Amma Mujhe Mana Mat Karo - Part - 9 in Hindi Motivational Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 9

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अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 9

सुखिया के हाथों से बने इतने सुंदर बर्तन देखने के बाद सागर के मन में एक प्रश्न उठा और उसका जवाब जानने के लिए उन्होंने उससे पूछा। “अच्छा यह बताओ सुखिया आप स्कूल जाती हो या नहीं?”

“जाती हूँ अंकल, मेरे बाबूजी कहते थे पढ़ाई बहुत ज़रूरी है। मैं पढ़ाई भी करूंगी और हमारी इस कला को ज़िंदा भी रखूंगी।”

उसके बाद सागर ने उन्हें अपनी कार में बिठा कर उनके घर तक छोड़ दिया।

जाते समय सागर ने कहा, “वैजंती जी मैं अगले हफ्ते मेरे ड्राइवर को भेजूंगा, आप लोग शहर आ जाना। वहाँ सुखिया के लिए मैंने कुछ सोचा है।”

वैजंती ने कहा, “ठीक है साहब।”

सुखिया ने पूछा, “अंकल क्या होगा शहर में?”

“बेटा तुम आओ तो सही फिर देखना।”

वैजंती ने कहा, “साहब जी अंदर आइए, चाय पी कर चले जाना।”

“नहीं वैजंती जी अभी जल्दी में हूँ, फिर कभी।”

सागर ने अगले हफ्ते उन्हें शहर बुला लिया। शहर के सबसे महंगे इलाके में उनकी एक दुकान खाली पड़ी थी, जिसे वह किराये पर दे दिया करते थे। वह दुकान उन्होंने सुखिया को देने का मन बना लिया। वैजंती और सुखिया के लिए उन्होंने उसी ड्राइवर को लेने उनके घर भेज दिया जो उस दिन उनके साथ था।

जब सुखिया और वैजंती उनके घर आए तब अनाया की मम्मी नैंसी और सागर ने बड़े ही आदर सत्कार से उन्हें बुलाया और बिठाया।

नैंसी को भी सागर ने उस दिन का पूरा किस्सा सुना ही दिया था। वह भी उनसे मिलकर उन्हें धन्यवाद कहना चाहती थीं।

नैंसी ने वैजंती के पास आकर हाथ जोड़ते हुए कहा, “बहुत-बहुत धन्यवाद आपने हमारी बेटी को उस दिन बचा लिया।”

“नहीं-नहीं, आप इस तरह हाथ मत जोड़िए। हमारी भी छोटी-सी बेटी है मैम साहब। बेटी के गुम होने की पीड़ा इंसान को जीने नहीं देती। यह तो हमारा फ़र्ज़ था।”

अनाया, सुखिया को अपने कमरे में ले गई। उसका कमरा देखकर सुखिया बहुत हैरान थी। इतना सुंदर कमरा उसने पहली बार देखा था। उस कमरे में अपने हाथों से बनाए खिलौने रखे देखकर सुखिया की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।

उसके बाद सागर उन्हें लेकर उस दुकान पर गया जो उन्होंने सुखिया के नाम कर दी थी।

वैजंती ने दुकान को देखते ही कहा, “साहब जी आप हमें यहाँ क्यों लाए हैं?”

“वैजंती जी यह आप की बेटी सुखिया की दुकान है।”

“आप यह क्या कह रहे हैं?”

“वैजंती जी बस आगे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। वहाँ गाँव में जो वस्तु आप 50 रुपये में बेचते थे यहाँ वही चीज 500 में बिकेगी।”

सुखिया और वैजंती हैरान होकर दुकान को देखे ही जा रहे थे। उन्हें इस समय रामदीन की बहुत याद आ रही थी। सुखिया को दुकान और सागर के रूप में एक गॉड फादर मिल गए, साथ ही अनाया जैसी प्यारी-सी दोस्त भी। अब सुखिया और वैजंती ने दुकान को ख़ूब सुंदर तरीके से सजाया। इस दुकान में रंग-बिरंगे बर्तन, मटके, भांति-भांति की नई-नई वस्तुएँ थीं जो छोटी-सी सुखिया के खून पसीने से बनी थीं।

यह एक छोटा-सा स्टार्ट अप था, जो छोटी-सी सुखिया ने अपने छोटे-छोटे हाथों से शुरू किया था। उसकी मेहनत, लगन, महत्वाकांक्षा और भाग्य ने उसके छोटे से गाँव के इस व्यवसाय को अब शहर तक पहुँचा दिया था। उसकी यह कला दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया और सुखिया बड़ी होती जा रही थी।

अब वह मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाने लगी थी। गणपति की मूर्तियाँ, गणेश चतुर्थी के समय ख़ूब बिकती थीं। माँ दुर्गा की मूर्तियाँ नवरात्रि में जोर-शोर से लोग खरीदने आते थे। मूर्तियाँ तो शहर से बाहर दूसरे शहर के लोग भी उसकी दुकान से खरीद कर ले जाते। बड़े-बड़े पंडाल जो गणेश जी और दुर्गा जी की स्थापना करते थे उनके ऑर्डर महीनों पहले सुखिया को मिल जाते थे।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः