Chirag ka Zahar - 6 in Hindi Detective stories by Ibne Safi books and stories PDF | चिराग का ज़हर - 6

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चिराग का ज़हर - 6

(6)

“सूर्य अस्त होते ही—और सूर्य उदय होने के आधा घन्टा बाद चले जाते हैं। विश्वास कीजिये श्रीमान जी ! हमारी आँखे एक मिनिट के लिये नहीं झपकती।"

"क्या प्रतिदिन रात में इसी प्रकार हंगामा होता है? ' विनोद ने पूछा।

"जी नहीं—जब कोई कोठी में घुसता हैं तब ही उत्पात मचता है। दस दिनो से हम यहीं देखते आ रहे हैं।"

"दिन में भी किसी को ड्युटी रहती है? विनोद ने पूछा। "हमें नहीं मालूम श्रीमान जी मगर मेरा विचार है कि दिन में डयुटी लगाई ही नहीं जाती ।"

नुरा के क्वार्टर का दरवाजा खुला हुआ था । एक हल्का सा पर्दा पड़ा हुआ था। विनोद ने पहले ही वाले सिपाही से पूछा । "इन दस दिनों में तुम लोगों ने कभी अन्दर झांक कर देखने की कोशिश की थी ?"

"अच्छा — मगर मैं देखना चाहता हूँ- विनोद ने कहा ।

"जी नहीं।"

उनमें इतना साहस नहीं था कि वह विनोद को मना कर देते मगर दोनों के चेहरे विकृत अवश्य हो गये थे ।

विनोद ने हमीद को संकेत किया और पर्दा हटा कर अन्दर दाखिल हो गया—कमरे के अन्दर नाइट बल्ब जल रहा था और मिस नूरा कम्बल ओढ़े बेखबर सो रही थी। उसका पूरा चेहरा ढका हुआ था- केवल उसके सुनहरे बाल तकिया पर पड़े हुये 'दिखाई दे रहे थे। कमरे की सफाई देखने योग्य थी । देखने वाला पहली ही नजर में नूरा की सादगी पसन्दी और उसकी कौशलता का समर्थक हुये बिना नहीं रह सकता था।

विनोद ने कम्बल की ओर हाथ बढ़ाया मगर हमीद ने संकेत द्वारा उसे मना करते हुये बहुत ही मन्द स्वर में कहा । "रहने दीजिये - सुबह मिल लिया जायेगा-

विनोद न जाने क्या सोच कर रुक भी गया और मुस्कुरा भी उठा । फिर उसने जेब से चाक निकाली और उकड़ बैठ कर चार पाई के नीचे फर्श पर एक वृत्त बनाया फिर उसे क्रास करके सीधा खड़ा हो गया और हमीद की ओर देखा जिसके होंठ भिंचे हुये थे और आंखे उस चित्र पर जमी हुई थीं जो मेज पर रखी हुई थी।

"आओ चलें- ” विनोद ने कहा और हमीद इस प्रकार चौंक पड़ा जैसे सोते में उसे जगाया गया हो। जब दोनों बाहर निकले तो दोनों सिपाहियों ने उन्हें विचित्र नजर से देखा फिर पहले वाले ने हिचकिचाते हुये कहा । "हमें यह आदेश मिला था कि रात में मिस नूरा की आज्ञा बिना कोई उनसे न मिले, मगर आपको बात दूसरी है-"

"यह आदेश किसने दिया था?" विनोद ने पूछा ।

"एस० पी० साहेब ने ।"

विनोद कुछ बोला नहीं— केवल मुस्कुरा कर रह गया, फिर हमीद को लिये हुये फाटक की ओर बड़ा। "मुझसे गाड़ी न चलाई जा सकेगी। ठण्ड के कारण हाथ पांव गले जा रहे हैं-" हमीद ने कहा ।

"चिन्ता मत करो मैं ड्राइव करूंगा।” विनोद ने कहा । और आपकी गाड़ी कौन चलायेगा ?"

