Nusarat - 1 in Hindi Women Focused by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | नुसरत - भाग 1

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नुसरत - भाग 1

भाग 1

नुसरत मिठाई का डिब्बा लिए हुए के.पी. साहब के चैंबर के सामने पहुँची। अर्दली कुर्सी पर बैठा मोबाईल में व्यस्त था। नुसरत ने उससे पूछा, “साहब बैठे हैं क्या?” 

अर्दली ने एक दृष्टि मिठाई के डिब्बे और फिर उसके चेहरे पर डाल कर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछा, “हाँ बैठे हैं। मिलना है क्या?” 

नुसरत ने कहा, “हाँ, मुझे मिलना है।”

अर्दली उठते हुए बोला, “एक मिनट रुकिए, पूछ कर बताता हूँ।”

वह मिनट भर में अंदर से लौट कर बोला, “जाइए, साहब अच्छे मूड में हैं। देखिये सारी मिठाई उन्हीं को न खिला दीजियेगा।” फिर एक अर्थ-भरी मुस्कान उछाल कर दरवाज़ा खोल दिया। के.पी. साहब विभाग में बाबा-साहब के नाम से जाने जाते हैं। 

दरवाज़े से अंदर पहुँचते ही नुसरत ने देखा वह एक बड़ी सी मेज़ की उस तरफ़ बैठे हैं। माथे पर आज भी पहले की ही तरह बड़ा सा हल्दी और चंदन का तिलक लगा हुआ था। रेशमी खादी की बादामी शर्ट पहने हुए थे। दाहिनी तरफ़ एक कंप्यूटर रखा था, तो ठीक उनके सामने उनका लैपटॉप खुला हुआ रखा था। 

नुसरत कुछ कहती कि उसके पहले ही उन्होंने उसकी ओर देखे बिना ही पूछा, “हाँ नुसरत जी, बताइए कैसे आना हुआ? आज तो आपको अपनी नौकरी ज्वाइन करनी है। आपकी नौकरी का पहला दिन है आज।”

नुसरत ने बहुत ही संकुचाते हुए कहा, “जी सर, मैंने ज्वाइन कर लिया है। मैं आपके लिए मिठाई ले आई हूँ।”

यह सुनते ही लैपटॉप पर तेज़ी से थिरकती बाबा-साहब की उँगलियाँ एकदम ठहर गईं। मूर्तिवत कुछ देर न जाने क्या सोचने के बाद, सिर उठाकर नुसरत को देखा। और देखते ही रहे कुछ सेकेण्ड तक। उसके बाद बड़ी गंभीर आवाज़ में पूछा, “नुसरत जी यह बताइये, जिन परिस्थितियों में आपको यह नौकरी मिली है, उसे देखते हुए क्या इसे आप अपने लिए ख़ुशी का अवसर मानती हैं?” 

नुसरत ने ऐसे प्रश्न की कल्पना तक नहीं की थी, इसलिए वह एकदम सकपका गई। वह दोनों हाथों से लड्डुओं से भरा डिब्बा पकड़े खड़ी रही। उसका नर्वस लेवल अचानक ही बिलकुल चरम स्तर पर पहुँच गया था। वह सहमती हुई इतना ही बोल सकी कि, “जी, जी मैं . . .”

उसकी मनःस्थिति को समझते हुए बाबा-साहब ने कहा, “देखिये, मेरी बात बहुत सीधी और साफ़ है कि आपको यह नौकरी आपके पति की बेहद दुर्भाग्य-पूर्ण ढंग से असामयिक मृत्यु के कारण मिली। उनकी उम्र भी कोई ज़्यादा नहीं थी। चालीस के भीतर ही थे। 

“यह बड़ी ही कष्ट-पूर्ण, दुखदाई बात है कि पति की मृत्यु के कारण विवशतावश आपको नौकरी करनी पड़ रही है। जिससे आप अपना, अपने बच्चों का जीवन-यापन कर सकें। आजीविका की समस्या नहीं होती तो मुझे नहीं लगता कि आप यहाँ नौकरी करतीं।

