Kanchan Mrug - 4 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 4. माई साउन आए

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कंचन मृग - 4. माई साउन आए

4. माई साउन आए-

बारहवीं शती का उत्तरार्द्ध। महोत्सव वास्तव में उत्सवों का नगर था। नर-नारी उल्लासमय वातावरण का सृजन करने में संलग्न रहते। ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही नगर का परिवेश बदल जाता । सावन में घर-घर झूले पड़ जाते। नीम या इमली की डाल पर बड़े-बड़े रस्से लगाकर लकड़ी के मोटे पटरे बाँध दिये जाते। नवयुवतियाँ साँझ ढलते ही झूलों पर झूलतीं और कोमल कंठों से सावन गातीं। उन गीतों को सुनकर हर व्यक्ति जीवन की कटुता भूल जाता। अभावों और आकांक्षाओ की अनापूर्ति के मध्य भी जीवन की सरसता छलक उठती। रस बरसने लगता।

चन्द्रा के उद्यान में भी एक सुन्दर झूला डाल दिया गया है। चन्द्रा ने आज चित्ररेखा को भेजकर पुष्पिका को झूलने के लिए आमंत्रित किया है। उदय सिंह स्वयं पुष्पिका को पहुँचा गए हैं। चन्द्रा और पुष्पिका समवयस्का हैं। दोनों के रूप रंग की चर्चा प्रायःहोती रहती है। दोनों स्नेह की प्रतिमूर्ति सी लगतीं । चन्द्रा लहुरे वीर उदय सिंह से अधिक स्नेह रखती थी। उदय सिंह भी चन्द्रा को प्राणों से अधिक स्नेह देते थे। पुष्पिका उदय सिंह की पत्नी थी। पुष्पिका के आने पर चन्द्रा का रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठता। सौंदर्य और सरलता का ऐसा संगम अन्यत्र दुर्लभ था। पुष्पिका को लेकर चन्द्रा उद्यान में आ गई। दोनों झूले पर बैठ गईं। चित्ररेखा तथा अन्य सेविकाएं झूला झुलाने लगीं। समवेत स्वर में गीत लहरा उठे......

एक चना दो देउली, माई साउन आए।

कौन सी बिटिया सास रैं

कौन लुआउन जायरी।

गौरा सी बिटिया सासरैं

वीरन लुआउन जायरी।

माई साउन आए

गीत के साथ ही झूले के पेंग भी लहरा उठे। झूले पर चलते किलोल में ही अधिक समय निकल गया। पुष्पिका को बिठाकर चन्द्रा ने स्वयं ही झूले की गति तेज कर दी। पुष्पिका झूले पर लहराने लगी। चन्द्रा प्रसन्नता से खिल उठी। झूला रुकने पर पुष्पिका चन्द्रा को बिठाकर स्वयं झूले की गति तेज करने में लग गई। दोनों की उमंग से रस बरसता रहा।

नगर में देर रात तक लोग सावन महोत्सव की तैयारियों में व्यस्त रहते। कलाकार, विभिन्न शिल्पों के गुणज्ञ अपनी कुशलता प्रदर्शित करने के लिए उत्साहित थे। प्रजा भाग एवं भोग कर से राज को परितृप्त करती रही। राजा की सम्पन्नता के बारे में यह बात प्रचारित थी कि महाराज के पास पारस मणि है। श्रेष्ठि , विद्वान, गायक , नर्तक सभी अपने-अपने ढंग से तैयारियों में निमग्न थे मल्ल, धनुर्धर, अश्वारोही, सभी। नृत्यांगनाएं अपने साजबाज के साथ अभ्यास में संलग्न थीं। कई दिन चलने वाला यह महोत्सव आनन्द से सराबोर कर जाता। कीर्ति सागर के मैदान में दूर-दूर से आए श्रेष्ठियों के शिविर लग गए। व्यापारी अपनी विक्रय योग्य वस्तुओं-अस्त्र-शस्त्र से शृंगार सामग्री तक को सजा कर बेचने की तैयारी में हैं। नगर में स्थान-स्थान पर द्वार बनाकर उन्हें सुसज्जित किया गया। वीथिकाएँ एवं गलियारे तोरण द्वारों से सुशोभित किए गए। किशोर-किशोरियों का हृदय उत्साह से फड़फड़ा रहा था ।

