Aanch - 4 - 3 in Hindi Fiction Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | आँच - 4 - मुश्किल समय है?(भाग -3)

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आँच - 4 - मुश्किल समय है?(भाग -3)

नवाब की इस कार्यवाही से भी अमीर अली पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। वह सुहाली में था। उसने आसपास के गाँवों के मन्दिरों के घंटां और मूर्तियों को तोड़ दिया तथा ब्राह्मणों को गाँव से बाहर भगा दिया। अन्य अनेक जगहों पर भी जेहादी घटनाएँ घटीं। अमीर अली के कारनामों से हिन्दू-मुसलमान दोनों में तनाव बढ़ता जा रहा था। लखनऊ ही नहीं पूरे अवध में हिन्दू-मुस्लिम के बीच अक़्सर वारदातें होने लगीं। लोग अकेले निकलने से घबड़ाने लगे। अनेक धन्धों में हिन्दू मुस्लिम दोनों मिलकर काम करते थे। लोग डर के मारे घर बैठ जाते। पर कब तक ऐसा कर पाते? उन्हें आखि़र कुछ कमाने के लिए निकलना ही पड़ता। रोज कमाने और रोजखाने वाले लोग परेशान थे पर अमीर अली जैसे लोगों को इससे क्या लेना देना था?
मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली ने अपने आसपास के लोगों को समझाया। वाजिद अली के फ़र्मान का भी असर हो रहा था पर जो खुराफ़ात करना चाहते, वे अमीर अली के साथ हो गए। उसने कई मंदिरों को ढहा कर मुस्लिमों में अपनी पैठ बना ली थी। उसका असर आम जन पर भी दिखाई पड़ रहा था। कमजोर मुस्लिम जीविका के लिए परेशान हो रहे थे पर अमीर अली के खिलाफ़ जाना उनके बस की बात नहीं थी। मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली को लखनऊ में थोड़ी सफलता मिली। कुछ मौलवी उनके साथ आ गए। लोगों को समझाने बुझाने का काम चलता रहा। मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली ने एक सप्ताह बच्चों को पढ़ाने का काम बन्द रखा। वे अपने कुछ साथियों के साथ गली मोहल्लों में घूमते, लोगों को समझाते। हिन्दू-मुसलमान दोनों को मिलजुलकर रहने की हिदायतें देते। हिन्दुओं को आश्वासन देते कि वे सुरक्षित रहेंगे। लखनऊ या अवध किसी एक जमात का नहीं है। अमन रहेगा तभी लोग अपने धंधे कर सकेंगे। फ़ख़रुद्दीन अली के इस काम से इक्के-ताँगे वाले , बरछैत, चोबदार, छोटे दुकानदार, कारीगर सभी आश्वस्त हुए। वे अपना काम करने लगे। मौलवी और उनके साथी दिन भर घूमकर उनका हालचाल लेते और आश्वस्त करते। पर शहर में अमीर अली जैसे लोग भी थे जो सोचते थे कि सत्ता हमारी है। हम जहाँ चाहें, मस्जिद बना सकते हैं। इस्लाम विवादित ज़मीन पर मस्जिद बनाने की इजाज़त नहीं देता, पर अमीर अली और उनके साथियों को इन सब पर विचार करने की फुरसत हो तब न? मौलवी फ़ख़रुद्दीन भी अपने काम में डटे हुए थे। मुस्लिमों का कट्टरवादी तबका उनके काम को कोई तवज्जो नहीं देता था। कट्टरवादी सोच के लोग हर हाल में मस्जिद को बनते हुए देखना चाहते थे। मौलवी से कभी-कभी लोग बहस भी करते, उन्हें धमकियाँ भी मिलतीं पर वे अपने काम में पूरी मुस्तैदी से लगे हुए थे। वे सभी को समझाते-कोई मज़हब किसी पर लादा नहीं जाना चाहिए। अपने मज़हब के साथ सभी को जीने का हक़ है। मन्दिर हो या मस्जिद सभी जगह खुदा का वास है। कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद मौलवी फ़ख़़अदीन का काम चलता रहा। बहुत से उच्छृंखल लोग अमीर अली के गोल में शामिल हो गए। मौलवी फ़ख़रुद्दीन के प्रयास से हर गली मोहल्ले में अमन कायम करने के लिए लोग निकले। मुफ़्ती और मौलवी से वाजिद अली शाह ने भी जेहाद के गै़र कानूनी होने का फ़र्मान जारी करा दिया था। इसका भी असर पड़ा। वाजिद अली शाह रोजा नमाज़ के कायल थे, पर अवध की अधिकांश प्रजा और जमींदार हिन्दू थे। नवाब की यह कोशिश थी कि हिन्दू मुस्लिमों के बीच कोई झगड़ा फसाद न पैदा हो। इसीलिए उन्होंने अब अमीर अली जैसे लोगों के खि़लाफ़ भी कमर कस लिया था। नवाब खुद अमन पसन्द थे। उन्होंने कोई बड़ी लड़ाई भी नहीं लड़ी थी। बाहरी आक्रमणों और आंतरिक विद्रोह से निपटने का काम कम्पनी के ज़िम्में था ही। फिर उन्हें करने को रह ही क्या गया था। इतना सब होते हुए भी उन्होंने गोमती गंगा नहर बनवाने की सोची। उस पर काम भी शुरू हो गया। लगभग 50 मील की खुदाई भी हो गई थी। पर जैसा कि होता रहा। रेजीडेंट ने काम रुकवा दिया। नवाब ने लखनऊ से फै़ज़ाबाद की सड़क को पक्की बनाने की योजना बनाई। उसके लिए विशेषज्ञों को नियुक्त किया। वे लखनऊ से कानपुर तक की पक्की सड़क बनवा चुके थे। सोचते थे कि कुछ और पक्की सड़कें बन जाएँ। उस समय बैल गाड़ी के साथ ही लोग पैदल, घोड़ों और ऊँटों पर यात्रा करते थे। गंगा और घाघरा में बड़ी नावों से भी माल और यात्रियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जाता था। बनारस से कलकत्ता तक गंगा में वाष्प की बड़ी नावें भी चलती जिन्हें लोग अक़्सर दहकानी जहाज़ कहते थे।
वज़ीर-ए-आज़म नवाब और रेजीडेंट के बीच पेंडुलम की भाँति झूलते रहते थे। वे दोनों के बीच की कड़ी भी थे और प्रतिरोध को बरदाश्त करने वाले यंत्र भी। आरम्भ में रेजीडेंट ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया था। नियुक्ति पा जाने के बाद वे निरन्तर रेजीडेन्ट को प्रसन्न रखने की कोशिश करते। इसीलिए सख़्ती से किसी निर्णय को लागू कराने में उन्हें दिक्क़तें आतीं। वे प्रायः किन्नरों और गायकों से चिढ़े रहते क्योंकि इनकी पहुँच सीधे नवाब तक होती। वे चाहते थे कि किन्नर और गायक भी उनके माध्यम से ही नवाब तक पहुँच बनाएँ। पर ऐसा प्रायः हो नहीं पाता। नवाब का संगीत-प्रेम इन लोगों को उन तक पहुँचने में मदद करता। अमीर अली के कार्यक्रमों से वज़ीर-ए-आज़म तंग थे। पर उसे गिरफ़्तार करने से भी बचते रहे। वज़ीर-ए-आज़म की इसी प्रवृत्ति के कारण अवध का प्रशासन भी बहुत ढीला हो गया था। विद्रोही जमींदार दबंगई और रिश्वत के बल पर मनमानी कर लेते। नवाब को जब सूचना मिलती वे गुस्से में फड़फड़ाते, पर वज़ीर-ए-आज़म उसी चाल से चलते रहते। आखि़र वे उनके ससुर भी थे।