“शुरू से ही एक घरेलू महिला, गृहिणी का जीवन जीने वाली महिला को जीवन की अच्छी-ख़ासी यात्रा पूरी करने के बाद, अचानक ही नौकरी करनी पड़े, मुझे नहीं लगता कि यह उस महिला के लिए ख़ुशी का कारण है। इसलिए आप इसे अन्यथा नहीं लीजिएगा, मैं यह मिठाई नहीं खा सकता। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए न यह उचित है और न ही सम्भव। 

“हाँ, मैं इस अवसर पर आपको शुभकामनाएँ देता हूँ कि, आप सफलतापूर्वक अपनी नौकरी करती हुई अपना, अपने बच्चों का भविष्य सुंदर, सुरक्षित बना सकें। वैसे यह बताइए कि यह मिठाई आप अपनी इच्छा से लेकर आई हैं या कि आप से ऑफ़िस में किसी ने कहा।”

नर्वस लेवल के अब भी हाई बने रहने के कारण नुसरत काँप रही थी। मारे डर के जो कुछ सच था वह वही बताने लगी। उसने थोड़ा अटकते हुए कहा कि, “जी . . . जी सब लोग कहने लगे कि, नौकरी लगी है। पार्टी-शार्टी ना सही। मिठाई तो बनती ही है। बार-बार कहने लगे तो मैंने सोचा कि . . .”

नुसरत ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। तभी बाबा-साहब बोले, “जिन लोगों ने यह कहा, मैं उनका नाम पूछ कर आपको धर्म-संकट में नहीं डालूँगा। क्योंकि मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि कौन लोग हैं जो यह कर सकते हैं। 

“यह पियक्कड़ों की मंडली क्या-क्या कर सकती है, करवा सकती है पीने-खाने के लिए, इसकी कोई सीमा नहीं है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि मद्य-निषेध विभाग में पियक्कड़ों की मंडली नहीं, मंडलियाँ हैं। 

“ख़ैर, बड़ा होने के नाते आपको एक सलाह देता हूँ, आपके पति से भी बार-बार कहता था कि, पियक्कड़ों की इस मंडली से बचें। दूर रहें इनसे। बाक़ी जैसी आपकी इच्छा।”

इतना कह कर बाबा-साहब ने उसे मिठाई लाने के लिए धन्यवाद देते हुए बाहर जाने का संकेत दे दिया। नुसरत में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि, एक बार फिर मिठाई के लिए बोलती। वह दो क़दम पीछे हट कर मुड़ी और चैंबर से बाहर आ गई। 

चैंबर को एसी ने ख़ूब ठंडा किया हुआ था, फिर भी जब वह बाहर निकली तो उसके माथे पर चमकता पसीना आसानी से देखा जा सकता था। 

उसके बाहर आते ही अर्दली ने दरवाज़ा बंद कर दिया और झट से दो लड्डू उठाते हुए हाथ से इशारा किया कि, बाबा-साहब सिरफिरा आदमी है। और मुँह में पूरा एक लड्डू भर लिया। फिर दोनों आँखें मटका कर इशारा किया कि अब जाओ। 

नुसरत भी उसे देखकर मुस्कुराई और सेक्शन में चली गई। वहाँ सच में मंडलियाँ लड्डुओं की प्रतीक्षा कर रही थीं। 

वह सब के पास पहुँच रही थी, लेकिन कुछ इतनी जल्दी में थे कि, ख़ुद को रोक नहीं पाए। उठकर सीधे उसी के पास पहुँच गए। इनमें से कई लड्डू उठाने से पहले उसे बधाई देते हुए हाथ ज़रूर मिला रहे थे। यह देखने के बावजूद कि उसके हाथों में मिठाई का डिब्बा है। उसे एक हाथ से डिब्बा पकड़ कर हाथ मिलाना बहुत मुश्किल हो रहा है। 