आज महोत्सव का प्रथम दिन है। राजकुमार ब्रह्मजीत, समरजीत, सहित अनेक अश्वारोही घुड़दौड़ के प्रर्दशन में भाग लेने के लिए आ गए हैं। दर्शकों का अद्भुत जमावड़ा है। दर्शकों की भी अपनी-अपनी रुचियाँ हैं। महाराज परमर्दिदेव राजेश्वरी मल्हना सहित सज्जित मंच पर आ गए हैं। उनके साथ अनेक सामंत मन्त्रीगण-देवधर, पुरुषोत्तम , माण्डलिक, आदि भी आसन ग्रहण कर चुके हैं। मन्त्रिवर माहिल थोड़ी देर व्यवस्था का निरीक्षण कर अपने आसन पर आए और महाराज के निकट बैठ गए। ऐसा लगता था वे बार-बार संकेत से ही महाराज को कुछ समझा रहे हैं। चन्द्रा अपनी सहेलियों के साथ मंच पर बाईं ओर आसीन थी। घुड़दौड़ का आयोजन सैय्यद तालन की देख रेख में हो रहा था। वे उम्र में बड़े थे और भाग लेने वाले नवयुवक उन्हें चाचा कह कर पुकारते थे।

राजकुमार ब्रह्मजीत, समरजीत, अभयी, सलक्षण, उदयसिंह सभी अपने-अपने घोड़ों को नचाते हुए चहलकदमी कर रहे थे। प्रतियोगियों की संख्या अधिक होने के कारण उन्हें कई टोलियों में विभाजित किया गया। घुडदौड़ प्रारम्भ हुई। ब्रह्मजीत, समरजीत, अभयी, सलक्षण, उदयसिंह सभी अलग-अलग टोलियों में रखे गए थे। पहली टोली की दौड़ में समरजीत के आगे निकलते ही तालियों की गड़गड़ाहट से परिवेश गूँज उठा। सभी समरजीत के अश्व कौशल की प्रशंसा कर रहे थे। महाराज परमर्दिदेव व महारानी मल्हना की प्रसन्नता फूटी पड़ रही थी । चन्द्रा सहेलियों सहित देर तक तालियों से समरजीत का स्वागत करती रही। दूसरी टोली में अभयी के आगे निकलते ही माहिल खड़े हो गए। सभी दर्शकों की तालियाँ पुनः बज उठीं। महाराज, महारानी सहित मंच पर आसीन सभी अतिथि अभयी के कौशल को देखकर मुदित थे। तीसरी टोली में राजकुमार ब्रह्मजीत अपना कौशल दिखाते हुए जैसे आगे बढ़े सम्पूर्ण परिवेश राजकुमार ब्रह्मजीत की जय से गूँज उठा। देर तक तालियाँ बजती रहीं । चन्द्रा और उसकी सहेलियों की खुशी का अन्त नहीं था। चौथी टोली में सलक्षण का प्रदर्शन लोगों को मुग्ध कर गया। उनके अश्व की थिरकन के साथ ही तालियों की गड़गड़ाहट जैसे ताल दे रही थी। पाँचवी टोली में उदयसिंह के आ कर खड़े होते ही दर्शकों ने तालियों से उनका स्वागत किया। दर्शक विभोर थे। माहिल ने महाराज के कान में कुछ कहा। तालियाँ और जोर से दुबारा - तिबारा बजती रहीं। माहिल हर बार महाराज के कान में कुछ कहते रहे। अश्वारोही उदयसिंह के गति लेते ही दर्शक झूम कर नृत्य करने लगे। महाराज महारानी के साथ मंच पर आसीन सभी अतिथिगण विभोर हो तालियाँ बजाने लगे। तालियाँ रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। कुछ क्षणों में बेंदुल को नचाते हुए उदयसिंह मंच के सामने आ खड़े हुए। उन्होंने सिर झुका कर सभी को प्रणाम किया। तालियाँ निरन्तर बजती रहीं। चन्द्रा और उसकी सहेलियाँ मुक्त भाव से तालियाँ बजाती रहीं । माहिल अपने को रोक न सके। उन्होंने खड़े होकर तालियाँ बंद करने का आग्रह किया। तालियाँ तब भी कुछ देर बजती रहीं। कुछ लोगों ने महाबली उदयसिंह की जय ध्वनि से आकाश गुँजा दिया। महाराज परमार्दिदेव के आशीर्वचन से प्रतियोगिता सम्पन्न हुई।

