Aanch - 2 in Hindi Fiction Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | आँच - 2 - यह कोठा भी नख़्ख़ास है !

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आँच - 2 - यह कोठा भी नख़्ख़ास है !

अध्याय दो
यह कोठा भी नख़्ख़ास है !
तालियों की गड़गड़ाहट, सिक्कों की बौछार के बीच लचकभरी बेधक आवाज़ । महफ़िल झूम उठी जब उसने छेड़ा-
मोरा सैयां बुलावे आधी राति, नदिया बैरन भई।
थिरकते पाँवों के बीच घुँघअओं की रुनझुन। हर एक की आँखें उसी पर गड़ी हुई। तेरह साल की उम्र। कसकती आम के फाँक सी आँखें। शरीर पर जैसे सुनहला पानी चढ़ा हुआ। सौन्दर्य की प्रतिमा सी। थिरकती तो लगता लास्य की नेत्री लोगों को भाव, लय और ताल सिखा रही है। यह आयशा थी। नदिया बैरन भई... नदिया बैरन भई... नदिया बैरन भई… उतारती हुई। उसी के साथ नृत्य। तालियाँ देर तक बजती रहीं। अमामन का बटुआ सिक्कों से भर गया। चेहरा खुशी से छलछलाया हुआ। कई रईस उठकर आयशा तक आए। उसे भर नज़र देखा और तारीफ़ की। दर्शकों में संस्कृत और फारसी के पंडित और मौलवी भी थे। एक पंडित जी चहक उठे-आरोह और अवरोह का कितना सुन्दर समन्वय। मौलवी भी बोल पडे़-क्या दिलक़श आवाज़ है? आमंत्रितों में पाँच अँग्रेज परिवार भी थे। अँग्रेजों की पत्नियाँ ताली बजाने में सबसे आगे थीं। आयशा के नृत्य और गायन से सभी अभिभूत थीं।
लाला राम लाल का चेहरा भी खुशी से दमक रहा था। वे बड़ी आत्मीयता से रईसों का स्वागत कर रहे थे। बैसाख के दिन। खस-बादाम से लेकर पुदीना, सौंफ, आम-लीची के शर्बत, आम का पन्ना, मेवों के साथ घुटी हुई विजया, जीरा-छाछ। अपनी रुचि के अनुसार लोग पी रहे थे। शर्बत पान के बाद विविध व्यंजनों-पूड़ी-कचौड़ी, ज़र्दा-पुलाव, दही बड़ा, बुँदिया और लौकी का दो तरह का रायता, आलू-परवल,भिंडी-तरोई के साथ पालक केरमुआ का साग, केसर पड़ी गाजर की खीर- का आनन्द उठाते लोग। अँग्रेजों के लिए कबाब और शेम्पेन की व्यवस्था अलग से। उनके साथ शेम्पेन के शौकीन देसी रईस भी बैठ गए। आज लाला रामलाल के नाती का मुंडन था। लाला जी सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात के बड़े व्यापारी हैं। लक्ष्मी की अगाध कृपा। सरस्वती ज़रूर कुछ रूठी हुई लगती हैं। दो बच्चे हीरालाल और गनेशी काम चलाऊ पढ़ाई कर अपने व्यापार में लग गए। मौलवी और पंडित घर पर ही फारसी और संस्कृत पढ़ा जाते थे। ओम प्रकाश कायस्थ ने कैथी सिखाई। रोकड़ बही का रख-रखाव सिखाया और काम चलाऊ अँग्रेजी भी। उनके माल बेचने में अँग्रेजी सहायक होती। कई भाषाएँ जानने पर एक रुआब भी बनता। दोनों बेटे अपने धंधे में माहिर। तोला, मासा रत्ती का हिसाब ज़बान पर। लखनऊ में रईसों के यहाँ कोई कार्यक्रम हो और तवायफ़ें न शिरकत करें यह कैसे हो सकता है? लाला के इस कार्यक्रम में भी तवायफो़ के तीन डेरे शामिल हुए। भजन-कीर्तन, सोहर, दादरा-लावनी, ठुमरी, गीत-ग़ज़ल गाकर लोगों के दिलों को जीत लिया। उनका बटुआ भी भर गया। सभी प्रसन्न। राजा, ताल्लुकेदार, जमींदार, रईस से ही तवायफ़ें पलती हैं। लखनऊ सत्ता का केन्द्र था। यहाँ तवायफो़ के टोले थे। प्रौढ़ हो जाने पर तवायफ़ें कोठे चलातीं। नई लड़कियों को प्रशिक्षित करतीं। अमामन भी एक कोठे की मालकिन थीं। लड़कियाँ अलग-अलग जगहों से विभिन्न करतबों से लाई जातीं। कुछ अपनी मजबूरीवश भी आ जातीं। आयशा और अनवरी कुछ दिन पहले अमामन के कोठे में लाई गईं। जो देखता, देखता ही रह जाता। जब वह गाने लगती तो समाँ बँध जाता। उसके आलाप पर ही लोगों से ‘हाय’ निकल जाता।

आज जब आयशा और अनवरी लौटकर आईं तो अमामन बहुत खुश थी। अनवरी चुप थी पर आयशा के मन में अंधड़ चल रहा था। कहाँ आ गई तू? वह सोचती रही। दोनों लेटीं। अनवरी को जल्दी नींद आ गई पर आयशा से नींद कोसों दूर। वह करवट बदलती रही। पर नृत्य की थकान भी कम न थी। उसने दबाव बनाया और नींद को आना ही पड़ा।
