Shakunpankhi - 41 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 41 - क्या होगा गिरधारी ?

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शाकुनपाॅंखी - 41 - क्या होगा गिरधारी ?

60. क्या होगा गिरधारी ?

उत्तर भारत में शहाबुद्दीन की सेनाएँ अपना आधिपत्य जमाने में लगी थीं। चाहमान, गहड़वाल और चन्देल तीन बड़ी शक्तियाँ यद्यपि तुर्कों से पराजित हो गईं पर किसी ने मन से इस हार को स्वीकार नहीं किया। जैसे ही अवसर मिलता विद्रोही आक्रमण कर दुर्गों को अपने कब्जे में कर लेते। चाहमान बार बार विद्रोह करते रहे । यही स्थिति गहड़वाल, चन्देल एवं परिहारों की थी। चंदावर के युद्ध में गहड़वालों की पराजय के बाद भी कान्य कुब्ज के विशाल राज्य पर तुर्की का कब्जा नहीं हो सका। तुर्क सेनाएँ लूट पाट करतीं पर विद्रोही भी घात लगाकर आक्रमण करते और अपने क्षेत्र का कुछ अंश अपने अधिकार में कर लेते। जयचन्द्र पुत्र हरिश्चन्द्र भी अपनी उपस्थिति का एहसास कराता रहा। काशी के अधिकांश भूभाग को वह अपने अधिकार में किए रहा। कुतुबुद्दीन और उनके सेनानायकों को निरन्तर भागना पड़ता। एक जगह स्थिति नियन्त्रण में आती तो दूसरी जगह विद्रोह हो जाता। गोपाद्रि को भी परिहारों ने पुनः अपने अधिकार में कर लिया। जिस दिन त्रैलोक्य वर्मन ने कालिंजराधिपति की उपाधि धारण की, चंचुक महाराज के सामने उपस्थित हुआ । अपना परिचय दिया। उर्त्तीण होने पर उसे गुप्तचर बना दिया गया। वह निरन्तर सूचनाओं की खोज में रहता। चाहमान के साथ वह रह चुका था। अब चन्देल महाराज के साथ जुड़ गया। तुर्क सेनाओं की गतिविधि का पता करना उसका मुख्य काम था। उसे लम्बे अभियानों पर भेजा जाता। पुरुषपुर, अजयमेरु, दिल्लिका, बयाना, गोपाद्रि से सूचनाएँ निकालकर लाता। महाराज प्रसन्न हो उठते। राजमाता मृणालदे का भी वह प्रिय बन गया।
कालिंजर हाथ में आ जाने पर राजमाता ने एक दिन चंचुक से कहा, 'कारु का पता लगाओ। उसे कोई कष्ट तो नहीं है।' कारु का पता लेकर चंचुक चल पड़ा। दो प्रहर की यात्रा के बाद चंचुक को कारू का गाँव दिखा। वह प्रसन्न हो उठा । कालिन्दी तट पर बसा छोटा सा गाँव । किलोल करते बच्चे। एक बच्चे से उसने पूछा। बालक चंचुक के आगे आगे चल पड़ा। मिट्टी की दीवारों पर बनी फूस की कुटिया के सामने वह रुका। चंचुक घोड़े से उतर पड़ा। 'माई', कोई हल चल नहीं हुई तो उसने दुबारा कहा, 'माई'। फट्टे का दरवाजा धीरे से खुला । कारु बाहर निकली। स्वच्छ वस्त्रों में जैसे पूजा करके निकली हो । बालक के साथ ही चंचुक ने भी प्रणाम किया । कारु कुछ देर तक चंचुक को देखकर असमंजस में पड़ गई। दोनों को लग रहा था कि कहीं देखा है । 'तुम्हें कहीं देखा है?"
कारु के मुख से निकला।
“मैं चाहमान की गुप्तचर सेवा में..... चंचुक के मुख से निकलते ही, 'तो तुम चंचुक तो नहीं हो?" कारु कह पड़ी। 'आपका अनुमान सत्य है, मैं चंचुक ही हूँ', चंचुक का चेहरा उत्साह से दमक उठा।
कारू सरकंडे का बना दो मोढ़ा निकाल लाई द्वार पर पाकड़ का पेड़ था, उसी के नीचे रखा। चंचुक को बैठने के लिए कहा और बालक के साथ कुटी के अन्दर चली गई। एक काठ के कशोरे में छाछ लेकर आई। बालक लोटे में पानी ले आया । चंचुक ने हाथ मुँह धोकर कशोरे को ले लिया। धीरे धीरे छाछ पीता रहा। दूसरे मोढ़े पर कारु बैठ गई। ‘कारु' यह नाम सुना हुआ था पर बदले हुए परिवेश में वह चाहमान नर्तकी से जोड़ नहीं पा रहा था। पर कारु की वाणी से उसने पहचाना। 'आप चाहमान राज्य की ....।' 'हाँ, मैं चाहमान राज की कारु ही हूँ।' कारु की खंजन सी आँखें बहुत कुछ कह गई।
'कितना कुछ बदल गया चंचुक', कारु की आँखें भर आईं। 'आपसे क्या छिपा है? अब तो सूर्य भगवान को अर्घ्य देते भी इधर-उधर देखना पड़ता है।' चंचुक की वेदना शब्दों में उतर आई। मैं इस समय चंदेल महाराज त्रैलोक्य वर्मन की गोपनीय सेवा में नियुक्त हूँ । राजमाता ने आपका कुशल क्षेम पूछा है। कालिंजर पुनः महाराज के अधिकार में आ गया है। उन्हें कालिंजराधिपति की उपाधि से विभूषित किया गया है।' 'राजमाता राजकार्यों में भी अत्यन्त दक्ष हैं, उनकी कृपा बनी रहे। कारु का मुख मण्डल दमक उठा। 'अब तो वंशीधर की अर्चना में ही अधिक समय लग जाता है। जिससे हम लोग जुड़े उसी की पराजय....चाहमान.........गहड़वाल........चन्देल.......। महाराज त्रैलोक्य वर्मन 'कालिंजराधिपति' बन गए हैं, पर कब तक वे इसे अपने अधिकार में रख पाएँगे? मैं कभी कभी वंशीधर की मुस्कराती मुद्रा से पूछती हूँ, 'क्या होगा गिरधारी ?"
‘अलग अलग विद्रोह हो रहे हैं। तुर्क भी कम व्यथित नहीं है पर उनका केन्द्रीय सैन्य बल हर जगह सहायता के लिए पहुँच जाता है। यह तो कहो ककरादह में केन्द्रीय बल नहीं पहुँच पाया। तुर्कों की पराजय हुई। समय पाकर वे पुनः प्रयास करेंगे ही। पर चन्देल महाराज को इस समय कोलों, भीलों, शबरों का सबल समर्थन प्राप्त हैं। वे शरण भी देते हैं और युद्ध में भी बढ़कर हिस्सा लेते हैं। यदि भारतीयों का भी कोई केन्द्रीय बल बन पाता.....।' चंचुक की चिन्ता शब्दों में उतरती रही।
कारु और चंचुक के बीच शब्दों, संकेतों, भावों का आदान प्रदान होता रहा। कारु ने जल्दी से बाजरे की रोटी सेंकी। आलू बैगन का भर्त्ता बनाया। चंचुक खाकर चलने को हुआ तो कारु ने राजमाता के लिए स्वयं का बनाया वंशीधर कृष्ण का एक चित्र दिया । मनोहरी चित्र को चंचुक देर तक देखता रह गया। आप चित्रकला में भी......? चंचुक की जिज्ञासु दृष्टि कारु के मुख मण्डल पर टिक गई।
'सीखा और देखा बहुत कुछ। अब तो गिरधर नागर को ही देखना चाहती हूँ।' कारु की आँखें बरस उठीं। चंचुक भी दुःखी मन से प्रणाम कर चल पड़ा।





61. कातिल कौन है?

