डाक्टर ने सुई लगाने के लिए लिख दिया है। वह आती है सिरिंज में दवा भरती है और धीरे-धीरे मनु के हाथ में लगी नली में लगाती है। मनु एक बार उसे देखती है। नर्स भी मनु को देखती है। मनु की आँखों ने नर्स की आँखों में जाने क्या कहा कि वह थोड़ी विचलित हो गई। दुःखी मन से वह अपनी कुर्सी पर जा बैठी। पर उसे लगा कि उसने यह अच्छा नहीं किया। मरीज के सामने नर्स को दुःखी नहीं प्रसन्न दिखना चाहिए। वह कुर्सी से उठ जाती है। मनु के पास पहुँचकर उसकी उँगलियों को एकबार देखती है। नाखून को दबाकर लालिमा देखती है। मुस्कराने की कोशिश करती है। कहती है, 'मनु ठीक हो न?' आज मनु कोई उत्तर नहीं देती। इस समय मनु की साँस हल्की सी बढ़ी हुई है। अपनी आँखों से ही नर्स को बताती है ठीक कहाँ हूँ? साँस बढ़ी हुई है, तुम देख ही रही हो।
             नर्स उसके माथे को सहलाते हुए लौट पड़ती है। आपात कक्ष में और भी बच्चे हैं उन्हें यह नहीं लगना चाहिए कि नर्स मनु के प्रति कुछ अधिक दयावान है। उसकी कर्मठता, प्रसन्नता दायक व्यवहार का प्रतिफल टुकड़ों-टुकड़ों में सबको बराबर मिलना चाहिए। इसीलिए वह सचेत हो जाती है। तुरन्त दूसरे बच्चों को देखती है। उन्हें जरूरी निर्देश देकर कुर्सी पर पुनः बैठ जाती है। नर्स ने अभी शादी नहीं की है। छब्बीस पार कर रही है वह। उसके पिता कृषि विभाग में बाबू हैं। इसी वर्ष अवकाश ग्रहण करना है उन्हें। चिन्तित हैं वे अपनी पुत्री की शादी के लिए। भारत का हर पिता अपनी पुत्री की शादी के लिए चिन्तित होता है। उनका भी चिन्तित होना स्वाभाविक है। बैठे-बैठे नर्स को मनु की माँ का चेहरा दिख जाता है। सिरहाने बैठी हुई वह जानें क्या सोचती रहती है? नर्स को लगता है कि यदि उसने शादी कर ली, उसके बच्चे हुए। कोई बच्ची बीमार पड़ी तो उसे भी मनु की माँ की तरह....। यह क्या सोच लिया उसने। यह भी तो हो सकता है कि उसकी कोई बच्ची बीमार न पड़े। उसकी बच्ची को बच्चों के आपात कक्ष में न आना पड़े। उसके मस्तिष्क में चलचित्र की एक रील चलने लगती है जिसमें उसके बच्चे खिलखिलाते हुए आकर उसकी गोद में बैठ जाते हैं। वह उन्हें पुचकारती है, उनका चुम्बन लेती हैं। यह भी तो ज़िन्दगी है पर यह ज़िन्दगी सबको नसीब कहाँ होती है? इसी भय से क्या उसने शादी नहीं की? नहीं......... ऐसा नहीं है। वह शादी करना चाहती है। घर में इसकी चर्चा भी होती है। कभी-कभी किसी का नाम उभरकर आता भी है पर जाने क्यों किसी न किसी बहाने कहीं कोई लड़ी टूट जाती है। बहुत से लोग कहते हैं कि जोड़े भगवान बनाते हैं। यह बात ध्यान में आते ही नर्स को हँसी आ जाती है। भगवान को जोड़ा बनाना आता भी है। ठीक है, वे जोड़ा बनाएँ। कितना समय लगाते होंगे वे इस काम में? अपनी मेज के सहारे कुर्सी पर बैठी वह यह सब देख ही रही थी कि उसका मोबाइल बज जाता है। वह बात करती है एक लड़के से जो उसे चाहता तो है पर खुलकर अपने माँ-बाप से कह नहीं सकता। नर्स बात-चीत का आनन्द तो उठाती है पर जानती है कि उसका यह बतरस में रुचि लेने वाला साथी दूर तक साथ नहीं देगा। वह बतरस में व्यस्त थी उसी समय मनु की माँ दौड़कर आती है। मनु की साँस और बढ़ गई है। नर्स उठकर मनु के पास जाती है। साँस की रफ्तार को जाँचती है, ग्लूकोज की डिप को थोड़ा धीमा करती है, डाक्टर साहब को सूचित करती है। दस मिनट बाद वे आते हैं। नाक से आक्सीजन को जोड़ देते हैं। मनु की तकलीफ थोड़ी