सबेरे अनवरी जल्दी उठ गई पर आयशा देर तक सोती रही। अमामन ने आज उसे टोका नहीं। उसी के गायन पर तो उसका बटुआ भर गया था। आयशा उसे मालामाल कर देगी। अमामन सोचती रही। आयशा का यह पहला कार्यक्रम। ऐसा समाँ बँधा कि हर एक की ज़बान पर ‘आयशा’।
आयशा उठी तो अमामन ने उसकी बलैयाँ ली। कहा-जाकर नहा धो लो फिर नाश्ता करें। बन्धू हलवाई के यहाँ से गरम गरम जलेबी और कचौड़ियाँ मँगाया है। अकरम लाता ही होगा। आयशा गुस्लखाने में गई, गुस्ल किया। बाहर निकली तब तक अकरम जलेबी, कचौड़ी-साग और दही ले आया। सभी दस्तरख़्वान पर बैठ गए।
नाश्ते के बाद आयशा नृत्य सीखती थी। उसका अभ्यास चलता था। आज कुछ अनमनी थी। अमामन को झटका सा लगा। कह पड़ी,‘आयशा तुझे क्या हुआ है? अच्छी महफ़िल के बाद लोग महीनों खुश रहते हैं और तू?’ ‘मुझे महफ़िल में नहीं जाना अम्मी।’‘क्यूं ?’ अमामन का तेवर कुछ कड़ा था।
‘मुझे अच्छा नहीं लगा लोगों का घूरना। मैं शायद अब महफ़िल में न जा पाऊँ’, आयशा कह गई।
‘तू लड़की है, सुन्दर है, गला अच्छा है, लय-ताल की पकड़ है। तुझे लोग घूरेंगे नहीं तो क्या मुँह फेर लेंगे? तुझे खुश होना चाहिए कि तेरा नाम लोगों की ज़बान पर आ गया है।’ अमामन ने समझाने की कोशिश की।
‘नहीं अम्मी, मुझे लोगों की घूरती आँखों से डर लगता है।’
‘तू जानती है कि हम लोगों का खर्च इन्हीं महफ़िलों से चलता है। हम लोग कोई जमींदार तो हैं नहीं कि जमींदारी से पैसा आता रहेगा और हम बैठे मालपुआ काटते रहेंगे। हमें मेहनत करने पर ही चार पैसा देखने को मिलता है। बिना पैसे के क्या बन्धू हलवाई कचौड़ियाँ भेजता रहेगा? इस धन्धे में घूरती आँखों को सहना होगा आयशा।’
‘नहीं अम्मी, मुझसे यह सहन नहीं होगा।’
‘तू अभी बच्ची है। दुनिया देखते देखते सब समझ में आ जायगा। यह घूरना भी तब सहज लगेगा। चलो वर्जिश करो।’
आयशा चुप बैठी रही। अनवरी ने अपना अभ्यास शुरू कर दिया।
‘नहीं उठेगी आयशा ?’ अमामन का लहजा सख़्त था। आयशा भी नृत्य का अभ्यास करने लगी पर कुछ गाया नहीं। अमामन बड़बड़ाती रही, लड़कियाँ आ जाती हैं तो अपने को ख़ास महल समझने लगती हैं। यहाँ तो नाक रगड़ने पर भी रोटी मिल जाय तो ग़नीमत समझो।’
अभ्यास पूरा करके आयशा अपने कमरे में जाकर रोने लगी। ‘या परवरदिगार आपने क्या इसीलिए पैदा किया? क्या मुझे इसी तरह खटना होगा?’ वह पूछती रही। रोते रोते उसे झपकी आ गई। अमामन एक बार उसे झाँक गई। फिर अनवरी को साथ लेकर घर की सफाई में लग गई। अनवरी चुपचाप अमामन की आज्ञाओं का पालन करती। इसीलिए अमामन उससे खुश रहती। आयशा की नींद खुली पर वह लेटी रही। पिछली शाम का कार्यक्रम उसके दिमाग़ में कौंधता रहा। लोगों की निगाहें सहज प्रशंसा भाव की तो नहीं थीं। वे वहशी निगाहें थीं जो मुझे....। सहजता से देखना और वहशी निगाहों से देखना..। क्या लड़की होने की सज़ा है यह? या रब तुम तो देखते हो न?... तुरन्त उसके दिमाग़ में बिलकुल विपरीत भाव आ गया। लोग घूरते हैं तो घूरें। उसे अम्मी का बटुआ भरना है। अम्मी मुफ़्त में तो खिलाएगी नहीं। तू मस्त होकर महफ़िल में गा। लोगों की ‘हाय’ का मज़ा ले। लोग घूरने लगें तो तू भी उन्हें पागल बना दे और फिर सिक्के बटोर कर निकल आए। बात इतनी ही नहीं है आयशा। बताया गया है तू जहाँ बैठी है उसे कोठा कहते हैं। हर आदमी यहाँ आ सकता है। तेरा मोल भाव कर सकता है। यह कोठा भी नख़्ख़ास है। जानवरों की तरह लड़कियाँ भी बिकती हैं। हर क्षण तुझे बिकने के लिए तैयार रहना होगा। तू वैशाली की नगर वधू आम्रपाली नहीं है कि अपनी शर्त के साथ जिएगी। अभी परसों ही उसकी कथा बड़ी बाई ने सुनाई थी। शहर कोतवाल भी उसके यहाँ बिना सूचना दिए नहीं आ सकते थे। पर वह भी सुकूं के लिए तड़पती रही। महात्मा बुद्ध के यहाँ ही सुकूं पा सकी। तेरी ज़िन्दगी का रास्ता किधर जाएगा आयशा? ‘दिल में आता है लगा दें आग मैख़ाने को हम’ नज़ीर अकबराबादी की यह पंक्ति दिमाग़ में उभरी। अभी कुछ दिन पहले ही उसने यह ग़ज़ल सीखी थी। क्या उसी की ज़िन्दगी पर यह ग़ज़ल लिखी गई है?