आधे घंटे में लड्डू वितरण करने के बाद वह अपनी सीट पर बैठी। कुछ लोगों का ज़ोर हाथ मिलाने, देर तक उसे पकड़े रहने पर ही नहीं होता, तो उसे लड्डू वितरण में इतना समय नहीं लगता। नुसरत का काम लेटर डिस्पैच देखना था। लेकिन फ़िलहाल उसके पास कोई काम नहीं था। 

बाबा-साहब ने एक शुभ-चिंतक की तरह उसे मंडलियों से बचकर रहने की सलाह दी थी। लेकिन उन्हीं मंडलियों में से सबसे शातिर मंडली ने लंच टाइम में उसे एकदम से घेर लिया। मानो उनमें होड़ लगी हो कि कहीं पिछड़ न जाएँ। सब ने उसे अपने साथ बैठा कर लंच कराया। उनके साथ ही नुसरत के भी हाव-भाव देखकर कोई नहीं कह सकता था कि, यह मंडली और वह पहली बार साथ लंच कर रहे हैं। 

वास्तव में यह सही भी था। उस मंडली के चार में से तीन सदस्य ऐसे थे जो पिछले कई वर्षों से नुसरत के यहाँ महीने में पाँच-छह बार सजने वाली महफ़िल में शरीक़ होते ही थे। शाम को ऑफ़िस से निकलने के बाद उसके शौहर नज़्मुद्दीन के साथ-साथ पहुँच जाते थे। फिर देर रात तक खाना-पीना, हँसी-ठिठोली ख़ूब चलती थी। 

जिस दिन महफ़िल सजनी होती थी, उस दिन नुसरत तीनों बच्चों को खिला-पिलाकर जल्दी सुला दिया करती थी। जिससे पति के साथ वह भी महफ़िल का रस और लुत्फ़ ले सके। 

उसे बहुत अच्छा लगता था जब मंडली का कोई सदस्य उसके हाथ के बने मटन, चिकन को खाते हुए, उसकी तारीफ़ करता हुआ कहता कि, 'इतना उम्दा मटन तो किसी होटल में भी नहीं मिलेगा। मन करता है आपके हाथों को चूम लूँ, आपकी उँगलियाँ भी चूस लूँ।'

कई बार यह भी होता कि, यह कहते हुए वह सदस्य साथ खा-पी रही नुसरत की शोरबे में डूबी उँगलियों को सच में, मुँह में लेकर चूस लेता। इसके साथ ही महफ़िल में सभी की हँसी का एक छौंका सा लग जाता। और तब साथ ही बैठा उसका शौहर बड़ी नाज़ुक अदा के साथ एक हाथ से उसे अपने से सटाते हुए कहता, “आख़िर बेग़म किसकी है।”

जब रात ग्यारह-बारह बजते-बजते महफ़िल मुक़ाम पर पहुँच जाती और रुख़सती का वक़्त आता तो सब एक दूसरे को गले मिलकर शानदार महफ़िल के लिए बधाई देते। हर कोई जाते-जाते नुसरत से ज़ोरदार ढंग से गले मिलकर, उसकी शान में क़सीदे पढ़ना, उसे शुक्रिया, कहना न भूलता। 

साथ ही नज़्मुद्दीन की तारीफ़ के पुल बाँधते हुए कहता कि, “यार जो भी हो, जैसा इंतज़ाम तुम करते हो, वैसा हम-लोग कुछ कर ही नहीं पाते। बहुत ही शानदार है तुम्हारा मुक़द्दर जो ऐसी ख़ूबसूरत, जानदार, शानदार, बेग़म मिली है।”

वास्तव में सभी इस महफ़िल के आयोजक-प्रायोजक होते थे। सभी कुछ ना कुछ लेकर आते थे। 

इसी मंडली के साथ नुसरत ऑफ़िस में पहले ही दिन लंच कर रही थी। उसके चेहरे, उसकी शारीरिक भाषा में कोई संकोच, या सकपकाहट जैसा कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था।