कम होती है। मनु की माँ आँखों में आँसू भर सिरहाने खड़ी उसके चेहरे को देखती है। माथा सहलाते हुए जाने क्या सोचती है। पिता पायताने खड़े हैं चिन्तित दुःखी, विचलित। डॉक्टर फिर एकबार उसे जाँचते हैं। बढ़ी हुई साँस धीरे-धीरे कुछ कम होती है। मनु को राहत मिलती है। बोल पड़ती है- 'डॉक्टर चाचू, हमें बचा लो।' उसकी इस पुकार से माता-पिता विचलित हो जाते हैं। डॉक्टर पर्चे में कुछ दवा लिखते हैं। मनु के पिता उसे लेने चले जाते हैं। माता-पिता दोनों यही चाहते हैं कि बच्ची किसी तरह बच जाए। डॉक्टर भी कोशिश करते हैं। नर्स की आँखें एक बार फिर मनु की आँखों से मिल जाती है। मनु की आँखों में ऐसा कौन सा आकर्षण है जो नर्स को भी विचलित कर देता है।
           काश ! वह मनु को आश्वासन दे पाती-ठीक हो जाओगी तुम। पर ऐसा वह कह नहीं पाती। यह अधिकार तो डॉक्टर चाचू का है पर वे इस तरह का आश्वासन देने की स्थिति में अपने को नहीं पाते। प्रयास कर रहे हैं, हर संभव प्रयास। अगर भगवान की इच्छा होगी तो जरूर ठीक हो जाएगी मनु।
           डॉक्टर चले जाते हैं। माँ मनु के सिरहाने बगल में स्टूल पर बैठी है। आँखें मनु के चेहरे पर टिकी हुई हैं। मनु एक बार माँ को देखती है फिर वही वाक्य दोहरा देती है- 'हमें बचा लेना मम्मी।' माँ की आँखों से आँसू झर-झर गिरने लगते हैं। क्या कर दे वह ? कौन सा अमृत लाकर वह मनु को पिला दे जिससे वह ठीक हो जाए। कोई उसकी जिन्दगी माँग ले, उसके बदले मनु को ठीककर दे, ऐसा करने वाला भी तो कोई नहीं। बहुत धीरे से मनु कहती है- 'माँ मत रोओ। ठीक हो जाऊँगी मैं।' माँ के आँसू रुकते नहीं। मनु एकटक ग्लूकोज की शीशी को देखती है जिसमें से एक-एक बूँद उतर कर उसके शरीर में जा रहा है। आखिर यह सब उसे ठीक करने के लिए ही तो है। 'माँ तुमने चाय पिया।' मनु धीरे से पूछती है। माँ क्या उत्तर दे? चाय, पानी, भोजन सब कुछ तो भूला हुआ है उसे। उसके सामने केवल मनु है। मनु ठीक हो जाए तो उसे सब कुछ मिल जाएगा। न जाने कितनी प्रार्थनाएँ कर चुकी है वह? उसका मन बार-बार शंका से काँप उठता है। अगर मनु नहीं ठीक हुई तो..........। कैसे लौटेगी वह? कैसे रह पाएगी मनु के बिना ? ग्यारह वर्ष सात महीने से मनु ही तो उसकी ज़िन्दगी रही है। मनु के बिना कैसे रह पाएगी वह? नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा। मनु ठीक हो जाएगी। घर वह खुश होकर लौटेगी। 'हे भगवान।' वह फुसफुसाती है जैसे भगवान उसके सामने खड़े मुस्करा रहे हों। 
       मनु लेटी है, आँखें बन्द । ओठ कुछ फुसफुसाते नहीं पर अन्दर मस्तिष्क में तो कुछ चल ही रहा है।
'अरे सौम्या तुम?'
'हाँ, मैं सौम्या हूँ। गुजरात से चली आई हूँ तुझे देखने।' 
'स्वाती, सौरभ कहाँ हैं?'
'आ ही रहे हैं।'
'और बुआ जी?'
'वे नहीं आ पाईं। पापा की देखभाल कौन करता?'
'हम लोग भागते हुए आए हैं तुझे देखने। ठीक हो न तुम ?'
'कैसी लगती हूँ मैं?'
'ठीक लगती हो। कैसे लोग कहते हैं.... बहुत बीमार हो।'
'लोगों को क्या पता कि मैं कैसी हूँ। डॉक्टर चाचू मेरे सीने पर आला लगाते हैं तो मुझे हँसी आती है।'
'डॉक्टर लोग ऐसे ही होते हैं। झूठ-मूठ में ठीक आदमी को बीमार बना देते हैं।'
'पर ठीक भी करते हैं रे।'
'हाँ ठीक भी करते हैं।'
'तेरे आने से बड़ी खुशी हुई सौम्या ।'
'मैं भी तुझे देखकर खुश हूँ। तेरी बीमारी सुनकर माँ रो पड़ी थी। पापा भी दुखी हुए।'
'फूफा जी ठीक हैं न?'