शाम को बैठक सजी। अनवरी तैयार हुई। साज़िन्दे आकर बैठ गए। गाहक आने लगे। अमामन उनके आवभगत में लगी रही। मुजरा के लिए अनवरी को बुलाया। उसने आकर नज़ाकत के साथ एक ग़ज़ल और ठुमरी गाई। सिक्के गिरे। पर गाहक आयशा की माँग करने लगे। कल के कार्यक्रम के बाद उसके चाहने वालों की संख्या काफी बढ़ गई थी। हर प्रशंसक उससे फिर कुछ सुनना चाहता था। अमामन ने बहुत कोमल अंदाज़ में आगन्तुकों से क्षमा माँगी। कहा, ‘कल की महफ़िल के बाद बीमार हो गई है। ठीक होने पर आपकी खि़दमत में हाज़िर होगी।’ ‘आज तो हम जा रहें हैं पर कल उसे आना होगा। बहाने नहीं चलेंगे।’ एक आदमी ने मूछें तिलोरते हुए कहा। ‘यह कोठा है। यहाँ कैसे बहाने? पैसा फेको, तमाशा देखो।’ दूसरे ने अनवरी की ओर एक नज़र डालते हुए कहा। ‘ख़ातिर होगी। हुजूर आज के लिए माफ़ी चाहती हूँ।’ गाहकों के जाने के बाद अमामन आयशा के पास पहुँच गई। कहा, ‘पड़े पड़े ज़िन्दगी अकारथ न कर। बदनाम गली के लोगों को नख़रा करने की इजाज़त नहीं है।’ ‘क्या हम बदनाम लोग हैं अम्मी ? कौन सा बदनामी का काम किया है? तुम तो कहती थी ज़िन्दगी खूबसूरती का नाम है।’ आयशा के प्रश्नों पर अमामन चुप हो गई।
उसके मन में तूफान सा उठने लगा। इस कोमल कली को कोठे में रखना ठीक होगा? लड़कियाँ अक़्सर शुरू में नख़रे करती हैं पर धीरे धीरे कोठा उनको सिखा देता है। पर आयशा वैसी लड़की नहीं हैं। कहीं ऐसा न हो वह अपनी जान पर खेल जाए। इस सुन्दर गुलचीं के लिए क्या करे? दो महीने पहले ही इसे लाई है। छिपाकर रखा इसे। पढ़ाया, गाना-नाचना सिखाया। इतनी तेजी से सीखा इसने कि..। एक महफ़िल में गई, अब हर जगह आयशा ही आयशा। क्या करे वह? अब तो छिपाया भी नहीं जा सकता। इसी बीच आयशा उठी। अमामन की गोद में मुँह रखकर बोली, ‘बदनाम लोग नहीं हैं हम।’
‘ठीक है बेटी। तुझे बदनामी का कोई काम नहीं करना होगा।’ अमामन में मातृत्व छलक आया।
आयशा अमामन की गोद में सिसक ही रही थी कि दो बरछैतों के साथ वाजिद अली शाह के परीख़ाने के ख़्वाजासरा कोठे पर आ पहुँचे। अमामन ने दौड़कर उनका स्वागत किया। बैठक में बिठाया। झुकते हुए अर्ज़ किया, ‘‘हुजूर हुक्म करें।’’ तब तक सेविकाएँ पान का डिब्बा और जलपान के लिए मेवों से भरी थाली लेकर आ गईं। ख़्वाजासरा ने अमामन को बैठने के लिए कहा और धीरे-धीरे कहने लगे, ‘‘कल आप के यहाँ की एक परी ने लाला रामलाल के यहाँ महफ़िल में नाच गा कर लोगों को पागल कर दिया। वली अहद बहादुर तक भी इसकी खुशबू पहुँची। उनका दिल मचल उठा। तुम तो जानती हो, वे संगीत से कितना प्यार करते हैं? मुझे आज बुलाया और कहा कि उस परी के बारे में पता करो। हम उसकी लचकदार आवाज़ को सुनना चाहते हैं।’ अमामन ने बहुत लम्बी दुनिया देखी थी। उसे लग गया कि अब आयशा को परीख़ाने जाना ही है। उसके दिमाग़ में यह विचार उठा कि क्यों न इसका दाम ही वसूल कर लिया जाए। उसने बाँदी को अपनी सहेली... अम्मन को बुलाने के लिए दौड़ा दिया। स्वयं अर्ज़ करने लगी ‘हुजूर, उसी से हमारी रोटी चलती है। एक दो अच्छी लड़कियाँ आती हैं तो उन्हीं के बल पर हम लोगों का लम्बा चौड़ा परिवार पल जाता है। हम बदनाम गली के लोग हैं। हमारे साये से भी पाक लोग भागते हैं। कहीं ऐसा न हो कि आयशा एक बार हुजूर के सामने नाच गा दे और हम लोग रोटियों से ही महरूम हो जाएँ। हुजूर के हुक्म की तामील तो करनी ही है, पर हम लोगों का भी कुछ ख़्याल किया जाय।’
