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आशी ने इतनी अचानक घर में प्रवेश किया था कि किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था| घर में जैसे सन्नाटा पसर गया था| स्थिति इतनी अजीब थी कि किसी के पास कहने के लिए न शब्द थे और न ही उसका स्वागत करने की कोई उत्सुकता ! घर के लोग इतने सुन्न पड़ गए थे जैसे कोई अनहोनी घटने वाली हो और हुआ भी वही|
कहाँ तो उसने मनु से वायदा लिया था कि वह किसी से भी कुछ नहीं कहेगा, डैडी तक से नहीं| शादी के बाद जब तक उसकी इच्छा नहीं होगी, वह उसे छू तक नहीं सकता था, वह उससे अपने साथ घूमने-फिरने जाने की उम्मीद न करे| यहाँ तक कि यदि वह अनन्या से संबंध रखना चाहे तो भी उसे कोई आपत्ति नहीं होगी| ये सब ही बातें मनु को अपने भीतर समाकर रखनी थीं और उसके अनुसार ही पत्नी बन जाने के बाद भी उससे कोई संबंध नहीं रखने का पक्का वायदा करना था जो उसने किया था|
इंसान अपनी ज़िंदगी के कुछ नाज़ुक लम्हों में कुछ ऐसे मूर्खतापूर्ण निर्णय ले बैठता है जो उसे शून्य कर देते हैं, एक शून्य वृत्त से चलकर वह उसी में गोल-गोल घूमता हुआ अपनी जीवन-यात्रा में निरीह सा बन जाता है और अपने पास का सब कुछ गँवा बैठता है| देखा जाए तो इंसान के पास होता ही क्या है? कुछ भावनाएं, कुछ संवेदनाएं, कुछ अहसास---लेकिन यदि वह इन सबका गला ज़बरदस्ती घोंटना चाहे तो उसको कौन रोक सकता है? ऐसा इंसान अकेला नहीं मरता, अपने साथ न जाने कितनों को लेकर मरता है| किसी को शरीर से तो किसी को आत्मा से!
अब आशी को ये सब बातें समझ में आ रही थीं जब वह शून्य की कगार पर आ खड़ी हुई थी| लिखते-लिखते जैसे उसकी कलम भोथरी हो जाती या टूटने की कगार पर आ जाती| उसका मन खून के आँसुओं से भर जाता| जिसमें से न जाने कितने उम्मीदों, आशाओं के तारे लगातार टूटकर गिरते ही तो रहे हैँ| उसने अपने मन के आसमान को धुंध से भर लिया था|
कोई भी रिश्ता रखने के लिए उसे संभालना आवश्यक है। उसके पास तो कभी रिश्ते रहे ही नहीं, जो थे उन्हें उसने कभी न समझा और न ही इज़्ज़त दी और विवाह जैसे रिश्ते को सदा ही ठोकर मारी| प्रेम इंसान की ज़रूरत है| वह प्रेम के बिना एक कोरा कागज़ ही तो है | अब उसे अपने भीतर का अकेलापन कभी भी कचोटने लगता है| अपने भीतर के कोरे कागज़ पर वह मूक संवेदना उकेरने लगती थी लेकिन उस सबका लाभ--? ?