दर्शक मेले के विभिन्न आयोजनों को देखने के लिए निकल पड़े। नटों के कार्यक्रमों को नर-नारी, बच्चे सभी बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे। साँझ ढलते ही गान और नृत्य की प्रतियोगिताएँ प्रारम्भ हो गईं। लोक नृत्य के साथ शास्त्रीय नृत्यकारों का जमाव महोत्सव को एक अलग ही रंग दे रहा था। अपनी रुचि के अनुरूप दर्शक अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे। नवयुवक एवं नवयुवतियाँ लोकनर्तकों की कला देख कर झूम रहे थे। उत्सव में स्थान-स्थान पर साधु-सन्तों के अखाड़े थे जिनमें निरन्तर प्रवचन होते। उनके आस-पास भीड़ इकट्ठी होती, प्रवचन सुनती और आशीष प्राप्त करती। कई स्थानों पर औघड़ बबूल और बेर के काँटों पर लेटे हुए थे। लोग आते उनके पास क्षण भर रुकते और माथ नवाकर आगे बढ़ जाते।

राजकुलों में उस समय नृत्य और संगीत पर भी विशेष बल दिया जाता था। महाराज परमर्दिदेव स्वयं संस्कृत में श्लोक रचते थे। उनकी राज सभा में भी कवियों को सम्मान दिया जाता था। संस्कृत और जनभाषा दोनों के कवि अपनी रचनाओं से लोगों को मुग्ध करते थे। कुछ ऐसे भी कवि थे जो लेखनी और तलवार दोनों के धनी थे। युद्ध भूमि में वे राज सेना का मनोबल बढ़ाते और विपक्षी पर बाज की भाँति टूट भी पड़ते। परमर्दिदेव की राजसभा में जगनिक ऐसे ही कवि थे।

महाराज को नृत्य से भी विशेष लगाव था। महोत्सव की नृत्यांगना लाक्षणिका की चर्चा प्रायः चारों ओर हुआ करती । उसके आयोजनों में सम्भ्रान्त नागरिक एवं राजपरिवार के लोग अत्यन्त उत्साह से भाग लेते। महोत्सव में उसका भी कार्यक्रम रखा गया। दूसरे दिन सायंकाल गीत गोविन्द से ध्रुवपद गाते हुए उसने नृत्य प्रारम्भ किया। श्लोक के भावों को अपनी भंगिमा से व्यक्त करते समय उसका शरीर विद्युत्छटा की भाँति दमक उठा। नर-नारी झूम उठे। राजप्रासाद के परिसर का कण-कण झंकृत हो उठा। लाक्षणिका के नृत्य और गायन की गूँज दूर-दूर तक ध्वनित हो चुकी थी। कई राजपरिवार लाक्षणिका को अपनी राजसभा में लाने के लिए लालायित रहते। महोत्सव की जब भी कहीं चर्चा होती, खर्जूर वाहक, राजकुमारी चन्द्रा, उड़न बछेड़े, पारसमणि के साथ ही लाक्षणिका की भी चर्चा होती ।