‘तुम्हारी बात सोलह आने सच है। लड़की गर हुजूर की निगाह में चढ़ गई तो उसे परीख़ाने जाना ही है।’ अमामन ख़्वाजासरा के बिलकुल नज़दीक पहुँचकर धीरे-से बोली, ‘हुजूर नई लड़की कोठे के रंग-ढंग में ढली नहीं है। कोठे पर रहना उसे बुरा लगता है। इसलिए हम लोग जो भी बात करें, धीरे-धीरे ही करें जिससे उस तक हम लोगों की बातें न पहुँचे।’ तब तक अमामन की सहेली अम्मन भी आ पहुँची। उसने ख़्वाजासरा को आदाब अर्ज़ किया। अमामन ने लगभग फुसफुसाते हुए सहेली को बताया कि हुजूर आयशा की खुशबू से तड़पते हुए उसे एक महफ़िल में बुलाया है। हुजूर ही ख़बर लाए हैं। मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ। तुम्हीं बताओ क्या किया जाय। सहेली और भी घुटी हुई थी। उसने कहा, ‘हाय अल्ला, हुजूर की निगाह में चढ़ी तो फिर परीख़ाने जाना तय समझो। इतनी कमसिन और खूबसूरत लड़की कहाँ मिलती है? उसकी बलखाती आवाज़ को सुन और थिरकते पाँवों की लचक से हुजूर तो बेहाल हो ही जाएँगे।’ ख़्वाजासरा की ओर मुँह करते हुए उसने फुसफुसाया, ‘हुजूर, हम लोगों पर भी कुछ रहम करें। रोटी दाल का इंतज़ाम आखि़र कैसे होगा?’ ख़्वाजा सरा भी रोज परियों के ही दन्द फन्द में रहते हैं। वे समझ गए कि अमामन और उनकी सहेली कुछ इमदाद चाहती हैं। इसे मोलभाव कहना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा, ‘हुजूर एक बार परी को देख लेंगे तो मैं मानता हूँ कि उसे परीख़ाने में जाना ही है। हुजूर से रुपये की माँग कैसे की जाय, यह बताओ?’ ‘हमक्या जानें हुजूर?’ अमामन ने कहा। अम्मन ने भी उँगलियाँ नचाते हुए समर्थन किया। ‘ठीक है, मैं कोशिश करूँगा कि तुम्हें हुजूरकी ओर से ऐसा कुछ इनाम मिले कि तुम लोग भी उसे याद करो।’ ‘हुजूर, हम लोग तो आपके रहम-ओ-करम पर हैं ही। आपके हुक्म को अंजाम देने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।’ अमामन ने ख़्वाजासरा को आश्वस्त किया। ‘तो फिर कल शाम की महफ़िल में इस नई परी को हाज़िर करो। मैं आज ही इनाम का बन्दोबस्त करा देता हूँ।’ ख़्वाजा सरा उठने लगे तो अमामन और अम्मन ने तस्लीम अर्ज़ किया। वे कोठे से बाहर आए और बरछैतों के साथ आगे बढ़ गए।
रात में अमामन ने आयशा को अपने पास ही लिटाया। कहने लगी, ‘बेटी...।’ पर आगे के शब्द नहीं निकले। दूसरी बार फिर कहा,‘बेटी...।’ फिर शब्दों का अकाल। ‘अम्मी कुछ कहना चाहती हैं आप, पर कह नहीं पा रही हैं।’ आयशा ने टोका। ‘हाँ बेटी... मुझे लफ़्ज़ नहीं मिल रहे हैं... कैसे कहूँ? मैं भी एक औरत हूँ... तू मेरी बेटी के समान है.... और....।’ कहते हुए अमामन की आँखों से आँसू झरने लगे। आयशा अमामन का मुँह ताकती रही। ‘क्या हुआ अम्मीजान? मैंने तुम्हें दुःख पहुँचाया, क्या इसलिए?’