"में टैक्सी से आया था प्यारे ! कुछ दूर पैदल भी चलना पड़ा था- " विनोद ने कहा फिर मुस्कुरा कर बोला, "तुम्हारी मुहब्बत में जा कुछ न करना पड़े कम है-।"

हमीद ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप उसके साथ चलता रहा। गाड़ी के निकट पहुँच कर जब हमीद पिछली सीट का दरवाजा खोलने लगा तो विनोद ने कहा। 'तुम सो जाओगे और फिर तुम्हें जगाने में काफी पापड़ बेलने पड़ेगे इसलिये मेरे साथ ही बैठो-"

'पापड़ बेलना औरतों का काम है और में यह किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता कि अपने लिये आपको औरतों का काम सौंपू-" हमीद ने कहा और अगली सीट का दरवाजा बोल कर अन्दर दाखिल हो गया—फिर सीट से पीठ टिका कर आंखें बन्द कर लीं ।

नींद के झकोरे आ रहे थे मगर इन झकोरों में भी उसे वह लड़की याद आ रही थी जो विनोद के कथानुसार उसे चरका दे गई थी। साथ वह तस्वीर भी उसके खयालों में बसी हुई थी जो उसने नूरा के क्वार्टर में देखी थी। वह तस्वीर उस लड़की से बहुत अधिक मिलती जुलती थी।

एक बार उसके मन में आया कि वह इस बात को विनोद से कहे—फिर यह सोच कर टाल गया कि सवेरे जब विनोद नूरा से मिलने आयेगा तब वह उसका उल्लेख करेगा । घर पहुँचते ही जूतों सहित हमीद, रजाई में घुस गया और जब संवेरे जागा तो कमरे धूप भर चुकी थी। उसने घड़ी की ओर देखा। दस बज रहे थे। गाउन पहने ही वह बाथ रूम में घुस गया और जब बाहर निकला तो थकावट और आलस्य भी दूर हो चुका था और भूख भी चमक उठी थी ।

नौकर ने बताया कि विनोद नाश्ते की मेज पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है इसलिये वह झपटता हुआ डाइनिंग हाल की ओर बढ़ा। विनोद ने उसे देखते ही मुस्कुरा कर कहा ।

"बहुत जंच रहे हो-"

"अगर आपकी जगह यह बात किसी लड़की ने कही होती तो मैंने उसका मुँह चूम लिया होता..." हमीद ने कहा और कुर्सी घसीट कर बैठ गया।

नाश्ता करते करते अचानक उसे कुछ याद आ गया। उसने विनोद की ओर देखा और बोला।

"रात आप नीलम हाउस किस प्रकार पहुँचे थे— विकार के बहाने तो आपने मेरा दिवाला निकाल दिया ।" "प्रोग्राम तो यही था कि झील के किनारे शिकार भी खेलेंगे और देखेगे भी...।”

‘जैसे पेड़-गिलहरी — भालू और चिड़ियाँ...." हमीद ने बात काट कर कहा.... " जिन्हें मैंने कभी देखा नहीं था।"

"यह सारी वस्तुयें तो तुम देखते - मुझे तो एक आदमी से मिलना था।"

"सच बोलिये कर्नल साहब ?" हमीद ने चुभते हुये स्वर में कहा झील के किनारे महबूबा से मिला जाता है—किसी आदमी से नहीं-।"

"तुम्हारे लिये तो वह महबूवा ही साबित होता-" विनोद ने मुस्कुरा कर कहा "इसलिये कि उसके केश सुनहरे है और आंखें नीली तथा झील के समान बड़ी और गहरी ।"

"वाह वाह-।",

"और उसको आयु पचास और साठ के मध्य है। चेहरे पर भूरी डाढी भी है और वह एक अच्छा शिकारी भी है--और सब से खास बात यह कि वह फरामुज जी का साथी भी ...।"

"बस बस-"

"हमीद ने हाथ उठा कर कहा...." तोबा तोबा - आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया ।