वज़ीरे-ए-आज़म ने चार अक्टूबर को हनुमान गढ़ी की सुरक्षा के लिए पलटन अयोध्या भेजी। तीन दिन बाद तहव्वर ख़ान को भी विद्राहियों का दमन करने के लिए भेजा गया। मुस्लिमों के आन्दोलन को देखते हुए बैरागी भी सन्नद्ध हुए। उन्होंने हिन्दू राजाओं, जमींदारों से मदद माँगी। बाँसा, परसपुर, रामनगर, धनेरी के राजा, डेरवा की रानी, ग्वालियर और जोधपुर के महाराजाओं ने सहायता भेजी। उन्नीस अक्टूबर को अमीर अली बांसा से दरियाबाद की ओर बढ़ा। अनेक मौलवियों को वज़ीरे आज़म ने विद्रोहियों को समझाने के लिए भेजा। मौलवियों ने अमीर अली से बातें करते हुए बताया कि जेहाद ग़ैर कानूनी है। इस विवाद को बहुत से लोगों ने सुना और वे अपने घरों को लौट गए। सात नवम्बर को मौलवी अमीर अली रुदौली की ओर बढ़ा। कैप्टन बर्लो ने अपनी सेना उसे रोकने के लिए भेजी। दोपहर की नमाज़ के बाद युद्ध शुरू हो गया। दो घंटे के इस युद्ध में एक सिपाही से द्वन्द्व युद्ध में अमीर अली मारा गया। शाही फौज के 16 सैनिक मरे और 83 घायल हुए। विद्रोहियों के भी बहुत से सिपाही मरे। शेष भाग गए। इस घटना के बाद वज़ीरे आज़म ने एक आदेश प्रसारित किया जिसमें कहा गया कि हनुमान गढ़ी के सम्बन्ध में यदि कोई आन्दोलन चलाता है तो उसे रोका जाय और दस आदमियों को एक साथ इकट्ठा न होने दिया जाय।
नवाब वाजिद अली शाह के लिए यह काफी मुश्किलसमय था। बहुत से विद्रोही मुसलमान उनके खि़लाफ़ हो गए थे और कम्पनी हुकूमत के आला अधिकारी उन्हें विस्थापित करने की योजनाएँ बना ही रहे थे।

धीरे धीरे हनुमान गढ़ी का प्रकरण ठंडा हुआ। आपसी मेल-मिलाप और अमन चैन का वातावरण पनप गया। आखि़र आदमी झगड़े की बात कब तक करता? लोग अपने धन्धे में लग गए। फ़ख़रुद्दीन अली भी अपने यहाँ के बच्चों को मुस्तैदी से पढ़ाते। वे उर्दू-अरबी-फारसी ही पढ़ाते पर ज्ञान की नई बातें भी बच्चों को बताते। वे खुले दिमाग़ के आदमी थे। सभी क़ौमों के बीच सौहार्द पैदा करने की कोशिश करते। इधर उन्होंने रूसो की पुस्तकों को पढ़ा था। वे उसके विचारों से प्रभावित हुए। जहाँ और मौलवी राजतंत्र को खुदा का इन्तजाम बताते फ़ख़रुद्दीन अली ने कहना शुरू किया कि हुकूमतों को आदमी ने एक समझौते के तहत बनाया है। उनके इस बात की मौलवी लोग हँसी उड़ाते। बद्री और हम्ज़ा उनके यहाँ पढ़ने पहुँचे तो उन्होंने फारसी पढ़ाने के बाद रूसो की चर्चा की। उनके सामाजिक समझौता सिद्धान्त को समझाया।
रूसो के वाक्य - ‘आदमी आज़ाद पैदा होता है लेकिन हर जगह वह जंजीरों में है’, को उनकी कापियों में लिखवाया। उसके निहितार्थ को समझाया। रूसो के ‘एमील’ की चर्चा की। रूसो के प्रकृति सम्बन्धी विचारों पर चर्चा की। ‘शहर क़ब्रगाह हैं।’ इस वाक्य पर हम्ज़ा बोल पडे़,‘ शहर क़ब्रगाह हैं। तो इसका मतलब यह तो नहीं कि शहरों में ज़िन्दगी नहीं बची है।’ ‘हाँ, रूसों का इशारा इसी तरफ है। हम कुदरत से बहुत दूर होते जा रहे हैं। रूसों ने यूरोप के शहरों के बारे में लिखा है पर धीरे धीरे अपने यहाँ भी आबादी बढे़गी और इसी तरह के हालात पैदा होंगे। तुम तो चौक में रहते हो। वहाँ कितने पेड़-पौधे बचे हैं।’ मौलवी साहब ने पूछ लिया। ‘पेड़-पौधे तो कम हो ही गए हैं। कुछ घरों में रोशनी की भी दिक्क़त होनी लगी हैं।’ हम्ज़ा ने स्वीकार किया। ‘पर, सबके पास इतनी ज़मीन शहर के अन्दर कैसे रहेगी कि वे पेड़ पौधे लगा सके।’ ‘ठीक कहते हो तुम। ज़मीन ज्यादा नहीं रहेगी पर उसका इन्तज़ाम हम कैसे करें, इसका नक्शा बनाया जा सकता है। लखनऊ में ही कुछ तो नक़्शे के हिसाब से बना है और कुछ नक़्शे से नहीं हैं। ऐसे मुहल्लों में गलियाँ सँकरी हैं। घरों में रोशनी पहुँचने का मुकम्मल इन्तज़ाम नहीं है।’ मौलवी साहब समझाते रहे। ‘बहुत से दूकानदार घरों में खिड़कियाँ नहीं बनाते। वे कहते हैं कि हिफ़ाज़त ज़्यादा ज़रूरी है।’ हम्ज़ा ने बात रखी। ‘उनकी बात भी अपनी जगह पर ठीक है। आदमी को दाना-पानी के बाद हिफ़ाज़त ही सबसे अहम लगता है। हिफ़ाज़त के लिए ही कितने मालदार लोग बरछैत, चोबदार रखते हैं।’ ‘पर हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी तो हुकूमत की होती है।’ बद्री भी कुनमुना उठे। ‘ज़िम्मेदारी तो है पर हुकूमत सौ फीसदी हिफ़ाज़ती इन्तज़ाम नहीं कर सकती। कुछ अवाम को भी करना पड़ता है।’ मोलवी साहब मुस्कराते हुए बताते रहे। ‘गाँवों से बहुत लोग शहरों में आकर धन्धे तलाशते हैं।’ बद्री ने जोड़ा। ‘हाँ, ख़ासकर बाढ़ और सूखे के समय में।’ ‘ऐसे लोग पेड़ों के नीचे गुज़र बसर कर लेते हैं। क्या उनके लिए हिफ़ाज़त की ज़रूरत नहीं होती?’ बद्री ने पूछा। ‘होती क्यों नहीं? पर मालदार लोगों को हिफ़ाज़त की फिक्ऱ ज्यादा रहती है। हुकूमत भी उनकी हिफ़ाज़त के लिए ज्यादा इन्तज़ाम करती है।’ मौलवी शान्त भाव से उत्तर देते रहे।
‘अब भी अमन की कोशिशें जारी रहनी चाहए।’ मौलवी साहब ने दोनों से कहा। दोनों उठे, आदाब किया और अपने घर की ओर चल पडे़।
‘लखनऊ बाग़ों का शहर है तब भी चौक में आबादी बहुत घनी है। ऐसा शायद सभी शहरों में होगा।’ हम्ज़ा ने कहा। ‘हाँ ठीक कहते हो तुम। मैं एक बार इलाहाबाद के चौक में गया था। वहाँ भी आबादी घनी देखी।’ बद्री ने समर्थन किया।
‘हम लोग अँग्रेजी पढ़कर रूसो की किताबें भी पढ़ेंगे।’ तब शायद रूसो की बातों को समझने में आसानी होगी। हमें यह भी जानना चाहिए कि दुनिया के और देशों में क्या हो रहा है।’ हम्ज़ा बात करते चलते रहे।
‘तुम ठीक कहते हो हम्ज़ा। कुएँ का मेढक बनने से काम नहीं चलेगा।’ बद्री भी नई बातें जानने के लिए उत्सुक थे। दूसरे दिन बद्री, हम्ज़ा जब मौलवी फ़ख़रुद्दीन अली के यहाँ पहुँचे, वे कुछ फ़िक्रमन्द नज़र आ रहे थे। हम्ज़ा ने बैठते हुए कहा, ‘मौलवी साहब आज आप कुछ....।’ ‘ठीक कहते हो हम्ज़ा मैं सोच रहा था कि क़ौमें क्या केवल धर्म के नाम पर जानी जाएँगी। मौलवी फ़ख़रुद्दीन सिर्फ मुस्लिम हैं या कुछ और भी। बद्री केवल हिन्दू हैं य कुछ और भी। हम आदमी को मज़हबी खानों में बाँटकर उसकी औक़ात के बहुत से मरहलों को भुला देते हैं। कोई आदमी मुस्लिम होते हुए भी साइंसदां या हिसाबदां हो सकता है। पुराने ज़माने में हुआ ही है। आर्यभट्ट के उसूलों को अरब और ईरान के लोगों ने ही अरबी-फारसी में तर्जुमा किया और उसी तर्जुमे से वे उसूल यूरोप तक पहुँचे। जिन लोगों ने यह काम किया, वे सभी साइंसदां थे। उन्हें सिर्फ मुसलमान कहकर अलग नहीं किया जा सकता। मज़हबी तौर पर हम आप किसी को हिन्दू मुसलमान, ईसाई कुछ भी कह सकते हैं पर यही हिन्दू मुसलमान ईसाई साइंसदाँ, वैद्य, हकीम, डॉक्टर, मुखिया कुछ भी हो सकते हैं। मज़हब के अलावा भी आदमी की और बहुत-सी पहचानें हैं। हम उसे भूल जाते हैं। एक ही मज़हब मानने वाले आदमी अलग-अलग ढंग से काम कर सकते हैं। मुगल बादशाहों में आप अकबर और औरंगजेब को ले सकते हैं। दोनों मुसलमान थे। पर दोनों की कारगुज़ारी क्या एक थी? इसी से पता चलता है कि मज़हबी पहचान ही काफी नहीं हैं। अकबर के यहाँ खुली पंचायत थी हर मज़हब को इज्ज़त बख़्शी गई। आगे हमें आदमी की अलग-अलग पहचानों में सही तालमेल रखना सीखना होगा। हम्ज़ा तुम मुसलमान हो, पर यहाँ एक तालिब-ए-इल्म की हैसियत से आए हो। बद्री हिन्दू हैं पर यहाँ वे भी तालिबे-इल्म ही हैं। अपनी पढ़ाई पूरी करके तुम दोनों वकील, सौदागर, वज़ीर, कुछ भी बन सकते हो और वह भी तुम्हारी पहचान का एक हिस्सा होगा। ’इतना कहकर मौलवी साहब जैसे ही रुके, हम्ज़ा ने सवाल कर दिया, ‘मौलवी साहब मज़हबी पहचान को नज़रअन्दाज़ कैसे किया जा सकता है जब ज़िन्दगी की बहुत सी बातें मज़हब से ही तय होती हैं?’ मौलवी साहब हँस पडे़, ‘नहीं हम्ज़ा, ज़िन्दगी का बहुत सा हिस्सा मज़हबी दायरे से बाहर भी होता है। तुम डॉक्टर बनो या वकील मज़हब इसमें कहाँ आडे़ आता है। कौन-सा मज़हब रहम करने से मना करता है। मज़हब को नज़र अन्दाज़ करने का सवाल नहीं है मगर जो मज़हब के बाहर की ज़िन्दगी है उसे भी अहमियत देने की ज़रूरत है।’ ‘मगर लोग कहते हैं कि ज़िन्दगी मज़हब के बाहर हो ही नहीं सकती।’ हम्ज़ा ने बात रक्खी। ‘मज़हब से बाहर जाने का सवाल नहीं है। जिस तरह आदमी रोज़ा नमाज़, पूजा पाठ करते हुए अलग-अलग कामों को भी करता है तो वह मज़हब से बाहर नहीं हो जाता। यही वह बात है जिसे हमें समझना होगा। अपनी ही क़ौम या अपने ही मज़हब को सबसे ऊँचा क़रार देना भी बहुत सही नहीं है। पुराने ज़माने में लोग अपने मज़हब को फैलाने के लिए तरह-तरह के नुस्खे लागू करते थे, पर अब अलग-अलग मज़हब के लोगों के साथ हमें रहना है। यह ठीक है कि ज़िन्दगी मज़हब से बाहर नहीं पर मज़हब का दायरा ज़िन्दगी की ही तरह इतना बड़ा है कि आप उसमें अपनी दानिशमंदी से बहुत कुछ करसकते हैं।’ ‘अँग्रेज हम लोगों को बेवकूफ़ समझते हैं। अपनी क़ौम की तारीफ करते हैं। यहाँ के लोगों की बेइज्ज़ती करते हैं। सुना है मैकाले साहब ने हिन्दुस्तान की सारी किताबों को अँग्रेजी की एक अलमारी के बराबर बताया है। क्या मैकाले साहब का यह कहना सही है?’ बद्री भी कुनमुना उठे।
