Ret hote Rishtey - 1 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रेत होते रिश्ते - भाग 1

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रेत होते रिश्ते - भाग 1

एक
रात के दो बजे थे, लेकिन कमरे की बत्ती जली हुई थी। मँुह से चादर हटाकर मैंने देखा तो अवाक् रह गया। शाबान रो रहा था। मैंने उठकर घड़ी एक बार फिर देखी और उसके नजदीक पहुँच गया। वह मेरी ओर नहीं देख रहा था। देख भी रहा हो तो यह जान पाना बहुत मुश्किल था कि वह कहाँ देख रहा है क्योंकि पानी के दो बड़े मोती उसकी आँखों पर जड़े थे। डबडबाई आँखों के पाश्र्व से जैसे अदृश्य सिसकियों का नाद बज रहा था। मैंने करीब पहुँचकर हाथ उसके कंधे पर रखा किन्तु उसने मेरा हाथ झटक दिया। इतना ही नहीं बल्कि उसने मुँह भी दूसरी ओर फेर लिया। मैंने हाथ की अँगुलियाँ उसके बालों में फिरायीं, लेकिन इससे भी मेरे और उसके बीच आत्मीयता के समझौते परवान चढ़ते नहीं दिखायी दिये। आज शाम से ही उसकी आँखों में जो बेगानापन मेरे लिए उगा था वह मुझे आहत किये हुए था। समय का अन्तराल भी उस पर बेअसर सिद्ध हो रहा था। मेरे और उसके रिश्ते की फसल जैसे कोई हमसे छिपाकर काट ले गया था और हमें भनक तक नहीं हो पायी। मैंने पैरों में चप्पल डाली और दरवाजा खोलकर उसके लिए पीने का पानी लेने बाहर चला गया।
मैं लौटा तो शाबान कुर्सी पर बैठा हुआ ही नीचे की ओर झुका हुआ था। वह अपने सामान में जैसे कुछ ढँूढ़ रहा था। देखते-ही-देखते उसने अपने बाहर फैले-बिखरे कपड़े तहाकर सूटकेस में रखने शुरू किये और झटपट तैयार होने लगा। रात को दो बजे उसे मुस्तैदी से कपड़े बदलकर तैयार होते हुए देखता तो मैं रहा, किन्तु यह मेरी समझ में नहीं आया कि क्या बोला जाये। लेकिन जब जूते पहनकर उसने सूटकेस हाथ में उठाया तो मैं चुप नहीं रह सका। मैंने कहा, ‘‘कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘वापस लौट रहा हूँ।’’ वह उसी उदासीनता से बोला।
‘‘क्यों?’’
‘‘आपको मालूम है।’’
‘‘मुझे मालूम होता तो मैं तुमसे पूछता क्यों?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम।’’
‘‘क्या तुम जानते हो कि जो कुछ तुम पिछले दो-तीन घंटों से कर रहे हो, उससे मुझे कितना कष्ट हो रहा है?’’
‘‘मेरा कष्ट कौन देख रहा है?’’
‘‘तो तुम दूसरों का बदला मुझसे लोगे?’’
‘‘दूसरे आपके नजदीक जो हो गये हैं।’’ इस बार उसने मेरी ओर देखा भी। शायद उसे लगा होगा कि वह कोई बहुत चुभती बात कर रहा है जो जरूर मुझे कौंचेगी, इसी से वह अपनी बात की प्रतिक्रिया मेरे चेहरे पर देखने की लालसा को दबा नहीं पाया।
‘‘देखो शाबान, तुम यह सूटकेस यहाँ रख दो। पानी पिओ मुँह धोकर मेरे पास बैठो और नये सिरे से सारी बात पर फिर से सोचो। फिर भी यदि तुम्हें लगे कि मैंने कोई अपराध किया है तो इस बेल्ट से पूरी ताकत लगाकर मुझे घायल कर देना।’’ कहते हुए मैंने सामने दीवार पर टँगी चमड़े की बेल्ट उतारकर शाबान की ओर बढ़ाई। उसने एक बार बेल्ट की ओर देखा, फिर मेरी ओर देखता हुआ वापस लौटा। सूटकेस उसने नीचे रख दिया। वह थोड़ा-थोड़ा पिघलने लगा था क्योंकि अब वह कुर्सी पर बैठकर जूते उतारने लगा था।
मैं आश्वस्त होकर बिस्तर में चला गया। उसने अपनी कमीज उतारकर पास की खँूटी पर टाँगी और मेरे करीब आकर बैठ गया। अब जब उसने अपने हाथ मेरे घुटनों पर रखे तो मैंने महसूस किया कि उसकी हथेलियों की गर्मी लौटने लगी थी। उसके चेहरे पर जमी बर्फ पिघलने लगी थी। वह मेरे पैरों के करीब अधलेटा हो गया और उसने अपना सिर मेरे घुटनों पर रख दिया। काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला। मैं भी न जाने किस उधेड़बुन में वैसे ही बैठा रहा।
कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने मुँह खोला। बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिये। मैंने नाहक आपको परेशान किया।’’
उसके ऐसा कहते ही मानो जैसे कोई ‘स्टिल’ दृश्य फिर से चलने-फिरने लगा। किसी तनाव की अदृश्य-सी डोर से बँधा हुआ सारा असबाब खुल-बिखरकर फैल गया। मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखा और समझाने के स्वर में बोला—
‘‘देखो, सिर्फ तीन घंटे की बात है। आराम से सो जाओ। मैं तो पहले ही तुमसे कह चुका हूँ कि सुबह होते ही मैं स्वयं तुम्हें वहाँ लेकर चलूँगा और तुम्हारी सारी परेशानी दूर हो जायेगी। वैसा कुछ नहीं होगा जो तुम सोच रहे हो।’’
मेरी आशा के विपरीत वह चौंककर उठ बैठा। उसने झटके से मेरा हाथ अपनी पीठ से हटा दिया और चेहरे पर अजीब अविश्वास का-सा भाव लाते हुए बोला, ‘‘इसका मतलब आपको वह जगह मालूम है।’’