Shakunpankhi - 5 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | शाकुनपाॅंखी - 5 - शाकुनपाँखी नहीं हूँ मैं

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

Categories
Share

शाकुनपाॅंखी - 5 - शाकुनपाँखी नहीं हूँ मैं

7. शाकुनपाँखी नहीं हूँ मैं

'महाराज की दृष्टि बचाकर कार्य करना कितना दुष्कर है?' महिषी शुभा टहलती हुई सोच रही हैं। अलिन्द के सामने पाटल पुष्प एक दूसरे को धकिया रहे हैं । 'फूलों की तरह सूचनाओं में गन्ध होती है क्या? सूचनाओं के लिए गुप्तचर न जाने किन वेषों एवं कठिनाइयों के बीच कार्य करते हैं?' वे एक पुष्प तोड़ती रह गईं। महिषी का सौन्दर्य चर्चा में रहता ही था, अब संयुक्ता की चर्चा अपनी पेंगें बढ़ा रही है । गली- वीथिकाओं में लोग माँ-बेटी के सौन्दर्य की गर्मागरम किंवदन्तियाँ परोसते । अकलुष सौन्दर्य की अबूझ पहेलियाँ कही जातीं । उपमाओं की कमी न थी पर विरुद बखानने वालों को हमेशा टोटा ही लगा रहता । अनुपम सौन्दर्य की सूचना से किसी का हृदय धुकधुक करने लगता तो किसी का मुख मण्डल प्रदीप्त हो उठता । यही किंवदन्तियाँ किसी की जीविका का सहारा बन जातीं। प्रशस्तिगान में यही लोग अत्युक्तियों का सहारा ले विविध प्रकार के बिम्ब रचते । जनमानस उन्हें सुनकर आनन्द विभोर हो उठता । रसज्ञ माधुर्य का पान करते ।
'माँ, आपने बुलाया ?” संयुक्ता माँ के सम्मुख आकर खड़ी हो गई।
'हाँ', माँ ने मुस्कराते हुए बेटी की आँखों में झाँका ।
'क्या कोई विशेष प्रयोजन?"
'हाँ, विशेष प्रयोजन न होता तो तुम्हारे मनोविनोद में बाधा न देती ।' कहकर माँ बेटी के मुखमण्डल पर दृष्टि टिका ही रही थी कि बेटी आँखें बन्द कर मुस्करा उठी जैसे आँखों में उगे बिम्ब को बचाना चाहती हो। महिषी दक्ष कलाकार थीं। बेटी की भंगिमाओं को पढ़ने में कुशल । बन्द आँखों के भीतर का बिम्ब वे बाँच चुकी थीं। 'आर्या से ज्ञात हुआ कि तू शाकम्भरी नरेश में अधिक रुचि ले रही है ।'
"क्या उनमें रुचि लेना अपराध है माँ?'
'नहीं, अपराध नहीं पर चाहमान नरेश यज्ञ में नहीं आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि कान्यकुब्जेश्वर अपनी धाक जमाने के लिए यज्ञ कर रहे हैं, इसलिए ..... ।'
'कोई स्वाभिमानी नरेश किंचित् दबना नहीं चाहता।'
'संकट यही है, जो अप्राप्य है उसमें रुचि लेना ठीक नहीं है, बेटी ।' "यह आप कह रही हैं माँ... जिसने साधारण परिवार में जन्म लेकर राजगृह में प्रवेश किया। 'कलाभारती' की उपाधि से विभूषित हुईं।'
'इसीलिए दूरस्थ लक्ष्य को प्राप्त करने में आने वाली बाधाओं का भान है मुझे । सत्ता शिखरों पर होने वाले कुचक्रों को भी अनुभव करती हूँ । सोचती हूँ वे बाधाएँ तेरे जीवन का अंग न बनें ।'
'किसके जीवन में क्या घट जाएगा? इसे कौन जानता है, माँ? महाराज जनक ने वैदेही का हाथ सौंपते क्या सोचा था कि वन ही उनकी आश्रयस्थली बनेगी? किसने अनुमान किया था कि एकवस्त्रा पांचाली को भरी सभा में निर्वसन करने का प्रयास किया जाएगा? उसे सैरन्ध्री के रूप में अज्ञातवास करना पड़ेगा? भविष्य को शाकुनपाँखी की भाँति कूपों में बन्द नहीं रखा जा सकता, माँ माँ.... क्या तुम्हें लगता है कि मैं अकाम्य की कामना कर रही हूँ?"
'महाराज शाकम्भरी नरेश को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझ रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके ही कारण कान्यकुब्ज का प्रभाव घटा है।'
