Towards the Light – Memoir in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर –संस्मरण

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

उजाले की ओर –संस्मरण

==================

स्नेहिल नमस्कार मित्रों

 

लाली मेरे लाल की जीत देखूं तित लाल, 

लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल !

हम अपनी तमाम उम्र स्वयं को खोजते ही रहते हैं जैसे मृग की नाभि में कस्तूरी और वह बन -बन ढूँढता फिरता रहे, वैसे ही हमारे भीतर ईश्वर विराजमान हैं और हम उन्हें न जाने कहाँ कहाँ खोजते फिरते हैं | दरअसल हम स्वयं को ही कहाँ जानते हैं, हम दूसरों के भीतर झाँकने का प्रयत्न अधिक करते हैं स्वयं को खोजने, जानने के बजाय | यह हमारे व्यवहार का ही एक अंग बन गया है जिसके नारे में चिंतन आवश्यक है |

छिड़ गई एक बार ज़ोरदार बहस कि भई धर्म को विज्ञान के साथ क्यों जोड़ रहे हो ? तभी इन सब चर्चाओं का आदान-प्रदान हुआ और मुझे लगा कि मुझे इन सब बातों की आप सबके साथ चर्चा करनी चाहिए और बस--यह रहा उसका प्रमाण !

अपने भीतर की खोज ---सब ओर एक सी ही रोशनी, एक सा ही प्रकाश ! अर्थात एक 'संतुलन', अपने भीतर की ऊर्जा !

'देखन चली' यानि अपने भीतर झांकना क्या कभी हमने यह सोचने प्रयास किया है कि कबीर के शब्दों में है क्या? क्या यह अपने भीतर की खोज नहीं है ? !

हम सब कबीरदास जी के इस दोहे से बहुत भली-भांति सुपरिचित हैं । आपको संभवत: यह महसूस हो रहा होगा कि 'धर्म और विज्ञान के आपसी संबंधों ' में कबीरदास कहाँ से सम्मिलित हो गए इसके लिए हम 'आइंस्टाइन' के कथन को समझने का प्रयास करते हैं । 

'Science without religion is lame, Religion without science is blind ."

Elbert Einstine

अर्थात दोनों ही मनुष्य जीवन को जीने के आवश्यक अंग !

मेरे विचार में उपरोक्त दोनों के विचारों से एक बात तो स्पष्ट होती है कि धर्म और विज्ञान में इतनी दूरी भी नहीं है जितनी बना दी गई है । 

मुझे लगता है सर्वप्रथम यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर धर्म व विज्ञान हैं क्या ? इसके पश्चात ही हम दोनों के साथ न्याय कर सकेंगे । इन दोनों को न केवल परिभाषिक रूप से वरन व्यवहारिक रूप से भी दोनों को समझने की आवश्यकता है । सबसे प्रथम हम धर्म पर विचार करते हैं । धर्म को परिभाषित करना इतना सहज नहीं है । इसको परिभाषित करने में कई व्यवधान आते हैं । बहुत से लोग तो धर्म तथा विज्ञान को शत्रु ही मान बैठते हैं । परन्तु धर्म एक विश्वास है, एक श्रद्धा है, वह विज्ञान का शत्रु हो ही नहीं सकता । 