‘नहीं बेटी, दुःख की वजह दूसरी है। कल महफ़िल में जो तूने गाया, उसकी खुशबू शाही महलों तक पहुँची। वली अहद सरकार बहादुर संगीत के शौकीन हैं, खुद ग़ज़लें भी लिखते हैं, तुमसे गाना सुनना चाहते हैं। मेरी कोई हैसियत नहीं कि मैं मना कर सकूँ। तू ही बता कि मैं क्या करूँ बेटी?’ ‘तेरी ख़्वाहिश है तो मैं गाऊँगी अम्मीजान। जीने की मजबूरियाँ आदमी से तरह तरह के काम कराती हैं। जो हम चाहते हैं सब कुछ वही तो नहीं होता। आखि़र जीना है ही....।’ ‘सो जा मेरी बेटी। तूने मेरा बोझ हलका कर दिया। मुझे उबार लिया बेटी। सो जा...।’ निर्देश देते हुए अमामन उठ गई। जाकर अपने बिस्तरे पर लेट गई। उसे भी तुरन्त नींद नहीं आई। अच्छा सा इनाम मिल जाएगा तो कोठे की मरम्मत और सफाई करा दूँगी। कुछ रुपये आगे के लिए भी रख लेंगे। सब कुछ अच्छा हुआ तो.... कुछ अम्मन को भी देना ही होगा। कब सोचना बंद हुआ और नींद ने झपट्टा मारा, इसका पता न चल सका।
आयशा को भी नींद कहाँ? सरकार बहादुर ग़ज़ल भी लिखते हैं। तेरी जमा पूँजी तो सिर्फ दो ठुमरी, एक दादरा और तीन ग़ज़लों की है। चलो देखते हैं। यह पूँजी भी कम नहीं है। इन्हीं में कहो पूरी रात बिता दूँ। नाच के साथ गाने का यही तो मज़ा है। मेरे गाने की खुशबू पहुँची है, अम्मीजान भी बातें गढ़ने में माहिर हैं। शाही महलों की नफ़ासत का मुझे तो कुछ भी पता नहीं। मेरी ज़िन्दगी ही कितने बरस की है। मन भी कहाँ कहाँ भागता है? कहाँ तो घूरती आँखें मेरा पीछा कर रही थीं, मुझे झटका दे रही थीं। पर अब क्या घूरती आँखें वहाँ नहीं मिलेंगी? आँखें भी क्या क्या कमाल करती हैं? क्या क्या पनप जाता है आँखों...ही आँखों में? सपनों में शाही महल.. उसका दिलक़श अन्दाज़ में गाना...सरकार बहादुर के लफ़्ज़ वल्लाह क्या खूब? और फिर तालियाँ... तालियाँ...तालियाँ। सबेरे आँख खुली तो सपने का यही अंश याद रह पाया था। जिस्म अगड़ाई ले रहा था। उसकी नज़र अपने ही उरोजों पर टिक गई। कुछ क्षण देखती रही फिर उठी, ग़ुस्लखाने में घुस गई।
सायंकाल जब आयशा को अमामन ने तैयार किया, वह सचमुच परी सी लग रही थी। जे़रजामा (पायजामा घाँघरा के नीचे पहना जाने वाला शरीर से चिपका वस्त्र) का रंग आयशा के रंग से इस तरह मिल गया था कि अलग करना मुश्किल था। लँहगे के ऊपर पूरी आस्तीन का चुस्त बूटेदार शलूका, उसके ऊपर कत्थई रंग की बूटियों से सजी सदरी। जूती का रंग लहँगे से मेल करता हुआ। जूती की तोते के समान चोंच देखकर आयशा को हँसी आ गई। बालों को काढ़ कर चोटी तो बनाई गई पर उसकी दो लटें माथे के दोनों ओर दो वृत्त बना रही थीं। गले में हार, हाथों में कंगन और पैरों में घुँघरू पहन कर आयशा जब खड़ी हुई तो सोचने लगी-अम्मीजान के पास इतने जे़वर। अकरम भी नारंगी रंग का कुर्ता-पायजामा, काली सदरी पहन, मुड़ैठा बाँध हाथ में बरछा लेकर आ गया। आते ही आयशा को एक नज़र निहारा और हँसते हुए कहा, ‘धोखे में न रहियो। ये ज़ेवर असली नहीं हैं।’
‘क्या?’ आयशा के मुँह से निकला। ‘क्या नकली जे़वर ऐसे होते हैं?’