‘सत्ता केन्द्रों का महत्त्व क्या सापेक्ष नहीं है माँ ? पिता श्री के पीछे पीछे दुम दबाकर भागने वाले ही क्या रह गए हैं जयमाल डालने के लिए?"
'तू सोच ले, बेटी। डगर कठिन है।'
'सोच लिया है, माँ । '
'महाराज कभी नहीं चाहेंगे। पिता श्री के न चाहने पर भी क्या ?"
'रुक्मिणी के घर वालों ने भी नहीं चाहा था। क्या कृष्ण के साथ उनका विवाह नहीं हुआ?"
'हुआ, पर इसके लिए प्रयास कृष्ण ने भी किया था। तेरी यह प्रीति एक पक्षीय न हो।'
'मेरी अन्तरात्मा कहती है कि एकपक्षीय नहीं होगी। महाराज शाकम्भरी नरेश का हृदय पाषाण का नहीं बना है, माँ। वे भी मानव हैं। प्रीति का प्रतिदान...... ।'
पर तू अपने मन को टटोल ले ।'
‘माँ, यदि प्राण भी अर्पित करना पड़े तब भी मुझे विचलित नहीं होना है।'
'महाराज यदि पूछें तो......।'
"उन्हें भी अपना संकल्प बताऊँगी। वे भी पिता हैं, माँ ।'
'पर वे एक शासक भी हैं। शासक निर्मम भी हो सकता है।'
'देखा जाएगा माँ, आपका आशीष साथ है न ।'
'आशीष ही पर्याप्त नहीं होता। संकल्प की दृढ़ता के साथ ही कर्म की भी आवश्यकता होती है।'
'क्या आपको मेरे संकल्प पर संशय है माँ? क्या मैं इतनी अबोध हूँ कि मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता? क्या एक बालिका की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं है, माँ? आपने मुझे जन्म दिया है। आप ही मुझ पर विश्वास नहीं कर पा रहीं हैं, दूसरे कैसे विश्वास करेंगे, माँ?"
'प्रश्न विश्वास का ही नहीं है बेटी। जो भी निर्णय लिया जाए उसके सफल क्रियान्वयन का है।'
'पिताश्री आप की सम्मति का मान रखते हैं माँ ।'
‘पर इस प्रकरण से उनके अहं को चोट लगेगी। तब वे चोटिल सहस्रफण की भाँति कुछ भी कर सकते हैं। उस समय किसी के विमर्श का कोई मूल्य नहीं होगा। हर ओर फुफकारता अहं ही दिखेगा।'
'पर आपका वरदहस्त..... '
'उसकी भी सीमाएँ हैं बेटी। महाराज के विश्वास के विरुद्ध उठ पाना मेरे लिए भी संभव नहीं होगा।'
'तब मुझे ही अपना मार्ग बनाना होगा। "
'मार्ग बनाना ही नहीं । उस पर स्वयं ही चलना भी होगा। सम्पूर्ण कान्यकुब्ज एक स्वर से हुंकार कर उठेगा।'
'मेरे लिए किसी के मन में सहानुभूति का एक कण भी नहीं होगा.....?"
'सहानुभूति रखने वाले भी मन ही मन आशीष दे सकेंगे। इससे अधिक कुछ नहीं.......I
'पर क्यों माँ? क्यों? क्या मैं किसी से स्नेह भी नहीं कर सकती ?"
'कर सकती हो, पर एक निश्चित घेरे में। घेरे से बाहर नहीं। बाहर जाने पर विरोध झेलना ही पड़ता है । समाज एक मर्यादा रेखा खींचता है । उसी के अन्दर हम स्वतंत्र हैं।'
'फिर स्वयंवर का अर्थ ?"
'उसका अर्थ उपस्थित अभ्यर्थियों तक ही सीमित हो जाता है, बेटी । जो अनुपस्थित है या जिसे आमंत्रित ही नहीं किया गया है वह उस परिधि से परे है ।'
‘माँ, शाकुन पाँखी नहीं हूँ मैं।....मेरे मन में जो मूर्ति बसी है उसे विस्थापित कर दूसरे को बिठाना सम्भव नहीं होगा।'
'किन्तु......?'
'अब किन्तु परन्तु का प्रश्न नहीं रह गया है माँ।' 'मैं चाहती हूँ कि तू इस पर विचार विमर्श कर ले।'
'अब मैं अबोध बालिका नहीं हूँ माँ।'
'पर सम्भावित कठिनाइयों का तुझे भान नहीं है।'
'अब तो ओखली में सिर दे ही दिया है माँ.....।' संयुक्ता माँ से लिपट गई। माँ की आँखें भर आईं। उनकी उँगलियाँ थपथपाकर बेटी को आश्वस्त करती रहीं । क्षण बीतते रहे।