जब हम कहते हैं कि धर्म एक विश्वास है तब धर्म में आरती, पूजा, वंदन, स्मरण है? इस सबमें एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में केवल मनुष्य के पास ही बुद्धि है जिससे वह अच्छाई-बुराई में फर्क कर सकता है, भला-बुरा सोच सकता है । अत: समस्त ज्ञान उसकी सोच पर निर्भर करता है । मनुष्य की सोच जितनी विकसित होगी, वह अपनी कार्य-प्रणाली में, प्रत्येक बात में उतना हीअधिक स्पष्ट हो सकेगा । यदि अपनी सोच को दरवाज़े में बंद रख लेगा तो स्वाभाविक है कि उसके विचार कपाट में बंद हो जाएंगे । दरवाज़े में बंद रखने का तात्पर्य है बदलावों की उपेक्षा करके अन्दर ही बैठे रहना, नए के लिए मस्तिष्क के कपाट खोलना अर्थात किसी भली तथा सही वस्तु को स्वीकार करना। धर्म का सही रूप से ज्ञान होने पर दिव्यता आती है तथा मनुष्य धर्म की वास्तविकता को स्वीकार कर पाता है । जिस प्रकार एक पेड़ की बहुत सी शाखाएं होती हैं, उसी प्रकार प्रकृति-प्रदत्त मानव -जीवन का एक ही वृक्ष है, इस वृक्ष का उत्पादककर्ता वह जिसे हम पहचानते तो नहीं हैं परन्तु महसूस हर पल करते हैं । इस जीवन रूपी वृक्ष में विभिन्न धर्मों की शाखाएं उसी एक मानव ने बनाई हैं । 

मनुष्य में चिंतन करने की योग्यता शताब्दियों पूर्व उत्पन्न हुई और तभी से वह स्वयं को जानने के प्रयास में जुड़ गया। धर्म की परिभाषा तलाशने में व्यस्त हो गया । प्रत्येक युग में समसामयिक विद्वानों ने अपने बौद्धिक स्तर तथा अपनी खोज के अनुरूप धर्म की विभिन्न परिभाषाएं प्रस्तुत कीं । कहीं कहीं धर्म को इतने संकरे रूप में लिया गया कि आम आदमी के पास पहुँचते-पहुँचते वह क्रमश: इतना संकरा हो गया कि उसका गला दबने लगा और पवन न पहुंचने के कारण वह अधमरा होने लगा । वास्तव में धर्म कभी संप्रदाय कहा जाने लगा तो कभी मूर्तिपूजा, कभी समाज में प्रसरित भेद-भाव तो कभी उसे जातिवाद की बेड़ियों में बांधा जाने लगा । तात्पर्य यह है कि धर्म के नाम पर अनेक जातियां बनीं, घृणा पैदा हुई, एक दूसरे को छोटा दिखाने की प्रवृत्ति को अंजाम दिया गया । एक धर्म के ठेकेदार दूसरे धर्मों को अपने से निम्न मानने लगे ----यानि धर्म के इन ठेकेदारों ने मानव -मानव के बीच भेद खड़ा कर दिया तथा मनुष्यता के बीच एक गहरी खाई बना दी, वह खाई शनै: शनै: इतनी गहरी होती चली गई कि बाद में उसे पाटना असंभव सा होने लगा । 