‘नकली असली से ज़्यादा चमकदार होते हैं।’ अकरम ने शान बघारते हुए कहा। तब तक अमामन आ गई। उसने भी अपने को तैयार कर लिया था। रेशमी साड़ी के ऊपर पूरी आस्तीन का शलूका, गले में हार, हाथों में कंगन, एक हाथ में गहरे कत्थई रंग का बटुआ, पैरों में साड़ी के रंग की जूतियाँ। जूतियों की एँड़ी बराबर थी। ‘अम्मी क्या हमारे जे़वर नकली हैं?’ अमामन मुस्करा पड़ी। फिर आयशा ने प्रश्न दुहराया नहीं।
अकरम के साथ ही एक बरछैत और तैयार हुआ। अमामन ने अकरम को रथ लाने के लिए भेज दिया। थोड़ी देर में रथ आ गया। रथ पर अमामन और आयशा बैठीं, साज़िन्दे-तबलची सारंगी और मंजीरे वाले भी बैठे। दोनों बरछैत आगे आगे चलने लगे। रथ उनके पीछे। कोठे पर अनवरी तथा दो प्रौढ़ वय की महिलाएँ रह गईं। दो बरछैत भी सुरक्षा के लिए लगा दिए गए।
दो बरछैतों के साथ रथ जब राजकुमार वाजिद अली शाह के महल पर पहुँचा, महल के सामने फव्वारे की झीनी बूँदें अद्भुत दृश्य पैदा कर रही थीं। उसमें केवड़ा डाल दिया गया था। केवड़ा की भीनी सुगन्ध मन को तरोताज़ा बना रही थी। पहरेदारों को सूचित कर दिया गया था, इसलिए आगन्तुकों को कोई असुविधा नहीं हो रही थी। रोशनी से परिसर जगमगा रहा था। आमंत्रित लोग आ रहे थे। उनमें अधिकतर युवा ही थे।
अमामन के साथ आयशा भी उतरी। बरछैत अपने स्थान पर चले गए। सभी साज़िन्दों के साथ आयशा, अमामन आगे बढ़ीं। ख़्वाजासरा के सहायक ने टोली का स्वागत किया। तब तक एक रथ पर अम्मन भी आ गईं। वे भी टोली के साथ हो गईं। ऊँचे भव्य भवन में महराबों के बीच ऊँचे दरवाजे, बड़ी, ऊँची खिड़कियाँ, खिड़कियों पर बारीक मलमल के परदे। दीवारों पर सुन्दर लकड़ी की पट्टियाँ। आयशा देखकर चकित होती रही। दालान से होते हुए इस दल को महफ़िल कक्ष के बगल वाले कमरे में बिठाया गया। कमरों में कीमती मिर्जापुरी और कश्मीरी कालीन। उस पर चलो तो पैर फिसल फिसल जाय। आयशा ने कालीन पर चलकर देखा। ‘इतने मुलायम कालीन,’ उसके मुख से निकला। उसने दीवालों को छुआ। दीवाल पर बनी कंगनी को देखती रही। कमरा छतग़ीर व फ़र्शी कन्दीलों और फ़ानूश से रोशन था। महफ़िल का कमरा आगन्तुकों से भर गया। साहिबे आलम वाजिद अली शाह गुनगुनाते हुए कमरे में आए। सफेद कुर्ता पैजामा, काली सदरी में चमकता चेहरा, गले में कीमती मोतियों का हार, उँगलियों में हीरे और गोमेद से सजी सोने की अँगूठियाँ। उनके बैठने के स्थान पर मुलायम कालीन बिछा था। तीन तरफ मसनद। साहिबे आलम के आते ही तालियों से उनका स्वागत किया गया। एक नौजवान ने साहिबे आलम से इजाज़त ले महफ़िल की कार्यवाही शुरू की। एक नई परी की खुशबू हुजूर तक पहुँची है। साहिबे आलम ने मुस्कराकर बात की तस्दीक़ की। इसी बीच आयशा, अमामन और अम्मन साज़िन्दों सहित आकर बैठ गईं। साहिबे आलम आयशा को एक टक देखते रहे। नौजवान की गुज़ारिश पर आयशा खड़ी हुई। झुककर साहिबे आलम को आदाब अर्ज़ करते हुए कहा,’ हुजूर को एक ठुमरी नज़र करती हूँ।’ ‘इर्शाद , इर्शाद ’ की आवाजें उठीं। आयशा ने एक चक्र नृत्य पूरा करते हुए मुखड़ा उठाया, ‘कौन गली गयो श्याम ? पिया कौन गली गयो श्याम ?’ आवाज़ इतनी दिलक़श और बेधक थी कि लोगों के दिलों को बेधती चली गई। साहिबे आलम के मुख से निकल पड़ा, ‘वाह भाई क्या मुखड़ा उठाया है?’ ‘क्या खूब? क्या खूब?’ की आवाज़ें। आयशा ने लोगों की भावनाओं को तस्लीम करते हुए गायन जारी रखा-गोकुल ढूँढ़ा, मथुरा ढूँढ़ा, ढूँढ़ा चारों धाम। कौन गली गयो श्याम ? इसी के साथ लचकते हुए जब पाँव थिरके तो पूरी महफ़िल ‘वाह ’ ‘वाह ’ कर उठी। साहिबे आलम बिलकुल खो से गए। जब सजग हुए तो निकल गया, ‘वल्लाह, ख़ुदा ने क्या आवाज़ दी है?’ उनके इतना कहते ही तालियों की गड़गडा़हट। क्या खूब? क्या खूब? की आवाजें। तबला और सारंगी वादक झूम कर बजाते रहे और आयशा के पाँव थिरकते रहे। पाँव रुके , आवाज़ें थमीं। आयशा ने भी साँस ली। साज़िन्दे सुर मिलाते रहे।
