Indraprastha - 1 in Hindi Mythological Stories by Shakti books and stories PDF | इंद्रप्रस्थ - 1

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इंद्रप्रस्थ - 1

इंद्रप्रस्थ



राजकुमार अर्जुन इस समय अपना धनुष हाथ में लिए सजग मुद्रा में खड़ा था। अर्जुन को सूचना मिली थी कि खांडवप्रस्थ के इस भयंकर वन में रक्षा नाग दैत्य और डाकू रहते हैं। आज अर्जुन शुभ मुहूर्त में इस वन की तरफ आया था। उसका विचार आज इस वन को नष्ट करके इन सभी दुष्ट आत्माओं का नाश करना था। अर्जुन ने वन के एक कोने पर आग लगा दी। गर्मी का महीना था। आग धीरे धीरे भयंकर रूप पकड़ गई और सारा जंगल जलने लगा। अर्जुन अब थोड़ी ऊंचाई पर खड़ा हो गया।


उसे अब पूरा वन दिखाई दे रहा था। इस ऊंची पहाड़ी से वह वन के मुख्य मार्ग पर नजर रख रहा था। सारा वन धु धु कर जलने लगा। कुछ पशु पक्षी दैत्य नाग और डाकू मुख्य मार्ग से बाहर की तरफ भागने लगे। राजकुमार अर्जुन अपनी वानों से उनका संघार करने लगा। अधर्मियों का नाश ही सच्चा धर्म है। उसे उसके गुरु द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने यही सिखाया था तथा पिता मह महारथी भीष्म की भी उसको यही शिक्षा थी। अचानक एक तगड़े शरीर का व्यक्ति जलते हुए जंगल से बाहर निकला। उसके वस्त्रो पर आग लगी हुई थी। वो बहुत सुंदर वस्त्र पहने हुये था तथा सर का हेलमेट उसका बड़ा भव्य था। उसके हेलमेट पर दो नकली सिंग लगे हुए थे। जो शायद किसी वृषभ के सीङ थे। अर्जुन ने तुरंत अपने धनुष पर एक भयंकर तीर रखा और मयदानव की तरफ छोड़ते ही वाला था। अचानक मयदानव ने हाथ जोड़े और घुटनों के बल बैठ गया। वह अभी भी जल ही रहा था। अर्जुन को दया आ गई। अर्जुन ने तुरंत दूसरा तीर मयदानव पर छोड़ दिया। यह तीर पानी का तीर था जिसे वरुनास्त्र कहते हैं। इस तीर ने मयदानव के शरीर के वस्त्रों पर लगी आग को बुझा दिया और साथ ही उसके सभी घावों को भी ठीक कर दिया।


मयदानव ने कहा मैं राक्षसों का राजा हूं। आपने मेरी जीवन रक्षा की। मुझे प्राण दान दिया। इसके बदले में मैं आपको दिव्य हथियार दूंगा और साथ ही उसने जंगल की ओर इशारा किया। जहां धीरे-धीरे अग्नि मंद पड़ती जा रही थी। क्योंकि सारा वन अब पूर्ण रूप से जल चुका था। उसने कहा इस जंगल में मैं आपके लिए एक भव्य नगर का निर्माण करूंगा। यह कहकर मयदानव लुप्त हो गया। अब अर्जुन अपने परिवार की तरफ चल पड़े जो वहां से कुछ ही दूरी पर ठहरा हुआ था। इस परिवार में उसकी मां कुंती भाई युधिष्ठिर भीम नकुल और सहदेव तथा पत्नी द्रौपदी थी।


उन्हें अभी कुटिया में कुछ दिन ही व्यतीत हुए थे। अचानक एक व्यक्ति उनके कुटिया के दरवाजे पर आया और बोला महाराज आपको मयदानव जी ने बुलाया है। अर्जुन अपने परिवार के साथ उस व्यक्ति के साथ चल पड़ा। कुछ ही दूरी पर मयदानव खड़ा था। वह अपने अंगरक्षकों के साथ खड़ा था। उसके सभी अंगरक्षक राजशी पोशाक पहने हुए थे और स्वयं मयदानव ने भी एक राजा की तरह वस्त्र शस्त्र धारण किए हुए थे। वहां कई रथ और घोड़े थे। सभी रथ बड़े सुंदर थे और घोड़े भी उच्च नस्ल के थे। मयदानव ने आदरपूर्वक अर्जुन और उसके परिवार को एक विशाल रथ पर बैठाया और आगे की तरफ चल पड़ा।


थोड़ी ही देर में वे खांडवप्रस्थ पहुंचे। लेकिन अब वहां वन की जगह एक भव्य नगर विद्यमान था। इस नगर का निर्माण मयदानव ने किया था। उस नगर को अर्जुन को सौंप कर मयदानव में विदा ली। साथ ही मयदानव ने अर्जुन को अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये। अर्जुन अपने परिवार के साथ आगे बड़ा। सारा नगर बड़ा सुंदर था और उसमें प्रहरी और जनता सभी विद्यमान थे। द्वार पर खड़े प्रहरी ने अर्जुन का मार्गदर्शन किया और उसे नगर की सबसे भव्य इमारत तक ले गया। जो एक राजमहल था। भवन में पहुंचकर अर्जुन बड़ा प्रसन्न हुआ। वहां युधिष्ठिर जो अर्जुन के बड़े भाई थे का राज्याभिषेक हुआ। अब इस नगर के राजा धर्मात्मा युधिष्ठिर थे।