हमने व्यर्थ में ही धर्म को बिना समझे धर्म के आगे एक रेखा खींच डाली । हमें यह सोचने में अपना समय व्यर्थ करना लगा कि हम धर्म व विज्ञान के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालकर देख सकें । हमने व्रत-उपवास, त्योहारों को धर्म से जोड़ा, वह तो अच्छी बात थी कारण उसके पीछे भी बहुत बड़ा विज्ञान था, एक -दूसरे से मेल-मिलाप, एक-दूसरे का आदर करना, एक -दूसरे के साथ मिलकर बैठना इस सबमें में मनुष्य को आनंद प्राप्त होता था । यह वह समय था जब मनोरंजन के साधन बहुत सीमित थे अत: त्योहारों की परिपाटी बनी जिससे एक-दूसरे से मेल-मिलाप बढ़े और प्रसन्नता तथा आनंद का वातावरण तैयार हो सके । परन्तु क्रमश: मनुष्य ने धर्म को इस कदर बोझिल कर दिया कि आनंद के वातावरण से निकलकर हम अंधविश्वासों तथा खोखले रीति-रिवाज़ों में कैद होने लगे । तभी बात बनने के स्थान पर बिगड़ने लगी । हमने अपने जीवन में संतुलन को खो दिया । यह बहुत महत्वपूर्ण है कि मनुष्य-जीवन में संतुलन बना रहे। मेरे विचार में धर्म की उत्पति मनुष्य को संतुलित रखने के लिए हुई थी परन्तु जब असंतुलन बढ़ने लगा तब विवेक अविवेक में, सत्य असत्य में, पारदर्शिता अपारदर्शिता में परिवर्तित होती गई । जीवन में गतिहीनता का प्रवेश हो गया । स्वतंत्र सोच का मनुष्य जीवन में एक पारदर्शिता को लेकर चलता है परन्तु जब कोई उसकी सोच पर हावी हो जाता है तब वह डांवाडोल होने लगता है । धर्म के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । धर्म को ओढ़कर मनुष्य स्वयं को अपंग बनाने लगा । यह नहीं किया तो यह दुर्घटना घट जायेगी, व्रत-उपवास नहीं किये तो भगवान नाराज़ हो जाएंगे । तात्पर्य यह है कि धर्म मनुष्य पर हावी हो गया, उसकी सोच को धर्म ने एक पिंजड़े में बंद कर दिया, उसकी सोच की स्वतंत्रता पर ताला लटका दिया । यदि वास्तव में धर्म है तो उसमें संकीर्णता की क्या आवश्यकता है? असत्य की क्या आवश्यकता है? बेईमानी की क्या आवश्यकता है? धर्म तो स्फटिक की भाँति पारदर्शी है, उससे छिपाना कुछ भी संभव नहीं है। 

हम अपने बालपन से यही सीखते आए है न कि ईश्वर कण-कण में है फिर उसे किसी बंधन में बांधने की आवश्यकता न जाने क्यों महसूस होने लगी?कण-कण में है तो वह सर्वदर्शी है, सर्वस्पर्शी है, सबके दिलोदिमाग में है |वह प्रेम है, वह प्रेम का गान है, वह मधुर है, वह माधुर्य है, वह प्रीत है, वह गीत है |प्रेम का मधुर गान है और हम सबका अभिमान है | ईश्वर जो भी है उसने हमें न जाने कितनी सुंदर उपाधियों से विभूषित किया है, उसने हमें प्रेम रंग में रंग दिया है और प्रेम से सराबोर हम करने लगते हैं अपने ही स्वरूप पर शंका !यह बात पूरी जा कि यदि सत्य तथा पारदर्शिता न हो तो वह धर्म है ही नहीं । 

धर्म का अर्थ है: धारणात धर्म: अर्थात जो धारण करने योग्य हो, वही धर्म है । यानि जिन चीज़ों को हम स्वीकार कर लेते हैं, वे धर्म में सम्मिलित हो जाती हैं । धर्म में सबसे प्रथम पायदान पर आकर जो मुस्कुराकर खड़ा होता है, वह है प्रेम, वह कबीर का वह अनहद नाद जो सबको प्रेम-पूरित भी करता है तो सबको एक पहचान भी देता है |जो कबीर की लाली में डूब जाता है तो न्यूटन के फॉर्मूले पर भी चिंतन करता है | इन दोनों का जुड़ाव ही जीवन जीने का सादा, सरल मार्ग है | हम इस विषय पर खूब चर्चाएं कर सकते हैं और अपने अंतर में जाकर महसूस कर सकते हैं एक ऐसा जुड़ाव जो कहीं से भी प्रेम से विरक्त नहीं है जो, 'लाली मेरे लाल' की भी है तो विज्ञान की पगडंडी से निकल हुआ ऐसा प्रेम का अहसास भी जो पूरे ब्रह्मांड को एक साथ जोड़कर कबीर में परिवर्तित करता है |

मित्रों !चिंतन करके देखे और प्रेम को हर उस वस्तु में महसूस करें जो हमें जीवन कीकई अन्य शाखाओ में सम्मिलित करता है | हम इस विचार पर पुन:चर्चा करेंगे|

 

सबको स्नेहिल नमस्कार

आप सबकी मित्र

डॉ .प्रणव भारती