"उसी से मिलने के लिये मैंने झील की ओर यात्रा की थी-" विनोद ने कहा। उसके अधरों पर मुस्कान थी “इसलिये कि आम तौर से वह शिकारगाह में सरलता से मिल पाता है। नगर में उससे मिलना कठिन हो होता है। मगर जब यह मालूम हुआ कि वह वहाँ नहीं जायेगा और एक नई स्थिति उत्पन्न हो गई है तो मैंने झील से जङ्गल की ओर जाने का इरादा छोड़ दिया था।"

"नई स्थिति से आपका क्या ध्येय है।" हमीद ने पूछा ।

"इन्स्पेक्टर आसिफ की हत्या।"

हमीद उछल पड़ा और इस प्रकार विनोद को देखने लगा जैसे वह सचमुच परोक्ष ज्ञानी हो फिर बोला ।

"आसिफ को कौन कत्ल करना चाहता था और यह सूचना आप को मिली कैसे थी ?"

"कल तो वही लोग करना चाहते थे जिनकी तलाश में हमने लन्दन और न्यूयार्क की यात्रा की थी रह गया सूचना का प्रश्न तो यह न पूछो तो अच्छा।

"सवाल यह है कि आखिर बूढ़े चचा आसिफ ने उनका क्या बिगाड़ा था जो वह उन्हें कत्ल करना चाहते थे ?"

"कुछ नहीं-” विनोद ने कहा "उन्हें तो बस पुलिस के एक आदमी को कत्ल करना था— आसिफ की जगह अमर सिंह भी हो सकता था- और अगर मैंने तुमको न रोका होता तो तुम भी हो सकते थे।"

"क्या वह कमरा इतना ही खतरनाक है--?

"थोड़ी देर बाद चलेंगे - अपनी आंखों से देख लेना-" विनोद ने कहा "अगर मुझे वहाँ पहुँचने में जरा सी भी देर हो गई होती तो आसिफ और अमर सिंह में से एक अवश्य खत्म हो गया होता-"

"हुआ क्या था ?" हमीद ने पूछा ।

"हुआ यह था कि अमर सिंह ने आसिफ को तान दिया था और - आसिफ ने अभी तक अपनी कायरता के कारण बुद्धिमानी का एक काम यह किया था कि उस कमरे में दाखिल होने का साहस उसने नहीं किया था और न उन घटनाओं पर गम्भीरता से विचार ही किया था- हालांकि दिलचस्पी के लिये यही बहुत काफी था कि उस कमरे का दरवाजा बाहर से बन्द रहने के बाद भी अन्दर विजली जल भी जाया करती थी और सवेरा होने पर बुझ भी जाया करती थी । कुंजी आसिफ ही की तहवील में रहती थी— इसलिये यह भी नहीं सोचा जा सकता था कि कोई आदमी गुप्त रूप से कमरे के अन्दर जा कर बिजली जलाता और बुझाता है।"

विनोद रुक कर सिगार सुलगाने लगा-फिर बोला । "नीलम हाउस में दाखिल होने के बाद भी आसिफ लापरवाही से मामले को टालने की कोशिश करता रहा मगर अमर सिंह ने उस घटना की तहकीकात के लिये विवश कर दिया था—फल स्वरूप वह उसे खत्म करने जा रहे थे और आसिफ जो विवश होकर बीच में आ गया था मुफ्त मारा जाता । बहर हाल मुझे तो नीलम हाउस को बेक करना ही था। जब वह शिकारी मुझे नहीं मिला और यह भी मालूम हुआ कि यह केस आसिफ को सौंपा गया हैं और अमर सिंह इत्यादि उससे तफरीह ले रहे हैं तो मैं नीलम हाउस के लिये रवाना हो गया था। नीलम हाउस में दाखिल होने के बाद मैं डाइनिंग हाल से मिले हुये दाहिनी ओर वाले कमर में छिप गया था। इसका प्रश्न ही नहीं था कि कोई मुझे देख सके इसलिये कि वैसे भी डर के कारण पुलिस के सिपाही कोठी से दूर ही रहते हैं । यह लगभग एक बजे की बात है ।"

"तो फिर सात बजे से एक बजे तक आप कहां रहे ?" हमीद ने पूछा।

"इस केस से सम्बन्धित तमाम लोगों को चेक करता रहा था।" हमीद समझ गया कि विनोद बताना नहीं चाहता, इसलिये उसने कहा।

"हाँ तो फिर क्या हुआ था ?"