'हाँ ठीक हैं।'
'मुझे भी दवा खानी पड़ती है सौम्या।'
'पापा को भी दवा लेनी पड़ती है। मैं याद रखती हूँ पापा को कौन सी दवा कब देनी है। गलती नहीं करती हूँ मैं। तू भी गलती न करना। जब हमेशा दवा खाना है तो खा लेंगे। आखिर जीना भी तो जरूरी है।'
'हाँ वह तो जरूरी है ही।'
'मैं तेरे लिए पतंग लाई हूँ मनु। हम तुम उड़ाएँगे। जब तक तुम ठीक न हो जाओगी, मैं जाऊँगी नहीं।'
इतनी कमजोर नहीं हूँ सौम्या। चलो पतंग ही उड़ाएँ। मन बहल जाएगा।'
' 'मंझा मजबूत रखना, नहीं तो दूसरा पतंगबाज काट देगा अपना पतंग।' 'बहुत मजबूत है मंझा। मैं थोड़ा उड़ा दूँ तब तुझे पकड़ाऊँ।' 'ठीक है। तूने पतंग उड़ाना कहाँ सीखा सौम्या?'
'बाराबंकी में ही।'
'सुनती हूँ पहले लोग पतंग बहुत उड़ाते थे। नवाबों को भी पतंग उड़ाने में मजा आता था।'
'हाँ, अब टिनिन-टिनिन हाथ में आ गया। पतंग कौन उड़ाए? 'सच कहती है तू। अब तो सारा रंग ही बदल गया है।'
सौम्या पतंग उड़ाती है। धीरे-धीरे पतंग नील गगन में ऊपर उठता जाता है। 
'ले पकड़। पतंग काफी ऊँचाई तक पहुँच रहा है।'
           मनु, पतंग की डोर पकड़ती है। डोर और ढीली करती जाती है, पतंग आसमान में ऊपर उठता जाता है। सौम्या और मनु दोनों प्रसन्न होते हैं। एक दूसरा पतंग भी उसके आस-पास मँडरा रहा है। कोई दूसरा पतंगबाज कहीं दूर से पतंग उड़ा रहा है। उसने भी अपनी डोर ढीली कर दी है। लगता है बहुत होशियार है वह। जब चाहता है, पतंग लड़ाने को झकझोर देता है। कभी-कभी पतंगबाज ने अपनी पतंग को इस तरह उड़ाया है कि सौम्या का पतंग उसमें फँस जाए। और हुआ यही। सौम्या और मनु का पतंग दूसरे पतंगबाज के पतंग से लड़ने लगा। खींचो खींचो मनु अपनी डोरी को खींचो, नहीं तो तुम्हारा पतंग कट जाएगा। मनु जल्दी-जल्दी अपनी डोरी खींचती है पर दूसरे पतंगबाज का पतंग उसमें फंस गया है। उसने अपनी होशियारी से मनु का पतंग काट दिया है। मनु अब डोरी खींचती है तो डोरी सरसराती हुई खिंची चली आती है। दूसरा पतंगबाज खुश होता है। उसने मनु का पतंग काट दिया है। कटी हुई पतंग हवा के सहारे उड़ रही है। धीरे-धीरे कटी हुई पतंग नीचे आने लगती है। बच्चे दौड़ते हैं। जो भी पा जाता है, बहुत खुश होता है। मनु और सौम्या कुछ चिंतित होते हैं। वे अपनी पतंग को बचा नहीं पाए। 'हमसे गलती कहाँ हुई?' मनु ने पूछा। 'हम पतंग उड़ाने में इतने कुशल कहाँ हैं?' सौम्या ने उत्तर दिया। हम तो अभी सीख ही रहे थे। जल्दी-जल्दी सौम्या और मनु मिलकर डोरी को चर्बी में लपेट लेते हैं। अब नया पतंग लाया जाएगा तब हम फिर उड़ाएँगे। कोशिश करेंगे कि हमारा पतंग किसी के द्वारा कट न सके। मनु, चलो अब दूसरा खेल खेलते हैं। पर ज़िन्दगी यदि इसी पतंग की तरह कट गई तो ?