‘नहीं बद्री, मैकाले का कहना पूरी तरह सही नहीं है। मैकाले साहब को हिन्दोस्तानी किताबों की जानकारी नहीं है। ऐसे भी अँग्रेज हैं जो हिन्दोस्तानी किताबों को समझने में लगे हैं। मिस्टर जोन्स ने संस्कृत में बहुत काम किया है और भी बहुत से लोग है जो फारसी संस्कृत दोनों में काम कर रहे हैं। हिन्दुस्तान से बहुत सा ज्ञान अरबी-फारसी में होकर यूरोप पहुँचा। अब वहाँ से लौटकर अँग्रेजी द्वारा फिर हिन्दोस्तान आ रहा है। तुम्हारी तस्की़न के लिए मैं एक नमूना दे रहा हूँ। पाँचवीं सदी में अपने यहाँ आर्यभट्ट हुए हैं। वे बहुत बड़े ज्योतिश के जानकार और हिसाबदां थे। उन्होंने ‘ज्या’ की खोज की। उन्होंने इसका नाम ‘ज्या अर्ध’ या ‘अर्ध ज्या’ दिया। बाद में यह सिर्फ ‘ज्या’ रह गया। ‘ज्या’ को अरबों ने अरबी में ‘जीबा’ कर दिया। अरबी में इसको ‘ज्ब’ ही लिखा गया। बाद में लोगों ने इसको ‘जायब’ में बदल दिया। ‘जायब’ का अरबी में अर्थ है ‘छोटी खाड़ी’। सन 1150 में जब अरबी से इस लफ़्ज़ का अनुवाद ग्रेरार्डो आफ किमोना ने लैटिन में किया तो ‘साइनस’ लिखा। ‘साइनस’ का भी अर्थ छोटी खाड़ी होता है। कुछ समय के बाद यह लफ़्ज़ बदल कर ‘साइन’ हो गया। अब यहाँ के अँग्रेजी स्कूलों में जो ट्रिग्नोमेट्री पढ़ाई जाती है, लोगों को यह बताया जाता है कि यह यूरोप से आया है जबकि पैदाइश हिन्दोस्तान की है।’
‘क्या आर्यभट्ट के बाद हिन्दोस्तान में गणित की खोज नहीं हुई?’ हम्ज़ा ने प्रश्न किया। ‘नहीं, काम हुए। पर उतनी तेजी से नहीं हो पाए जितने यूरोप में हुए। नई नई खोजों में थोड़ी कमी आई। गणित में जो काम हुआ भी उसको अँग्रजों ने अँग्रेजी स्कूलों में तवज्जो नहीं दीं।’ ‘बाप दादों की कमाई हम लोग कब तक खाएँगे? हमें नई खोजों को आगे बढ़ाना चाहिए।’ बद्री ने कहा। ‘ठीक कहते हो बद्री। पिछले बहुत से सालों से अपने हिन्दोस्तान में खोज के लायक माहौल नहीं रहा। कारीगरों और नया काम करने वालों को तंग ही किया जाता रहा। राजा-महाराजा, नवाब सभी ऐश की रंगीनियों में खो गए।’ ‘अपने बादशाह भी इससे अलग नहीं हैं।’ हम्ज़ा बोल पडे़। ‘कहा न, दिल्ली के बादशाह और अपने लखनऊ के नवाब तक सभी इन्हीं रंगीनियों में डुबकी लगाते रहे। अच्छे कारीगरों और नया करने वालों को यूरोप में भी तंग किया गया। घड़ीसाज़ हानूस और साइंसदां गैलीलियो जैसे लोगों का हाल मालूम ही है। पर यूरोप में खोज का यह सिलसिला बन्द नहीं हुआ।’ ‘क्या हिन्दोस्तान में बन्द हो गया?’ बद्री ने पूछा। ‘बन्द तो नहीं हुआ पर धीमा ज़रूर हो गया।’ मौलवी साहब ने साँस ली। ‘क्या हम लोग भी ट्रिग्नोमेट्री सीख सकते हैं?’ हम्ज़ा ने पूछा।
‘अभी अलजब्ऱा सीख लो। उसके बाद ट्रिग्नोमेट्री सीखना ठीक होगा। मैं खुद ट्रिग्नोमेट्री पर काम कर रहा हूँ।’ मौलवी साहब ने समझाया।

हम्ज़ा और बद्री मौलवी साहब के यहाँ से लौटे तो जोश से भरे हुए थे। हिन्दोस्तान और अरब के लोगों ने यूरोप के लोगों को रास्ता दिखाया। यह बात सुनकर दोनों गद्गद् थे। ‘अब मिस जूली हमें डैम फूल नहीं कह सकेंगी। हम उन्हें बता सकते हैं कि कोई भी धरती बंजर नहीं होती। हिन्दोस्तान में नई खोजों का सिलसिला यूरोप के देशों जैसा नहीं रह सका। आखि़र ऐसा क्यों हुआ हमें यह भी जानना चाहिए बद्री।’ हम्ज़ा ने प्रश्न को उछाल दिया। ‘बहुत ज़रूरी है जानना’, बद्री ने भी कहा। ‘पर कौन बताएगा इसे?’ हम्ज़ा ने बद्री से पूछा, ‘क्या कोई ऐसा साइसदां तुम्हारी निगाह में है? गर कोई बड़ा साइंसदां मिलता, हम लोग उससे भेंट कर पाते तो कितनी अच्छी बात होती।’ ‘होंगे ज़रूर, हमें उनकी खोज करनी चाहिए। मौलवी साहब भी बता सकते हैं। वे खुले दिमाग़ के हैं। हर चीज़ की गहराई में उतरना चाहते हैं। अरबी फारसी ही नहीं अंग्रेजी और नागरी में भी दखल रखते हैं।’ ‘साइंस भी मेहनत से आती है। मौलवी साहब सुना रहे थे कि गैलीलियो ने अपनी ज़िन्दगी उसी में खपा दी।’ ‘हिन्दुस्तान में भी अपनी ज़िन्दगी खपाने वालों की कमी नहीं रही। पर व्यवहार में उतरा नहीं। अपनी हिफ़ाज़त करने में ही बहुतों की ज़िन्दगी खप गई। फिर नई खोज करने का जोश कैसे पैदा हो?’
हम्ज़ा और बद्री दोनो यही चर्चा करते हुए चौक तक आ गए। वहाँ एक आदमी सारंगी बजाकर गोपीचन्द की कथा सुना रहा था। दोनो वहीं रुक गए। अन्य लोगों के साथ कथा सुनने लगे। सारंगी वादक ने कथा का सूत्र बताया। तो भैया लोगो सुनो गोपीचन्द की कथा। गोपीचन्द संन्यासी हो गए तो मां के सामने भिक्षा माँगने के लिए पहुँचे। गुरू ने कहा था पहिली भिक्षा माई से माँगो। तो भैया जब गोपीचंद एक हाथ में तुम्बी और एक हाथ में सोंटा लिए माई के दरवाजे पहुँचे तो माई का कलेजा दो टूका हो गया। भैया लोगो सुनो अब माई क्या कहती है-
के करे कारनवा ए गोपीचन्द हाथ लिहो तुम्बवा।
केकरे कारन हाथ सोटां हो राम।
माई पूछती है- किस कारण से ए गोपीचंद हाथ में तुम्बी लिया और किस कारण से हाथ में सोंटा लिया। अब भैया लोगो सुनो, गोपीचंद क्या उत्तर देते हैं।
तोहरे पे लिहलीं ए माई हाथकेर तुम्बवा।
कुकुर मारन हाथ सोंटा हो राम।
तो भैया लोगो गोपीचन्द जी कहते हैं कि माई तोहरे लिए हमने तुम्बी लिया, इसमें भिक्षा चाहिए। हाथ का सोंटा तो कूकुर से बचाव के लिए है। अब आगे माई क्या कहती है उसे सुनिए-
पुरुब तू जइहौ ऐ गोपीचन्द पच्छिम जइबौ
बहिना नगरिया जनि जइबो हो राम।
माई कहती है कि पूरब जाना, पच्छिम जाना पर बहिन की नगरिया मत जाना। माई तो दुखी थी ही, उसने सोचा बहिन भी गोपीचन्द को जोगीवेष में देखकर बहुत दुखी होगी। इसीलिए माई ने बहिन के दरवाज़े पर जाने से मना किया था। पर गोपीचन्द के गुरू पक्के गुरू हैं। उन्हें गोपीचन्द की परीक्षा लेनी है। अपने घर वालों से पहले भिक्षा लेना है। पर माई से गोपीचन्द क्या कहते हैं? भैया लोगो आगे सुनिए-
पुरुब त जइबे माई पच्छिम जाइबे
बहिन नगरिया न जइबे हो राम।
गोपीचन्द ने माई को दिलासा दिया। कहा कि पूरब जाऊँगा, पच्छिम जाऊँगा, ए माई बहिन की नगरी न जाऊँगा। माँ खुश हो गई। उसने गोपी चन्द की तुम्बी भर दिया। तो भैया लोगो सुनो-
