Kurukshetra ki Pahli Subah - 4 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 4

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 4

(4) रे मन तू काहे न धीर धरे

श्री कृष्ण:विजय रूपी फल में तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम्हारा लक्ष्य युद्ध में सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न होना चाहिए, विजय नहीं। इसलिए तुम फल के लक्ष्य को ध्यान में रखकर यह युद्ध मत लड़ो और फल नहीं चाहिए यह सोचकर युद्ध से हटने की सोचो मत। 

श्री कृष्ण ने घोषित कर दिया कि अर्जुन का अधिकार केवल कर्म में है। फल में नहीं। 

अर्जुन ने शंका जाहिर की, "कर्म करते समय लक्ष्य का तो ध्यान रहे, लेकिन फल की आशा न रखें। हमें उस कर्म से भी लगाव न हो जाए, जो हम करने जा रहे हैं। ऐसे में कोई योद्धा अपनी संपूर्ण शक्ति और मन के साथ कहां कोई कार्य कर पाएगा?"

हंसते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "कर्म के सिद्धांत में अपनी शक्ति लगाकर और पूरे मन से कार्य संपन्न करने का निषेध नहीं है। लक्ष्य का एकाग्रता से स्मरण रखना भला तुम से अधिक कौन जानेगा?"

श्रीकृष्ण की इस बात पर अर्जुन को बचपन की वह घटना आ गई जब गुरु द्रोण ने एक बार राजकुमारों की परीक्षा लेने के लिए पेड़ पर टंगी चिड़िया की आंख में तीर से लक्ष्य भेदन की चुनौती दी थी। एकाग्र नहीं होने के कारण अन्य राजकुमार असफल रहे लेकिन अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख दिखाई दे रही थी इसलिए उन्होंने सही लक्ष्य भेदन कर लिया था। 

दूसरी घटना उन्हें द्रौपदी के स्वयंवर की याद आ गई, जब प्रतिबिंब को देखकर ऊपर गोलाकार घूमते लक्ष्य का अर्जुन ने अचूक भेदन किया था। 

अर्जुन ने पूछा, "अगर हम उस निर्दिष्ट कर्म के प्रति गहरा अनुराग नहीं रखेंगे तो हम पूरे मनोयोग से उससे संयुक्त कहां हो पाएंगे?हे केशव! यह तो अव्यावहारिक बात हो गई। "

श्री कृष्ण ने समझाया, "मैं प्रयासों में कमी या अधूरेपन से कोई कार्य आगे बढ़ाने के लिए नहीं कह रहा हूं। मेरा अर्थ केवल इतना है कि कोई कार्य करो और अगर उस कार्य को लेकर कोई व्यवधान आए, तो विचलित मत हो जाओ, वह कार्य बीच में ही समाप्त हो जाए या लक्ष्य असफल हो जाए तो निराश मत होना कि अब सब कुछ समाप्त हो गया है। जीवन में जीत- हार, सफलता- असफलता सभी के प्रति समबुद्धि रखकर समत्व योग का पालन करना महत्वपूर्ण है। "

अर्जुन ने पूछा, हे प्रभु! मैंने जिस मोह के दलदल में अपने धंसने के कारण इस युद्ध के त्याग का विकल्प चुना था, अगर मैं इस युद्ध में लौटता हूं और सफल भी हो जाता हूं तो उसके बाद क्या होगा? क्या विजय के कुछ क्षणों के उस उन्माद, हर्ष और आनंद के बाद जीवन में फिर वही रिक्तता नहीं आ जाएगी?

श्री कृष्ण ने समझाया, "योग और समत्व बुद्धि की पूर्णता लक्ष्य प्राप्ति का अतिक्रमण करने के बाद है जब एक साधक के रूप में तुम किसी अभीष्ट कार्य के परिणाम से भी ऊपर उठ जाओगे और तुम्हारी बुद्धि भांति -भांति के वचनों को सुनकर विचलित नहीं होगी और यह परमात्मा में अचल और स्थिर हो जाएगी। तब तुम स्थितप्रज्ञ हो जाओगे अर्जुन!"

अर्जुन ने पूछा, " हे प्रभु! अगर एक वाक्य में कहें तो इस स्थितप्रज्ञ की क्या पहचान है?"

श्रीकृष्ण ने समझाया, " स्थितप्रज्ञ वह है जिसने अपने मन में संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर दिया है, जो अपनी आत्मा में ही संतुष्ट है। जो सुखों की प्राप्ति में भी तटस्थ हैं और दुखों की प्राप्ति से उद्विग्न नहीं होता। जिसके राग- भय और क्रोध समाप्त हो गए हैं। ऐसा मनुष्य स्थिर बुद्धि है। स्थितप्रज्ञ है। "

अर्जुन सोचने लगे कि वासुदेव ने मन पर नियंत्रण की बात कही है। हमारा मन है कि यह इंद्रियों के विषयों के पीछे भागता है। गुरु द्रोणाचार्य पांडव राजकुमारों को ध्यान की विधियां बताया करते थे। वे एक प्राचीन सूक्त पर विशेष बल दिया करते थे:-

इस जीवात्मा को तुम रथी(रथ का स्वामी)समझो। शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी (रथ को हांकने वाला), और मन को लगाम जानो। 

मनीषियों अर्थात विवेकी पुरुषों ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है। इंद्रियों के विषय इन घोड़ों के विचरण के मार्ग हैं। इंद्रियों तथा मन से युक्त यह आत्मा शरीररूपी रथ का भोग करने वाला(संचालक)है।