साहिबे आलम ने गायन और नृत्य का लुत्फ़ लेते हुए कहा, ‘हम इस परी को ‘महकपरी’ कहना चाहते हैं।’ तालियाँ फिर बज उठीं, वाह वाह की आवाज़ें। ‘हम इस महकपरी से एक ग़ज़ल सुनने की ख़्वाहिश रखते हैं।’ महफ़िल से भी साहिबे आलम की इस ख़्वाहिश के लिए शुक्रिया अदा किया गया।
महकपरी उठी। साहिबे आलम को तस्लीम करते हुए बोल पड़ी, ‘हुजूर की खि़दमत में नज़ीर अकबराबादी की एक ग़ज़ल पेश करती हूँ।’ इर्शाद इर्शाद की आवाजें ़। साहिबे आलम भी बहुत खुश हुए। साज़िन्दों ने सुर मिलाया। आयशा ने पढ़ा-
दूर से आए थे साक़ी सुन के मैख़ाने को हम। पूरी महफ़िल इर्शाद इर्शाद कर उठी। साहिबे आलम खुद शराब को हाथ नहीं लगाते पर वे भी झूम उठे। ‘वाह ’ उनके मुख से निकला। नृत्य का चक्र पूरा करते आयशा ने फिर पढ़ा
दूर से आए थे साक़ी सुन के मैख़ाने को हम।
बस तरसते ही चले अफ़सोस मैख़ाने को हम।
‘वाह , वाह समझने वाले की मौत है,’ एक अधेड़ से दिखने वाले ने तारीफ़ का पुल बाँध दिया। पूरी महफ़िल का चेहरा खिल उठा। अगला शेर उठते ही फिर इर्शाद इर्शाद
मै भी है, मीना भी है, साग़र भी है, साक़ी नहीं
हाय! हाय! की आवाज़ें।
दिल में आता है लगा दें आग मैख़ाने को हम।
क्या कहने! क्या बाग़ी तेवर है?.... वाह, वाह……।
साहिब-ए-आलम भी जोश में आ गए। आयशा की आवाज़ का जादू सभी पर तारी था। आयशा की तारीफ़ से अमामन और अम्मन खुशी से झूम रही थीं। आयशा ने तीसरा शेर जैसे ही उठाया-
हमको फँसना था कफ़स में क्या गिला सैय्याद का
‘ओहो’, कहकर पूरी महफ़िल गमज़दा हो गई। लगा कि शेरका दर्द लोगों के हृदय में छपकी दे रहा है। एक ने कहा, ‘वल्लाह क्या शेर है!’ आयशा ने शेर पूरा किया-
बस तरसते ही रहे आब और दाने को हम।
क्या शेर है? किस अंदाज से उठाया गया है। आयशा के थिरकते पाँव और महफ़िल में शरीक होने वाले लोगों की आवाजें ़। शेर कहाँ पहुँच गया साहिब-ए-आलम भी सोचकर हैरान रह गए। अब मक़्ते की बारी थी। लोगों के चेहरे पर उत्सुकता का भाव हिलोरें ले रहा था।
कोमल लहजे़ में आयशा ने उठाया-
क्या हुई तक़्सीर हमसे तू बता दे ऐ ‘नज़ीर’। लोगों ने दुहराया-क्या हुई तक़्सीर हमसे तू बता दे ए ‘नज़ीर’। थिरकन के बीच आयशा ने पढ़ा-ताकि शादी मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम। और फिर ‘वाह , वाह ’, वल्लाह क्या खूब? से पूरा कक्ष गूँज उठा। क्या आवाज़ है? कैसी नज़ाकत से ग़ज़ल पेश किया है। लहरा देकर आयशा के पाँव थिरक उठे। पाँव रुके तो वह अपनी टोली के पास बैठ गई। ‘हम महक परी के अंदाज़े बयाँ से बहुत खुश हैं’, कहते हुए साहिबे आलम ने अपने गले का हार उतारा। ख़्वाजासरा ने आयशा को संकेत किया। वह उठी और साहिबे आलम ने हार उसके गले में डाल दिया। तालियों की गड़गड़ाहट। लोगों के चेहरों पर खुशी छलकती हुई। तब तक मखमली लाल रंग के ओहार से ढका दो थाल बादियाँ ले आई। साहिबे आलम ने दोनों थाल अम्मन और अमामन को जैसे पकड़ाया, तालियाँ फिर देर तक बजती रहीं। महफ़िल बर्ख़ास्त हुई। सभी की ज़बान पर आयशा की ही चर्चा। क्या आवाज़ पाई है? किस अंदाज़ से पेश करती है? ‘भाव भंगिमा और मुद्रा देखकर तबियत खुश हो गई।’ जाते जाते संगीतकार पंडित ने टिप्पण की।