भरि दीन गोपीचन्द जी कै तुम्बवा।
साँझी बेरिया बहिन की दुआरिया हो राम।
माई से तुम्बी भराकर गोपी चन्द साँझ की बेरिया बहिन की दुअरिया पहुँच गए। माई के संतोष के लिए कह दिया था बहिन के नगर नहीं जाऊँगा। पर गुरू का आदेश। गोपीचन्द को परीक्षा देनी है। वे साँझ के समय बहिन के दरवाज़े पर पहुँच गए। तो भैया लोगो बहिन के दरवाज़े पर पहुँचकर गोपीचन्द क्या कहते है? इसे सुनो-
कुछ देर रुकि कै गोपीचन्द बोलैं
हमें कछु भोजन करावहु हो राम।
तो भैया गोपीचन्द जी कुछ देर तो दरवाज़े पर खड़े रहे फिर कहा कि हमें भोजन करा दो। बहिन ने सुना। उसने अपनी सेविका से जो झाडू लगा रही थी, कहा। तो क्या कहा भाइयो? सुनो-
अँगना बहारै चेरिया लौड़िया
जोगिया का भिक्षा दै आवहु हो राम।
तो भैया, बहिन ने सेविका से कहा कि योगी को भिक्षा दे आओ। सेविका भिक्षा लेकर निकली। अब आगे गोपीचन्द क्या कहते हैं? सुनो-
तोहरे हथवा ए बहिनी भिक्षा न लेबै
जे बोलीं हैं तेई लैआवइ हो राम।
तो गोपीचन्द ने कहा कि ए बहिनी तुम्हारे हाथ की भिक्षा न चाही। जो बोली हैं, वही आवैं। बहिन भाई को जोगी के वेश में देखने से बचना चाहती थी। पर गोपीचन्द को तो गुरू के आदेश का पालन करना है। उन्होंने कहा कि बहिन खुद आकर भिक्षा दे। बहिन ने देखा कि यह तो गोपीचन्द भाई जोगी बन गया है। अब आगे उसने क्याकिया? यह सुनो-
तरे कीन्ह सोनवाँ उपर तिल चाउर
जोगी का भिक्षा देय चलिलीं हो राम।
तो भैया, बहिन ने बर्तन में नीचे सोना रखा और तिल-चाउर से ढक दिया। उसे ही लेकर आँखों में आँसू भरे वह भिक्षा देने के लिए चली। तो भैया लोगो आगे क्या हुआ? यह सुनो-
तोहरा भिखिया ए बहिना तोहरे बाढ़ै,
हमका भोजन करावहु हो राम।
पर गोपीचन्द ने भीख स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा हे बहिनी तुम्हारी भीख तुम्हें ही बरक़त दे। हमें तो भोजन चाहिए। आप भोजन कराइए। बहिन जल्दी से भाई को भीख देकर छुट्टी करना चाहती है पर भाई तो भोजन करना चाहता है। अब आगे क्या हुआ?
इसे सुनिए-
गुरु भैया किरिया, गोबरधन किरिया,
घरवा न सीझलीं रसोइयाँ हो राम।
तो भैया लोगो, बहिन ने गुरू महराज की कसम खाई, गोवर्द्धन की कसम खाई और कहा कि घर में रसोई बनी ही नहीं है। अब आगे गोपीचन्द जी महाराज क्या कहते हैं? यह सुनो-
गुरु भैया हमही, गोबरधन हमहीं,
झूठी किरीवा बहिना खायहु हो राम।
तो भैया लोगो गोपीचन्द जी महाराज कहते हैं कि हमही गुरुभाई हैं, हमही गोबरधन हैं। ए बहिनी, तूने झूठी कसम खाई है। तो भाई लोगो कथा बहुत लम्बी है। दूसरी बैठक में फिर कभी सुनाऊँगा। आज की कथा यहीं खतम की जाय। यह कहकर वह व्यक्ति अपनी सारंगी को बजाते हुए झूम उठा। आसपास खड़े लोग अपने घरों से आटा, दाल, चावल, नमक लाकर उसकी झोली में डालने लगे। बद्री और हम्ज़ा भी कुछ देना चाहते थे पर उनका घर थोड़ी दूर था। जेब में पैसा या पाई कुछ था नहीं। वे चाहते हुए भी कुछ दे न सकते थे। इसीलिए चुपचाप अपने घरों की ओर निकल गए।