8. रेखांकन

संयुक्ता चित्रशाला में आँखें बन्द किए बैठी है। उसके हाथ में तूलिका है। धीरे-धीरे उसके मुख मण्डल पर सहज स्मिति का भाव उभरता है । अन्दर की चहक जैसे फूटी पड़ रही हो। आँखें खुलीं। उसके हाथ की तूलिका चलने लगी । चित्र बनता रहा..... आँखें खुलतीं और बन्द होतीं । प्रदीप्त मुखमण्डल और प्रदीप्त होता गया बालारुण की भाँति । कारू रंग लेकर आ रही थी। उसने राजपुत्री को चित्र बनाते देखा । वह पीछे ही ठिठक कर खड़ी हो बनते चित्र को देखती रही। वह चकित हो उठी। बनता हुआ चित्र शाकम्भरी नरेश का है। कल्पना से बनाया गया चित्र भी कितना सटीक बन रहा है। राजपुत्री डूब कर चित्र बना रही हैं। आँखें बन्द हैं। संभवतः सम्पूर्ण रेखांकन का बिम्ब मन में बिठा रही हैं।
झरोखे से कपोत कपोती की गूँ-गूँ एवं पंखों की फड़फड़ाहट से राजपुत्री की आँखें खुल गईं। हाथ रुका । दृष्टि झरोखे पर टिक गई। कारु की भी दृष्टि उठी। स्नेह का आदान-प्रदान करते युगल ने राजपुत्री में विद्युद्धारा दौड़ा दी। आँखों ने कुछ पढ़ा। रसधार में विमुग्ध मन उड़ चला। मन की उड़ान बन्धनों को कहाँ स्वीकार कर पाती है? दिल्लिका की मिहिर पल्ली, यमुना तट, अजय मेरु की वीथियाँ, सरोवर, सरस्वती मंदिर के काल्पनिक चित्र क्षण में ही आँखों में नाच गए। ओंठ बुदबुदाए। कुछ अस्फुट रसपगे स्वर । अनदेखे दृश्यों की कल्पना कितना रोमांच भर देती है? राजपुत्री का रोम रोम सिहर उठा । पर तभी सम्मुख दीवार पर लगे दर्पण में कारु की छाया दिखी । गर्दन घुमा राजपुत्री ने कारु को देखा। 'तो तुम आ गई?"
'हाँ, स्वामिनी ।'
‘रंग तो बनाकर लाना था?"
'बनाकर ले आई रानी जू ।'
'तू कितनी दक्ष है, कारू? काश, मैं भी इतनी दक्ष हो पाती।.....देखो
अधमुँदी आँखों से यह चित्र बनाया है।'
'उत्तम है, रानी जू ।'
'देखकर बता, किसका चित्र है?"
कारु की दृष्टि धरती पर गड़ गई।
'क्या चित्र दोषपूर्ण है रे ।'
'नहीं स्वामिनी, चित्र उत्तम है। महाराज शाकम्भरीनाथ का ऐसा चित्र ..... ।'
'पर मैंने उन्हें देखा नहीं है। यह चित्र पूरी तरह काल्पनिक है, कारु ।'
'पर इसमे यथार्थ अपना बिम्ब देखता है। आपका रेखांकन......।’ 'पर अभी तो यह अपूर्ण है, कारु । मुख मण्डल का उभार........ अभी तो सभी कुछ.... I'
'आलम्ब अन्दर ही बैठा हो तो उसकी अभिव्यक्ति......।’
'तू ठीक कहती है, कारु । आलम्ब का अंतस्थ होना कितना आवश्यक है कला के लिए।'
‘आँखें देख। उनका रेखांकन ठीक हुआ है?
'कितनी मद भरी आँखें हैं, स्वामिनी ! यदि महाराज कहीं यह चित्र देख पाते।'
'मैंने सोचा था कि चित्र को रंगों से सजाऊँगी। पर मैंने अब अपना विचार बदल दिया है। केवल रेखाओं से ही चित्र को पूरा करूंगी।'
'आपका निर्णय उत्तम है, स्वामिनी ।'
'क्या तेरा कोई निर्णय नहीं होता, कारू? तू हर बात में 'हाँ' कहकर समर्थन ही करती है ।""
कारु मुस्करा उठी। उसे मुस्कराते देख संयुक्ता भी हँस पड़ी। हाथ रेखांकन पूरा करने में लग गए। कारु उसे देखती रही। संयुक्ता बार-बार अपनी आँखें बन्द करती जैसे अन्दर बसे चित्र को उतारने के लिए उसे बाँचती । फिर अधखुली आँखें रेखांकन में सहायक बनतीं। समय बीतता रहा। रेखांकन में मग्न राजपुत्री को समय का ध्यान ही न रहा । कारु भी मग्न हो चित्र देखती रही। कारु के मन में शाकम्भरी नरेश के अनेक चित्र उभरे। उसने उनके सान्निध्य में वर्षों बिताए हैं। आज वह उनसे बहुत दूर है, पर उसका मन भी उड़कर वहीं पहुँचता है। अतीत से पिण्ड छुड़ाना क्या आसान है ? रेखांकन ख़त्म होते ही राजपुत्री उठ पड़ीं। उन्होंने विभिन्न कोणों एवं दूरियों से चित्र को देखा। संतुष्ट सी होकर वे कारू की ओर मुड़ीं ।
'देख, रेखांकन ठीक हुआ है !"
'अद्भुत है, स्वामिनी' ।
'इसका यह अर्थ तो नहीं कि यथार्थ से कोई मेल नहीं?' 'नहीं स्वामिनी, चित्र महाराज का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत करता है। शायद ही कोई चित्रकार इतना सटीक चित्र बना सके।'
'तू फिर प्रशंसा में जुट गई।'
'क्षमा करें, रानी जू, चित्र अत्यन्त उत्तम है ।"
'तू कहती है तो मान लेती हूँ।'