Laga Chunari me Daag - 15 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | लागा चुनरी में दाग़--भाग(१५)

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(१५)

इधर प्रत्यन्चा को ये नहीं पता था कि पप्पू गोम्स मर चुका है और उसे शौकत की हालत के बारें में कुछ पता नहीं था,इसलिए वो भागती रही...बस भागती रही,फिर कुछ देर के बाद वो थमी और एक जगह बैठकर वो सोचने लगी कि अब वो कहाँ जाएंँ,ना जाने शौकत भाई का क्या हुआ होगा,उसकी पोटली तो भागने के चक्कर में छूटकर कहीं गिर गई थी,लेकिन अब भी उसके दुपट्टे के किनारे पर वो रुपए बँधे हुए थे जो उसे नैना किन्नर ने दिए थे...
इसलिए उसने उन पैसों से एक ताँगा पकड़ा और महज़बीन के घर जाने का फैसला करके वो वहाँ चल पड़ी,लेकिन जब वो वहाँ पहुँची तो महज़बीन के घर के पास बहुत भीड़ इकट्ठी थी,इसलिए उसने दुपट्टे से अपना चेहरा ढ़क लिया,वो वहाँ और नजदीक गई तो उसने देखा कि वहाँ पुसिस भी खड़ी है,उसे कुछ अजीब सा लगा इसलिए उसने वहाँ मौजूद एक महिला से पूछा...
"बहनजी! यहाँ क्या हो गया"?
"अरे! हमारे मुहल्ले के दो लोगों का कत्ल हो गया",वो महिला बोली....
"किसने किया कत्ल"?,प्रत्यन्चा ने पूछा...
"कत्ल करने वाले का तो पता नहीं लेकिन जिनका कत्ल हुआ है ,वो महज़बीन और उसके शौहर हैं", वो महिला बोली...
जब प्रत्यन्चा ने इतना सुना तो उसे धक्का सा लगा और उसकी आँखों की कोरें गीली हो गई,वो महज़बीन को आखिरी बार देखना चाहती थी,लेकिन देख नहीं पाई,क्योंकि पुलिस ने उस घर के आस पास किसी को भी आने की इजाज़त नहीं दी थी,फिर बेचारी प्रत्यन्चा क्या करती,वहाँ से उल्टे पैर लौट आई,वो फिर से चलती रही और अब वो शौकत के बारें में सोच रही थी कि आखिर उसके साथ क्या हुआ होगा, वो रेलवे स्टेशन भी जाना चाहती थी लेकिन ना गई,वो अब भी चल रही थी...बस पैदल ही चलती चली रही थी, दोपहर हो चली थी लेकिन उसके कदम अब भी नहीं रुके थे....
वो ये सोच रही थी कि चंद रातों में उसकी जिन्दगी कहाँ से कहाँ पहुँच गई,वो कहाँ जाऐगी? क्या करेगी, यही सब चल रहा था उसके दिमाग़ में,अब दिन बहुत चढ़ आया था,वो नंगे पैर थी पक्की सड़क पर ,जब उसे पैरों में जलन महसूस हुई तो उसे तब जरा होश आया,फिर उसे प्यास का एहसास हुआ,उसने यहाँ वहाँ नजरें दौड़ाईं तो उसे वहाँ एक मंदिर दिखा,तब उसे लगा कि वहाँ उसे पीने के लिए पानी मिल सकता है, उसने मंदिर की सीढ़ियों को छूकर अपने माथे से लगाया और भीतर चली गई,मंदिर के आँगन में उसे नल दिखा,जिसे खोलकर पहले तो उसने जीभर के पानी पिया और फिर अपना मुँह धोया.....
माता के द्वार पर माथा टेककर वो वहीं बैठ गई,भीतर ना गई,फिर पता नहीं उसे क्या हुआ वो माता के मुँख को देखकर फूट फूटकर रो पड़ी,उसके आँसू अविरल बहे जा रहे थे,शायद वो उनके सामने अपने मन का गुबार निकाल रही थी,उसके साथ जो हो रहा था शायद वो अपने आँसू बहाकर उनसे शिकायत कर रही थी या उन्हें अपनी माँ समझकर अपना दर्द बाँट रही थी,जो भी था वो तो प्रत्यन्चा ही बता सकती थी , क्योंकि वो सब तो वही झेल रही थी,जिसके ऊपर बीतती है वही जान सकता है,हम आप तो केवल उस दर्द का अन्दाजा लगा सकते हैं,लेकिन उस दर्द को बाँट नहीं सकते.....
प्रत्यन्चा दो तीन रातों में ही एकदम से परिपक्व हो गई थी और अब वो जिन्दगी को समझने की कोशिश कर रही थी,लेकिन जिन्दगी को खुद से समझना थोड़ा जटिल होता है,उसे समझाने वाला कोई हो तो जिन्दगी आसानी से समझ में आ जाती है,लेकिन इस समय प्रत्यन्चा बिलकुल अकेली थी और अकेली ही उन हालातों से लड़ने की कोशिश कर रही थी और जितना वो उनसे लड़ने की कोशिश कर रही थी तो हालात सम्भलने के वजाय बत से बत्तर होते चले जा रहे थे, एक साधारण सी दुबली पतली लड़की ऐसे हालात देखकर रोऐगी नहीं तो और क्या करेगी.....