पर लाक्षणिका का यही गुण उसके लिए संकट का हेतु बन जाता । माण्डवगढ़ के राजकुमार ने जब महोत्सव पर आक्रमण कर लूट-पाट की तो लाक्षणिका को भी अपने साथ लेता गया। जब तक उदयसिंह अपने भाइयों सहित माण्डवगढ़ को पराजित नहीं कर सके, उसे वहीं रहना पड़ा। कभी-कभी वह सोचती, प्रसिद्धि पाना भी कितना कष्टकर हो जाता है। प्रकृति ने उसमें रूप और गुण का सहज सामंजस्य बिठाया था। कला की साधना कितनी कठिन थी। दो-दो प्रहर अभ्यास करना सामान्य बात थी। कभी-कभी चार-चार प्रहर ही नहीं, आठों प्रहर अभ्यास मग्न रहती। सभी उपलब्धियाँ देखते और मुग्ध होते, पर उसके पीछे कितना श्रम छिपा है इसका भान सबको कहाँ हो पाता? पर उसे प्रसन्नता भी होती कि उसके श्रम को मान्यता मिली अन्यथा कितने कलाकार कुसुमित होकर झर जाते और किसी की दृष्टि उन पर नहीं पड़ती। पर आज नृत्य समारोह के बाद उदयसिंह ने उसे माँ कहकर पुकारा था। इस संबोधन से वह पुलकित हो उठी थी। उसका रोम-रोम आनन्द से भर उठा था। घर पहुँची तो देखा कि उदयसिंह प्रतीक्षा कर रहे थे। उसने उदय सिंह को स्नेह से अंक में भर लिया। उदय ने उसका चरण स्पर्श किया और धवल आसन्दी पर बैठ गए। लाक्षणिका भी दूसरी आसन्दी पर बैठ गई।

माँ, आज पहली बार मैंने जाना कि कला का कितना प्रभाव पड़ सकता है।

तुम्हारी बात सच है बेटे, कला जीवन का रस है। उसका प्रभाव सभी जीवों पर पड़ता है।

पर माँ, यह कला पोषित होनी चाहिए।

मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ बेटे। इसीलिए कुछ बालिकाओं को मैंने सिखाना प्रारम्भ किया है। राजकुमारी चन्द्रा भी रुचि ले रही हैं। पर मार्ग बड़ा दुष्कर है।

क्यों’?

कला की साधना कृपाण की धार पर चलना है बेटे।’ ‘कलाकार की स्वतंत्रता भी रक्षित नहीं है माँ। राजपुरुषों के विलास के लिए कितनी नारियों को अपहृत किया गया है। चाहता हूँ नारियों में भी आत्मशक्ति जगे। इसीलिए कभी-कभी वामा-वाहिनी की बात मन में आती है।’ ‘संभवतःराजकुमारी चन्द्रा भी यही सोचती हैं। उन्होंने शस्त्र संचालन की कला सीखना प्रारम्भ कर दिया है।’ ‘चन्द्रा भी बहुत प्रबुद्ध है। पर हमारा परिवेश निरन्तर जकड़ने का प्रयास करता है।

और तुम उसे काटना चाहते हो।

अचानक घोड़े की टाप सुनाई पड़ी। उदयसिंह ने तत्काल लाक्षणिका से विदा ली और मार्ग पर आ गए। घोड़े की टाप का स्वर उन्हें विस्मयकारी लगा था। पर लाक्षणिका से बताना उन्होंने उचित नहीं समझा । उदय सिंह की आहट से अश्वारोही अन्तर्धान हो गया।

आज भास्कर की स्वर्ण रश्मियाँ बालक-बालिकाओं में नई स्फूर्ति भर रही हैं। आज का आयोजन कीर्तिसागर में भुजरियाँ सिराने का है। नवयुवतियाँ उगाए अंकुरों को पत्ते के दोनो में भरकर कीर्तिसागर के जल में प्रवाहित करती हैं। बालिकाओं में इस पर्व के प्रति विशेष उत्साह है। सबेरे उठकर उन्होंने भुजरियों को सँवारा, घर की सफाई और स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण किया। भुजरियाँ प्रवाहित करने में कोई विघ्न न उपस्थित हो इसीलिए अस्त्र-शस्त्र सज्जित बन्धुवर साथ-साथ चलते। कीर्तिसागर पर बहनों से भुजरियाँ प्राप्त कर भाई गौरवान्वित अनुभव करते।