अमामन के दल को बाँदी से सन्देश मिला कि मलिकाए आलिया किश्वर फखरुज्ज़मानी नवाब ताज आरा बेगम ने बुलाया है। अमामन और अम्मन अपने अपने दल को ले बाँदी के साथ अन्दर गईं। एक कमरे में मलिका चाँदी के आसन पर बैठी हुई थीं। अम्मन, अमामन ने झुक कर तसलीम अर्ज़ किया। आयशा और साज़िन्दों ने भी उसी तरह आदाब बजाया। मलिका ने मुस्कराकर आदाब को स्वीकार किया। ‘तुम्हारी गायकी को मैंने भी सुना। बहुत अच्छा गाती हो। खुदा तुझे इज्ज़त बख्शे। मेरा भी मन हुआ कि तुझसे एक ठुमरी सुनूँ। क्या तुम कोई टुकड़ा सुना सकती हो? आयशा उठ पड़ी। उसने सोचा ‘या रब’ तूने लाज रख ली। साज़िन्दों ने अपना काम सँभाल लिया। पाँव के घुँघुरू बजे। लहराते हुए उसने आलाप भरा-
बाज़ूबन्द खुलि खुलि जाय, जायरे
साँवरिया ने जादू मारा।
‌ मलिका-ए-आलिया का चेहरा उद्दीप्त हो उठा। उनके मुख से निकल गया, ‘बहुत खूब।’ वह नृत्य करती रही और मलिका के भावों को पढ़ती रही। अन्तरा छेड़ते ही उसमें नया जोश पैदा हो गया।
जादू की पुड़िया भरि भरि मारे
अचरा उड़ि उड़ि जाय रे।
बाजूबंद खुलि खुलिजाय, जाय रे।
‘वाह ,वाह तूने कमाल कर दिया। इतना अच्छा गा लेती है तू।’ मलिका बहुत खुश हुईं। वे नवाब हुसैनुद्दीन खाँ की बेटी हैं। उन्होंने एक बाँदी को संकेत किया। बांदी एक थाल में सिक्कों से भरा एक बटुआ लाई। मलिका ने बटुआ उठाकर आयशा के हाथ में देकर कहा, ‘खुश रहो।’ मलिका उठीं। अमामन का दल भी तस्लीम करते हुए बाहर आ गया।
आयशा ने धीरे से अमामन से पूछा, ‘अम्मी, मलिका ने कैसे मेरा गाना सुन लिया था।’ ‘मलिका के कमरे तक आवाज़ जाने की कोई तरकीब होगी। यह राजमहल है हमारा तुम्हारा घर नहीं। यहाँ अजूबे भी होते हैं।’ पूरा दल महल के बाहर द्वार तक आया। बरछैत रथ सहित प्रतीक्षा कर रहे थे। अकरम भी बहुत खुश था। वह बरछे को दूसरे बरछैत को थमाकर स्वयं टोली के साथ मंजीर भी बजाता था। ‘बटुआ में हमारा हक भी है।’ वह आयशा के कानों में फुसफुसाया। आयशा हँसते हुए रथ पर बैठ गई। अम्मन सहित पूरा दल दो रथों में बैठ गया। बरछैत आगे पीछे चलते रहे।
कोठे पर पहुँचकर सभी अपने अपने कमरे में चले गए। अमामन और अम्मन ने बैठक में अपना हिसाब किताब किया। फिर अम्मन निकली, बरछैत उसके साथ घर तक पहुँचा आए।

रात में वली अहद साहब बहादुर को नींद कहाँ? महक परी ही उनके दिलो दिमाग़ पर छाई हुई थी। वे करवटें बदलते रहे। हर सांस में महकपरी की महक। महकपरी बिना परीख़ाना सूना लगता है। रात के पिछले प्रहर झपकी आई। साहब बहादुर ने देखा कि महकपरी गा रही है और वे तबले पर संगत कर रहे हैं। बंद आँखों से वे महकपरी की उपस्थिति को अनुभव करते रहे। चेहरा मग्न हो मुस्कराता रहा। उनकी आँखें खुलीं और सपना गायब। वे उठ पडे़। मुँह से निकला, ‘मुझे महकपरी चाहिए।’ बांदी ने सुना। दौड़कर आई। ‘हुजूर ने बुलाया?’ वाजिद अली हँस पड़े, ‘जिसको बुलाया था वह तो भाग गई।’ बांदी कुछ समझ न सकी, मुँह ताकती रही। जल लाने चली गई। साहब बहादुर गुनगुना उठे-
कौन गली गयो श्याम ?
पिया कौन गली गयो श्याम ?
गोकुल ढूँढ़ा, मथुरा ढूँढ़ा, ढूँढ़ा चारो धाम।
कौन गली गयो श्याम ?
गुनगुनाते हुए वे कमरे में टहलते रहे। बार बार दुहराते रहे- ‘कौन गली गयो श्याम ?’
आयशा को लगा कि साहब बहादुर की महफ़िल में संगीत के तलबगार थे। उसे थोड़ी खुशी हुई। साहब बहादुर का चेहरा भी उसके दिमाग़ में घूम गया। नृत्य और संगीत के पारखी हैं, उसके मन ने कहा। उन्होंने अपना क़ीमती हार मुझे दे दिया। कितने दरियादिल हैं वे। कहाँ वे? कहाँ मैं अनाम? उन्होंने कोई आदेश नहीं दिया। कितनी मासूमियत से अपनी ख़्वाहिश बताई। ख़्वाहिश भी क्या? एक ग़ज़ल सुनाने की। कितनी नफ़ासत और पाकीज़गी है उनमें। सुना है शराब को हाथ नहीं लगाते। संगीत का शौक है। पंडित जी ठीक ही सिखा रहे थे.... ‘काव्य शास्त्र विनोदेन कालोगच्छति
धीमताम्’। काव्य शास्त्र के विनोद में ही बुद्धिमानों का समय बीतता है। वे सचमुच धीमताम हैं। साहब बहादुर तो हैं ही।