अपने पिता के बारे में सोचते हुए वह कभी भी अकेले में सुबकियाँ भरकर रोने लगती है| उन्होंने उसे भरपूर प्यार देने की कोशिश की लेकिन उसे अब लगने लगा था कि वह उस प्यार के लायक ही नहीं थी| पूरी ज़िंदगी माँ को कोसा था उसने लेकिन यह क्यों नहीं सोच पाई कि उनकी ज़िंदगी पर उनका अपना अधिकार कुछ भी नहीं था क्या? उन्होंने जो कुछ भी निर्णय लिया, उसका उन्हें अधिकार था| शेष दीना जी का भाग्य था जो अपनी पत्नी की अनुपस्थिति में हर प्रकार से समर्थ होते हुए भी हरदम पीड़ा ही झेलते रहे|
क्या भाग्य था उसका भी जो माँ को तो खो ही चुकी थी, पिता होते हुए भी अनाथ की तरह स्नेह व ममता से वंचित रही| उसने तो सहगल अंकल, आँटी की भी सदा बेइज्ज़ती ही की है| मनु, जो इतना प्यारा इंसान है उसे सदा दुत्कारा ही है| आशिमा, रेशमा छोटी बहनों का भी कम इज़्ज़त व प्यार तो नहीं मिला था उसे फिर भी वह उन पर छाई ही तो रही| न जाने कैसे और क्यों रेशमा उसे कभी-कभी बहुत ही अपनी लगती और जब वह उससे प्यार से व्यवहार करती घर में उपस्थित सब लोगों की आँखों में जैसे चमक भर जाती| अपने घर के पूरे स्टाफ़ के साथ अपने व्यवहार को याद करते हुए वह उस दिन तो सुहास के सामने सुबक पड़ी थी|
मार्टिन के साथ यदि उसका ऐसा संवाद न हुआ होता तो वह शायद ऐसे भारत आने के बारे में सोचती क्या कल्पना तक नहीं करती| उस दिन आते ही जब उसने मनु को अनन्या के साथ अस्पताल जाते हुए देखा था वह इतनी अधिक उग्र हो उठी थी कि उसका वश ही अपने ऊपर नहीं रह पाया था आखिर क्यों? उसने ही तो खुले आम मनु को अनन्या से संबंध रखने की चुनौती सी दे डाली थी|
आशी अपने पूरे जीवन की कथा के अंतिम पृष्ठों की ओर चल दी थी| जिनमें केवल पीड़ा का इतिहास भरा था| सच तो यह था कि उसे मनु से किए गए अपने व्यवहार पर अब शर्मिंदगी हो रही थी| वह अपने आपको पिता की हत्यारन समझने लगी थी | अपने उस पिता की जिसने जीवन में अपने भीतर न जाने कितनी पीड़ाएं समेटे हुए भी उसे हमेशा प्यार-दुलार और जो कुछ उसकी इच्छा होती थी, वह सब कुछ देने का सदा ही प्रयत्न किया था|
उसका जीवन एक खोखला ढोल सा बनकर रह गया था जिसमें से फटी हुई आवाज़ निकलती, कभी न सुर होते और न कभी कोई स्वर ही उसे आकर्षित करता| जीवन की मरुभूमि में उसने स्वयं को रेतीले रास्तों में खो दिया था| अब वह थी, उसकी पीड़ा भरी स्मृतियाँ और हाथ में कलम-कागज़ ! वह जानती थी कि तब तक चैन नहीं पा सकेगी जब तक वह अपने आपको खाली न कर दे | वही तो करने की कोशिश थी उसकी लेकिन इतना आसान कहाँ होता है भरे हुए दिलोदिमाग को खाली कर देना| जारी था उसका प्रयास लेखन के माध्यम से, जितना लिखती जा रही थी उतनी ही खाली महसूस करती | अपने जीवन की कहानी आखिर क्यों लिखना चाहती थी वह? क्या उससे उसका गिल्ट समाप्त हो जाता? नहीं, लेकिन शायद कुछ हलकापन जरूर महसूस करती वह| क्या किया है उसने? शून्य से जन्म लेते है इंसान, उसने भी लिया लेकिन किसी उद्देश्य पर, लक्ष्य पर नहीं पहुँच सकी| केवल शून्य से शून्य तक सिमटकर ही रह गई| जो उसे कहना था, उसको वह कह चुकी थी अब उसके पास केवल अपने भीतर की तंद्रा को हिलाने के अतिरिक्त कुछ न था| कभी-कभी उसे लगता कि उसकी भाँति ही उसकी कलम भी थककर चकनाचूर हो गई है| वह कौनसी लेखिका थी जो इस लेखन के जूझने से मनोमस्तिष्क से न थकती !
अब यह मार्टिन उसे क्यों दिखाई देने लगा था? मनु के लिए उसका दिल घड़कने लगता जबकि वह जानती थी कि अब सब कुछ व्यर्थ ही था| वह आँखें बंद करती और मनु का बेबस मासूम चेहरा उसकी आँखों में तैरने लगता लेकिन अचानक वह चेहरा मार्टिन में बदलने लगता और वह फिर से कसमसा उठती| देखा जाए तो बेचारे मार्टिन की भी क्या गलती थी, वह उसे पसंद करने लगा था और उसके साथ जीवन व्यतीत करना चाहता था| आशी ने उसे अपने वैवाहित होने के बारे में भी तो नहीं बताया था|