वो रो रही थी तभी मंदिर के पुजारी उसके पास आकर बोले...
"क्या हुआ बेटी! रो क्यों रही हो?",
"कुछ नहीं पुजारी जी! थोड़ी परेशानी है इसलिए माँ से शिकायत कर रही थी",प्रत्यन्चा अपने आँसू पोछते हुए बोली....
प्रत्यन्चा की बात सुनकर पुजारी जी मुस्कुराकर बोले...
"ये भी तुमने खूब कही बिटिया! बेटी माँ से शिकायत नहीं करेगी तो और किससे करेगी",
"बहुत कुछ खोकर आई हूँ इनके पास,सोचा था शायद अब कोई राह दिखाऐगी ये,लेकिन लगता है इन्हें मुझ पर जरा भी दया नहीं आती",प्रत्यन्चा बोली....
"ऐसा ना कहो बिटिया! ये जगतजननी हैं,देर सबेर ही सही लेकिन ये सबकी सुनतीं हैं",पुजारी जी बोले...
"आशा तो यही है",प्रत्यन्चा बोली....
"बिटिया! उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है,दिल से भरोसा करो इन पर,कभी भी नाउम्मीद नहीं होगी", पुजारी जी बोले....
"अब चलती हूँ पुजारी जी! अच्छा लगा आपसे बात करके,थोड़ी तसल्ली मिली दिल को",प्रत्यन्चा बोली...
"प्रसाद लिया बेटी!",पुजारी जी ने पूछा...
"नहीं! पुजारी जी! मैं प्रसाद नहीं ले सकती,आज तो मुझ अभागन को स्नान करने का मौका भी नहीं मिला,इसलिए तो मैं मंदिर के भीतर नहीं गई",प्रत्यन्चा बोली.....
फिर पुजारी जी प्रत्यन्चा को प्रसाद देते हुए बोले....
"बेटी! माँ ने तुझे बुलाया था,इसलिए तू इधर आई है,ले प्रसाद ले,स्नान ना करने से कुछ नहीं होता,भक्ति तो दिल से की जाती है,जो कि तू ने कर ली"
फिर प्रत्यन्चा ने प्रसाद लिया और पुजारी जी के चरण स्पर्श करके वो मंदिर से बाहर आ गई,एक जगह बैठकर उसने वो प्रसाद खाकर अपनी भूख मिटा ली और फिर से वो शहर की गलियों में आवारा सी भटकने लगी,उसके पास ना कोई ठौर था और ना कोई ठिकाना,माँ बाप भी मुँह मोड़ चुके थे उसके,एक मुँहबोला भाई मिला था,उसकी भी हालत ना जाने कैंसी होगी,पीठ में चाकू लगने के बाद ना जाने उसका क्या हुआ होगा,यही सब सोच रही थी प्रत्यन्चा....
भटकते भटकते उसे फिर प्यास लग आई थी,वहीं पास में उसे एक प्याऊ दिखा,जहाँ जाकर उसने पानी पिया,फिर उसे भूख का एहसास हुआ,इन्सान कितना भी दुखी और परेशान क्यों ना हो,लेकिन भूख प्यास तो उसे लगती ही है,जो कि स्वाभाविक सी बात है,उसके पास अभी भी पैसे थे,उन पैसों से उसने एक प्लेट खाना खरीदकर खा लिया,खाना खाकर उसे थोड़ी राहत मिली,बेजान शरीर में कुछ जान आई और फिर से वो शहर की गलियों में भटकने लगी,उसे यूँ ही भटकते भटकते अब शाम हो चली थी और शाम से रात भी हो गई लेकिन प्रत्यन्चा का भटकना अब तक थमा नहीं था....
अब जब रात हो चुकी तो उसे एहसास हुआ कि अब वो कहाँ जाऐगी,रात कहाँ बिताऐगी,वो सड़क के किनारे फुटपाथ पर बैठे बैठे यही सब सोच रही थी कि दो गुण्डे जैसे इन्सान उसके पास आए और उनमे से एक बोला....
"ऐ....चलेगी क्या?"
उन दोनों को अनसुना करके प्रत्यन्चा वहाँ से उठकर जाने लगी तो दोबारा उनमें से दूसरे ने पूछा....
"ऐ...इतने नखरे क्यों दिखाती है,मुफत में चलने को नहीं कह रहे हैं"
"मैं ऐसी वैसी लड़की नहीं हूँ"
और ऐसा कहकर प्रत्यन्चा ने वहाँ से भागने में ही अपनी भलाई समझी,फिर उसने वहाँ से जोर से दौड़ लगाई,उसके पीछे पीछे वे गुण्डे भी भागने लगे,प्रत्यन्चा भाग रही थी....बस अन्धाधुन्ध भाग रही थी और फिर भागने के चक्कर में वो एक मोटर कार से जा टकराई....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....