Kalyug Ke Shravan Kumar - 3 in Hindi Moral Stories by संदीप सिंह (ईशू) books and stories PDF | कलयुग के श्रवण कुमार - 3 - पिता का जन्म

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कलयुग के श्रवण कुमार - 3 - पिता का जन्म

पिता का जन्म


एक एक गुजरता पल मानो दिनों की तरह गुजर रहा था , सीने में वज्र समान के अस्थि पंजरों के बीच बाएं तरफ स्थित दिल घोड़े की गति सा बेतहाशा सरपट धड़के जा रहा था।

ट्रेन सी आती जाती तेज सांसे । अव्यवस्थित और अनियन्त्रित तेज सांसे ।

ऐसा लग रहा था कि जैसे मन मस्तिष्क मे तेज उथल - पुथल के बीच ' भयंकर तुफानों सरीखे विचारों की मैराथन सी चल रही थी ।

व्याग्रता सी हालत में कभी वह चहलकदमी करते फर्श को द्रुत गति से रौंद रहा था , कभी दीवार से सलीके से लगी लकड़ियों के बेंच पर बैठ पैर हिलाने लगता ,कभी हथेलियों को आपस मे मसलने लगता ।

ठंड के बावजूद भी माथे पर छलक रही पसीने की बूंदों को साफ करने गरज से गले में पड़े गमछे से पोंछ रहा था । बार बार कई बार।

इस कदर बेचैनी , इतनी घबराहट तो उसने तब भी नहीं महसूस की थी जब पहली बार प्रेम की अभिव्यक्ति करने गया था अपनी प्रेमिका को ।

कभी वो सड़क पर आते जाते वाहनों को देखता तो कभी आने जाने वालों को । कभी हाथ प्रार्थना के भाव में जुड़ जाते, आंखे बन्द कर मन ही मन बुदबुदाता।

आँखो के कोरों से मानो खारे पानी का समुन्दर सैलाब बन कर फूट पड़ने को आतुर था ।

फिर आखे बन्द कर बेंच पर निढाल सा खुद को संयत करने की निरर्थक कोशिश करता पर सफलता मिलती नही जान पड़ रही थी ।

अचानक चिटकन की आवाज उभरी , तेजी से खड़ा हो गया। ऐसा लगा जैसे सेना का अधिकारी अचानक आ गया हो।

दरवाजे के खुलने की आवाज आई। आँखे दरवाजे के बीच स्थिर हो गई ,बिल्कुल सीसी टी.वी कैमरे सी।

अपनी खूबसूरत सफलता भरी मुस्कान के साथ नर्स दरवाजे से निकली।
हाथो मे नर्म रुई मे लिपटी रुई सी 'नाजुक नन्ही सी जान' को उसके हाथों मे थमा दिया। उसके हाथ उसे थाम रहे थे, लगातार कंपन कर रहे थे।

नर्स ने बधाई दी पर उसको भला सुनने का होश कहाँ था, उसकी नजरे तो उस गुलाब की पंखुड़ी जैसे नाजुक से कोमल चेहरे पर टिक गई थी। वह तो जैसे किसी नई दुनिया में खो सा गया था ।

अचानक तेज सांसे स्थिरता की ओर बढ़ चुकी थी, धड़कनों की सरपट रफ्तार काबू मे आने लगी थी।

जितने भी विचार घुमड़ रहे थे , बेचैनी थी , घबराहट थी सब उस खारे पानी के समंदर का सब्र टूटते ही आंसुओ की बूँदों मे बह गया।

ये अश्रुधारा नही थी बल्कि सुकुन के छपाक से दिल मे कूदतें ही छींटो की छिटकन थी।आज ये आंसू और अद्भुत सुकुन बड़ा मीठा लग रहा था ।

आज एक और पिता का जन्म हुआ था ।
उस नन्ही जान ने ही जन्म नहीं लिया था बल्कि उसके भी अन्दर एक पिता भी जन्म ले चुका था।

अब वो पिता की सन्तान होने के साथ ही, सन्तान का पिता भी बन गया था।

(समाप्त )
✍🏻संदीप सिंह "ईशू"
मेरी यह कहानी उन सभी को समर्पित जो पहली बार पिता बनने का अहसास महसूस करते है।