झेलम के तट पर गोरी की सेनाएँ अपना डेरा डाल चुकी हैं। मुल्तान में ऐबक बक को बन्दी बना लिया गया है। कुतुबुद्दीन ने अपनी सेना के साथ चिनाब को पार किया। इल्तुमिश भी बदायूँ से अपनी सेना के साथ आ गया। तीनों सैन्य दलों के मिलने से शहाबुद्दीन गोरी प्रसन्न हुआ। उसने सचेत किया था। कुतुबुद्दीन खोख्खरों के खिलाफ स्वयं कोई पहल नहीं करेगा। सुल्तान के शिविर में गोरी, कुतुबुद्दीन और इल्तुतमिश में विमर्श शुरु हुआ। 'अलीमर्दान बख्तियार की हत्या कर स्वयं शासक बन गया है।' कुतुबुद्दीन ने बताया। 'असम की हार से उनका मनोबल टूट गया था। किसी प्रकार अपने सौ सैनिकों के साथ वह लौट सका। सभी मौत के मुँह से लौटे थे। उसके बाद तो बख्तियार देवकोट से बाहर नहीं निकला। बीमार रहने लगा था वह अलीमर्दान ने मौका देखकर उसका काम तमाम कर दिया।' गोरी को अन्दखुद स्मरण हो आया। वह भी तो हारकर किसी तरह लौट सका। बख्तियार हताश हो घर के अन्दर कैद हो गया पर गोरी हार कर भी जीतने का मंसूबा बनाता है। 'खोख्खरों के खिलाफ जंग की नुमाइन्दगी करने दें। आप डेरे में आराम करें।' कुतुबुद्दीन ने कहा । इल्तुमिश ने भी समर्थन किया । 'तुम लोग मुझे महफूज देखना चाहते हो। यह तुम्हारी मुहब्बत है। मैं इसकी कद्र करता हूँ। मुझे तुम पर पूरा यकीन है, पर सोचो गर मैं मैदान में न उतरा तो लोग क्या सोचेंगे? लोग कहेंगे कि सुल्तान डर गया है और यह बात मुझे तीर से भी ज्यादा चुभेगी। हम लोग साथ मिलकर इस जंग में कामयाबी हासिल करेंगे। कल फज़िर की नमाज़ हम मैदाने जंग में पढ़ेंगे।'
'आपके हुक्म की तामील होगी, जहाँपनाह । आप पुरसुकूं रहें। हम पूरी ताकत से दुश्मन पर हमला करेंगे।'
दूसरे दिन फज़िर के वक़्त 'या खुदा' 'अल्लाहो अकबर' की आवाज़ों के साथ सेना निकल पड़ी। खोख्खर भी असावधान न थे। वे भी आगे बढ़े। भयंकर युद्ध शुरू हो गया। लोथों से मैदान पटने लगा। झेलम का पानी लाल हो उठा। सैनिक घोड़ों को नचाते हुए आगे बढ़ते ।
‌ जाड़े का समय था । सैनिक दिन में युद्ध करते, रात में अलाव तापते, घायलों की सेवा करते। पूजा, अर्चना, भोजन, नींद सब के लिए रात का ही समय था । दिन तो रक्त होलिका के लिए ही काफी नहीं होता। चारण विरुद बखानते । अश्वारोही अस्त्र, शस्त्रों से खेलते । युद्ध का मैदान सैनिकों की शक्ति एवं कुशलता का परीक्षण करता। कच्ची उम्र के लड़के ऐसी कला दिखाते कि बड़े बड़े योद्धा देखते रह जाते । सुल्तान की सेना अधिक थी पर खोख्खर भी पीछे न हटते। क्रमशः खोख्खर की शक्ति घटी। लाखों खोख्खर बलिदान हो गए पर उनका शीश नहीं झुका। तुर्क सेनाएँ बढ़ती गई। गांव के गांव जला दिए गए। बूढ़े, बच्चे, स्त्रियाँ जो भी मिले, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। सैनिक चिल्लाकर कहते, 'एक भी खोख्खर बचना नहीं चाहिए।' जहाँ कहीं नवयुवक पकड़ में आ जाते पंक्तिबद्ध खड़ा करके इस्लाम कबूल कराने की कोशिश होती । हामी न भरने पर उन्हें कत्ल कर दिया जाता। गांवों में कोई चिराग़ जलाने वाला न बचा।