चन्द्रा आज प्रातः से ही अत्यन्त प्रफुल्लित है। चित्ररेखा उनकी साज-सज्जा के लिए सिर-पैर एक किए हुए है। वे राजपुत्री हैं, उन्हें अलग दिखना चाहिए। अनेक राजपुत्र इस पर्व को देखने के लिए लालायित हैं। राजपुत्री में तेज और सौन्दर्य का अद्भुत संयोग उन्हें विशिष्ट बना रहा था। वामा व्यूह के बीच उनकी शिविका, सहेलियों की शिविकाओं के साथ अत्यन्त मनोहारी लग रही थी। महारानी मल्हना, सुवर्णा, पुष्पिका सहित राजपरिवारों की शिविकाएँ साथ-साथ चल रही थीं। चित्ररेखा और चन्दन दोनों दो अश्वों पर सवार हो शिविकाओं के आगे-आगे चल रहे थे। शिविकाओं की सुरक्षा का दायित्व उदयसिंह ने अपने ऊपर ले लिया था। उदयसिंह के सधे हुए पचास अश्वारोही समारोह की चौकसी कर रहे थे। उदयसिंह कभी आगे और कभी पीछे पहुचँकर सभी की देख-रेख कर रहे थे। उत्सव में प्रायः राजपुत्र या राजपरिवार से सम्बद्ध लोग अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर शिविकाओं का अपहरण या लूट-पाट कर लिया करते थे। उदय सिंह के कारण स्त्रियाँ निश्चिन्त हो उत्सव में निमग्न थीं।

शिविकाएँ घाट पर रोकी गई। महिलाएँ एवं नवयुवतियाँ सीढ़ियों पर आकर भुजरियाँ प्रवाहित करने की तैयारी करने लगीं। उदयसिंह के सहयोगी अश्वारोही घाट की चौकसी करने लगे। समूह गान के साथ युवतियाँ सागर की ओर बढ़ीं। चन्द्रा सहेलियों के साथ भुजरियों को दोनो में रखकर प्रवाहित करने लगीं। अनेक मंगल वाद्यों का स्वर परिवेश में लहरा उठा-शंख तूर्य, मृदंग एवं दमामे की सम्मिलित ध्वनि। दोनो में अंकुर जल में तैरने लगे। युवतियाँ हर्ष विभोर हो सुरक्षा में सन्नद्ध भाइयों को भुजरियाँ प्रदान करने लगीं। भाइयों ने आजीवन बहन की सुरक्षा का व्रत लिया । चन्द्रा, उदयसिंह ,ब्रह्मजीत,समरजीत को भुजरियाँ सौंपते भाव विह्वल हो उठी। उदयसिंह का भी मन भर आया। उनका अन्तर्मन कह उठा- चन्द्रे, माँ मल्हना को जीवन दे चुका हूँ। तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए किसी तरह का बलिदान मेरे लिए प्रसन्नता की बात होगी।कहते-कहते उदयसिंह का हाथ चन्द्रा के सिर पर चला गया। चन्द्रा की आँखों में बरबस प्रसन्नता के अश्रु भरभरा उठे। पुष्पिका ने चन्द्रा को गले लगा लिया। सखियों के मंगलगान में मेघ ताल देने लगे। रस की फुहार पड़ने लगी। महारानी मल्हना, सुवर्णा, पुष्पिका के साथ ही चन्द्रा भी शिविकाओं के निकट आ गई। इन्हें देखते ही लोकनर्तक ने पूरी शक्ति लगाकर टेर भरी..........

कोऊ आई सुघर पनिहारी

कुअला उमड़ परे।

कै तुम गोरी धन साँचे की ढारी’,

कै तुम गड़े हैं सुनार।

ना हम गोरी धन साँचे की ढारी,

ना हम गड़े हैं सुनार।

माता पिता मिल जनम दियो है

रूप दीयो करतार।