Meri Chuninda Laghukataye - 9 in Hindi Short Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 9

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मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 9

लघुकथा क्रमांक -24

पर्दा
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"अरे अरे ....रुको ! कहाँ जा रहे हो ? जानते नहीं अब घर में नइकी बहुरिया भी आ गई है?" सुशीला ने घर के अंदर के कमरे में जा रहे रामखेलावन को आगे बढ़ने से रोका।

"अरे वही बहुरिया है न गोपाल की अम्मा, जो ब्याह के पहले स्टेज पर गोपाल के बगल वाली कुर्सी पर बैठी रही .....? अब उसमें का बदल गया है कि हम उसको देख नहीं सकते और उ हमरे सामने नहीं आ सकती ?" रामखेलावन ने कहा।

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लघुकथा क्रमांक -25


नेक काम
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गाँव में एक बार फिर हड़कंप मचा हुआ था। मुखिया के बेटे ने आज फिर एक शिकार किया था 'मुनिया ' का। दबी जुबान से चर्चा शुरू थी मुनिया से हुए बलात्कार की लेकिन किसकी मजाल थी कि मुखिया या उसके लड़के के खिलाफ कोई शिकायत करता ?

कुछ दिन बाद कल्लू के यहाँ आयी उसके दूर के एक रेिश्तेदार की लड़की 'रूबी ' शौच के लिए जाते हुए मुखिया के बेटे और उसके साथियों को दिखी।
शौच से वापस आते हुए रूबी का घात लगाकर बैठे मुखिया के बेटे और उसके तीन साथियों ने शिकार कर लिया।

चारों ने जमकर अपनी मर्दानगी दिखाई उस अबला पर, लेकिन यह क्या ? इतने अत्याचार के बावजूद वह हँस रही थी। उन दरिंदों की उम्मीद के विपरीत उसका हँसना उन्हें अखर गया।

एक लड़के ने पूछ ही लिया इसका कारण। जवाब सुनकर उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। जवाब था "मैं कल्लू की कोई रिश्तेदार विश्तेदार नहीं , सोनागाछी से आई एक वेश्या हूँ। एड्स की वजह से मेरा अंत नजदीक है, सोचा जाते जाते कोई नेक काम करती जाऊँ। तुमने मेरा नहीं, मैंने तुम लोगों का शिकार करके इन गाँववालों को तुम्हारे अत्याचारों से मुक्ति दिला दी है। अब तुम सब अपनी जिंदगी के दिन गिनना शुरू कर दो।"


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लघुकथा क्रमांक -26


बलिदान
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सेठ धनीराम का इकलौता पुत्र एक बार गंभीर बीमार पड़ा। गाँव के डॉक्टर मुखर्जी ने उसके बचने की गुंजाइश नहीं के बराबर बताई थी फिर भी उन्होंने अंतिम कोशिश के तौर पर शहर के डॉक्टर रस्तोगी को एक बार दिखा लेने की सलाह दी।

उसे इलाज के लिए शहर ले जाते वक्त धनीराम ने अपनी कुलदेवी का स्मरण कर बेटे की तबियत ठीक होने पर एक बकरे की बलि चढ़ाने की मन्नत मान ली।
संयोगवश डॉक्टर रस्तोगी का अनुभव काम आया और धनीराम का सुपुत्र धीरे धीरे ठीक हो गया। अपने बेटे की बीमारी खत्म होने से खुश धनीराम को अब अपनी कुलदेवी से मानी हुई मन्नत पूरी करनी थी।

बलि चढ़ाने की मन्नत पूरी करना कोई आसान काम नहीं था क्यूँकि उनके पूर्वजों ने कभी ऐसा नहीं किया था। लेकिन पुत्रमोह में घबरा कर उसने यह बलि देने की मन्नत मान ली थी।
बलि देने की गरज से वह एक कसाई के पास एक बकरा खरीदने गया।
कसाई ने कई बकरों को दिखाने के बाद एक हृष्ट पुष्ट बकरे की तरफ ईशारा करते हूए कहा, " सेठ जी ! वैसे तो मेरे सभी बकरे अच्छे हैं लेकिन यह जो काले रंग का बकरा आप देख रहे हैं यह उस बकरी का इकलौता बच्चा है। जाहिर है इसने बहुत दिन अकेले दूध पीया होगा, इसीलिए यह दूसरों से ज्यादा मजबूत और तंदुरुस्त नजर आ रहा है।

धनीराम ने एक नजर उस बकरे की तरफ देखा।
तभी उसके नजदीक ही उसे एक काली बकरी दिखाई पड़ी जो उसकी ही तरफ देख रही थी। धनीराम कुछ देर तक उस बकरी की तरफ देखता रहा। उसे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे बकरी उससे कह रही हो, "तुम्हारे इकलौते बेटे को बुखार ही तो हुआ था जिसकी रक्षा के लिए तुमने देवी माँ से बलि देने की मन्नत मान ली, लेकिन यहाँ तो मेरे बेटे की जिंदगी ही खत्म होनेवाली है। मैं किससे मन्नत माँगूं ? कौन मेरी सुनेगा ?"

कसाई की आवाज से धनीराम की तंद्रा भंग हुई और उसने जवाब दिया, "नहीं भाईसाहब ! अब मैंने बलि देने का विचार त्याग दिया है। जान के बदले बदले जान आज के सभ्य समाज में कहाँ जायज है ? यह पशुवत व्यवहार तो पहले नासमझी में हमारे पूर्वज किया करते थे। यदि हम भी वैसा ही करते रहे तो क्या फायदा हमारी शिक्षा दीक्षा का ?"