खोख्खरों के सरदार का एक पुत्र युद्ध के मैदान से नदी में कूदकर अपने कुछ साथियों के साथ जूड की पहाड़ियों की ओर बढ़ गया। सुल्तान नहीं चाहते थे कि कोई भी विद्रोही बच रहे। उनके निर्देश पर दूसरे दिन पहाड़ी को घेर लिया गया । सरदार पुत्र के साथ सैनिकों का दल पहाड़ी से उतरा युद्ध पुनः रंग पकड़ गया। पर विद्रोही एक बड़ी सेना के सामने कब तक टिकते? रक्त बहाकर भी वे अपनी अस्मिता नहीं बचा सके। खोख्खरों को परास्त कर सुल्तान की सेनाएँ लाहोर की ओर बढ़ गईं। लाहोर कब्ज़ा करने में अधिक समय नहीं लगा। सुल्तान की हँसी लौटी। उन्होंने कुतुबुद्दीन को सम्मानित करने की इच्छा व्यक्त की। कार्यकर्त्ता आयोजन में लग गए।
एक बड़ा सा पंडाल सजाया गया। सुल्तान ने अपना दरबार लगाया । सेना के अधिकारियों, अमीरों के बीच सुल्तान ने कुतुबुद्दीन को 'मलिक' की उपाधि प्रदान की तथा उसे भारत में अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। पूरा पंडाल तालियों से गड़गड़ा उठा। कुतुबुद्दीन ने शिर झुकाकर इस सम्मान को स्वीकार किया ।
दूसरे दिन कुतुबुद्दीन और इल्तुमिश अपने गन्तव्य की ओर रवाना हो गए। शीत ऋतु खोख्खरों से युद्ध करते ही बीत गई। फगुनहट अपना तेवर दिखा चुकी थी । हवाएँ ऊष्ण होने लगीं। हवा चलने पर गुलाबी ठंडक हो जाती। जब कभी हवा बन्द होती परिवेश गर्म हो जाता । लाहोर की व्यवस्था बनाकर गोरी ने ग़ज़नी के लिए प्रस्थान किया। झेलम के तट पर पड़ाव डाला। झेलम के पश्चिम नीलब के तट पर शिविर लगा। हवा बन्द थी। सुल्तान को गर्मी लग रही थी। उनके कहने पर शिविर के परदे उठा दिए गए थे जिससे स्वच्छ हवा शिविर में प्रवेश कर सके। सोन जूही और चमेली से वातावरण महक उठा। बहुत दूर से एक टीले पर चढ़कर कुछ लोगों ने शिविर के अन्दर का जायज़ा लिया। कानों में कुछ बातें भी की। फिर चुपचाप झाड़ियों और टीलों के बीच छिप गए। शाह के शिविर में यथावत काम चलता रहा।
रात हुई। सुल्तान सो गए। दास शाह के लिए पंखा झल रहे थे और दो प्रहरी शिविर की रक्षा कर रहे थे। चुपके से तुर्की सैनिक वेष में बीस लोग शिविर में घुसे । पहला प्रहरी जैसे ही बढ़ा, उसे कटार भोंक दी।
वह वहीं ढेर हो गया। आवाज़ सुनकर दूसरा प्रहरी जब तक बढ़े, कुछ उस पर टूट पड़े और कुछ शिविर के अन्दर घुस गए। पंखा झलने वाले दास काँप उठे । उन्हें पकड़ कर, शाह के शरीर को कटारों से छलनी कर दिया गया। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। शरीर को हिला डुला कर देखा । जब आश्वस्त हो गए, शिविर से भाग निकले।
इस्माइली और खोख्खरों ने मिलकर यह योजना बनाई थी। वे प्राण हथेली पर रखकर शिविर में घुसे थे। उन्हें लग रहा था कि उनके क़ौम की प्रताड़ना का बदला उन्होंने ले लिया है। इस्माइली और खोख्खरों दोनों पर सुल्तान की सेना ने कहर बरपा दिया था।
दूसरे प्रहरी जब शिविर के निकट पहुँचे, प्रहरियों की लाशें देखकर चौंक पड़े। अन्दर घुसे तो सेवकों की लाशें पड़ी मिलीं। शाह के शरीर पर घाव के निशान देख वे भागकर सेनाध्यक्ष के पास पहुँचे। सेनाध्यक्ष ने आकर देखा । सैन्य अधिकारी दौड़ पड़े। यह क्या हो गया? शाह की हत्या ! कोई कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं । खुसुर-फुसुर में ही ख़बर पूरे सैन्य शिविर में गूँज उठी। शाह की हत्या ! इतनी सशक्त सेना के होते !! आश्चर्य! घोर आश्चर्य! सभी एक दूसरे से पूछते पर कोई कुछ भी बताने में असमर्थ । जो बता सकते थे उनकी लाशें पड़ी थीं। शाह के घावों को गिना गया। कुल बाईस। सेनाध्यक्ष ने कुशल सैनिकों से पता करने के लिए कहा । 'कैसे हो गया यह सब? कातिल कौन है? उसे पकड़ो।' कहते हुए सेनाध्यक्ष हाँफने लगे।