"लगभग दो बजे एक दम से सारी रोशनियां बुझ गई और नीलम हाउस में गहरा अन्धेरा छा गया। फिर यह कहने में में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं महसूस करूंगा। हमीद साहब कि उसके बाद जो कुछ मैंने देखा था उससे मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। मेरे स्थान पर यदि कोई दूसरा रहा होता तो अवश्य चेतना खो बैठा होता । मैंने ऐसे सैकड़ों दृश्य देखे हैं हमीद साहब जिसमें कोई ऐसा आदमी चलता फिरता नजर आया था जिसे मुर्दा समझ लिया गया था मगर उस अन्धकार में जिस प्रकार वह चिराग अचानक उभरा था और जिस प्रकार वह लोग चल फिर रहे थे वह मेरे लिये बिल्कुल ही नवीन वस्तु थी। मुझे ऐसा हो लगा था जैसे मैं सहस्त्रों वर्ष पहले की दुनिया में पहुँच गया हूँ- और फिर वह हाथ---ओह----उतना भयंकर हाथ भी मैंने जीवन में कभी नहीं देखा था। उसकी लम्बाई से कहीं बहुत अधिक भयंकर उसकी सफेदी थी और उस सफेदी से भी अधिक वह भयंकर बाल थे जो काँटों के समान अलग हाथ के ऊपर नजर आ रहे थे।"

"यह आप कह रहे हैं-" हमीद ने व्यंग भरे स्वर में कहा ।

"मजाक मत उड़ाओ मैं भी आदमा ही हूँ...." विनोद ने गम्भीरता के साथ कहा 'सुन्दर वस्तुयें मुझे भी सुन्दर लगती हैं और घृणित वस्तुयें मुझे भी घृणित लगती हैं, बहरहाल वह हाथ मैंने बढ़ते हुये देखा और निकट था कि आसिफ और अमर सिंह का गला घोंट दिया जाये कि मैंने अपने स्थान से छलांग लगाई। प्रकट है कि फायर करना भी बेकार था और उलझना भी बेकार था— केवल एक हो मार्ग था और मैंने वही मार्ग अपनाया अर्थात मैंने आसिफ और अमर सिंह दोनों को पकड़कर पीछे की ओर घसीटा और घसीटता ही चला गया था।"

"उन दोनों में कोई बेहोश नहीं हुआ था ?" हमीद ने पूछा ।

“तुम उन्हें बेहोश ही समझ सकते हो..." विनोद बोला “दोनों की आँखें खुली हुई थी मगर उनके चेहरे बता रहे थे कि उनके दिमाग काम नहीं कर रहे हैं। "

" फिर वह हाथ आगे नहीं बढ़ा था?" हमीद ने पूछा। "मैंने उस आदमी को सम्बोधित किया था जिसका वह हाथ था और जो दरवाजे पर खड़ा था और जिसका चेहरा फरामुज जी से मिलता जुलता था ।"

"आपने क्या कहा था?"

"मैंने कहा था कि तुम पहचान लिये गये हो—' विनोद ने कहा " और उसी के बाद मैंने यह भी महसूस किया था कि कमरे के बाहर निकलने का साहस उसमें नहीं है। उन लोगों का सारा तमाशा बस उसी कमरे तक है। हाथ फौरन ही वापस हो गया और जब सिपाही अन्दर आ गये तो मैं फिर छिप गया- तुम्हें यह सुनकर आश्चर्य होगा कि इतनी ही देर में वह चिराग, सारी परछाइयाँ और वह भयानक शक्लें गायब हो चुकी थीं। मुझे विश्वास है कि सिपाहियों ने कुछ भी नहीं देखा था।"