              इसी बीच मनु की आँखें खुल जाती हैं। अब न सौम्या है न स्वाती है, न सौरभ ही। उसका मन उड़ रहा था उन लोगों के बीच जिनके साथ वह खेल चुकी थी जब वे छुट्टियों में घर आती थीं। आज मनु बिस्तर पर लेटी है। जैसे ही उसकी आँखें खुलती हैं, माँ को अपनी बगल में बैठी हुई देखती है। माँ एक रूमाल से उसके चेहरे को धीरे-धीरे पोंछती है। आँख नाक सब कुछ साफ करती है। माँ का चेहरा उदास है पर उस उदासी में भी मनु को स्वस्थ देखने की कामना छिपी है। कौन जाने उसकी यह आकांक्षा कब पूरी होगी?
              'दर्द तो नहीं हो रहा बेटे', माँ पूछती है। मनु सिर हिलाकर उत्तर देती है। मनु एक बार पुनः माँ को देखती है। मनु की आँखों में जाने क्या है कि माँ की आँखों में आँसू निकल जाते हैं। 'रोओ मत माँ,' मनु कह उठती है। 'डॉक्टर चाचू कोशिश कर रहे हैं।' माँ उठ जाती है। छोटी सी तौलिया को पानी में हल्के से भिगो कर मनु का चेहरा फिर साफ करती है। ठण्ड लग रही है माँ-मनु कह उठती है। माँ उसे चद्दर ओढ़ा देती है। 'अब ठीक है'- मनु बताती है 'ठण्ड क्यों लग रही है माँ? क्या मुझे ही ठण्ड लगती है?'
          'ग्लूकोज चल रहा है। हो सकता है इसका असर हो।' 'डॉक्टर चाचू आएँगे तो पूहूँगी कि गर्मी में भी मुझे ठण्ड क्यों लगती है? वे जरूर बताएँगे माँ।'
           माँ उसपर एक चद्दर और डाल देती है। माँ जाकर नर्स को बताती है कि मनु को ठण्ड लग रही है। नर्स भी आकर जाँचती है। दो चद्दर ओढ़ने से मनु को आराम मिलता है। 'अब आराम है', नर्स ने पूछा। 'नहीं, अब ठीक है', मनु उत्तर देती है।
           डॉक्टर के आने का समय हो गया है। मनु की आँखें उस दरवाजे पर टिकी हुई हैं जिथर से डॉक्टर साहब आते हैं। 'डॉक्टर चाचू के आने का समय हो गया।' 'आते ही होंगे' माँ कहती है। 'रोज कुछ देर हो जाती है ऐसा क्यों हो जाता है माँ?' 'उनके पास कोई जरूरी काम आ जाता होगा। उसे निपटाकर वे आते होंगे।' 'पर इस बीच किसी की तबियत खराब हो जाए तो?' 'नर्स हैं न। वे तुरन्त डॉक्टर साहब को बताएँगी। वे सब काम छोड़कर तुरन्त आएँगे।' 'तब तो ठीक है। यदि मेरी भी तबियत जल्दी खराब हो जाए तो आ जाएँगे न?' 'हाँ आ जाएंगे। तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं हो रहा है बेटे?' 'नहीं माँ, इस समय दर्द नहीं हो रहा है। ठंड जरूर लग रही थी लेकिन चद्दर ओढ़ लेने से अब ठीक है। दुःखी मत हो माँ। भगवान देख रहे हैं। उन्हीं के बनाए हुए हम लोग हैं। उन्हें देखना ही है। तू खुश रह माँ। तुझे खुश देखकर मुझे भी खुशी होती है। पापा आएँ तो बताना मनु अब ठीक है। ठण्ड नहीं लग रही है। जाओ, चाय पी आओ माँ। मैं अब बिल्कुल ठीक हूँ।'
        माँ उसे देखते हुए चुपचाप बैठी है। उसके हाथ मनु के हाथ पर। 'माँ तुम जाओ चाय पी लो न। ऐसे कब तक बैठी रहोगी? जाओ। नहीं जाओगी तो मैं नहीं बोलूँगी। जाओ माँ।' माँ उठ जाती है। उसका मन जाने को बिल्कुल नहीं है पर मनु की इच्छा को देखते हुए वह चली जाती है। थोड़ी देर में पुनः लौट आती है। मनु पूछ लेती है, 'माँ तूने चाय पिया?' माँ चुप रहती है। उसके चेहरे को छोटी सी तौलिया से पोछती है। 'माँ तूने चाय पिया?', माँ फिर चुप रहती है। मनु के कपड़े सँभालती है। मनु फिर पूछती है, 'माँ तूने चाय पिया?' 'नहीं बेटे, तेरे पापा आ जाएं तब चाय पी लूँगी।'
         'नहीं माँ, तेरे चाय पीने का समय हो गया है। तू चाय पी ले। लापरवाही मत करो माँ। अपने को ठीक रखो। समय पर चाय पानी पियो। तभी तो काम कर पाओगी। भूखे-प्यासे कैसे काम करोगी?'